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गांधी लौटे

मनु शर्मा

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5161
आईएसबीएन :81-7721-089-0

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गांधी के जीवन पर आधारित पुस्तक

Ghandhi Laute

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गांधीजी सदैव प्रासंगिक रहेंगे

महात्मा गांधी वर्तमान युग के मसीहा हैं। संसार के अनेक देशों में उन्हें याद किया जा रहा है। कभी-कभी यह भी महसूस होता है कि भारत की अपेक्षा अन्य देशों में उन्हें अधिक याद किया जा रहा है। हम उन्हें राष्ट्रपिता कहते हैं, लेकिन राजघाट गांधी समाधि पर आनेवाले विदेशी यात्री अकसर यह कहते हैं कि आप उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ क्यों कहते हैं। वे तो विश्व के पिता हैं। ईरान के पूर्व राष्ट्रपति कुछ वर्ष पूर्व जब भारत आए थे तो उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा था कि ‘महात्मा गांधी सिर्फ आपके ही नहीं हैं, वे हमारे भी हैं। संपूर्ण दुनिया उनको अपना मानती है।’

अध्ययन और आस्था के साथ आकर्षक शैली में लिखी गई यह पुस्तक ‘गांधी-लौटेंगे’ जब हमारे जैसे गांधी-सेवकों के पास पहुँचती है तो विशेष प्रसन्नता होती है। लेखक श्री मनु शर्मा ने ‘फैंटेसी’ शब्द का इस्तेमाल किया है। इस विधा का प्रयोग इस पुस्तक को अधिक रुचिकर बना देता है, जिसके कारण गंभीर दार्शनिक विषय भी सहज पठनीय बन जाता है। इसके लिए लेखक विशेष सराहना के पात्र हैं।

वाराणसी के ‘आज’ समाचार-पत्र के लिए स्तंभ के रूप में लिखे गए इन लेखों में स्वाभाविक ही उस समय की घटनाओं का जिक्र आ जाता है, जो उस समय की राष्ट्रीय व सामाजिक गतिविधियों को प्रस्तुत करता है। गांधी-विचार के विविध पहलुओं को लेखक ने इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है कि हर कोई इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहेगा।

इस देश में कश्मीर से कन्याकुमारी और द्वारका से डिब्रूगढ़ तक गाँव-गाँव में निरंतर यात्रा करनेवाला मेरे जैसा व्यक्ति यह तो दावा कर ही सकता है कि मैंने इस देश को कुछ जाना है। मैंने यही पाया है कि देश की आम जनता गांधीजी को न सिर्फ जानती-पहचानती है, बल्कि यह मानती है कि हमारी आज की अधिकतर समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना हो तो गांधीजी के पास जाना होगा। देश-दुनिया से कोई खास रिश्ता न रखनेवाले जब हमसे पूछते हैं कि ‘क्या गांधीजी आज भी प्रासंगिक हैं ?’ तो हमारा जवाब होता है, ‘जी हाँ, गांधीजी कल भी प्रासंगिक थे, आज भी प्रासंगिक हैं और सदैव प्रासंगिक रहेंगे।’ जब वे फिर से सवाल करते हैं कि ‘जब चारों ओर घना अँधेरा दिखाई दे रहा है तब भी ?’ तो कहना पड़ता है कि ‘चिराग की जरूरत घने अँधेरे में ही महसूस होती है।
लेखक श्री मनु शर्मा को बहुत-बहुत तथा हार्दिक शुभकमनाएँ।
-निर्मला देशपांडे
(प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं राज्यसभा सदस्य)
मकर संक्रांति,
विक्रमी संवत्-2063

पुस्तक से पहले

पुस्तक लिखने से पहले या पुस्तक पढ़ने से पहले ? बातें दोनों हैं और दोनों अपने-अपने स्थान पर सही हैं। इस संदर्भ में पहले मैं उन्हीं परिस्थितियों की चर्चा करूँगा, जिनमें मैंने इसे लिखना प्रारंभ किया। और ऐसी विधा अपनाई जिससे ‘आज’ में इस लेखमाला के प्रकाशन के शुरूआती दौर में कुछ लोगों की आलोचना और मजाक का पात्र भी बना। ‘कहीं मरा तोता राम-राम बोलेगा ?’ पर इसमें तो गुजरे हुए व्यक्ति को कब्र से उठाकर–और थोड़ा सँभालकर कहूँ तो-इतिहास के पन्नों से निकालकर खड़ा करने की हास्यास्पद चेष्टा की गई है। नाटक में तो ऐसा होता है, पर यह नाटक नहीं है।

जी हाँ, यह नाटक नहीं है। यह एक ‘फैंटेसी’ है। पूरी तौर पर इसे ‘फैंटेसी’ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि न तो हिंदी में और न अंग्रेजी में फैंटेसी की पूरी प्रकृति और उसके स्वभाव तथा गुण पर अभी तक व्यवस्थित विचार हुआ है और न तथाकथित आलोचकों ने उसका ‘सीन काफ दुरुस्त’ कोई फ्रेम ही बनाया है। बातें आधी-अधूरी इधर-उधर कही गई हैं। फिर भी यह साहित्य में एक विधा के रूप में स्थापित है। मुक्तिबोध की कई और बच्चन की एकाध कविता फैंटेसी है।
फैंटेसी को हिंदी और अंग्रेजी के कोशों में अतिकल्पना, कल्पनाशीलता, मन के तरंग, विचित्र संरचना आदि अर्थ दिए गए हैं। पर इन शब्दों से साहित्य में आई फैंटेसी विधा पूर्ण रूप से परिभाषित होना तो दूर, अभिहित या संज्ञापित भी नहीं होती। अंग्रेजी के साहित्य कोश, विशेष तौर पर शिप्ले ने ‘ए डिक्शनरी ऑफ वर्ल्ड लिटरेरी टर्म्स’ में इसे अति कल्पना मानते हुए साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकार किया है।

‘फैंटेसी’ मुख्यतः मनोविज्ञान का शब्द है। इसका संबंध स्वप्न और अवचेतन की स्थितियों से ही है, वस्तुतः दिवास्वप्न की स्थिति से। जब अवचेतन चेतन पर ज्यादा प्रभावी होता है तब फैंटेसी की स्थिति पैदा होती है, बिंबों की श्रृंखला बनती है। ये बिंब अधिकतर बेतरतीब ही होते हैं। कभी-कभी वे तरतीबवार भी हो जाते हैं, जब हमारी सचेत बुद्धि ज्यादा सक्रिय होती है। फ्रायड ने तो इस मनःस्थिति में मन की अतल गहराइयों को भी खोजने का प्रयास किया है। साहित्य में बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से बनी इस विधा तर्क से अनुमोदित नहीं किया जा सकता। यह अतर्कानुमोदित है। (आलोचना के बीच शब्द-डॉ. बच्चन सिंह) कौन सा तर्क सिद्ध करेगा कि मरा तोता राम-राम पढ़ सकता है ? या गांधीजी स्वर्ग से उतरकर अपनी मूर्ति में समा सकते हैं और उससे निकलकर, औरों को न दिखाई या सुनाई पड़ते हुए, केवल मुझे दिखाई पड़ते हैं और मुझसे बातें करते हैं ?

फिर मैंने ‘आज’ के लिए इस धारावाहिक को लिखने के लिए इस विधा का ही सहारा क्यों लिया ? बातें सीधे-सीधे भी कहीं जा सकती थीं। बात यह है कि काका साहब कालेलकर का यह कहना कि ‘आज संसार की कोई ऐसी समस्या नहीं, जिसका समाधान गांधी के पास न हो, कोई ऐसा संकट नहीं जिसका हल उनके विचारों से निकाला न जा सके’-मेरे मन में बड़ी गहराई तक बैठ गया था। जब और गांधीवादी भी ऐसी ही बात करते थे, तब यह पुरानी कही-सुनी बात झलककर मेरे चिंतन जगत् में आ जाती थी और मैं कुछ सोचने के लिए विवश होता था।
आज जीवन जटिल होता जा रहा है। समाज हिंसा, द्वेष घृणा आदि से झुलस रहा है। मन इन स्थितियों से उलझलता रहा। जीवन इस समस्याओं को झेलता रहा और समाज-ऐसी स्थिति में क्या किया जाए-सोचता हुआ दिखाई दिया। वाद-विवाद होता, पर व्यवस्थित संवाद नहीं। स्थितियाँ तू-तू, मैं-मैं, तर्क-कुतर्क आलोचना-प्रत्योलोचना और फिर गाली-गलौज की ओर बढ़ती गईं। उधर समस्याएँ बद से बदतर होती गईं। हर भला आदमी कुछ-न-कुछ सोचने के लिए बाध्य होने लगा और मुझे गांधी याद आने लगे।

मैं सोचने लगा कि ऐसी स्थिति में गांधी होते तो क्या कहते, क्या करते ? कभी-कभी चिंतन में मैं ऐसा डूब जाता कि मैं सचमुच गांधीजी से बातें करने लगता और कभी-कभी तो इस ‘लाउड थिंकिंग’ की आवाज मेरे कमरे से बाहर भी जाती। लोग समझते कि मेरे कमरे में कोई है। परिवार के लोग झाँक-झूँक भी लगाते और जब पाते कि मैं अपने कमरे में अकेला ही हूँ, तब उनके पास मुसकराते हुए इसे मेरे स्वभाव का अंग लेने के सिवा कोई चारा न होता।

मेरी इस कल्पनाशीलता के मूल में था मेरा वह सौभाग्य, जिसने कभी गांधीजी के दर्शन कराए थे। तब मैं छोटा था, न कभी उनका सान्निध्य मिला और न कभी आशीर्वाद। किसी सभा में उनकी मुसकराहट से जो आशीर्वाद बरसता था, उसकी फुहार की स्मृति-शेष से आज भी मन भीग उठता है और कभी बात करने का मौका मिला होता तो गजब हो जाता, इसकी कचोट मुझे आज तक है। मेरी इस ललक ने ही इस फैंटेसी का रूप (फॉर्म) लिया।

‘रचना अपना फॉर्म’ (रूप) स्वयं निश्चित करती है।’-यदि पश्चिम के आलोचकों की यह बात सही है, तो रूप भी अपनी बनावट (टेक्स्चर) खुद तैयार करता है।....और लंबी फैंटेसी में ‘टेक्स्चर’ और ‘फॉर्म’ सँभाले रखना साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक कठिन है। मेरी सर्जनात्मकता शुरु से अंत तक इसके लिए सजग रही है। कहीं प्रकृति और कहीं परिस्थितियों के वर्णन का सहारा लेकर और कहीं गांधी के अशरीरी होने का ध्यान दिलाकर पाठकों को अपने से दूर नहीं होने दिया है। इसी का परिणाम है कि यह लेखमाला अपने पाठकों की चर्चा में हमेशा रही है। पर काल देवता इसका मूल्यांकन करेगा, यह तो वही जाने। सुना है, उसकी अलमारी से उसकी रद्दी की टोकरी कई गुना गहरी और विशाल है।

पूरी लेखमाला का रचनाकाल फरवरी 1992 से मार्च 1994 के बीच का है। लगभग दो वर्षों के कालखंड के भीतर देश जिन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से गुजरा है, उसने जिन-जिन प्रश्नों को जन्म दिया है, उनमें से अधिकांश मैंने अपने गांधी के समक्ष रखे हैं और गांधी ने अपने विचारों के अनुसार उसका समाधान प्रस्तुत किया है। मिसाल के तौर पर-हर्षद मेहता कांड, राष्ट्रपिता पर विवाद, फिर सपा-बसपा की सरकार, गांधीजी का प्रत्यक्ष तिरस्कार, डंकल प्रस्ताव, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आक्रमण, सामान्य प्रशासन, धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण के साथ समाजवाद और मार्क्सवाद आदि राजनीतिक सवाल; फिर जाति, वर्ण, धर्म आरक्षण आदि सामाजिक समस्याएँ भी उनके सामने रखी गई हैं। इनके अतिरिक्त राजनीतिक में छात्रों की हिस्सेदारी, भारत-विभाजन में उनकी भूमिका, उनकी असामयिक मृत्यु या उनकी हत्या-वर्तमान भारत के संबंध में उनसे कई ज्वलंत प्रश्न किए हैं। इसका पूरी खयाल रखा गया है। कि उनके वाङ्मय से जो तसवीर उनकी उभरती है, वह कहीं से कटने या फटने न पाए।

इसीलिए बहुत कुछ तो उनका ‘कहा’ कहा गया है। बहुत कुछ उनके ‘कहे’ जैसा कहा गया है और जो कुछ इन दोनों स्थितियों से हटकर कहा गया है, उसमें पूरा ध्यान रखा गया है कि एक शब्द भी गांधी से हटकर न हो। इसके प्रति भी पूरी सजगता बरती गई है कि सत्य, अंहिसा, सत्याग्रह, ईश्वर, सत्य, साधना, साधन की पवित्रता, ट्रस्टीशिप तथा उनके व्यक्ति-समाज और राज्य की परिकल्पना को कहीं से चोट न पहुँचे। मनुष्य और समाज की उनकी अवधारणा कहीं से घायल न हो। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में मेरा काम एक ‘कैमरा मैन’ का ही रहा है। मैंने बड़े सहज भाव से ‘ज्यों-की-त्यों धर दीन्हीं चदरिया।

गांधी का व्यक्तित्व गजब का था, अपने ढंग से बेमिसाल। शताब्दियों में ऐसी विभूतियाँ खोजे कहीं मिलती हैं। वे अद्भुत कलाकार थे; जिस मिट्टी को छू दिया, वह मूर्ति बन गई। वे पारस थे, लोहा भी उनके संपर्क में आया तो सोना हो गया। वे जादूगर थे, हताशा और गुलामी से पथराए देश में प्राण भर दिया। और फिर यही प्राण वायु आँधी बन गई। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी अकबर इलाहाबादी को कहना पड़ा-

‘बुद्धू मियाँ भी हजरते गांधी के साथ हैं,
गो मुश्तखाक हैं, मगर आँधी के साथ हैं।’

वे आँधी थे। आँधी जैसी उनमें अव्यवस्था नहीं थी, अनुशासन था, वह भी ऊपर से थोपा हुआ नहीं, बल्कि आत्म-अनुशासन था। उनमें आत्मबुद्धि पहले थी, समाज-शुद्धि बाज में। सामूहिक आत्म शुद्धि का ही परिणाम समाज-शुद्धि को मानते थे। इससे उनका आंदोलन संसार के सारे राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों से एकदम अलग दिखता है, एकदम भिन्न। संसार के सभी आंदोलनों में सुधार की लहर समाज से व्यक्ति की ओर आती दिखाई देती है और गांधी के आंदोलन में सुधार की लहर व्यक्ति से समाज की ओर जाती है। हमारे देश के भक्ति आंदोलन में भी यह विशेषता थी, पर वह भगवान् को समर्पित था और गांधी का आंदोलन भगवान् की इच्छा से समाज को समर्पित था।

वस्तुतः गांधी को पढ़ना, उनको समझना, फिर उन तक पहुँचने की कोशिश करना साधारण काम नहीं है। हमारे जैसे लोगों के सामर्थ्य के बाहर है। नेहरू के शब्दों में-‘गांधी को समझने के लिए गांधी जैसा ही आदमी चाहिए।’-फिर भी, यह कहकर गांधी को छोड़ा नहीं जा सकता और न स्वयं हार ही माननी चाहिए। हमें सूरज की ओर यात्रा आरंभ करनी चाहिए। भले ही हम सूरज तक पहुँच न पाएँ, पर उस धरती के आकर्षण क्षेत्र से बाहर तो निकल ही जाएँगे, जो हिंसा, द्वेष, घृणा, संघर्ष आदि से बेतरह पटी है, बेतरह बँटी है। यहाँ धरती ही नहीं, उसका आकाश भी बँटा है, जहाँ भारत जैसे ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की कल्पना करनेवाले देश के कुटुंबों के आँगन में दीवारें खड़ी हो रही हैं। अब तो उसका आँगन भी गायब होने लगा है। इसलिए हम गांधी को समझने की चेष्टा करें। निश्चित ही आज उनकी पहले से अधिक सार्थकता भी है और प्रासंगिकता भी।
गांधी को समझने के लिए, और विशेषकर इस फैंटेसी में, निम्नलिखित बिंदु मार्गदर्शक हो सकते हैं-

1.    गांधीवाद- वस्तुतः गांधीवाद के नाम से कोई व्यवस्थित वाद नहीं है। यह बात दूसरी है कि उनके विचारों से कुछ व्यवस्थित सिंद्धांत बना लिये जाएँ और हम उन्हें किसी ‘वाद’ की संज्ञा दे दें। गांधी ने स्वयं स्वीकार किया है कि मैंने किसी वाद की स्थापना नहीं की। मैंने तो समय और देश की परिस्थितियों को देखते हुए तात्कालिक स्थितियों का निदान प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मेरे विचार हालात के अनुसार बदलते रहे हैं। जो आज कहा है, हो सकता है, कल वही बदल जाए और दूसरा कहने लगूँ।

2.    ईश्वर- गांधी के अनुसार-ईश्वर एक ऐसी शक्ति है, जो हम सब पर छाई है, जिसके बिना संसार का अस्तित्व नहीं। जिसकी परिभाषा की नहीं जा सकती। जो तर्कातीत है, अतर्कानुभव है। तर्क से उसे जानने का मतलब है, सिर के बल चलकर उस तक पहुँचने की असफल चेष्टा करना; क्योंकि तर्क बहुधा अपने खिलाफ ही खड़ा हो जाता है। आज तक ईश्वर के होने के पक्ष में जितने तर्क दिए गए हैं, लगभग उतने ही तर्क उसके न होने के लिए भी दिए गए हैं। तर्क से ईश्वर सिद्ध नहीं किया जा सकता। तर्क से जो सिद्ध होगा वह ईश्वर नहीं, तर्क ही होगा।

3.    सत्य-पहले गांधी ईश्वर को सत्य मानते थे। बाद में वे सत्य को ही ईश्वर मानने लगे। यह सत्य के साथ उनके निरंतर किए जा रहे प्रयोग का फल था। वे सत्य के असली प्रयोक्ता थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम ही माई एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रुथ’ (सत्य के साथ मेरे प्रयोग) दिया है।

4.    आत्मा- वह परमात्मा की तरह आत्मा की पूर्णता में विश्वास करते हैं। वह उसे सत्य, निर्विकार और निर्गुण मानते हैं। उनका कहना है- ‘‘आत्मा मनुष्य में ईश्वरीय है। यह स्वचालित है। उसका जीवन भौतिक शरीर पर निर्भर नहीं है, वरन् शरीर ही उस पर निर्भर है।’’

5.    मनुष्य-मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसके मन में सद् और असद् इच्छाएँ दोनों हैं। भिन्न-भिन्न मनुष्यों में इनका अनुपात भिन्न-भिन्न होता है। जब असद् इच्छाएँ प्रभावी होती हैं तब मनुष्य के कर्म दूषित होते हैं, जब उसकी सदिच्छाएँ जागती हैं तब वह सत्कर्म की ओर प्रेरित होता है। इसलिए मनुष्य अपने कर्मों से शैतान और देवता दोनों हो सकता है।
मनुष्य की इच्छाएँ प्रभावित की जा सकती हैं। उसके शैतान और देवता को कमजोर और बलवान् किया जा सकता है; पर इनमें से किसी को एकदम समाप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए गांधी मनुष्य के ‘हृदय परिवर्तन’ में विश्वास करते हैं। यही हृदय-परिवर्तन उनके सत्याग्रह का मूल हैं।

6.    सत्याग्रह-सत्य के लिए पूर्ण अहिंसा के साथ सदिच्छा और पूर्ण निश्चय से किया गया आग्रह ही सत्याग्रह है। ‘सत्याग्रह आत्मा की शक्ति है।’ सत्य अहिंसा और सदिच्छा में से कोई भी यदि थोड़ा सा स्खलित हुआ कि सत्याग्रह से दुराग्रह हो जाएगा। इसके लिए अटल विश्वास, अंतःकरण की शुद्धता और परम निर्भयता की आवश्यकता होती है। हमें मृत्यु का भय त्यागना पड़ता है। किसी भी सीमा तक कष्ट सहना पड़ सकता है। इसीलिए सत्याग्रह न तो दुर्बलों का साधन हो सकता है और न ही कायरों का हथियार। यह न संघर्ष है, न लड़ाई, वरन् साधना है। लड़ाई के दो ही अंतिम परिणाम होते हैं-हार या जीत। पर साधना की पूर्णता तो साध्य पर ही होती है, भले ही उसमें देर-सबेर हो। इसीलिए सत्याग्रही कभी असफल नहीं होता।

7.    अहिंसा-‘‘अहिंसा का अभिप्राय जमीन पर किसी वस्तु या जीव को विचार या कर्म से नुकसान न पहुँचाने से है।’’ –गांधी। अहिंसा का तात्पर्य केवल हिंसा न करना ही नहीं है। यह हिंसा का निषेध मात्र नहीं है। इसका ‘विधेयात्मक रूप ही करुणा, दया प्रेम, क्षमा, मैत्री आदि है। किसी का अहित सोचना भी नहीं चाहिए। किसी के द्वारा कष्ट दिए जाने पर भी उसे कष्ट न देने और उसकी भलाई चाहने की भावना ही गांधी की सच्ची अहिंसा है। गांधी यह भी स्वीकार करते हैं कि पूर्ण अहिंसा तो केवल ईश्वर का ही लक्षण है, वह साधारण मनुष्य की पहुँच के बाहर है। इस पर भी अहिंसा को अधिक से अधिक अंगीकार करना मनुष्य को उसकी पूर्णता की ओर ले जाता है।


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