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इंद्रधनुषी डाक टिकट

गोपीचंद श्रीनागर

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5153
आईएसबीएन :81-88267-52-x

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प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न छटाओं के इंद्रधनुषी डाक टिकट एवं उनके संबंध में ज्ञानप्रद जानकारियाँ दी गई है....

Indradhanushi Dak-ticket

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न छटाओं के इंद्रधनुषी डाक टिकट एवं उनके संबंध में ज्ञानप्रद जानकारियाँ दी गई हैं। इन डाक टिकटों पर इतिहास, भूगोल, राजनीति, व्यक्ति, संस्कृति सभ्यता, साहित्य-विज्ञान, जीव-जंतु, खेल-कूद, स्थापत्य-मूर्ति, चित्र-कलाओं आदि के विविध रंग-रूप देखने को मिलते हैं।
स्वतंत्र भारत के डाक टिकटों पर शुरू से ही विभिन्न राष्ट्रीय विषय उभारे जाते रहे हैं। विश्व के अनेकानेक देशों ने अपने-अपने डाक टिकटों में सप्तवर्णी रंग भरे हैं। सामयिक विषयों और घटनाओं पर निकले डाक टिकट ऐतिहासिक दस्तावेज बन गए हैं।
भारत समेत विश्व के विविध विषयोंवाले डाक टिकटों ने फिलेतली (डाक टिकटों का विज्ञान व अध्ययन) लेखकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। हिंदी में फिलेतली साहित्य का अभाव है। यह इंद्रधनुषी पुस्तक उसी अभाव की पूर्ति करती है।

मेरा निवेदन


यह सर्वविदित है कि डाक टिकट का जन्म इंग्लैंड में हुआ था। उस समय इंग्लैंड के राजसिंहासन पर महारानी विक्टोरिया विराजमान थीं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इंग्लैंड अपने डाक टिकटों पर महारानी विक्टोरिया के चित्रों को प्रमुखता देता रहा।
इंग्लैंड में राजा विलियम प्रथम (सन् 1066-1087) से राजशाही का दौर चला आ रहा है। 6-8 मई, 1840 में पहली बार जारी किए गए इंग्लैंड के ये डाक टिकट विश्व के भी पहले डाक टिकट थे। इन डाक टिकटों को निकालने के श्रेय सर रॉलैंड हिल (सन्) 1795-1878) को जाता है।
इंग्लैंड में राजशाही थी। पहले डाक टिकटों पर रानी विक्टोरिया के चित्र छपने के कारण वहाँ की महिलाओं में अपनी रानी के चित्रवाले डाक टिकटों को इकट्ठा करने का जुनून सवार हो गया। ये महिलाएँ ही डाक टिकट संग्रह के शौक की जननी बनीं।

रानी विक्टोरिया के समय में ही इंग्लैंड का विश्व के अधिकतर देशों पर शासन था। इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड शासित विश्व के अनेक देशों के डाक टिकटों पर इंग्लैंड के शासकों के ही चित्र छपते थे। इससे डाक टिकटों के मध्य डिजाइन में अजीब-सी नीरसता भरती चली गई। ये बेहद उबाऊ होते जा रहे थे; लेकिन इंग्लैंड में ही पहली बार जुलाई 1913 में जारी एक डाक टिकट ‘ब्रिटेनिका’ (मूल्य आधा क्राउन) पर आश्चर्यजनक रूप से मध्य डिजाइन में परिवर्तन नजर आता है। इसके बाद तो टिकटों पर इतिहास, भूगोल, राजनीति, व्यक्ति, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य-विज्ञान, जीव-जंतु, खेल-कूद, स्थापत्य-मूर्ति, चित्र-कलाओं आदि के विविध रंग-रूप देखने को मिलने लगते हैं।
जहाँ तक भारत का संबंध है, यहाँ सन् 1854 से 1931 तक डाक टिकटों पर रानी विक्टोरिया, राजा एडवर्ड सप्तम, जॉर्ज पंचम, जार्ज छठे के चित्रवाले डाक टिकट ही निकलते रहे हैं। अपने प्रेम के लिए सिंहासन त्यागनेवाले राजा एडवर्ड अष्टम (सन् 1936) पर यहाँ कोई डाक टिकट नहीं निकला था। सन् 1929 (हवाई डाक टिकट), 1931 (नई दिल्ली उद्घाटन) से भारतीय डाक टिकटों में विविधता आती गई।

आजादी मिलने के बाद स्वतंत्र भारत के डाक टिकटों पर शुरू से ही अच्छे-अच्छे राष्ट्रीय विषय उभारे जाते रहे हैं विश्व के अनेकानेक देशों ने अपने-अपने डाक टिकटों में सप्तवर्णी रंग भरे हैं। सामयिक विषयों और घटनाओं पर निकले डाक टिकट ऐतिहासिक दस्तावेज बन गए हैं। इन्हें इतिहास-लेखन के नए माध्यम (टूल्स ऑफ हिस्ट्री राइटिंग) के रूप में अपनाए जाने की जरूरत है।
भारत समेत विश्व के विविध विषयोंवाले डाक टिकटों ने फिलेतली लेखकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। हिंदी में फिलेतली साहित्य (डाक टिकटों का विज्ञान व अध्ययन) का अभाव है। मेरा प्रयास रहा है कि इस रीते घड़े में बूँद-बूँद करके जल भरूँ। इसी परिदृश्य में मेरी यह पुस्तक ‘इंद्रधनुषी डाक टिकट’ आपके सामने प्रस्तुत है।
भारतीय परिस्थियों में इस विदेशी शौक से संबंधित मेरा यह तुच्छ प्रयास कहाँ तक सफल बन पड़ा है, यह दायलु सुधीजनों पर निर्भर करता है। मुझे विश्वास है कि मेरी यह पुस्तक फिलेतली के दृष्टिकोण से निरखी-परखी जाएगी।
जय भारत, जय भारती !

दीपावली-2006
राजो लहर -गोपीचंद श्रीनागर
1187, नया राय गंज,
सीपरी बाजार, झाँसी-284003

डाक टिकटों में वायलिन वाद्ययंत्र


यदि हम वाद्ययंत्रों पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि कुछ वाद्ययंत्र; जैसे-बाँसूरी, शहनाई, तुरही आदि फूँककर बजाए जाते हैं। कुछ; जैसे-वीणा, तानपूरा, सितार, सरोद, सारंगी चिकारा आदि तारों को छेड़कर बजाए जाते हैं और कुछ मढ़ी हुई खाल के वाद्ययंत्र; जैसे-तबला, ढोलक, मृदंग, डमरू, डफली आदि थाप लगाकर बजाए जाते हैं। इनके अलावा आपस में टकराकर बजाए जानेवाले वाद्ययंत्र, जैसे-मजीरे, चिमटे, करताल आदि देखने को मिलते हैं।
तारवाले वाद्ययंत्रों में वायलिन, ल्यूट (वीणा), गिटार, मेंडोलिन, रबाब एक ही परिवार के भाई-बंद हैं। भारतीय संगीत में तारवाला एक वाद्ययंत्र-वायलिन-ऐसा पश्चिमी वाद्ययंत्र है, जो भारतीय संगीत तथा वाद्ययंत्रों में पूरी तरह घुल-मिल गया है। इसे दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत एवं उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी संगीत दोनों में समान रूप से इस्तेमाल किया जाता है।

इस पश्चिमी वाद्ययंत्र के दर्शन आप चेकोस्लोवाकिया  में सन् 1974 में निकले 40 हलेरू मूल्यवाले विशेष डाक टिकट (वाद्ययंत्र) पर बखूबी कर सकते हैं। इस विशेष डाक टिकट पर आप चार तारवाले एक बेंका वायलिन को देख सकते हैं।1
कुछ वाद्ययंत्रों के उस्तादों के नाम लेने मात्र से, उनके साथ जुड़े वाद्ययंत्रों के सस्वर चित्र मन-मस्तिष्क में गूँजने कौंधने लगते हैं। भारत में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई के, हरि प्रसाद चौरसिया बाँसुरी के, रविशंकर सितार के, उस्ताद जाकिर अली तबले के, बिजना महाराज पखावज के, उस्ताद अमजद अली खाँ सरोद के पर्याय माने जाते रहे हैं। इसी प्रकार पश्चिमी संगीत जगत् में येहुदी मेनुहिन वायलिन के पर्याय माने गए हैं। आधुनिक वायलिन गज (छड़ी) से बजाया जाता है; इससे पश्चिमी धुनों के साथ-साथ भारतीय संगीत के सातों स्वर बखूबी निकाले जा सकते हैं। इसी कारण पश्चिमी वाद्ययंत्र वायलिन भारतीय संगीतकारों का चहेता बन गया है। वायलिनवादक येहुदी मेनुहिन तथा सितारवादक रविशंकर की जुगलबंदी संगीत के अंतरराष्ट्रीय मंच पर धूम मचा चुकी है।

आधुनिक वायलिन (चार तार) के पूर्व-रूप अथवा भिन्न रूप, भारत सहित विश्व के अनेक देशों में मिलते हैं। जहाँ आधुनिक वायलिन गज से रेतकर बजाया जाता है, वहीं इसके अन्य रूप, जैसे-ल्यूट, मेंडोलिन, रबाब आदि पत्थर के टुकड़े की मदद से तारों पर प्रहार करके बजाए जाते हैं। अरब देशों में रबाब (रिबेक) को गज से भी बजाया जाता है। भारत में वयालिन का एक नाम ‘बेला’ भी है।
वायलिन से मिलता-जुलता एक वाद्ययंत्र गिटार2 (पूर्वी जर्मनी का डाक टिकट, 25 फेनिंग, सन् 1973) है, जिसमें छह तार होते हैं और इसे धातु के छल्ले को अंगुली में पहनकर बजाया जाता है। वैसे पूर्व जर्मनी ने सन् 1971 में एक विशेष डाक टिकट (जर्मन वायलिन, मार्केनेन किरचेन संग्रहालय में वाद्ययंत्र, मूल्य 20 फेनिंग) पर भी वायलिन पर एक रसभीना संगीतमय डाक टिकट निकाला था।
आधुनिक वायलिन के पूर्वजों ल्यूट और मेंडोलिन के चित्र आप इंग्लैंड में बड़े दिन के उपलक्ष्य में निकाले गए विशेष डाक टिकटों (ल्यूट बजाता फरिश्ता, 3 पेंस, सन् 1972 और मेंडोलिन के साथ फरिश्ता, साढ़े आठ पेंस, सन् 1975)5+6 पर देख सकते हैं। इन कल्पनाशील सुंदर डाक टिकटों की डिजाइनें क्रमशः कलाकार सैली स्टिक व आर. डावनर ने बनाई थीं।
पश्चिमी संगीतकार मंच पर खड़े होकर अथवा कुरसी पर बैठकर वायलिन को बजाते हैं, जबकि भारतीय संगीत की महफिलों में इसे अन्य संगत करनेवाले योग्य कलाकारों के साथ बैठकर बजाया जाता है, जो भारतीय वादकों के लिए उत्साहवर्धक एवं सुविधाजनक और संगीत के शौकीनों को शालीन  लगता है। भारतीय संगीतकारों ने वायलिन को अपनी राग-रागिनियों में सफलतापूर्वक ढाला है। अब वायलिन विदेशी वाद्ययंत्र नहीं माना जाता है।

वायलिन का जन्म कब और कहाँ हुआ, इसपर संगीत के इतिहासकारों में एक राय नहीं है; लेकिन भारत में वायलिन का प्रवेश यूरोप से आए लोगों के साथ हुआ था, इसपर सब सहमत हैं। कुछ प्राचीन भित्तिचित्रों एवं अन्य चित्रों में वायलिन से मिलते-जुलते वाद्ययंत्रों के दर्शन इस वाद्ययंत्र की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
अरब देशों का रबाब (रिबेक) कैसा था, इसकी सचित्र जानकारी हम यहाँ अरब देशों में निकले कुछ डाक टिकटों की मदद से दे सकते हैं।
सन् 1964 में बगदाद (इराक) में पहला अंतरराष्ट्रीय अरब संगीत सम्मेलन हुआ था। उस अवसर पर इराक ने 3 फिल मूल्यवाला एक स्मारक डाक टिकट एक प्राचीन इराकी चित्र की डिजाइन में निकाला था, जिस पर जिस पर रबाब बजाता वादक अंकित है।7 इसके बाद सन् 1975 में हुए अंतरराष्ट्रीय संगीत सम्मेलन (बगदाद) के अवसर पर, हालाँकि ऐसा कोई डाक टिकट नहीं निकाला गया था, लेकिन सन् 1982 में इराक ने वाद्ययंत्र मेंडोलिन पर एक विशेष डाक टिकट (मूल्य 100 फिल) अवश्य निकाला था।
यमन अरब गणराज्य में सन् 1971 में निकले एक 4 बोगच मूल्यवाले विशेष डाक टिकट (पर्शिया की प्रसिद्ध कला) पर ‘मैसोनघोर के शाहनामी’ के एक लघुचित्र को छापा गया है, इस सुंदर कलात्मक लघुचित्र पर रबाब और खँजड़ीवादक देखे जा सकते हैं।8

सन् 1967 में भूटान में निकले एक डायमंड आकार के स्मारक डाक टिकट (भूटानी बुलबुल-‘गाइड’-10 चेत्रम्)9 पर आप भूटानी मेंडोलिन का चित्र देखिए और एक मंगोलियाई विशेष डाक टिकट (ल्यूट वादक-30 मुंग-सन् 1975) पर मंगोलिया के किसी एक चित्रकार की कलाकृति, जिस पर तन्मय ल्यूटवादक का गूँजता चित्र मूर्तिमान है।10
ल्यूटवादकों पर बनाई गई कुछ सुंदर पेंटिंग्स पर निकले डाक टिकटों में पूर्व सोवियत संघ के विशेष डाक टिकट (हरमिटेज संग्रहालय, लेनिनग्राड का कला खजाना, 16 कोपेक मूल्य, सन् 1966)11, यमन की राष्ट्रवादी सरकार (मुटावकेलाइट राज्य) द्वारा निकाले गए विशेष हवाई डाक टिकट (स्पेन की मूरिश कला, 24-बोगशाही मूल्य सन् 1967)12 तथा स्मारक डाक टिकट (मातृदिन, 4 बोगशाही मूल्य, सन् 1967 दर्शनीय हैं।13
29 दिंसबर को निकले पूर्व सोवियत संघ के विशेष डाक टिकट पर प्रसिद्ध चित्रकार कारवैग्गियों की पेंटिंग ल्यूटवादिका दरशाई गई है। यमन के 4 बोगशाही मूल्यवाले स्मारक डाक टिकट पर महान् चित्रकार कोरेट की पेंटिंग-ल्यूटवादिका छापी गई है। ये महान् चित्रकारों के शानदार डाक टिकट हैं। 24 बोगशाही स्मारक डाक टिकट स्पेन की प्राचीन मूरिश चित्राकृति पर आधारित है।

भारतीय वायलिनवादकों में स्व. गगनबाबू, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, एन.राजम्, वी.जी. योग आदि के सुख्यात नाम लिये जा सकते हैं। दक्षिण भारत के श्री बालुस्वामी दीक्षित प्रथम योग्य भारतीय वायलिन वादक माने जाते हैं।
केवल भारत में वायलिन पर डाक टिकट नहीं निकला है; लेकिन 8 नवंबर, 1993 में वायलिन वादक डॉ. द्वारम वेंकटस्वामी नायडू पर निकले स्मारक डाक टिकट (100 पैसे) पर वायलिन देखा जा सकता है।14
अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोशों में वायलिन का अर्थ सारंगी बतलाया गया है। वैसे सारंगी और वायलिन में थोड़ा भेद है। किसी लकड़ी के दोनों छोरों पर तारों को बाँधकर उन्हें झनझनाना इन तार-वाद्ययंत्रों का मूल सिद्धांत है। इकतारा, चिकारा, वीणा, सारंगी, सितार या फिर पाश्चात्य वाद्ययंत्र वायलिन हो, ये सब इसी एक मूल सिद्घांत के स्थानीय विकसित रूप हैं।
संगीत के इतिहासकार वायलिन की उत्पत्ति यूरोप में मानते हैं, लेकिन चीन गणतंत्र (सचित्र चीन, मई 1988 का दावा है कि वहाँ तारवाद्य ‘कूछिन’ को बजाकर एक गरीब युवा सिमाश्याडरू (सन् 179-117 ईसा पूर्व) ने एक अमीर साहबजादी वो वनचुन को अपने प्रेमजाल में फँसा लिया था। चीन में प्रचलित ‘फीपा’ तारवाद्य ल्यूट का स्थानीय प्राचीन रूप है, जिसका सुंदर वर्णन कवि पाएवोई (772-846) की कविता में मिलता है। कहते हैं कि ‘फीपा’ का चीन में प्रवेश पश्चिमी छोर से हुआ था। इसके स्वरों के बारे में कहा जाता है कि ‘फीपा’ के मोटे तार वर्षा की तरह तड़तड़ करते हैं, कोमल स्वर गुनगुनाते हैं और मिश्रित स्वर ऐसे लगते हैं कि मानो तश्तरी में मोती टपक रहे हों। ल्यूट (चीनी: फीपा) बजाते आप कई वादकों पर डाक टिकट देख सकते हैं।

हार्प से मिलता-जुलता चीनी तार वाद्ययंत्र ‘टवेछिन’ है। एक अन्य तार वाद्ययंत्र अश्वशीर्ष सारंगी वहाँ चरागाहों में मंगोल जाति के लोगों द्वारा अपने मादा दुधारू पशुओं को अधिक दूध देने के लिए बजाया जाता है। वायलिन परिवार के इन वाद्ययंत्रों को डाक टिकटों में खूब स्थान मिला है।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी 23 जून, 1975 में अपने डाक टिकटों में एक नियत डाक टिकट (3.5 सेंट) ‘वीवर वायलिनों’ (अमेरिकी संगीत स्वतंत्रता की धुन) पर निकला था।
चित्र सं. 3 व 4 पर, कंपूचिया में निकले डाक टिकटों (मूल्य 0.80 व 0.20 रील, सन् 1985) पर वायलिन व वायलिन वादक के मनोरम चित्र छापे गए हैं।
मुझे स्वीडन में 29 मार्च, 2006 को निकले एक विशेष डाक टिकट (10 क्रोना) को देखकर आश्चर्य हुआ। इस पर स्वीडन में प्रचलित एक धार्मिक कथा के रहस्यमय खूनी पात्र नाकेन का चित्रण है, जो अपनी वायलिन की धुन पर लोगों को अपने जाल में फाँस लेता था। यह संगीत का दुरुपयोग ही कहा जा सकता है। स्वीडन के इस विशेष डाक टिकट15 के कलाकार निना बाडेसन महाशय ने अपनी रची डिजाइन को सँवारा है। (स्वीडन पोस्ट स्टैंप्स 2006, बुलेटिन सं. 2)
अब तक तो आपके कानों में इन वाद्ययंत्रों की मधुर-मधुर स्वर लहरी गूँजने लगी होगी। अब जब कभी कहीं, वायलिनवादक का संगीत कार्यक्रम हो, तो वहाँ जाना मत भूलिएगा। एक बात और, वायलिन के ऊपरी हिस्से को नीचे हाथ से पकड़कर और निचले हिस्से को कंधे से टिकाकर बजाया जाता है।

डाक टिकटों में वाद्ययंत्र


भारत में वाद्ययंत्रों ने विश्व में सदा से धूम मचा रखी है। इन वाद्यों के कारण न केवल बजानेवालों का नाम प्रसिद्ध हुआ है, बल्कि भारत का गौरव भी बढ़ा है। मधुर-सुरीली ध्वनिवाले उन वाद्ययंत्रों का कुछ परिचय हमारे डाक टिकटों में भी मिलता है। डाक टिकटों के जरिए भी किसी देश के इतिहास, कला और संस्कृति के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है। यहाँ डाक टिकटों के सहारे भारतीय वाद्ययंत्रों के इतिहास और वर्तमान पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
सबसे पहले यह जान लें कि भारतीय वाद्ययंत्रों को चार प्रमुख परिवारों में बाँटा गया है। पहले परिवार में वे वाद्ययंत्र आते हैं, जिनमें तार अथवा ताँत लगे होते हैं और उन्हीं तारों से विभिन्न स्वर उत्पन्न किए जाते हैं; जैसे-वीणा, तंबूरा, सितार, सरोद, सारंगी, बेला आदि। दूसरे परिवार के वाद्ययंत्रों में फूँक के जरिए स्वर पैदा किए जाते हैं। इनमें बाँसुरी, शंख, तुरही1 व 2 (पूर्वी जर्मनी का डाक टिकट सर्पनुमा तुरही 25 फेनिंग, सन् 1979 एवं मंगोलिया का डाक टिकट 30 मुंग, सन् 1986) रमतूला, पियानो, बिगुल3 (20 दिसंबर, 1951 में निकाला तत्कालीन पश्चिमी जर्मनी का नियत डाक टिकट, 20 फेनिंग) आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। तीसरे परिवार के वाद्ययंत्रों पर पुड़ी (चमड़ा) मढ़ी होती है और उस पुड़ी पर सधे हाथों से आघात करके संगीतात्मक ध्वनि निकाली जाती है। ऐसे वाद्यों में डमरू, मृदंग पखावज, नगाड़ा, भेरी, ढोलक आदि प्रमुख हैं। अब बचा चौथा परिवार इस अंतिम परिवार में लकड़ी या धातु को स्वर उत्पन्न करने के काम में लाते हैं। इनमें मजीरे,4 (डाक टिकट, दो वैष्णव 25 पैसे, 1978) चिमटा, करताल, घंटा-घड़ियाल, झाँझ, जलतरंग, चाँचर आदि के नामों को गर्व के साथ गिनाया जा सकता है।

प्राचीन चित्रों और मूर्तियों में भारतीय वाद्ययंत्रों के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार प्राचीन ग्रंथों में भी इनका वर्णन मिल जाता है। भगवान् शंकर नृत्य के समय अपने हाथ में डमरू धारण करते थे। सरस्वतीजी वीणा लेकर बैठ जाती थीं ब्रह्माजी करताल खड़खड़ाते थे। भगवान् विष्णु मृदंग पर थाप लगाते थे। इंद्र वेणु पर तान छेड़ते थे। इन वाद्यों के अलावा रामायण-महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में शंख, दुंदुभी, घट, डिमडिम आदि का भी उल्लेख मिलता है।
आज भारत में तरह-तरह की आकृति, बनावट, गुण और नामों से लगभग 500 वाद्ययंत्र प्रयोग में लाए जा रहे हैं।
भारतीय वाद्ययंत्रों में वीणा5 (नियत डाक टिकट, 100 पैसे, सन् 1975) सबसे पुराना वाद्य है। कहते हैं कि इस वाद्य की रचना भगवान् शंकर ने स्वयं अपने हाथों से की थी। कई प्रकार की वीणाएँ मिलती हैं, जैसे रुद्रवीणा, विचित्रवीणा, कांडवीणा आदि। इनमें दक्षिण भारत की वीणा आकार में सबसे बड़ी होती है। वीणा में चार तार लगते हैं। इसे पत्थर की गिट्टी के सहारे बजाया जाता है। आदिकाल से चला आ रहा यह भारतीय वाद्य सौभाग्य से आज भी अपने मूल रूप देखने को मिल जाता है। प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. अहोबल ने अपनी पुस्तक ‘संगीत पारिजात’ (सन् 1650) में वीणा का सविस्तार वर्णन किया है। इसी पुस्तक में वीणा को बजानेवाले तारों की लंबाई पर विभिन्न 12 स्वर-स्थान समझाए गए हैं। दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत में वीणा एक प्रमुख वाद्य है। यहाँ के मंदिरों में वीणा, मृदंग, घट जैसे वाद्यों का बोलबाला रहा है। इस प्राचीन भारतीय वाद्ययंत्र में मुसलिम शासक अलाउद्दीन खिलजी (सन 1246-1316) के समय एक विद्वान संगीतज्ञ मंत्री हजरत अमीर खुसरो (सन् 1253-1325) ने इसके चार तारों के स्थान पर केवल तीन तार लगाकर इस नए वाद्ययंत्र को फारसी भाषा में सहतार (तीनतार) का नाम दिया। सहतार शब्द ही कालांतर में सितार हो गया।6 (जन प्रजातांत्रिक गणतंत्र यमन का डाक टिकट, 90 फिल, सन् 1978) सहतार में पहले 2 तार पीतल के और एक लोहे का लगाया गया था, लेकिन अब आधुनिक सितार में 7 तार होते हैं। ये हैं-पहला लोहे का बोलतार, दूसरा-तीसरा पीतल के जोड़ी के तार, चौथा लोहे का पंचमतार, पाँचवाँ पीतल का लर्ज तार, छठा लोहे का चिकारी तार और सातवाँ सबसे महीन लोहे का चिकारी का तार।
 

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