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नाटक-एकाँकी >> अमर आन

अमर आन

हरिकृष्ण प्रेमी

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5147
आईएसबीएन :000

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अमर सिंह राठौर के जीवन पर आधारित ऐतिहासिक नाटक

Amar Aan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्रवेश

अमरसिंह राठौर भारतीय इतिहास के जगमगाते हुए नक्षत्र हैं। उनका प्रचंड, दुस्साहसी, स्वाभिमानी और आन के लिए प्राण देने वाला चरित्र भारतीय लोक-मानस को चिरकाल से स्फुरित करता रहा है। उन्होंने स्वाभिमान की प्रेरणा से सम्राट शाहजहाँ के मीरबक्शी1 सलाबतखाँ का वध उनकी नाक के नीचे अनेक मनसबदारों के सामने कर डाला था और उसके पश्चात् स्वयं पर हुए आक्रमण का अकेले ही सामना करते हुए अनेक प्रबल योद्धाओं को मौत के घाट उतार दिया था और बाद में वे एक राजपूत मनसबदार अर्जुन गौड़ द्वारा छलपूर्वक मारे गए थे। इस घटना का इतिहास में तो उल्लेख है ही, साथ ही लोक-साहित्य का भी चिरकाल से यह विषय बना हुआ है।

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि हिन्दी-भाषी प्रदेशों में अमरसिंह राठौर के चरित्र पर आधारित नौटंकियाँ खेली जाती रही हैं जो सहस्रों दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं। जब ये नौटंकियाँ खेली जाती हैं तब दर्शकों के हृदयों में वीरता की उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं।

ये नौटंकियाँ सर्वसाधारण दर्शकों का मनोरंजन करने एवं उनमें वीरता का भाव संचारित करने में असाधारण रूप से समर्थ हैं—किन्तु एक तो वे संगीतात्मक हैं, दूसरे उनमें ऐतिहासिक तथ्य कम और कल्पना अधिक है और तीसरे उनका साहित्यिक स्तर निम्न कोटि का है इस कारण मुझे इस नाटक को लिखना उचित जान पड़ा है। हिन्दी भाषा के एक दिग्गज साहित्यकार ने अमरसिंह राठौर पर नाटक लिखा है, उन्होंने नौटंकियों की अनेक कल्पित घटनाओं एवं मन-गढ़ंत पात्रों को नहीं लिया फिर
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1.प्रधान
 भी नौटंकी में आने वाला पात्र रामसिंह अमरसिंह राठौर के भतीजे के रूप में वर्तमान है, जो अमरसिंह राठौर के शव को प्राप्त करने के लिए मुगल सम्राट की सेना से युद्ध करता है। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उस समय अमरसिंह राठौर का कोई भतीजा इतनी आयु का नहीं था कि युद्ध कर सके। इस घटना के समय उनकी आयु केवल 32 वर्ष की थी। वह अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनसे छोटा भाई अचलसिंह बचपन में मर गया था। उसके अतिरिक्त जसवंतसिंह ही तीसरे भाई थे जिनकी आयु इस घटना के समय केवल 19 वर्ष की थी।

इन जसवंतसिंह का पुत्र तो इतनी आयु का उस समय हो ही कैसे सकता था जो रणभूमि में शत्रुओं के छक्के छुड़ा दे। नौटंकीवालों को इतिहास के विरुद्ध घटनाओं और पात्रों के सृजन के लिए क्षमा किया भी जा सकता है लेकिन माने हुए साहित्यकार का इस प्रकार का स्वेच्छाचार शोभाजनक नहीं कहा जा सकता।

ऊपर जिस नाटक का उल्लेख मैंने किया है उसमें एक पात्र आता है बल्लूजी। यह भी अमरसिंह राठौर का शव मुगलों के पास से प्राप्त करने के लिए लड़ता है और प्राण देता है। यह पात्र ऐतिहासिक है, किन्तु इसे दासी पुत्र अंकित करना इतिहास के विरुद्ध है। इतिहास के अनुसार बल्लूजी राठौरों की चाँपावत शाखा के सामंत थे। चाँपावत शाखा के वंशज अभी जागीरदारी के अन्त होने के समय तक विभिन्न जागीरों के स्वामी रहे हैं। मारवाड़ नरेश राव, रणमलजी के, जिनका जन्म संवत् 1449 में हुआ था और मृत्यु संवत 1495 में हुई थी।, चौथे पुत्र चाँपाजी के चाँपावत शाखा का प्रारम्भ हुआ है।

नौटंकियों में एक पात्र दासी-पुत्र है उसका नाम बल्लूसिंह दिया है। नौटंकियों का अनुसरण करने के कारण ही विद्वान लेखक ने चाँपावत बल्लू जी को दासी पुत्र बना दिया है। वास्तविकता यह है कि जोधपुर नरेश महाराज गजसिंह जी अपने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह राठौर को युवराज पद से वंचित कर देश निकाला दिया था तब चाँपावत बल्लू जी आदि कुछ राठौर सरदार और उनके लगभग 500 साथी जो उन्हें बहुत मानते थे उन्हीं के साथ हो लिये थे। ये चाँपावत बल्लूजी जीवन भर अमरसिंह राठौर के दाहिने हाथ बने रहे और अंत में उनके सम्मान के लिए उन्होंने प्राण दे दिए।

एक और पात्र हैं—पात्र नहीं पात्री हैं—जिसका नाम नौटंकियों में हाड़ी रानी दिया है। बूँदी की राजकुमारी उसे माना है जिसे हाल ही में अमरसिंह राठौर विवाह के पश्चात गौना करा कर लाते हैं—और उसकी रूप-जवानी के बंदी भ्रमर बनकर शाही दरबार में जाना भूल जाते हैं—जिसके कारण सम्राट उन पर साढ़े सात लाख रुपये का दंड करता है। इसी बात से अमरसिंह राठौर मुग़लसत्ता पर अप्रसन्न होते हैं। और आगे की सारी घटनाएँ घटती हैं। इतिहासों में महाराज अमरसिंह की दो रानियों का उल्लेख मिलता है, एक थी आमेर के राजा महासिंह की बेटी कछवाही अनंददे जिससे उनको रायसिंह नाम का पुत्र प्राप्त हुआ था, दूसरी थी डूँगरपुर के रावल पूँजा अहाड़ा गहलोत की बेटी।

अहाड़ी अजायवदे जिससे उन्हें जगतसिंह नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ था। मेरा अनुमान है कि इस अहाड़ी रानी को नौटंकीकारों ने हाड़ी रानी कर दिया और विद्वान लेखक ने भी ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया। गौने वाली घटना तो सर्वथा इतिहास के विरुद्ध है। मैंने अपने नाटक में अहाड़ी रानी को ही नाटक की प्रमुख पात्री रखा है। अर्जुन गौड़ को—जिसने छल से अमरसिंह राठौर की हत्या की थी—नौटंकीकार भी और उस वक्त नाटककार भी अमरसिंह राठौर का साला मानते हैं। मैं इस, सम्बन्ध में अधिक खोज नहीं कर सका हूँ। मैंने अर्जुन गौड़ का अमरसिंह राठौर से क्या सम्बन्ध था इस विषय में चुप रहना ही ठीक समझा है। अर्जुन गौड़, उस समय जीवित राजा बिट्ठलदास  गौड़ का पुत्र था। बिट्ठलदास  को अजमेर के पास सम्राट शाहजहाँ से एक बड़ी जागीर मिली, क्योंकि उनके पिता ने, उन्होंने और उनके भाइयों ने उनका उस समय साथ दिया था जब उन्होंने अपने पिता जहाँगीर से विद्रोह किया था। बिट्ठलदास के पिता उस संघर्ष में मारे गए थे।

नौटंकियों से अलग जाकर भी उक्त नाटक के यशस्वी नाटककार ने कुछ कल्पनाएँ की हैं। ऐतिहासिक नाटकों में लेखक कल्पना करे ही नहीं ऐसा तो मैं नहीं मानता—लेकिन कल्पनाएँ ऐसी ही होनी चाहिएँ जो ऐत्तिहासिक तथ्यों को उभारने में सहायक हों—उनका रूप बिगाड़ने का साधन न बनें। उन्होंने अमरसिंह राठौर की एक विवाह योग्य युवती पुत्री की कल्पना की है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अमरसिंह मृत्यु के समय दो पुत्र और तीन पुत्रियों के पिता थे किन्तु उनकी कोई संतान दस वर्ष से अधिक आयु की नहीं थी।

इस कल्पना के सम्बन्ध में सबसे आपत्तिजनक बात तो यह है कि यशस्वी लेखक चित्रित करता है कि शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र दाराशिकोह उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसे हस्तगत करने के उपाय करता है। अमरसिंह अपनी पुत्री को दारा के हाथों से बचाने के लिए मेवाड़ के राजकुमार राजसिंहजी को बुलवाने का यत्न करते हैं-ताकि उनसे अपनी इस पुत्री का विवाह कर दें । व्यर्थ ही मेवाड़ के राजकुमार को इस नाटक में घसीटा गया। सबसे बड़ी आपत्तिजनक बात तो दाराशिकोह के चरित्र को गिराना है।

नाटक लिखने की कला की दृष्टि से भी यह नाटक, जिसके सम्बन्ध में मैंने ऊपर लिखा, नाटक कहे जाने योग्य नहीं है। दृश्य रचना इस प्रकार की है कि एक दृश्य के समाप्त होने के पश्चात् दूसरा दृश्य उपस्थित किया ही नहीं जा सकता। पहला दृश्य है ‘उजाड़ पहाड़ी प्रदेश, दूर तक नंगे पर्वत और काँटेदार झाड़। घोड़े पर सवार अमरसिंह और उसके सरदारों का प्रवेश। सोचने वाली बात है कैसे इतने घोड़े रंगमंच पर लाए जावेंगें। यह नाटक का दृश्य है या किसी चित्रपट का ? दूसरा द्दश्य है आगरा में अमरसिंह का महल-तीसरा द्दश्य है महलखास में मीना बाजार का जिसमें अनेक दुकानें सजी हैं। तख्त पर सवार हो शाहजहाँ आता है तख्त को अनेक बाँदियाँ उठाए हुए हैं।

अधिक उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं। ऐसी क्रियाओं की बानगी और उपस्थित करता हूँ जिनका रंगमंच पर होना उन्होंने सम्भव समझा है। वह लिखते हैं--‘‘चारों तरफ से हथियार बन्द सैनिकों का झपटना। अमरसिंह बिगुल बजाते हैं। किशना नाई का घोड़ों सहित प्रवेश, ‘अमरसिंह उछलकर घोड़े पर सवार हो अंधाधुंध तलवार चलाता है। लोथों का ढेर हो जाता है। किले में हाहाकार मच जाता है। हज़ारों सिपाही टूट पड़ते हैं।’ ‘घोड़ा सिंह की भाँति गरजकर उड़ान भरता है और बुर्जी पर से कूद पड़ता है।’ संस्कृत-हिन्दी अंगेजी नई-पुरानी किसी भी रचना शैली के अनुसार ऐसे नाटक को नाटक नहीं कहा जा सकता है। जिस विषय पर नाटक लिखने की कृपा एक माने हुए विद्वान कर चुके हैं उसी पर मेरा यह ‘अमर-आन’ नाटक प्रस्तुत है।

मैं जानता हूं। कि मेरे इस नाटक में जो कुछ भी मैंने लिखा है उससे कुछ लोगों को मतभेद रहेगा। मैंने केवल अमरसिंह राठौर की वीरता और अद्भुत पराक्रम को अंकित करने मात्र तक अपने नाटक का उद्देश्य सीमित नहीं रखा। शाहजहाँ के काल में ही सम्राट अकबर की चलाई हुई हिन्दू और मुसलमान के मेल की नीति को धीरे-धीरे छोड़ा जाने लगा था। राजपूतों के परस्पर विद्वेष और संघर्ष को उत्तेजित किया जाने लगा था—मुसलमानों की स्थिति सुदृढ़ करने का यत्न हो रहा था। मैंने इस नाटक के बहाने उस समय की इस राजनीतिक स्थिति का चित्रण किया है।

मारवाड़ के राठौर अपने आपको कन्नौज के जयचन्द्र गाहड्वाल के वंशज मानते हैं। इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकार इन दोनों राजवंशों को अलग-अलग मानते हैं किन्तु राजस्थान के राजवंशों की ख्यातों में कन्नौज के गाहड्वाल के वंशज ही राठौरों को माना गया है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विश्वेश्वरनाथ रेऊ और जगदीशसिंह गहलोत, जिन्होंने मारवाड़ के इतिहास पर पुस्तकें लिखी हैं, यही मानकर चले हैं। जयचन्द्र का पुत्र था—वरदामी सेन(हरिश्चन्द्र), उसका पुत्र सेतराम और उसका रावसीहाजी, जिनके वंश में अमरसिंह राठौर हुए।

अमरसिंह राठौर का जन्म वि.सं. 1670 में वैशाख सुदी 7 को हुआ था और मृत्यु वि.स. 1701 की सावन सुदी 2 को हुई। ये अपने पिता राव गजसिंहजी के सबसे बड़े पुत्र थे किन्तु इनके पिता ने इन्हें देश निकाला देकर इनके छोटे भाई जसवंत सिंह को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। उन्हें क्यों उत्तराधिकारी से वंचित किया गया था इसका उल्लेख प्रसंगवश इस नाटक में आ गया है।

नौटंकियों में सलाबतखाँ को शाहजहाँ का साला कहा गया है और मुमताजमहल से उसका वार्तालाप भी रखा गया है, किन्तु वास्तविकता यह है कि मुमताज और उसका पिता आसफ़खाँ इस नाटक की घटना घटने से पूर्व इस संसार से विदा ले चुके थे। यह घटना घटी है सन् 1644 में—मुमताजमहल की मृत्यु हुई ई. सन् 1631 में अर्थात् उसे संसार से प्रस्थान किए। 13 वर्ष बीत चुके थे। उसके पिता की मृत्यु सन् 1641 में हुई थी। सलाबत खाँ शाहजहाँ का साला था इसका कोई प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता इसलिए मैंने ऐसा नहीं माना है।

यह बात अवश्य मानी जा सकती है कि मुमताजमहल और आसफ़खाँ के अत्यन्त कृपा-पात्रों में था क्योंकि उस समय शासन के उच्चतम पदों पर इनके ही विश्वस्त और कृपा-पात्र व्यक्ति नियुक्त थे। मीरबक्शी का पद वकील (प्रधान-मंत्री) और दीवान (अर्थ-मंत्री) के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण था। वह सैनिक विभाग का अध्यक्ष होता था। उसी की अनुमति से मनसबदार सम्राट की सेवा में पहुँच सकते थे।

नौटंकियों में सलाबतखाँ का वध भरे दरबार में होना बताया जाता है, इसी का अनुसरण इस नाटक में किया गया है जिसके सम्बन्ध में मैंने पहले बहुत कुछ लिखा है, किन्तु यह बात इतिहास विरुद्ध है। जिस समय यह घटना घटी शाहजहाँ दारा के महल में था जहाँ शाहज़ादी जहाँआरा जल जाने के कारण रुग्णावस्था में अवस्थित थी। मैंने इतिहास का ही अनुसरण किया है कि दारा के महल में यह घटना घटी थी।

पहले अंक में मैंने अमरसिंह राठौर को शराब पीते हुए दिखाया है। वीर-पूजक भावुक हृदय वाले व्यक्ति कदाचित् इस बात को पसन्द न करें—किन्तु सच्चाई यही है कि वह शराब पीने के बहुत शौकीन थे। यह रोग उस समय मुग़ल राजवंश, सेनापतियों, उच्चाधिकारियों, राजपूत राजाओं और मनसबदारों में प्रबल रूप से मौजूद था। इतिहास कहता है, कि जब अमरसिंह राठौर ने सलाबतखाँ का वध किया था तब वह नशे में चूर थे।

हमें उन दुर्बलताओं को प्रकाश में लाने में संकोच नहीं करना चाहिए जिनके कारण महान् पुरुष भी अपने जीवन में असफल रहे। यह नाटक अभिनेय बन सके इसका मैंने यत्न किया है। सम्पूर्ण नाटक में कुल तीन अंक हैं। अंकों का दृश्यों में विभाजन नहीं किया है अर्थात् कुल मिलाकर तीन ही दृश्य हैं। एक ही स्थान पर तीनों दृश्यों को रखा गया है। एक बार जो दृश्य निर्माण हो जावेगा उसे बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नाटक का घटना-काल 24 घंटे से अधिक नहीं है।
मैं आशा करता हूँ कि मेरे प्रेमी पाठक और नाटक की कला में रस लेने वाले महानुभाव मेरे प्रयास को पसन्द करेंगे।

पात्र-सूची


अमरसिंह रौठार : मारवाड़ के महाराज गजसिंह के ज्येष्ठ पुत्र जिन्हें नागौर की जागीर प्राप्त हुई थी।

अहाड़ी रानी अजायनदे : महाराज अमरसिंह की पत्नी।

दाराशिकोह : सम्राट शाहजहाँ का ज्येष्ठ पुत्र।

सलाबतखाँ : मुग़ल-शासन का मीर बक्शी।

चाँपावत बल्लूजी : मारवाड़ का एक सामंत जो अमरसिंह राठौर का विश्वस्त साथी था।

शहबाज़खाँ : एक पठान योद्धा जिसे अमरसिंह राठौर ने पगड़ी-बदल मित्र बनाया था।

कुँवर जगतसिंह : अमरसिंह राठौर और अहाड़ी रानी का पुत्र।

अर्जुन गौड़ : एक राजपूत मनसबदार—राजा बिट्ठलदास गौड़ का पुत्र जिसे अजमेर के पास जागीर मिली थी।

गुलाब की माँ और एक दासी।


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