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बाल एवं युवा साहित्य >> शिकार

शिकार

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5155
आईएसबीएन :0000

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श्रेष्ठ कहानी-संग्रह.....

Shikar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्मृति

‘सांयकाल को जब मैं अकेला जंगल से लौटता हूँ, तो डूबते हुए सूर्य की किरणें पूर्व की ओर संकेत करती हुई मानों कहती हैं-‘‘शैशव-काल में हमारी दृष्टि अपने वर्तमान स्थान की ओर थी। इधर आने को हम उतावली हो रही थीं; पर मध्याह्व के मद के उपरान्त अनुभव हुआ और अब तो हम बिलख रही हैं कि बाल्याकाल के उस माधुर्य की पुनः प्राप्ति असम्भव है। ऐ रायफलधारी ! शीघ्र ही आयु ढलने पर तू भी हमारी भाँति बाल्यकाल के लिए विह्वल होकर आँसू बहाएगा। अच्छा हो, तू अभी से चेते।’’

मैंने इस चेतावनी को बहुत कुछ सार्थक पाया है। उससे वेदान्त का पाठ पढ़ा है प्रातः काल के समय मनुष्य की छाया-दैवी सिगनल, पश्चिम-अन्त की ओर होती है मानो वह कहती है कि अवसान पर दृष्टि डाल; पर बाल्याकाल में विरले ही उधर देखते हैं। कोई देखे भी कैसे और क्यों देखे ? जीवन-यात्रा के प्रारम्भ में चारों ओर हृदय की अन्तरात्मा लहर और मन की उच्चतम उड़ान तक सब्जबाग ही दिखायी पड़ते हैं। बरसात में उगे पौधे को आनेवाले शीत और ग्रीष्म का कुछ पता नहीं होता। उद्गम के समीप के सरिता-जल को क्या मालूम की आगे चलकर संसार की गिलाजत उसमें आकर मिलेगी और स्वच्छता तथा गन्दगी में कितना संघर्ष होगा। पिल्लों को यह समझ थोड़े है कि बाल्यावस्था के समाप्त होते ही उनकी स्नेहमयी माँ रोटी के एक टुकड़े के लिए उन्हें काटने दौड़ेगी; न मृग-शावक को ही इस बात का ज्ञान होता है कि उनके तनिक पीछे रह जाने पर रँभानेबाली उनकी माँ, कुछ बड़े होने पर, उसको अपने पास की घास तक न चरने देगी ! और न इस अशरफुल-मखलूक़ात को बाल्याकाल में इस बात का ज्ञान होता है कि आगे चजलकर उसका जीवन इतना कष्टपूर्ण और दुःखमय होगा।

 पर धीरे-धीरे-ज्यों-ज्यों जीवन-यात्रा बढ़ती जाती है, बाल्यकाल की आशा-रूपी (Oasis) –शद्वलभूमि-मरुभूमि में परिवर्तित होती जाती है। उसका आभास तो युवावस्था की उत्तुंग चोटी-से होने लगता है। पर्वत-शिखर से जैसे घाटी की दोनों ओर दिखाई पड़ती हैं, जैसे तराजू की मूँठ से दोनों पलड़ों के हल्के-भारी होने को बताया जा सकता है। उसी प्रकार युवावस्था में अतीत का सिंहावलोकन और भविष्य की प्रगति का अनुमान किया जा सकता है। कोई न करे। मैं तो कर रहा हूँ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार होलिका-पूजन से होलिका-दहन और सायकाल से पूर्व बनी दीप-बाती से दीप-शिखा का अनुमान किया जा सकता है। मेरी अब तक की जीवन-यात्रा में एक संकीर्ण तथा छोटी, पर अति मनोहर घाटी पड़ी है। घाटी का एक शिखर एक उच्च चोटी के समान इतनी दूर चले आने पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।

सन् 1908 की बात है। दिसम्बर का आखिर या जनवरी का आरम्भ होगा। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। दो-चार दिन पहले कुछ बूँदा-बांदी हो गयी थी। इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गयी थी। सायंकाल के साढ़े-तीन या चार बजे होंगे। कई  साथियों के साथ मैं झड़बरी से बेर तोड़-तोड़कर खा रहा था कि गांव के पास से आदमी ने जोर से पुकारा
-‘तुम्हारे भाई बुला रहे हैं, जल्दी घर लौट आओ।’ घर को मैं चलने लगा। साल में छोटा भाई भी था। भाई साहब की मार का बहुत डर था, इसलिए सहमा हुआ चला जाता था।

समझ में नहीं आता था कि कौन-सा कुसूर बन पड़ा। पढ़ने में कभी पिटता नहीं था; पीटनेवाला पीटने के लिए सैकड़ो बहाने निकाल लेता है। दोषी ठहराने के लिए भेड़िये ने धार के नीचे की ओर खड़े हुए मेमने पर पानी गदला करने का अभियोग लगाया था, डरते-डरते घर में घुसा। आशंका थी कि बेर खाने के अपराध में ही तो पेशी न हो; पर आँगन में भाई साहब को पत्र लिखते पाया। अब पिटने का भ्रम दूर हुआ। हमें देखकर भाई साहब ने कहा-‘‘इन चिट्ठियों को ले जाकर मक्खनपुर डाकखाने में डाल आओ। तेजी से जाना, जिससे शाम की डाक में ही ये चिट्ठियाँ निकल जाएं। ये बड़ी जरूरी हैं।’’

जाड़े के दिन तो थे ही, तिस पर हवा के प्रकोप से कँपकँपी लग रही थी। हवा मज्जा तक को ठिठरा रही थी, इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा। लू और जाड़े से बचने के लिए कान बाँधे जाते हैं। दुर्ग की रक्षा के लिए चाहरदीवारी की रक्षा की जाती है, ताकि उसमें शत्रु का प्रवेश न हो सके। माँ ने भुजाने के लिए थोड़े चने एक धोती में बाँध दिए। हम दोनों भाई अपना-अपना डंडा लेकर घर से निकल पड़े। उस समय बबूल के डंडे से जितना मोह था, उतना इस उमर में रायफल से नहीं। प्रत्येक आर्य-सामाजी उपदेशक को उस अस्त्र से सुसज्जित देखा था। डंडे को मैं उनके पेशे का चिन्ह समझता था। वह कच्ची उमर में अनेक उपदेशक देखे थे। उनके उस कल्पित चिह्न का प्रभाव क्यों न पड़ता ? फिर मेरा डंडा तो अपने साँपों के लिए नारायण-वाहन (गरुड़) हो चुका था। मक्खनपुर स्कूल और गाँव के बीच पड़नेवाले आम के पेड़ों से हर साल उससे आम झाड़े जाते थे; इसका कारण यह मूक डंडा सजीव-सा प्रतीत होता था। प्रसन्नवदन हम दोनों मक्खनपुर की और तेजी से बढ़ने लगे। चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया, क्योंकि कुर्तों में जेबें न थीं।

हम दोनों उछलते-कूदते, एक ही साँस में, गाँव से चार फर्लांग दूर उस कुएँ के पास आ गए, जिसमें एक अति भयंकर काला साँप पड़ा हुआ था कुआँ कच्चा था और चौबीस हाथ (36 फीट) गहरा था। उसमें पानी न था। चुआकर छोड़ दिया गया था, ताकि अवकाश के समय तार करके (गलाकर) उसमें पानी किया जावे। न जाने साँप उसमें कैसे गिर गया था। सम्भव है मेढक का पीछा करने में तेजी से उधर आ रहा होगा और कुएँ के पास आकर, मेंढक के कुए में गिरने पर, वह अपनी गति को न रोक सका हो। अथवा प्रणय-केलि में या नकल आतंक से सुध-बुध भूलकर अचानक गिरकर कूपवासी हुआ होगा। वस्तु, कारण कुछ भी हो, हमारा उसके कुँए में होने का ज्ञान केवल दो महीने का था। बच्चे नटखट होते ही हैं; उनका नटखट होना आवश्यक है, क्योंकि नटखटपन एक शक्ति है, जो प्रत्येक बालक में होनी चाहिए। मक्खनपुर पढ़ने जानेवाली हमारी टोली पूरी बानर-टोली थी। एक दिन हम लोग सकूल से लौट रहे थे कि हमको कुएं में उलझने की सूझी। सबसे पहले उलझने वाला मैं ही था। कुएँ में झाँककर एक डेला फेंका कि उसकी आवाज कैसी होती है। उसके बाद अपनी बोली की प्रतिध्वनि सुनने की इच्छा थी; पर  ढेला कुएँ में ज्यों ही गिरा त्यों ही एक फुसकार सुनायी पड़ी।

 कुएँ के किनारे खड़े हुए हम सब बालक पहले तो उस फुस्कार से ऐसे चकित हो गये, मानो किलोले करता हिरनों का झुंड अति समीप के कुत्ते की भोंक से चकित हो जाता है। उसके उपरान्त सभी ने उझक-उझककर एक-एक ढेला फेंका और कुएँ से आने वाली क्रोधपूर्ण फुसकार पर क़हक़हे लगाये। साँप की फुसकार हमारे लिए आमोद-प्रमोद की सामग्री थी और ऐसी सामग्री थी जिससे हम बहुत दिनों तक आनन्द ले सकते थे। उस अवस्था में यह खयाल थोड़े ही था कि बेचारे सांप के भी जान होती है और ढेला लगने से उसे भी कष्ट होता है। हमें तो उसकी फुसकार से मतलब था। यदि वह विरोध-स्वरूप फुसकार न मारता तो हमारी बाल क्रीड़ा का भा अन्त हो जाता। हमारा तमाशा था और उसे जान के लाले पड़े थे। गाँव से मक्खनपुर जाते और मक्खनपुर से लौटते समय प्रायः प्रतिदिन ही कुएँ में ढेले डाले जाते और मक्खनपुर से लौटते समय प्रायः प्रतिदिन ही कुएँ में ढेले डाले जाते थे। मैं तो आगे भागकर आ जाता था, और टोपी को एक हाथ में पकड, दूसरे हाथ से ढेला फेंकता था। यह रोजाना की आदत हो गई थी। साँप से फुसकार करवा लेना, मैं उस समय में बड़ा काम समझता था। कुएं की कैद में इतने दिनों पड़े रहने से साँप भी कुछ अपने उस जीवन का अभ्यासी हो गया था और बिना ढेला लगे, वह बाद में फुसकार भी नहीं मारता था।

 ढेला कुएँ में गिरा कि फन फैलाकर वह खड़ा हो जाता और ढेलों की उपेक्षा किया करता। तनिक-सा ढेला लगते ही वह फुसकार से अपना क्रोध प्रकट किया और कुएँ में इधर-उधर घूमा करता; पर उस कारागार से मुक्ति मिलती कठिन थी। उस कारागार में वह पड़ा रहता और अपनी उस मूर्खता पर, जिसके कारण वह कुएँ में गिरा था, पछताया करता-यदि साँपों में पछताने की शक्ति होती है तो। अपमान को सह जाना अथवा अपमान का उत्तर न देना, या मन मसोसकर रह जाना, मनुष्य-योनि को छोड़ और किसी योनी का धर्म नहीं है। भय होने पर कीड़े-मकोड़े और हिरन तक भाग जाते हैं और भागकर जान बचाना ही उनका धर्म है। वे घायल होने पर या पकड़े जाने पर आजादी के लिए भरसक प्रयत्न करेंगे। दाँत, सींग, डंक और पैरों का उपयोग करेंगे। अकल के पुतले की भाँति पिट-पिटकर अथवा अपमानित होकर महीनों बाद दफा 500 में अदालत और भागने की उनकी बान नहीं। उनके अदालत है ही नहीं। प्राकृतिक शासन है, जिसमें विशेष नियन्त्रण नहीं। फिर साँप चोट खाने पर प्रतिवाद-स्वरूप फुसकार क्यों न मारता-आजादी के लिए क्यों न तड़पता ? मानों वह फुसकार की तड़प न थी वरन, कैदी का उच्छ्वास था जो प्रकट करता था कि-


‘‘यों तों ऐ सैयाद, आज़ादी के हैं लाखों मजे़;
दाम के नीचे तड़पने का मज़ा कुछ और है।’’


पर उस समय ग्यारह वर्ष की अवस्था में उस वेदनापूर्ण फुसकार में मैं उपदेश न पाता था। यह तो अब की बात है। इसलिए, जैसे ही हम दोंनों उस कुएं की ओर से निकले, तो कुएं में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृति जाग्रत हो गई। मैं कुएं की ओर बढ़ा। छोटा भाई मेरे पीछे ऐसे हो लिया, जैसे बड़े मृग-शावक के पीछे छोटा छौना हो लेता है। कुएं के किनारे से एक ढेला उठाया और उछलकर एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर ढेला गिरा दिया। पर मुझपर तो बिजली सी गिर प़ड़ी ! साँप ने फुँसकार मारी या नहीं, ढेला उसकों लगा या नहीं। यह बात तो अब तक स्मरण नहीं। टोपी के हाथ में लेते ही तीनों चिट्ठियाँ चक्कर काटती हुई कुएँ में गिर गईं। ‘‘अकस्मात जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली से हत होने पर निकल जाती है और वह तड़पता रह जाता है, उसी भाँति वे चिट्ठियाँ टोपी से क्या निकली मेरी तो जान निकल गयी। उनके   गिरते ही मैंने उनके पकड़ने के लिए एक झपट्टास भी मारा-ठीक उसी वैसे जैसे घायल शेर शिकारी को पेड़ पर चढ़ते देख उस पर हमला करता है। पर वे तो पहुँच के बाहर हो चुकी थीं। पकड़ने की घबराहट मैं स्वयं झटके के कारण कुएँ में गिरते-गिरते बचा।

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