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योग वासिष्ठ की सात कहानियाँ

भरत झुनझुनवाला

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5212
आईएसबीएन :81-7124-548-x

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योग वासिष्ठ की सात कहानियाँ...

Yog vasishtha ki sat kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस पुस्तक की पहली पाण्डुलिपि पर अनेक मित्रों ने मेरा मार्गदर्शन किया है। इनमें आर.सी. त्रिवेदी एवं डॉ. इंदु (पाण्डेय) खंडूडी विशेषतः उल्लेखनीय हैं। डॉ. त्रिवेदी ने पाण्डुलिपि के एक-एक वाक्य को पढ़ा एवं उसमें ढीलेपन अथवा समस्याओं को बताया। उन्होंने विशेषकर लीलावाद एवं मायावाद पर अपना विचार स्पष्ट करने के लिए कहा। यह दिशा देने के लिए उनका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ।

डॉ. इंदु (पाण्डेय) खंडूडी ने मुख्य प्रश्न यह उठाया है कि युक्ति यदि स्पष्ट हो जाए तो मुक्ति नहीं रह जाती है। मुझसे जैसा बन पड़ा वैसा स्पष्टीकरण मैंने दिया।
स्वामी कृष्णानंद विरक्त, स्वामी प्रणवानंद, स्वामी ओमपूर्ण स्वतंत्र तथा श्री ए. नागराज एवं अखिलेश जी ने आशीर्वाद देकर मुझे इस पुस्तक को प्रकाशित करने का साहस प्रदान किया है।

सर्वश्री अखिलेश उरियेन्दु आर्यभूषण भारद्वाज, गुरुदास अग्रवाल, नरेन्द्र दुबे, भारतेन्दु प्रकाश, मोहन बांडे, व्योम अखिल आर.एल.सिंह, सुभाष सी.कश्यप एवं श्रीधर बोपन्ना ने सुझाव देकर मुझे अनुगृहीत किया है।
गीताप्रेस ने योग वासिष्ठ छाप कर जनता को उपलब्ध कराई इसके लिए साधुवाद।
प्रेमचंद रैकवार ने गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित योग वासिष्ठ को साधारण बोलचाल की भाषा में लिखकर इस पुस्तक के प्रकाशन में योगदान दिया है।

आशीर्वाद


प्रयास सही दिशा में है। सराहनीय है।

ए. नागराज, अमरकंटक


आपकी प्रस्तुति एवं टिप्पणियाँ मोहित करती हैं।

स्वामी ओमपूर्ण स्वतंत्र, चुरू


कहानियाँ बड़ी रोचक एवं तत्त्वाग्राही हैं। भाषा प्राञ्जल है। इससे पाठकों को बड़ा लाभ होगा।

स्वामी कृष्णानंद विरक्त, वाराणसी


कहानियों को साधारण योग वासिष्ठ अध्येता समझ सकें—इस बात को ध्यान में रखकर उनका तात्पर्य निकालने का स्तुत्य प्रयास किया गया है।

स्वामी प्रणवानंद, ओंकारेश्वर


पाठक ब्रह्मानंद की प्राप्ति योग वासिष्ठ की कहानियाँ पढ़ कर करें, यह आपकी पुस्तक का ध्येय प्रशंसनीय है।

प्रो. आर.सी.त्रिवेदी, जयपुर


आपने कठिन विषय को सरलता से प्रस्तुत किया है।

डॉ. सुभाष सी.कश्यप, दिल्ली


रहस्यात्मक अनुभूतियों की तुलना सांसारिक जगत के सामान्य अनुभवों की अनुभूतियों के साथ करना लेखक के मौलिक चिन्तन एवं गहन दार्शनिक दृष्टिकोण का परिचायक है।

डॉ. इंदु (पाण्डेय) खंडूडी, श्रीनगर

भूमिका



एक बार युवावस्था में श्रीराम को वैराग्य उत्पन्न हो गया था। संसार उन्हें भ्रम-मात्र दिखने लगा था और सांसारिक कार्यों में उनकी रुचि नहीं रह गई थी। उसी समय महर्षि विश्वामित्र अयोध्या पधारे थे। उनकी प्रेरणा से गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम को उपदेश दिया जिसके फलस्वरूप श्रीराम राजकाज में प्रवृत्त हुए। यह उपदेश योगवासिष्ठ महारामायण के नाम से जाना जाता है।

कुछ ऐसी ही परिस्थिति मेरी थी। मेरे सामने प्रश्न था कि यदि संसार वास्तव में है ही नहीं तो फिर आर्थिक विकास की क्या उपयोगिता है ? जो सुख मुझे विषयभोग आदि में मिल रहा प्रतीत होता है यदि वह भ्रम-मात्र है तो लेखन आदि कार्य करने की क्या जरूरत है ? इसी बीच मेरे आध्यात्मिक गुरु स्वामी स्वयंबोधानंद ने योग वासिष्ठ का कम से कम दो बार अध्ययन करने का आदेश देने की कृपा की। योग वासिष्ठ के अध्ययन से इन प्रश्नों का मुझे जो उत्तर मिला वह इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में मेरा एक उद्देश्य यह रहा है कि इन कठिन विषयों पर मेरी समझ साफ हो जाए। मन में भी यही रहा है कि दूसरे पाठकों का मुझे मार्गदर्शन भी मिले। अतः पाठकों से निवेदन है अपनी प्रतिक्रिया मुझे नीचे पते पर अवश्य भेजने की कृपा करें।

इस पुस्तक के दो पक्ष हैं। एक योग वासिष्ठ की कहानियों को साधारण भाषा में आधुनिक समय के लिए उपयुक्त उदाहरणों के साथ बताना है। पुस्तक का दूसरा पक्ष मेरी अपनी समझ को बताना है। यह गुरु-शिष्य संवाद के रूप में दिया गया है। सात कहानियों में प्रत्येक में किसी एक विषय पर प्रमुखतः टिप्पणी की गई है। ये विषय इस प्रकार हैं—
लीला— युक्ति के रूप में ब्रह्म को निष्क्रिय बताना।
भुशुण्ड —स्पाइनल कालम में चक्रों को आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से बताना।
चूडाला —महापुरुषों की सक्रियता का रुप एवं कारण।
विद्याधारी—स्त्रियों की विशेष क्षमताएँ और आत्म-साक्षात्कार की समस्याएँ।
विपश्चित—कर्म सिद्धान्त की गलत व्याख्या से दलितों का शोषण एवं भारत का पतन।
बलि— लीलावाद एवं मायावाद का स्पष्टीकरण।
प्रह्लाद— पूर्ण ब्रह्म में विकास।
विद्वान पाठक अपनी रुचि के अनुसार सातों कहानियों को पढ़ सकते हैं परन्तु उत्तम यही है कि क्रम से पढ़ा जाए।
इस पुस्तक में कई शब्दों का विशेष अर्थों में उपयोग किया गया है। इन अर्थ को पुस्तक में ‘शब्दार्थ’ में दिया गया है। बात समझ न आने पर शब्दार्थ का सहारा लेने से स्पष्टता आ सकती है।

भरत झुनझुन वाला

शब्दार्थ


अंतःकरण : अवचेतन, अचेतन एवं अतिचेतन के सम्मिलत शब्द।
अचेतन : मनुष्य की चेतना का तीसरा स्तर। इच्छाएँ यहाँ अनजाने में उपस्थित रहती हैं और अपना काम करती रहती हैं। यह फ्रायड द्वारा बताए अनकान्शस के तुल्य है। इसके व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप हैं। सामूहिक रूप को ईश्वर बताया गया है।

अतिचेतन :

मनुष्य की चेतना का गहनतम चौथा स्तर। सम्पूर्ण सृष्टि एक ही चेतना का रूप है। अतिचेतन स्तर पर हर व्यक्ति सृष्टि से जुड़ा रहता है। अतिचेतन के व्यक्त रूप को आत्मा एवं सामूहिक रूप को ब्रह्म या परमात्मा कहा गया।

अनाहत :

छाती के पीछे हृदय के पास स्पाइनल कॉलम का केन्द्र अचेतन का स्थान है। यह हृदय का संचालन करता है।

अवचेतन :

मनुष्य की चेतना का दूसरा स्तर। इच्छाएँ यहाँ सुप्त रूप में रहती हैं परन्तु थोड़े प्रयास से ही इन्हें जगाना सम्भव होता है। यह फ्रायड द्वारा बताए गए सबकान्शस के तुल्य है। इसके व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप हैं।
सामूहिक रूप को हिरण्यगर्भ बताया गया।


असुर :

ये चेतना को नीचे गिराते हैं अर्थात् ऐसा व्यवहार करते हैं जिससे दूसरों का विकास बाधित होता है—जैसे रावण दूसरों की स्त्रियों को लूट कर ले आता था।

आज्ञाचक्र :

माथे के पीछे सिर के बीच स्पाइनल कॉलम के ऊपर छोर पर स्थित चक्र। यह चेतन एवं बुद्धि का केन्द्र है। यह आँख का संचालन करता है।

आत्मा :

सम्पूर्ण सृष्टि एक ही शक्ति का रूप है। इस शक्ति का एक अंश जो इस शरीर को संचालित कर रहा है वह आत्मा है।

इंद्र :

सामूहिक चेतन अथवा विराट नायक। चेतन का अर्थ यहाँ भौतिक संसार के ज्ञान से भी है। इसलिए इंद्र को भी भौतिक तत्त्वों जैसे सूर्य, वायु, वर्षा आदि का भी नायक कहा जाता है।


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