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पवित्र पापी

नानक सिंह

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5191
आईएसबीएन :978-0-14-306327

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दिल को छू लेने वाली ये कहानी है नौजवान घड़ीसाज़ केदार की जिसे एकतरफ़ा प्रेम है वीणा से...

Pavitra Papi - A Hindi Book - by Nanak Singh

कौन है केदार ? एक विलेन जो वीणा को हालिस करना चाहता है ? या एक रक्षक जो वीणा के पिता के ग़ायब होने पर न जाने कहां से उसे और उसके परिवार को सहारा देने चला आया है ? क्या वीणा के लिए वह भाई है ? या फिर प्रेमी ? क्या है केदार ? साधु ? या पापी ? या सिर्फ़ एक आम इंसान जो केवल वही कर रहा है, जो उसके भाग्य में काली स्याही से लिख दिया गया है ?

दिल को छू लेने वाली ये कहानी है नौजवान घड़ीसाज़ केदार की जिसे एकतरफ़ा प्रेम है वीणा से। 1930 में पंजाब के अमृतसर और रावलपिंडी के बाज़ारों की तंग गलियों में रची-बसी यह कहानी पन्ना लाल के परिवार की मुसीबतों के इर्द-गिर्द घूमती है, और फिर केदार उनके जीवन में आता है और उन्हें भावनाओं के भंवर में उलझा देता है।
 
केदार की यह दुविधा भले ही अंतहीन हो, पर सांस्कृतिक और भौगोलिक सीमाओं से पार यह हमारी-आपकी दुविधा भी हो सकती है।
नानक सिंह द्वारा रचित इस उपन्यास में सामाजिक परिवेश के ताने-बाने में बुनी हुई प्रेम और कर्तव्य की इस कशमकश को दर्शाया गया है।


उसने अपनी आपबीती कैसे सुनाई ?



काश ! मैंने उसका एकाध चित्र ले लिया होता, जिसे मैं अपने पाठकों को दिखाकर ‘कमाल’ के विषय में उन्हें अच्छी तरह अनुभव करवा सकता, परंतु उस वक़्त मुझे क्या पता था कि कभी मुझे उसकी जीवनी ‘उपन्यास’ के रूप में प्रस्तुत करनी पड़ेगी। आज मैं सोच रहा हूं, क्या मैं क़लम से उस अभागे की हूबहू तस्वीर चित्रित कर सकूंगा ?
 
उसका असली नाम तो मुझे तब पता चला, जब इस दुनिया में सिर्फ़ उसका नाम ही बाक़ी रह गया था। आमतौर पर लोग उसे ‘मिस्टर कमाल’ कहकर ही पुकारते थे। मेरा ख़्याल था, उसका यही नाम है, परंतु बाद में पता चला कि यह उसका नाम नहीं बल्कि उसका उपनाम कह लें या विशेषण कह लें, कुछ ऐसा ही था। मैं सोचता हूं, वह सही अर्थों में ‘कमाल’ था। उसे जहां तक मैंने देखा, कमाल से कम नहीं था। वह जो कुछ भी करता, उसे कमाल की हद तक पहुंचा कर छोड़ता था।
काफ़ी पुराना वाक़ेया है–आज से कोई दस साल पहले का–उन्नीस सौ इकतीस या बत्तीस का शायद, परंतु अब भी जब कभी अमृतसर के उस बाज़ार से गुज़रता हूँ, उस दुकान के सामने मेरे क़दम एक बार अवश्य थम जाते हैं। वह दुकान अब घड़ीसाज़ की न होकर परचून की है, परंतु मेरी आंखों के समक्ष वही पुराना दृश्य साकार हो उठता है–भूरे से रंग की मैली सी जैकेट पहने एक बाईस-चौबीस वर्षीय दुबला सा नौजवान सीने से घुटने सटाए पैरों के बल बैठा अपने धुंधले शीशों वाले शोकेस के सामने घड़ियों की मरम्मत कर रहा है, जिसमें अनेकों पुरानी घड़ियां, टाइमपीस और उनके अनगिनत पुर्ज़े भरे पड़े हैं। शोकेस के सामने वाले शीशे पर एक आधे पोस्टकार्ड जितनी तस्वीर चिपका रखी है, जो पुरानी और मैली होने के कारण दसेक वर्षीया लड़की की तस्वीर है।

मुझे ऐसा लगता है, जैसे वह घड़ीसाज़ अब भी वहीं उसी तरह की बैठक में दाहिनी आंख में आई-ग्लास लगाए, किसी बिगड़ी हुई घड़ी में से, उसके पुर्ज़ों को महीन नोक वाली चिमटी से निकालकर शोकेस की छत पर रखे जा रहा है, जहां और भी कई खुली और अधखुली घड़ियां कांच के ग्लोबों में पड़ी हैं।

उसके पतले होंठ, जो कभी भी सिगरेट से ख़ाली नहीं होते, अब भी मुझे उसी तरह धुएं के बादल उछालते नज़र आते हैं। उसके पीठ पीछे की दीवार का थोड़ा सा हिस्सा जो उसकी खुरदुरी जैकेट की रगड़ से घिस-घिसकर मुलायम हो गया था, मुझे अब भी वैसा ही दिखाई देता है।

तब मैं इसी बाज़ार में दुकान करता था। वह घड़ीसाज़ मेरे साथ वाली बाईं तरफ़ की दुकान में रहता था। उसे दुकान खोले साल भर या इससे थोड़ा कम समय हुआ था। उसकी दुकान के भीतर ही पीछे की तरफ़ एक छोटी सी कोठरी कहें या कमरा, कुछ इसी तरह का था और यही उसका घर था।

घड़ीसाज़ी के काम में वह इतना माहिर था कि जिस घड़ी की मरम्मत सारे शहर में कोई न कर सकता, उसे वह बड़ी आसानी से ठीक कर देता था। पुराने से पुराने और नए से नए मॉडल की घड़ियां उसके पास मरम्मत के लिए आती थीं। जिस घड़ी की ख़राबी किसी घड़ीसाज़ को समझ न आती तो वह ग्राहक को ‘मिस्टर कमाल’ की दुकान पर भेज देता था। इसका सबूत मुझे इस बात से मिलता था कि कई आदमी बीच-बीच में आकर मुझसे पूछते, ‘‘कमाल घड़ीसाज़ की दुकान कौन सी है ?’’

बाज़ार के लोगों का आमतौर पर यही ख़्याल था कि कमाल ज़रूर बुरे आचरण वाला व्यक्ति है, जो अपनी कमाई बदमाशी में लुटा देता है। परंतु लोगों का यह ख़्याल मुझे जंचता नहीं था। वजह ? मैंने कभी भी उसे कहीं आते-जाते नहीं देखा था। सुबह से लेकर रात तक वह काम में व्यस्त रहता, और रात से सुबह तक उस पिछली वाली कोठरी में। हां, कभी-कभार यदि मैंने उसे देखा भी तो घंटाघर के पास वाले डाकघर तक ही, शायद चिट्ठी-पत्री डालने के लिए।

उसके विषय में एक बात ख़ासतौर से मशहूर थी कि जब तक उसके पेट में चाय का प्याला और मुंह में सिगरेट न हो, वह काम नहीं कर सकता था।

कमाल की दिनचर्या एक सी थी, जिसमें मैंने कभी कोई परिवर्तन नहीं देखा। गर्मी का मौसम हो या सर्दी का, वह उसी जगह, उसी तरह पैरों के बल, सीने से घुटने सटाए और मुंह में सिगरेट लिए काम में जुटा रहता था। काम करते-करते जब वह थक जाता तो जलती हुई सिगरेट को शोकेस पर पड़ी, टूटी हुई चीनी मिट्टी की प्लेट में रखकर गाने लगता। उसका गीत भी एक ही सर-ताल में अक्सर एक ही होता :


‘अलविदा ऐ क़ाफ़िले वालों मुझे अब छोड़ दो।
मेरी क़िस्मत में लिखी थीं दश्त की वीरानियां।’


शोकेस से लगभग गज़, सवा गज़ के फ़ासले पर एक लोहे की अंगीठी थी, जिस पर अक्सर चाय की केतली चढ़ी रहती थी। सारे दिनभर में वह जितनी बार उठता, केवल चाय पीने के लिए या फिर पेशाब करने के लिए। एकमात्र पत्थर की चौड़ी सी प्याली उसके पास पड़ी रहती थी जिसे वह घंटे-डेढ़ घंटे बाद केतली में से भरता रहता और पीता रहता। चाय भी बड़ी अजीब सी थी–दूध के बग़ैर सिर्फ़ कहवा ही, और वह भी इतना गाढ़ा और काला कि देखकर आश्चर्य होता कि इसे वह पचाता कैसे होता।

उसकी कोठरी की दाहिनी तरफ़ उसके ढीले-ढाले मैले से बिस्तर वाली चारपाई थी और बाईं तरफ़ के कोने में कोयले की ढेरी। कोठरी का सारा फ़र्श कोयले की कालिख से काला हुआ रहता था। उसकी केतली जब भी ख़ाली होने को आती, वह लोटा भरकर पानी और डिब्बे में से एक मुट्ठी चायपत्ती उसमें उड़ेल देता। कोई भी मौसम हो, कोई भी वक़्त, उसकी केतली में से भाप निकलती ही रहती थी।
 
पता नहीं क्या कारण था कि उसकी सभी आदतों को नापसंद करते हुए भी मैं उससे नफ़रत नहीं करता था। वह जब भी किसी से बात करता, ज़ोर से क़हक़हा लगाता। कई बार जब मैं अपनी दुकान पर बैठा हुआ ग्राहकों से लेन-देन कर रहा होता, तो उसका यह बार-बार हा, हा, हा, करके ज़ोर से हंसना मेरे कानों को खलने लगता था और मैं चिढ़ जाता था। परंतु जब कभी वह अपनी पंक्तियां गुनगुनाने लगता तो मेरा सारा क्रोध दूर हो जाता। उसकी आवाज़ में इतना सोज़, इतना दर्द था कि काम करते हुए भी मेरा ध्यान ज़बरदस्ती उसके गाने की तरफ़ खिंच जाता। वह बहुत ऊंचे स्वर में नहीं गाता था, अक्सर धीरे-धीरे गुनगुनाया करता था, परंतु जब भी उसकी आवाज़ कानों से टकराती, मैं कामकाज भूल जाता।
 
‘परंतु उसका शरीर इतना कमज़ोर क्यों हैं ?’

यही एक प्रश्न बार-बार मेरे दिमाग़ में उठता रहता था। उसका गाना तो बेशक मुर्दों में भी कुछ पल के लिए हरकत ला सकता था, परंतु वह ख़ुद दिन-ब-दिन कमज़ोर होता जा रहा था। बिल्कुल सूखा लकड़ी सा उसका शरीर था। चेहरे पर पीलापन छाया हुआ मानो उसके शरीर में रक्त नाम की कोई चीज़ ही न हो। परंतु इसके बावजूद भी उसका चेहरा कुरूप नहीं लगता था। मैं उसे देख-देखकर सोचा करता कि ‘जब कभी इसके शरीर में रक्त था, यह कितना सुंदर लगता होगा।’ शायद मुझे ही भ्रम था या वास्तव में यही बात थी कि उसके सभी अवगुण मुझे सुंदर लगते थे। सिर के बालों को शायद ही कभी वह कंघी छुआता हो। हजामत भी कहीं महीने-दो महीने में बनवाता होगा परंतु उसके रूखे और बिखरे बालों में भी मानो कोई हुस्न दफ़न था, भला इसमें कौन सी सुंदरता थी ? परंतु मुझे यह भी अच्छा लगता था।

वह बहुत कम बोलता था परंतु जितना भी बोलता, बड़े सलीक़े और विद्वतापूर्ण ढंग से। एक ही कमी थी, उसके मुंह से एक शब्द ज़ोरदार हंसी के रूप में ही निकलता था।
 
दुकान की साफ़-सफ़ाई से वह उतना ही लापरवाह था जितना शारीरिक क्रिया से। मानो काम के सिवाय किसी दूसरी चीज़ से उसका वास्ता ही न हो। घड़ियों की बनवाई भी वह मुंह मांगी लेता था–दो-तीन रुपए से नीचे तो वह बात ही नहीं करता था, जिस पर ख़ूबी यह कि एक बार जो मुंह से निकल गया सो निकल गया। ग्राहक भले ही सिर पीटता रह जाए, कमाल एक धेला भी कम न लेता। फिर भी उसके पास काम की इतनी भरमार थी कि उसे सिर खुजलाने तक की फुर्सत न मिलती थी।
 

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