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कार्टूनों में गांधी

शिवानंद कामड़े

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5170
आईएसबीएन :81-7721-070-x

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गांधीजी को लेकर अब तक न जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं—उनके जीवन पर केंद्रित व्यंग्य चित्रों का हिन्दी का पहला संकलन।

Cartunon Mein Gandhi a hindi book by Shivanand Kamade - कार्टूनों में गांधी - शिवानंद कामड़े

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लेखकीय

महात्मा गांधी विश्व की एक महानतम हस्ती। भगवान के लिए इन्सान और इन्सान के लिए भगवान् के रूप में लोग इसकी पूजा-आरती करते हैं। हाथ में लाठी लिये चलने की मुद्रा में निर्मित इस मूर्ति की स्थापना, बापू के देहावसान के दो दिन के बाद ही कर दी गई थी। तब यह मूर्ति इस मंदिर में न होकर कहीं और स्थापित की गई थी। पचपन वर्ष हो गए इस महापुरुष को देवत्व प्राप्त हुए।

गांधीजी को देवत्व का दर्जा इसलिए नहीं मिला के वे कोई चमत्कारी पुरुष थे बल्कि इसलिए मिला, क्योंकि वे जीवन के प्रति संघर्ष करनेवाले एक अद्वितीय योद्धा थे। सत्य के पक्षधर थे। अहिंसा के पुजारी थे तथा आत्मविश्वास के प्रति उनकी गहरी आस्था थी।

* दि हितवाद (2 अप्रैल, 2003) में प्रकाशित समाचार के आधार पर।
वास्तव में देखा जाए तो गांधी एक नाम नहीं, अपितु एक संपूर्ण विचारधारा का घोतक है। एक अलीक योद्धा थे वे। जो सदा लीक से हटकर चले। गृहस्थ होकर भी वीतरागी। फक्कड़पन तो उनका हद दर्जे का। उनका यह फक्कड़पन कभी कबीर की याद दिलाता है तो कभी मंसूर की। उनकी सत्यनिष्ठा उन्हें सुकरात या राजा हरिश्चन्द्र के समक्ष ले जाती है। बाहर से देखने में जितना सहज, भीतर से उतने ही रहस्यवादी।
उनकी मृत्यु के पश्चात् आइंस्टीन ने कहा भी था, ‘‘अगली पुश्तों को विश्वास भी नहीं होगा कि ऐसा भी कोई पुरुष हाड़-मांस के रूप में इस पृथ्वी पर रहा होगा।’’

बापू शुरू से ही प्रयोगधर्मी रहे। सत्य, अहिंसा, उपवास, पदयात्रा, दृढ़ निश्चयता के बलबूते पर उन्होंने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं। यही उनके प्रमुख अस्त्र थे। गांधीजी को लेकर अब तक न जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं—उनके जीवन पर केंद्रित। उनकी प्रयोगधर्मिता को लेकर देश-विदेश के विज्ञ रचनाकारों ने इन पर बहुत काम किया, जैसे—एलीनर मार्टिन की ‘द विमेन इन गांधीजीस लाइफ’, पोलक की ‘महात्मा गांधी विसेंट शीन की लीड काइंडली लाइट’, जिनेट इंटन की ‘गांधी फाइटर विदाउट ए स्वोर्ड’, ज्योक्रे एश की ‘गांधी हाफ वे टू फ्रीडम’।

भारतीय रचनाकारों ने भी गांधी पर अनेक अमूल्य कृतियाँ दी हैं। एम. चेलापति राव की ‘गांधी एंड नेहरू’, मीरा बेन की ‘दि स्प्रिट्स पिलग्रिमेज जरनल’, एफ, पी. क्रोजियर की ‘ए वर्ड टू गांधी’, महादेव देसाई की ‘दि एफिक ऑफ ट्रावनकोर’ तथा ‘गांधीजी इन इंडियन विलेजेज’, प्रफुल्लचंद्र घोष कृत ‘महात्मा गांधी’, निर्मल बोस की ‘माई डेज विथ गांधीजी’।
नव जीवन ट्रस्ट ने बापू के पत्रों का संकलन दस खंडों में छापा। सस्ता साहित्य मंडल से गांधीजी की पुरानी चिट्ठियों का संग्रह छपा। डॉ. सुशीला नायर ने ‘बापू की कारावास कहानी’ लिखी तो यशपाल जैन ने ‘साबरमती का संत’ रचा। ‘महादेव की डायरी’ के नाम से सन् 1917 से 1942 तक की कालावधि में बापू भाषण, पत्र-व्यवहार, वार्तालाप पर आधारित दस खंडों की एक विस्तृत श्रृंखला वाराणसी के सर्व सेवा संघ से हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हुई। इसमें भाग छह से नौ तक की सामग्री का प्रकाशन गुजराती में भी हुआ। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष की गाथा को केन्द्रित कर डॉ. गिरिराज किशोर ने एक वृहद उपन्यास लिखा—‘पहला गिरमिटिया’। उपन्यासाकर ने गांधीजी की विभिन्न गतिविधियों को, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में संवाहित की, 904 पृष्ठों में समेटने की चेष्टा की। गांधीजी के जीवन-चरित को के.एम. एडिमूलम ने अपनी पुस्तक ‘बिटविन द लाइंस’ में रेखांकित करने का प्रयास किया। गांधीजी के व्यक्तित्व एवं उनके विभिन्न क्रिया-कलापों को सर्वप्रथम सन् 1953 में रेखांकित किया गया। मूरे ने भी ‘द स्टोरी ऑफ हिज लाइफ’ में गांधीजी पर अनेक रेखाचित्र तैयार किए। उन दिनों के छाया चित्रकारों ने भी गांधीजी की तस्वीर उतारने में भरपूर रुचि दिखाई थी।

अपनी सहजता व सरलता की वजह से देश-विदेश के व्यंग्य चित्रकारों का ध्यान बापू ने स्वाभाविक रूप से खींचा। बल्कि यूँ कहे कि व्यंग्य चित्रकार ही इनकी ओर खिंचे चले आए। स्वयं बापू ने अपने व्यंग्य चित्रों में गहरी रुचि दिखाई। गांधीजी पर केन्द्रित व्यंग्य चित्रों का संकलन सहज नजर नहीं आता। हिंदी में तो खैर ऐसा कोई संकलन है ही नहीं। कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में गांधीजी पर कुछ व्यंग्य चित्र जरूर प्रकाशित हुए या किसी-किसी व्यंग्य चित्रकार के व्यंग्य चित्र में दो एक व्यंग्य चित्र गांधी के भी संकलित किए गए बस। अतः यह संकलन व्यापक रूप से इस दिशा में प्रदान किया गया पहला प्रयास कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

गुलामी के दिनों में बापू गांधीजी यद्यपि चिंतित व दुःखी थे, किंतु आजादी के बाद बापू पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तनावग्रस्त दिखे। 29 जनवरी को तो वे बड़े चिंतित लग रहे थे। करीब सवा नौ बजे वे सोने के लिए उद्यत हुए और फिर मनु ने कहा

है बहारे बाग दुनिया चंद रोज
देख तो इसका तमाशा चंद रोज

और फिर आई 30 जनवरी। सुबह से मौसम कुछ म्लान सा लग रहा था। दोपहर बाद वे बिशन से बोले, ‘‘बिशन, मेरी महत्वपूर्ण चिट्ठियाँ ले आ। मुझे उनके जवाब आज ही दे देने चाहिए...शायद कल मैं रहूँ ही नहीं।’’
शाम साढ़े चार बजे का समय। बापू बिड़ला हाऊस से प्रार्थना के लिए निकले कि भीड़ चीरता हुआ कोई सख्श सीधे बापू के पास आकर खड़ा हो गया। युग प्रवर्तक को उसने नमन किया और फिर दनादन गोलियों की तीन आवाजें...
‘‘हे राम !’’ बापू के श्रीमुख से बस यही शब्द अन्तिम शब्द के रूप में प्रस्फुटित हुए थे। कोई पचपन साल हो गए इस शब्द को उच्चारित हुए। यदि आज बापू जिंदा होते तो यह शब्द दिन में कितनी बार कहते। परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी हो गई हैं। गनीमत कहो कि बापू इन सब स्वातंत्र्योत्तर गतिविधियों को देखने के लिए अधिक दिन नहीं रहे वरना वे स्वयं को गोली मार डालते।

गांधी पर बनाए गए इन व्यंग्य चित्रों की तलाश में बरसों से भटक रहा हूँ। यह संकलन तो एक पड़ाव मात्र है। यात्रा अभी और भी है। जिन कार्टूनिस्टों की रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हुई हैं, उनके लिए मैं आभारी हूँ। बापू का भी बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में चलकर उस सर्वशक्तिमान का भी, जिन्होंने कार्टूनिस्टों के लिए बापू को भेजा। खादी के डायमंड जुबली के इस हीरक वर्ष में यह कृति बापू को विनम्र रेखांजलि के रूप में। शायद इसी बहाने हम और आप बापू की याद ताजा कर लें। यह पुस्तक इसी निमित्त स्वरूप।

-शिवानंद कामड़े
30 जनवरी, 2005
एफ-2/15, पाँच बिल्डिंग
दुर्ग (छत्तीसगढ़)—491001

गांधीजी: विदेशी कार्टूनिस्टों की दृष्टि में


दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधीजी ने हिंदुस्तानियों पर किए जानेवाले अत्याचारों के प्रतिरोध में तत्कालिक अंग्रेजी शासकों से जमकर लोहा लिया। ‘संडे टाइम्स’ का संपादन भले ही भारतीयों के विरुद्ध कुछ भी लिखता, छपता रहे, किंतु इस अखबार के व्यंग्य चित्रकार ने गांधीजी के संघर्ष का अत्यंत सजीव रेखांकन किया। ‘संडे टाइम्स’1 (1908) में ऐसा ही एक सटीक व्यंग्य चित्र का प्रकाशन कर हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

इस व्यंग्य चित्र में गांधीजी को एक महावत के रूप में तथा भारतीय समुदाय को एक विशाल शक्तिशाली हाथी के रूप में चित्रित करते हुए व्यंग्य चित्रकार ने बताया कि किस प्रकार जनरल स्मट्स2 सड़क बनानेवाले बेलन के द्वारा इस हाथी को धकेलने की पुरजोर कोशिश कर रहा है, किंतु हाथी को धकेलने में वह सफल नहीं हो पा रहा है। अपनी असफलता से स्मट्स परेशान नजर आ रहा है। इस व्यंग्य चित्र का शीर्षक बेलन और हाथी रखा गया है।
बेलन की ठेस से हाथी को गुदगुदी सी हो रही है, वह मन-ही-मन हँसते हुए कह रहा है—
‘‘देख लिया अब तेरा बल, गुदगुदी करना रहन दे। कार्टूनिस्ट ने इस व्यंग्य चित्र में जहाँ भारतीय जनता की ताकत की प्रत्यक्ष प्रशंसा की वहीं उसने जनरल स्मट्स की असफलता की खिल्ली भी उड़ाई।’’

सन् 1908 में ‘रैंडी मेल’3 में व्यंग्य चित्रकार ए. विल ने गांधी के आत्मबलिदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस चित्र में गांधीजी को पादरी के वेश में दरशाया गया है। जनरल स्मट्स ने उसे खंभे से बाँधकर उसके चारों ओर घास-फूस का ढेर लगा रखा है। पास में ही तीन कनस्तर, जिनमें ज्वलनशील तरल पदार्थ रखे हैं, दिखाए गए हैं। एक में लिखा है ऐशियाट का पंजीयन कानून। दूसरे में परमिट कानून तथा तीसरे में प्रवासी कानून। श्री स्मट्स के हाथ में जलती मशाल है। आत्मविश्वास से भरे गांधीजी अभी भी मंद-मंद मुसकरा रहे हैं और मन-ही-मन मानो कह रहे हैं—
1. जोहांसबर्ग के प्रति रविवार को प्रकाशित होनेवाला एक लोकप्रिय साप्ताहिक।
2. प्रिटोनिया के निवासी जॉन क्रिश्चियन स्मट्स : उपनिवेश सचिव।
3. जोहांसबर्ग का एक दैनिक पत्र।

‘‘लगता तो बड़ा खूँखार, स्मट्स पीठ फेरे खड़ा है। उसकी हिम्मत नहीं कि पुआल में आग लगा दे।’’
जिस बेलन से स्मट्स भारतीय कौम रूपी हाथी को धक्के मारने की चेष्टा कर रहा था, वही बेलन चकनाचूर होकर बिखर गया। महावत के रूप में गांधीजी स्मट्स को चिढा़ते हुए कह रहे हैं—कह गई न नाक इतनी लंबी।
कहिए, हैं तो आप सब मजे में ! कितना करारा व्यंग्य !

क्रिटिक में ऐसा ही एक और व्यंग्य चित्र छपा, जिसमें हाथी पर सवार गाँधीजी अपने दसों अँगुलियों को नाक पर रखकर एक और कटाक्ष कर रहे हैं—‘‘चख लिया दस अँगुलियों की छाप का स्वाद।’’ उन दिनों देश-विदेश में दस अँगुलियों की छाप की बड़ी चर्चा थी। इसकी पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार से है—स्वेच्छया पंजीयन में शिक्षितों को अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय अधिकारी व व्यापारियों को दस्तावेजों में हस्ताक्षर करने की अपेक्षा दस अँगुलियों की छाप लगाने को कहा। जो शिक्षित भारतीय अधिकारियों एवं व्यापारियों के लिए सरासर अपमान की बात थी। सो, उन्होंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। खूब हो-हल्ला हुआ। यहाँ तक कि गुजराती भाषा में गीत तक बन गए

दस आंगलियो तणी निशानी
दीये मूँछ नूं जाशे पाणी

जब गांधीजी ने दस अँगुलियों की छाप लगाने की जगह हस्ताक्षर प्रयुक्त किया तब उपनिवेश सचिव महोदय यह देख हतप्रभ रह गए। ‘रैंड डेली मेल’ में बनाना बिल के नाम से एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित हुआ।
सन् 1911 में भारतीय सत्याग्रहियों के सम्मान में एक शाकाहारी भोज का आयोजन किया गया, जिसमें श्री विलियम हास्केन ने केला खाया तथा कानून भंग करनेवालों के पक्ष में एक जोरदार जोशीला भाषण दिया। इस संदर्भ को व्यंग्य चित्रकार ने अपने चित्र में खूब उकेरा।

एक और समकालीन व्यंग्य चित्र देखिए, जिसमें कार्टूनिस्ट ने विलियम हास्केन के नाम जी (JEE) और आस्केन के बाद धी (DHI) जोड़कर उसका मखौल उड़ाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ हास्केन को गाँधी वेश में उपस्थित किया गया।
चित्र में व्यंग्य चित्रकार ने वाणिज्य की बरबादी में जिन-जिन लोगों ने सहयोग दिया उसका सुंदर चित्रण किया। दक्षिण अफ्रीका की भूमि पर वाणिज्य बिल रूपी पच्चड़ को सब ठोंक रहे हैं। इस व्यंग्य चित्र का प्रकाशन ‘संडे टाइम्स’ में हुआ।
‘रैंडी मेल’ में कार्टूनिस्ट डब्ल्यू.एल. का यह व्यंग्य चित्र भी व्यंग्य चित्रकारिता का एक उम्दा उदाहरण बन पड़ा है। इसमें गांधी को सत्याग्रही और स्मट्स को डाकू के रूप में दिखाया गया। दोनों के बीच वार्तालाप चल रहा है—
डाकू स्मट्स : ‘‘मरने के लिए तैयार हो जा।’’

सत्याग्रही (गांधीः : हाँ भइया स्मट्स, मैं तैयार हूँ। कृपया कर कोई कसर बाकी न रखें।’’
डाकू : ‘‘भले मानुस यह न कह। यह कम्बख्त चलती ही नहीं।’’
क्रिटिक में एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित हुआ। इसमें युवा गांधी हाथ में तख्ती लिये खड़े हैं, जिस पर लिखा है—देश निकाला देने का अधिकार नहीं। इस तख्ती को देख अंग्रेज शासक भाग खड़े हुए हैं।
अंग्रेज यह जानते थे कि भारतीयों को देश निकाला नहीं दिया जा सकता था। पर इसका विद्रोह केवल गांधीजी ही कर पाए थे।
गांधीजी ने अंग्रेजी शासक की हर दमन नीति का पुरजोर विरोध किया, जिसका उल्लेख वहाँ के अखबारों में भी समय-समय पर होता रहता था। ‘संडे टाइम्स’ में प्रकाशित चित्र में श्री गांधी का स्वप्न शीर्षक में स्मट्स और कानून पर टिप्पणी प्रस्तुत हुई है। मेज पर कुहनी टिकाए स्मट्स चिंतामग्न हो सोच रहे हैं

रजिस्ट्रेशन भारी कजा
रेजिस्टेंस है उससे बड़ी
सी.बी. बुड्ढा तंग किए है
गांधी ने पागल बना दिया।

(सी.बी. यानी कैंबेल बेनरमेन—ये इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे)
(टिप्पणी : यह व्यंग्य चित्र उपलब्ध नहीं हो पाया।)
आइए देखें, अब एक करुणाजनक व्यंग्य चित्र।
इसमें गांधीजी को नुकीला कवच पहने हुए दिखाया गया है। कवच में लिखा है

मुझे छुइए मत।
मैं हूँ आपका दीन।

गांधी और स्मट्स के बीच सदैव नोक-झोंक चलती ही रहती। उन दिनों गांधी तथा अन्य रिहायशी भारतीयों को हर कदम पर संघर्ष करना पड़ रहा था। व्यंग्य चित्रकार ने यहाँ गांधी को एक मदारी के रूप में तथा जनरल को बंदर के रूप में दरशाया। दोनों के बीच हुए संवाद की एक बानगी—
जनरल : ‘‘मियाँ मदारी ! चलते बनो। हम तुमसे और तुम्हारे बाजे से तंग आ चुके हैं।’’
गांधी : ‘‘और हुजूर, मुझे क्या देंगे। यदि मैं चलता बनूँ ?’’
जनरल : दूँगा, जरूर दूँगा। अगर तुम यहाँ से चलते न बनो।’’

गांधीजी सत्याग्रही के रूप में जब फोक्सरस्ट जेल में बंदी थे तब वहाँ पर उन्होंने भरतीय बंदियों को दिए जानेवाले भोजन के प्रति अंग्रेज जेलरों के सौतेले व्यवहार को लेकर भी विरोध किया था। भारतीय सत्याग्रहियों को दिए जानेवाले भोजन में चिकनाई का अभाव होता। यूरोपियन कैदियों को मांस दिया जाता, जबकि भारतीय कैदियों को पू पू (मकई की दलिया), सब्जी व चावल भर मिलता। व्यंग्य चित्रकार ने गांधी को अधिकार के प्रति जागरुक रहने एवं विषम परिस्थितियों में भी हास-परिहास की प्रवृत्ति कायम रखने की सुप्रवृत्ति को उजागर करने की चेष्टा की।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए देश-विदेश में गांधीजी ने संघर्ष किया, वह न केवल अनुकरणीय बना, अपितु अपनी सहजता, सादगी, सत्यनिष्ठा व देशभक्ति से लोगों का हृदय जीत लिया। गांधीजी का व्यक्तित्व इतना प्रभामंडलीय था कि विदेशी व्यंग्य चित्रकार भी उनके चुंबकीय व्यक्तित्व के आकर्षण से नबच सके।
12 मार्च 1930 की सुबह साढ़े छह बजे साबरमती आश्रम से दांडी यात्रा प्रारम्भ कर अरेबियन सागर तक (240) मील जाने का विचार कर नमक सत्याग्रह के लिए निकल पड़े, साथ में थे उनके अठहत्तर कार्यकर्ता तथा अनगिनत भीड़। जेक (Czech) का यह व्यंग्य चित्र (चित्र-14) अत्यन्त दुर्लभ है।


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