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कहावतों की कहानियाँ

राधाकांत भारती

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5146
आईएसबीएन :81-88267-50-3

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उद्बोधन और सामाजिक व्यवहार में अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए लोकोक्ति या कहावत का विशेष महत्त्व है...

Khavaton Ki khaniyaan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में अपने लेखन से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी इस पुस्तक से हिंदी में एक नवीन विधा के लेखन का प्रारंभ हो रहा है। मेरी जानकारी में इस प्रकार की विषय-वस्तु पर संकलित हिंदी में कोई पुस्तक नहीं है।

प्रस्तुत संग्रह में कहावतों और मुहावरों के संकलन के साथ ही उनकी पृष्ठभूमि के उल्लेख का लेखक का प्रयास स्तुत्य है।
कहावतों और मुहावरों की पृष्ठभूमि से पाठकगण अवगत होकर अपने ज्ञान की वृद्धि करेंगे और उनके उपयोग की सार्थकता को समझेंगे। आशा है, हिंदी-जगत् के द्वारा पुस्तक का स्वागत किया जाएगा।

 

डॉ. विजय नारायण मणि त्रिपाठी
पूर्व मुख्य संपादक, विधि एवं न्याय मंत्रालय
भारत सरकार, नई दिल्ली

 

अपने साहित्यकार मित्र राधाकांत भारती द्वारा रचित प्रकाशनार्थ पांडुलिपि देखी, अच्छी लगी। गाँव या नगर, विद्वान या अनपढ़, सभी अपने वार्त्तालाप में प्रायः कहावतों का उपयोग करते हैं। लेकिन इनके उद्भव के बारे में बहुत कम लोगों को ही ज्ञात होता है। श्री भारती द्वारा रचित यह पुस्तक लोकप्रिय साहित्य में एक अभाव की पूर्ति करेगी।
इस दिशा में ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए लेखक धन्यवाद के पात्र हैं। विश्वास है, हिंदी के पाठक इस पुस्तक का सहर्ष स्वागत करेंगे।

 

ललितेश्वर प्रसाद शाही

 

भूमिका

कहावतों के सहारे अपना कथन

 

ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक कहावत के पीछे कोई-न-कोई घटना या कथा मौजूद है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी रहती है। इस प्रकार की जानकारी हो जाने पर कहावतों के उपयोग में सरलता और सहजता आएगी, साथ ही वह सटीक भी लगेगी।

कहावत या लोकोक्ति का प्रचलन कब और कैसे हुआ, इसके बारे में निश्चत रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता; किंतु पढ़े-लिखे महाज्ञानी से लेकर अनपढ़ तक, शहर से गाँव तक और हर जाति, वर्ग एवं समुदाय में कहावतों का प्रचलन रहा है। निश्चित यह है कि भाषा के साथ ही सटीक अभिव्यक्ति के रूप में इसका प्रचलन बना रहेगा। कहावत और मुहावरे के बीच अंतर को लेकर लोगों में भ्रांतियाँ हैं। इस अंतर को ठीक से न समझने की वजह से एक को दूसरे वर्ग का मान लिये जाने की भूल भी हुआ करती है। हालाँकि कहावतों और मुहावरों में अधिक अंतर नहीं है, फिर भी दोनों में मूलभूत अंतर है।

कहावतों का संबंध लोकजीवन में घटी किसी घटना से हुआ करता है, जिसे कालांतर में वैसे ही प्रसंग आने पर उदाहरण के रूप में कहा जाता है। कहावत अपने आप में एक पूर्ण उक्ति है, जबकि मुहावरें का उपयोग किसी वाक्य को साथ लेकर ही किया जा सकता है। लेकिन कालक्रम से कई कहावतें मुहावरों के रूप में तथा कई मुहावरे कहावतों के रूप में प्रचलित हो गए हैं।

कोई भी भाषा मानव अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ अभिव्यक्ति के इन माध्यमों का भी विकास होता रहा है। भाषा के माध्यम से की जानेवाली अभिव्यक्ति के समृद्ध, बोधगम्य तथा अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक प्रकार के प्रयास किए जाते रहे हैं। उद्बोधन और सामाजिक व्यवहार में अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए लोकोक्ति या कहावत का विशेष महत्त्व है। इसके उपयोग से लोक-व्यवहार तथा अभिव्यक्ति में प्रभाव, मार्मिकता तथा अनूठापन आता है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘कहावतों की कथाएँ’ के माध्यम से मैं सुविज्ञ पाठकों के मन को छू पाने का प्रयास कर रहा हूँ, इस प्रयास में कहाँ तक सफलता मिलती है यह तो सुधी पाठक ही बातएँगे। प्रसंगवश उल्लेख करना चाहूँगा कि नालंदा के पास नदी किनारे के पिछड़े गाँव से राजधानी ‘नई-दिल्ली’ आकर देश-विदेश की यात्रा के उपरांत लेखक को लोक-व्यवहार के साथ विभिन्न प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव हुए हैं। इसी दौरान कहावतों तथा उनसे संबंधित कई घटनाओं की जानकारी मिलती रही-जिसने इस पुस्तक-लेखन के लिए प्रेरित किया।

इस कार्य को मूर्त रूप देने में मेरे अभिन्न मित्र डॉ. सूर्य प्रकाश पुरी, डॉ. विजय नारायण मणि, पूर्व मंत्री एल.पी. शाही, योगेशजी, आचार्य नित्यानंद तिवारी, प्रचार्य रत्नाकर पांडे तथा प्रो. अमरनाथ सिन्हा का स्नेह सौजन्य रहा है।
अंत में समालोचकों को आगाह करना चाहूँगा कि अपनी पारखी नजर इधर भी डालने की कृपा करें। फिर भी गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कहना चाहूँगा कि-

‘जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।।’

हिंदी दिवस, 2006
राधाकांत भारती


1
अंगूर खट्टे हैं

 

यह बड़ी मशहूर कहावत है। इसका एक दूसरा रूप है-‘खट्टे अंगूर कौन खाए ?’
जंगल में भूख से व्याकुल एक लोमड़ी भागकर अंगूर के बाग में पहुँची। वहाँ अंगूर गुच्छों में लटक रहे थे, पर थे काफी ऊँचे। लोमड़ी बहुत उचक और उछलकर भी गुच्छों तक न पहुँच पाई। कोई सियार यह सब देख रहा था। उसने पूछा, ‘‘बूआ, क्या बात है ?’’
अपनी असमर्थता छिपाने के लिए वह बोली, ‘‘अंगूर खट्टे हैं।’’
संस्कृत में कहा गया है-
‘‘अशक्तस्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुवर्तते।’’
-कोई पद पाने में असमर्थ होने पर उसकी बुराई करते हैं।

 

2
अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी, टके सेर खाजा

 

काशी-तीर्थयात्रा की वापसी में एक गुरु और शिष्य किसी नगरी में पहुँचे। नाम उसका अंधेर नगरी था। शिष्य बाजार में सौदा खरीदने निकला तो वहाँ हर चीज एक ही भाव-‘सब धान बाइस पसेरी।’
भाजी टका सेर और खाजा (एक मिठाई) भी टका सेर। शिष्य और चीजें खरीदने के झंझट में क्यों पड़ता ? एक टके का सेर भर खाजा खरीद लाया और बहुत खुश होकर अपने गुरु से बोला, ‘‘गुरुजी, यहाँ तो बड़ा मजा है। खूब सस्ती हैं, चीजें, सब टका सेर। देखिए, एक टका में यह सेर भर खाजा लाया हूँ। हम तो अब कुछ दिन यहीं मौज करेंगे। छोड़िए तीर्थयात्रा, यह सुख और कहाँ मिलेगा ?’’

गुरु समझदार थे, बोले, ‘‘बच्चा, इसका नाम ही अंधेर नगरी है। यहाँ रहना अच्छा नहीं, जल्दी भाग निकलना चाहिए यहाँ से। वैसे भी, साधु का एक ठिकाने पर जमना अच्छा नहीं। कहा है, ‘साधु रमता भला, पानी बहता भला।’’
पर शिष्य को गुरु की बात नहीं भाई। बोला, ‘‘अपने राम तो यहाँ कुछ दिन जरूर रहेंगे।’’

गुरु को शिष्य को अकेले छोड़ जाना उचित नहीं लगा। बोले, ‘अच्छा, रहो और कुछ दिन। जो होगा, भुगता जाएगा।’’
अब तक शिष्य अंधेर नगरी का सस्ता माल खा-खाकर खूब मोटा हो गया। उन्हीं दिनों एक खूनी को फाँसी की सजा हुई थी। पर वह अपराधी बहुत दुबला-पतला था। फाँसी का फंदा उसके गले में ढीला था। इस समस्या से निजात पाने के लिए राजा ने कहा कि जिसकी गरदन मोटी हो, उसे ही फाँसी लगा दो। अंधेर नगरी ही जो ठहरी। हाकिम ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि जो मोटा आदमी सामने मिल जाए, उसी को फाँसी लगा दो। एक खून के बदले में किसी एक को फाँसी होनी चाहिए। इसकी हो या उसकी, किसी की भी हो-‘जीव के बदले जीव।’

सिपाही मोटा व्यक्ति खोजने चले तो वही मोटा शिष्य सामने पड़ा। वह हलवाई के यहाँ खाजा खरीद रहा था। सिपाही उसे ही पकड़कर ले चले। गुरु को खबर लगी, वह दौड़े आए। सब बातें लोगों से मालूम कीं। एक बार तो उनके मन में आया कि इसे अपनी बेवकूफी का फल भोगने दें, पर गुरु का हृदय बड़ा दयालु था। सोचा, जीता रहेगा तो आगे समझ जाएगा। सिपाहियों के पास जाकर बोले, ‘‘इस वक्त फाँसी चढ़ने का हक तो मेरा है, इसका नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘इस वक्त कुछ घंटों के मुहूर्त में फाँसी चढ़कर मरनेवाला सीधा स्वर्ग जाएगा। शास्त्र में गुरु के पहले शिष्य को स्वर्ग जाने का अधिकार नहीं है।’’
शिष्य गुरु की चाल समझ गया चिल्ला उठा, ‘‘नहीं गुरुजी, मैं ही जाऊँगा। सिपाहियों ने मुझे पकड़ा है। आपको पकड़ा होता तो आप जाते।’’
इसी एक बात पर दोनों ने परस्पर झगड़ना शुरू कर दिया। सिपाही हैरान थे। भीड़ इकट्ठी हो गई। फाँसी चढ़ने के लिए झगड़ना-वहाँ के लोगों के लिए यह एकदम नई बात थी।

जल्दी ही यह बात राजा के कानों तक पहुँची। राजा ने कहा, ‘‘यदि ऐसा मुहूर्त है तो सबसे पहला अधिकार तो राजा का ही होता है और उसके बाद क्रम उसके उच्चाधिकारियों का।’’
गुरु-शिष्य बहुत चिल्लाए कि साधु के रहते स्वर्ग में जाने का अधिकार किसी दूसरे को कदापि नहीं है; पर किसी ने एक न सुनी। सबसे पहले राजा और फिर एक-एक करके कई मंत्री अधिकारी फाँसी पर चढ़ गए। गुरु ने सोचा कि अब ज्यादा मनुष्य-हत्या नहीं होनी चाहिए, तो अफसोस करते हुए बोले-‘‘अब तो स्वर्ग जाने का मुहूर्त समाप्त हो गया।’’ इसके बाद फिर कोई फाँसी न चढ़ा।

तभी गुरु ने शिष्य के कान में कहा, ‘‘अब यहाँ से जल्दी से निकल भागना चाहिए। देख लिया न तुमने कि अंधेर नगरी में कैसे-कैसे बेवकूफ बसते हैं ?

 

3
अंधों का हाथी

किसी गाँव में चार अंधे रहते थे। उन्होंने गाँव में हाथी आने की खबर सुनी। वे रास्ता पूछते-पूछते हाथी के पास पहुँचे। महावत से बोले, ‘‘भैया, जरा हाथी को कब्जे में रखना, हम उसे टटोलकर देखेंगे।’’
महावत ने सोचा-इसमें मेरा क्या बिगड़ता है, इन अंधे गरीबों का मन रह जाएगा। बोला, ‘‘खुशी से देखो।’’
अंधे हर चीज को हाथ से टटोलकर ही देखते हैं। एक ने अपना हाथ बढ़ाया तो हाथी के कान पर पड़ा। बोला, ‘‘हाथी तो सूप की तरह होता है।’’

दूसरे का हाथ उस हाथी के पाँव पर पडा। बोला, ‘‘नहीं, हाथी खंभे सा होता है।’’
तीसरे के हाथ के सामने सूँड़ आई। उसने कहा, ‘‘नहीं-नहीं, वह तो मोटे रस्से जैसा होता है।’’
चौथे का हाथ हाथी के पेट पर पड़ा। वह कहने लगा, ‘‘तुम सब गलत कहते हो, हाथी तो एकदम मशक सा होता है।’’

चारों अपनी-अपनी बात पर अड़ गए और लगे लड़ने-झगड़ने। हर एक अपनी ही हाकता, दूसरे की नहीं सुनता था। एक समझदार आदमी पास खड़ा-खड़ा इनकी सब हरकतें देख-सुन रहा था। उसने अपने मन में लड़ाई का बड़ा अच्छा नतीजा निकाला कि दरअसल, हर एक अपनी-अपनी जगह पर सही है, बशर्ते कि इनकी समझ में आ जाए कि हमने पूरे हाथी को नहीं, हाथी के सिर्फ एक अंग को ही देखा है। फिर तो सारा झगड़ा समाप्त हो जाए। इसलिए पूरी बात नहीं समझ पाने पर लोग ‘अंधों का हाथी’ कहते हैं।

 

4
अढ़ाई दिन की बादशाहत

 

 

एक बार हुमायूँ बादशाह लड़ाई में हार गया। वह जान बचाने के लिए अपने घोड़े सहित बक्सर के पास गंगा नदी में कूद पड़ा। घोड़ा जाँघ तले से निकल गया। बादशाह गोते खाने लगा। देखा कि किनारे पर निजाम नाम का भिश्ती नदी में मशक भर रहा है। जान बचाने को बादशाह ने पुकारा। बादशाह को वह पहचानता था। जवाब दिया, ‘‘अढ़ाई दिन के लिए मुझे बादशाह बनाइए तो मैं आपको बचाऊँ।’’

हुमायूँ ने तुरंत शर्त मंजूर कर ली। अढ़ाई दिन के लिए वह बादशाह हुआ। कहते हैं, उस बीच उसने अपनी बादशाहत की यादगार में चमड़े का सिक्का चलाया, जिसमें सोने की एक कील थी। तभी से यह कहावत प्रचलित हो गई।


5
अपने किए का क्या इलाज ?

 

 

गाँव के एक किसान को पास के जंगल में रहनेवाली एक लोमड़ी पर बड़ा गुस्सा आया। वह लोमड़ी जब-तब और रात-बिरात उसकी बतख और मुरगियों को खा जाती थी। कई दिन घात में बैठे रहने के बाद उसने एक दिन लोमड़ी को फँसाया और पकड़ लिया। खूब कड़ी सजा देने के खयाल से किसान ने उसकी पूँछ में ढेर सा चिथड़ा लपेटा और तेल से तर करके तथा आग लगाकर उसे छोड़ दिया। लोमड़ी बड़े जोर से भागी।
किसान के खेत में गेहूँ की पकी फसल खड़ी थी-बस कटने की ही देर थी। परेशान लोमड़ी खेत की ओर भागी। लोमड़ी की पूँछ से आग लगाकर उसका सारा खेत जलकर खाक हो गया। किसान ने सिर पीट लिया, पर दोष किसे दे ? ‘‘अपने किए का क्या इलाज।

 

6
आओ मियाँजी, छप्पर उठाओ

 

 

एक मियाँजी यात्रा करते हुए गाँव के किसी किसान के घर रुक गए। मियाँ बातें बनाने में बढ़े-चढ़े थे, पर काम में निरे आलसी। वे किसान के दालान में बैठ पान लगा-लगाकर खाते रहे। उस दिन किसान को अपना छप्पर उठवाना था। देहात में छान (छप्पर) बहुत बड़ी न हुई तो जमीन पर बना ली जाती है, फिर उठाकर ऊपर रख देते हैं। उसके उठाने में पाँच-दस आदमी लगते हैं। काम दस मिनट का होने पर भी जरा मेहनत का होता है। एक मुहावरा भी है-‘‘इतने आदमियों को बुला रहे हो, कोई छान उठवानी है ?’’ किसान ने मियाँजी से कहा, ‘‘आओ, मियाँजी, छान उठवाओ।’’

मियाँजी बोले, ‘‘हम बूढ़े हैं, कोई जवान बुलाओ।’’
छप्पर (छान) तो उठ ही गई। खाने का वक्त होने पर किसान ने मियाँजी से कहा, ‘‘आओ मियाँजी, खाना खाओ।’’ वह तुरंत तैयार हो गए। बोले, ‘‘लाओ, हाथ धुलाओ।’’
मियाँजी ने खाने के वक्त नहीं कहा कि हम बूढ़े हैं, कोई जवान बुलाओ।
इससे मिलता-जुलता एक दोहा है-
रामभजन को आलसी, भोजन को हुसियार।
तुलसी ऐसे नरन को, बार-बार धिक्कार।।

 

7
आता हो तो हाथ से न दीजिए

 

 

किसी व्याध ने जंगल में एक तीतर फँसाया। तीतर ने सोचा-यह पापी मेरी जान लेकर छोड़ेगा; परंतु अक्ल लगाकर जान बचाने की कोशिश तो करनी चाहिए।

उसने व्याध से पूछा, ‘‘तुम मेरा क्या करोगे ? मान लो कि बेचोगे, तो मुश्किल से मेरे बदले में चार-पाँच रुपए मिलेंगे। मारोगे तो सिर्फ पंख-ही-पंख हाथ लगेंगे। यदि पालोगे, तो भी एक-न-एक दिन मृत्यु हमारा वियोग करा ही देगी। लेकिन तुम मुझे छोड़ देने का वादा करो तो मैं तुम्हें तीन ऐसी नसीहतें दे सकता हूँ कि जिनमें प्रत्येक का मोल लाख-लाख रुपए है।’’
व्याध ने कहा, ‘‘बतलाओ, मैं तुम्हें जरूर छोड़ दूँगा।’’
तीतर बोला-
‘‘पहली नसीहत सुन-    बात कोई भी हजार सुनाए।
                    कीजिए वही, जो समझ में आए।।
दूसरी नसीहत-             काबू हो तो कीजिए न गफलत।
                    संकट में हों तो हारिए न हिम्मत।।
तीसरी नसीहत-            आता हो तो हाथ से न दीजिए।
                    जाता हो तो उसका गम न कीजिए।।’’

व्याध ने ज्यों ही ‘जाता हो तो गम न कीजिए’ सुना कि उस तीतर को छोड़ दिया।
तीतर तुरंत उड़कर पेड़ पर जा बैठा और बड़ी आजादी से व्याध से कहने लगा, ‘‘मैंने जो तीन नसीहतें तुझे बतलाई हैं, उनके उदाहरण भी दे देना चाहता हूँ। देख, मैं कैसी आफत में था, पर मैंने हिम्मत न हारी और अपनी बातों के बल पर तेरे चंगुल से छुटकारा पा लिया। तू गफलती और अभागा है कि बातों में आकर मेरे जैसे बहुमूल्य पक्षी को छोड़ दिया। मेरे पेटे में एक लाख कीमत का एक लाल है।’’

इसपर बहेलिया अफसोस कर हाथ मलने लगा। उसने तीतर को फिर पकड़ना चाहा। पर वह उड़कर पेड़ की ऊपरी टहनी पर जा बैठा और बोला, ‘‘मूर्ख, तू मेरी पहली नसीहत पर ध्यान देता तो मेरी बातों में न आता और दूसरी पर ध्यान देता तो मुझे छोड़ता ही नहीं। अब जरा अक्ल से काम ले कि तीतर के पेट में लाल कहाँ से आया ! मेरी बातों में आकर तूने मुझे छोड़ दिया और फिर मेरी ही बात से मुझे पकड़ने को खड़ा हो गया। अपनी अक्ल से काम लेना सीख। जो कोई कुछ कहेगा, उसी पर चलने लगेगा तो तेरा मनोरथ कभी सफल नहीं हो सकेगा।

 

8
आप डूबे तो जग डूबा

 

 

एक आदमी नदी में स्नान करते-करते गहरे उतर गया। वह तैरना नहीं जानता था, अत: पानी में डूबने लगा। चिल्लाया, ‘‘अरे, मुझे निकालो, नहीं तो जग डूबा।’’ पुकार सुनकर एक तैराक आगे बढ़ा और उसे बचा लाया। डूबनेवाले के होश में आने पर लोगों ने उससे पूछा, ‘‘तुम जो चिल्ला रहे थे कि ‘मुझे निकालो, नहीं तो जग डूबा’ इसका क्या मतलब था ?

 तुम्हारे एक के डूबने से जग कैसे डूब जाता ? उसने जवाब दिया, ‘‘दोस्तो, सोचिए, मैं डूब जाता तो मेरे लिए तो सब जग डूब गया था न ?’’ कहा गया है कि ‘आप डूबा तो जग डूबा।’
इस कहावत का दूसरा प्रचलित रूप-
‘आप मुए तो जग मुआ।’
‘आप मुरदा जहान मुरदा।


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