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राजनैतिक >> मंडी

मंडी

बृजेश शुक्ल

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :271
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5130
आईएसबीएन :81-8143-659-8

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मंडी आज के निर्मम यथार्थ का, समकालीन अर्थों में राजनीति का आँखों देखा हाल बयां करती है....

Mandi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


अनगिनत शहादतों से मिली आज़ादी के बाद देश के महानायकों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि लोकतंत्र के मंदिरों पर कभी अपराधी भी जा बैठेंगे। लेकिन अब यह  अपराधी देश की राजनीतिक दिशा व दशा को प्रभावित कर रहे हैं। वैसे प्रतीक रुप में इस उपन्यास का कथाक्षेत्र उत्तर प्रदेश सचिवालय व विधानसभा है, लेकिन यह कहानी तो कई विधान-सभाओं व संसद की भी है। यह उन हत्यारों, बलात्कारियों, लुटेरों, अपराधियों, जेबकतरों व दलालों की कथा है, जो बाद में येन-केन प्रकारेण विधायक व सांसद बन गए हैं लेकिन अपने पुराने धर्म-कर्म को नहीं छोड़ सके।

यह उन मुख्यमंत्रियों की गाथा है, जिनके लिए सत्ता बनाए रखने की बाजीगरी ही सबसे बड़ी सफलता है। सरकार चलाने की विवशता के नाम पर वे उन विधायकों की चाटुकारिता कर रहे हैं। जिन्हें जेल में होना चाहिए। यह उन विधायकों, अध्यक्षों की कथा है, जो राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम लेकर अपने आसन पर विराजे, लेकिन जल्द ही मुख्यमंत्रियों के इशारे पर सदन चलाने लगे। सारी मर्यादाएँ तोड़कर वे अपने दल के सभा-सम्मेलनों में जाते हैं। अपने एक-पक्षीय व बेईमानी-भरे निर्णयों से पद व विधानसभा जैसे सर्वोच्च संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्था की गरिमा को धूल-धूसरित कर रहे हैं।
बृजेश शुक्ल

राजनीति का गम्भीर सामाजिक आशय किस तरह आज अपनी सार्थकता गँवाकर बाज़ार की ज़रूरतों में तब्दील हो चुका है, उसका आम आदमी को लेकर सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने वाला रूपक, कैसे क्रूर और जघन्य ढेरों हाथों के चंगुल में आकर उलझ गया है—ऐसे भयावहता की शिनाख्त अपने असंभव अर्थों तक यह उपन्यास करता है।
मंडी एक प्रतीक है, उस सच का और आज के निर्मम यथार्थ का, जिसमें सत्ता और तन्त्र साँप-सीढ़ी के पुराने खेल से बहुत आगे जाकर समकालीन अर्थों में राजनीति का आँखों देखा हाल बयाँ करती है। यह देखना गहरे अचम्भे में डालती है कि राजनीति, खासकर उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में किस कदर एक साथ दिलचस्प और त्रासद है, निर्मम और हास्यास्पद है तथा भीतर से खोखली व ऊपरी सतह पर अत्यन्त विडम्बनापूर्ण ढंग से एक बन्द अन्धेरी सुरंग में जाने को विवश है।

वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ल की क़लम से निकला हुआ उनका पहला उपन्यास ही इस बात का सफलतापूर्वक नुमाइन्दगी करता है कि पत्रकारिता के जीवन में रहते हुए उन्होंने समाज और राजनीत, सत्ता, तंत्र नौकरशाही और बाज़ार की, ज़र्रा-ज़र्रा और रेशा-रेशा महीन पड़ताल की है। वे एक कुशल ज़र्राह की तरह, विचारों एवं अनुभवों के नंगे चाकू से उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का जिस बेबाकी से पोस्टमार्टम करते है, वह इस उपन्यास में देखने लायक है।
राजनीति के दाँवपेचों को पारदर्शी ढंग से उघाड़ने का जतन में, नौकरशाही और सत्ता के समीकरण को उसके नंगेपन तक पहुँचने में तथा चुनावी माहौल और उससे उपजी सरगर्मी को एक सिद्ध किस्सागो की आवाज़ में सुनाने में, वे हमें अपनी लेखकीय यात्रा में, हर दूसरे क़दम पर चौंकाते हैं, हतप्रभ करते हैं और एक निश्चित बिंदु पर ले जाकर आश्वस्त भी करते हैं।
‘मंडी’ अपने शिल्प में, साफगोई एवं जीवन्त भाषा-शैली में हिन्दी के इधर के उपन्यासों में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है। एक पत्रकार की संतुलित और पैनी निगाह से रचा गया यह उपन्यास अपने कथानक और गठन में एक सुन्दर राजनीतिक दस्तावेज़ बन पड़ा है।

बृजेश शुक्ल यहाँ एक पत्रकार की हैसियत से नहीं, बल्कि एक उपन्यासकार के रूप में अपने निर्मम यथार्थ से, एवं पाठकों से ज़िरह करने के लिए रूबरू हैं।
यतीन्द्र मिश्र

समर्पण


पूज्य नाना स्व. कालीचरण वाजपेयी व माँ समान मौसी स्व. सुमन लता मिश्रा को समर्पित जिन्होंने बताया ईमानदारी से बड़ी नेमत दुनिया में और कोई नहीं।

मंडी

1


सचिवालय के शिक्षा अनुभाग को देखकर लगता ही नहीं कि यह कोई सरकारी दफ्तर है। पूरे कक्ष में बिखरी फाइलें। मेजों पर बैठे बाबुओं की पैनी निगाहें। हर उस शख्स की गहराई से पढ़ती-समझती हैं जो वहाँ दाखिल होता है। आगंतुकों की मजबूरी को तलाशती निगाहें। पदनाम और वेतन बढ़ोत्तरी की चिंता। कभी-कभी लगता है कि यहाँ सट्टा चल रहा है। दो-दो, चार-चार, सोलह-सोलह। देखो पूरे चार सौ का अन्तर आ रहा है। अपने-अपने वेतनमान का आकलन करने में जुटे बाबू अधिकारी। छत से लटकते मोटे-मोटे जाले जो अब चमगादड़ होने का एहसास कराते हैं।
इसी कक्ष की एक मेज पर ऊँची-ऊँची रखी फाइलों के ढेर में दुबके डीडी। डीडी यानी दीनदयाल द्विवेदी। डीडी को आखिर कौन नहीं जानता। डीडी वह शख्स है जिनकी प्रतिभा को लोहा बड़े-बड़े मंत्री भी मानते हैं। डीडी के बारे में मशहूर है कि उन्होंने जो सोचा वही किया।

मुख्यमंत्रियों तक की तमाम सिफारिशें कबाड़खाने की शोभा बढ़ा रही हैं। इन बेचारों की गलती यह थी कि वे डीडी को चुनौती देकर सीधे मुख्यमंत्री व मंत्री तक जा पहुंचे थे। सफेद बुशर्ट शर्ट और सफेद पैंट। इसके अलावा डीडी ने कुछ नहीं पहना। गोल चेहरा और उस पर गोल्डेन फ्रेम का चश्मा। बीच में गोल सिंदूर की बिंदी। डीडी देवी भक्त हैं और दो घंटे की लंबी पूजा के बाद वह पान की तमाम पुड़िया लिए अपने आसन पर विराजते हैं। वह कविता भी लिखते हैं।
जब कवि सम्मेलनों में जाते हैं तो वह दीनदयाल द्विवेदी ‘देव’ हो जाते हैं। अब उन्हें डीडी नाम किसने दिया यह पता करना कठिन है। लेकिन सचिवालय के उन इने-गिने अधिकारियों में उनका नाम है, जिनकी घाघगिरी के किस्से सचिवालय के दरो-दीवार भी जानते हैं। कई अनुभागों का भ्रमण करते हुए डीडी शिक्षा अनुभाग भेज दिए गए। फाइलें वह कम ही देखते हैं। ज्यादा समय वह कविताएँ लिखने वह उनको बिगाड़ने में लगाते हैं। इन्हीं फाइलों के बीच दुबके डीडी कुछ लाइनें लिखते हैं। फिर उन्हें काट देते हैं फिर नई लाइन लिखते हैं।

कविता का यह सृजन उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा  बन गया है। लेकिन इसके बावजूद उनकी सतर्क निगाहें फाइलों के बीच से सबको ताड़ती रहती हैं। मजाल नहीं कि बिना उनकी अनुमति के फाइल में कोई चिड़िया भी बैठा दे।
इसी अनुभाग के रामपाल अपनी जगह से उठे और टहलते हुए डीडी की टेबुल के पास पहुँचे। पैनी नजर डीडी पर डाली। देखा कि वह व्यस्त हैं कविताएँ लिखने में। रामपाल कुछ निश्चित हुए। उनसे झाँसी से कुछ लोग मिलने आए हैं। किसी स्कूल की मान्यता की फाइल है जो काफी समय से दबी पड़ी थी।

डीडी ने देखा कि रामपाल उनकी टेबुल के पास आया और फिर जाकर अपनी टेबुल के पास बैठ गया। उनकी अनुभवी आंखों ने रामपाल की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी। फाइलों के बीच से वह झाँककर देखते रहे। झाँसी से आए लोगों ने पैंट की जेब से कुछ निकाला और रामपाल को थमा दिया। हाथों व आँखों के इशारे से वह समझ गए कि रामपाल आखिर उन्हें झाँकने क्यों आया था।

उन्होंने तुरन्त रामपाल को तलब किया, ‘‘रामपाल जरा इधर आना.’’
रामपाल डीडी के पास पहुँचे। डीडी ने छूटते ही पूछा, ‘‘ये लोग क्यों आए थे तुम्हारे पास, कौन थे।’’ मासूम चेहरा बनाकर रामपाल ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, एक फाइल के विषय में पूंछने आए थे।’’
‘‘तो बता दिया’’—डीडी बोले।
रामपाल—‘‘हाँ बता दिया।’’
अब डीडी ने तेवर दिखाने शुरू किए। डीडी ने अपने बारे में व्याख्याएँ शुरू कीं जो सचिवालय के ज्यादातर लोग जानते ही थे। वह बोले, ‘‘हमें बेवकूफ बनाते हो, क्या ले लिया है, सौ-दो-सौ रुपये बस ना ? क्यों नाक कटवाने पर तुले हो ? विभाग की बदनामी करवा रहे हो।’’

रामपाल परेशान हो गए। सोचने लगे कहाँ ये परेशानी मोल ले ली।
डीडी बोलते जा रहे थे—‘‘तुम्हें समझ में नहीं आता कि इससे कितनी बदनामी होती है। हम जिस विभाग में रहे है, वहां पर लोगों को हैसियत में रखा। इसके पहले जब मैं गृह विभाग में गया था, तो वहाँ लोग दो-दो सौ की घूस लेते थे। लेकिन मैंने इस टुच्चई को बंद करवा दिया। अब गृह विभाग में कोई भी पाँच हजार से कम नहीं लेता। यह हनक होनी चाहिए। लेकिन तुम सब बिगाड़ने में लगे हो। इस विभाग का भी यही हाल था। पचास-पचास, सौ-सौ रुपये लोग दे जाते थे। अब कोई भी पाँच हजार से नीचे बात नहीं करता। रामपाल जिंदगी के कुछ उद्देश्य बनाओ। तुम अपनी पुरानी आदतों से बाज नहीं आओगे। किस अनुभाग में हैं हम।’’ डीडी ने सवाल पूछा।
‘‘शिक्षा विभाग में सर।’’ रामपाल ने कहा।

फिर डीडी ने उन तमाम बाबुओं पर निगाह डाली जो डाँट-डपट को सुनकर वहीं पर आ खड़े हुए थे। तमासा देखने वालों में सजीवन भी था, जो उसी विभाग में चपरासी है। डीडी ने उपस्थित सभी बाबुओं को बताया—‘‘ज्यादा कल्याण न करो इन शिक्षा के ठेकेदारों का। जानते हो ये तो यहाँ पर मान्यता लेने आते हैं। जाओ इनके स्कूल जाओ। किसी बच्चे का एडमिशन कराने के ये कई हजार रुपये लेते हैं। हर महीने की फीस दो हजार लेते हैं। हम तो देखते हैं न। बेचारे गरीब आदमी इनके तलवे चाटा करते हैं और फीस कम कराने के लिए। एक पैसा नहीं छोड़ते। बहुत बेचारे तो बच्चों को स्कूल ही छुड़वा देते हैं। हमारे मंत्री जी का नारा सुना है कि नहीं सुना—‘‘भेद-भाव अब नहीं सहेंगे, कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ेंगे।’’ तुम इन शिक्षा के ठेकेदारों की मदद करने में जुटे हो। बोलो रामपाल बोलो तो।’’
‘‘वो सर मेरे रिश्तेदार थे।’’

‘‘रिश्तेदार थे ?’’
‘‘हाँ सर !’’
डीडी खिलखिलाकर हँसे। ‘‘अब बताओ। ये अपने रिश्तेदारों से भी घूस ले लेते हैं।’’
रामपाल बेचारे रंगे हाथ पकड़ लिए गए थे। चुपचाप खड़े थे। वह क्या जानते थे कि डीडी कविता नहीं लिख रहे हैं, जासूसी कर रहे हैं। मन ही मन डीडी को गाली दे रहे थे। जब से आया है आमदनी कम हो गई है। पहले इधर-उधर से झटक लेते थे। ये तो दुश्मन आ गया है लेकिन इससे लड़ाई ठीक नहीं है। रामपाल ने चुप रहना ही उचित समझा। सोचा हे भगवान किसी तरह डीडी से सभा का समापन करे !
अब डीडी ने निर्देश जारी किया—‘‘यदि कोई व्यक्तिगत समस्या है तो मेरे पास ले आओ। किसी भी मामले पर पचास हजार रुपये से कम नहीं लिया जाएगा। हमने यह नियम लागू कर दिया है। यहाँ आने वाला हर आदमी खुश है। मंत्री भी खुश हैं और अधिकारी भी। काम तो तेजी से होता है। विभाग की इज्जत बना दी है। लेकिन तुम्हारे जैसे लोग इस इज्जत को ही मिट्टी में मिला देना चाहते हैं।’’

‘‘सर !’’
‘‘अब बताओ तुमने कितना पैसा लिया है।’’
‘‘बस दो सौ रुपये लिए हैं।’’ रामपाल ने बताया।
कानून तोड़ने के लिए डीडी ने रामपाल पर जुर्माना ठोंक दिया। दो सौ रुपये घूसवाले निकलवाए और दो सौ रुपये जुर्माना। सबके लिए मिठाई मँगवाई और चाय भी।
रामपाल ने कसम खा ली कि अब वह टुच्चई वाले काम नहीं करेंगे। यदि कोई देगा तो पचास हजार से कम नहीं लेंगे। यह पैसा भी डीडी लेंगे और कोई नहीं।

वैसे तो इस अनुभाग में हजारों फाइलें पड़ी हुई हैं। तमाम फाइलों में मुख्यमंत्रियों के आदेश हैं—‘‘तत्काल करके बताया जाए।’’ कई फाइलों पर मुख्यमंत्री ने ही लिखा—‘‘इस पर तुरंत कारवाई हो।’’ कई मामलों में मुख्यमंत्री ने ही रिपोर्ट माँगी है लेकिन मुख्यमंत्री चले गए। फाइलें किसी अनुभाग में दफन हो गईं हैं। कई मामलों पर विधानसभा और विधान परिषद में हंगामा हो चुका है। जिन मामलों में कोई पैरवी नहीं थी लेकिन जिन लोगों ने दाम खर्च कर दिया उनकी फाइलें अपने आप भागीं। तमाम नियम और कानून दफन कर बहुत स्कूल मान्यता पा गए।
चतुर सुजान लोग जानते हैं—सचिवालय में फाइलें बिना पैसे के नहीं चलती हैं। ये लक्ष्मी के उल्लू पर आरुढ़ होकर ही आगे बढ़ती हैं।

इस रहस्य को जो समझ गए, वे मजा काट रहे हैं, जो नहीं समझे, वे वर्षों से मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के यहाँ जूतियाँ घिस रहे हैं।
डीडी ने अपने अनुभाग के बाबुओं को व्यवस्था ठीक करने का उपदेश दे रहे थे, तभी एक सज्जन आ धमके। देखने में लग रहे थे कि पैसे वाले आदमी हैं। शानदार सोने की कलाई घड़ी उतने ही अच्छे कपड़े। चारों तरफ नजर दौड़ाई। रामपाल से ही पूछा ‘‘डीडी साहब कहाँ मिलेंगे।’’
पहले से ही चिढ़े बैठे रामपाल ने डीडी की ओर इशारा किया—‘‘वो देखो टीका लगाये बैठे हैं।’’
आगंतुक डीडी के पास पहुँचा। डीडी ने उनको ऊपर से नीचे तक गौर से देखा और पूछा, ‘‘कहाँ से आए हो।’’
‘‘सर मैं अनिल भारद्वाज। चौबे साहब ने मुझे भेजा है। आपसे बातचीत हुई होगी। गाजियाबाद से आया हूँ।’’
‘‘हाँ-हाँ कल रात फोन आया था। हाँ बताओ क्या बात है।’’ डीडी ने पूछा।
अनिल बोला, ‘‘मेरे स्कूल को सीबीएसई की मान्यता लेनी है। इसके लिए एनओसी लेने के लिए दौड़ रहे हैं। छह महीने हो गए हैं। बड़ी मुश्किल से फाइल यहाँ तक भिजवा पाया हूँ।’’
‘‘फाइल आ गई यहाँ ?’’ डीडी ने पूछा।

‘‘हाँ सर फाइल आ गई है। कुछ दिन पहले ही आ गई थी।’’
डीडी ने सामने रखी पान की पुड़िया खोली, पान निकाला उसको मुँह में दबाकर पत्ते पर लगे चूने को उँगली में लगाया। थोड़ा चूना खाकर शेष चूने को मेज के कोने से पोंछते हुए व्यंग्य से मुस्कराये और कहा, ‘‘बहुत दौड़ना पड़ा तुम्हें।’’
‘‘सर बहुत परेशान हो गया।’’
डीडी फिर मुस्कराये, ‘‘तुम लोग भी तो कमाल के आदमी हो। हथेली पर सरसों जमाना चाहते हो। अरे भाई हथेली में भी सरसों जम जाएगी। लेकिन इसके लिए खाद-पानी ज्यादा डालना पड़ेगा।’’
‘‘वह सब डालने के बाद भी इतना दौड़ना पड़ा।’’

डीडी ने जमाने को कोसा और व्यवस्था को भी। ‘‘क्या जमाना आ गया है। साले पैसा लेकर भी काम नहीं करते हैं। बड़े बदमाश लोग हैं। अरे भई पैसा लेकर  काम तो करो ठीक ढंग से।’’
अनिल जान गए कि डीडी और भी छटा खिलाड़ी है। अभी तक तो वह मछलियों से जूझ रहे थे। असली मगरमच्छ यही है।
‘‘सर जल्दी करवा दीजिए। नया सत्र नजदीक आ गया है। सीबीएसई बोर्ड के नाम पर ही मैंने छात्रों की भर्ती की थी। यदि मान्यता न मिली तो अभिवावक बहुत पीटेंगे।’’

डीडी ने पूछा, ‘‘डीआईओएस के यहाँ कितना पैसा दिया ?’’
‘‘सर 15 हजार रुपया।’’ अनिल ने बताया।
‘‘जेडी के यहाँ कितना दिया ?’’ डीडी ने नया सवाल दाग दिया। ‘‘सर जेडी ने बहुत रुपया ले लिया।’’ एक लाख रुपया ले लिया।’’ अनिल ने बताया।
डीडी भुनभुनाए, ‘‘देखो भारद्वाज इन सालों को कुछ नहीं करना था। तब इतना रुपया लिया। अब असली काम हमें करना है। यह तो सचिवालय है।’’
‘‘सर फाइल ही नहीं बढ़ा रहे थे।’’
‘‘बड़े बदमाश हैं।’’
‘‘हाँ सर।’’
‘‘बेईमान भी बहुत हैं।’’

‘‘बहुत बड़े सर।’’
‘‘देखो कितना पैसा ले लिया।’’
‘‘सर बहुत ले लिया।’’
‘‘लेकिन उन्हें कुछ काम नहीं करना था।’’
‘‘अच्छा सर।’’
‘‘अब देखो मैं जुटता हूँ इसमें।’’
अब डीडी असली बात पर आए, ‘‘देखो अनिल बुरा मत मानना। भ्रष्टाचार की छोटी-छोटी नदियाँ-नाले सचिवालय के इस महासमुद्र में आकर गिरते हैं। इसे भ्रष्टाचार का महासमुद्र समझो। यहाँ चपरासी से लेकर मंत्री तक सभी को खिलाना पड़ता है। बहुत से ऐसे भी हैं, जो नहीं खाते। जैसे मैं ही पैसा नहीं लेता।


 

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