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पुरुष पुराण

विवेकी राय

प्रकाशक : अनुराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5231
आईएसबीएन :9788189498023

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लघु उपन्यास

Purush Puran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘पुरुष पुराण’ अर्थात् गाथा एक सूखी चमड़ी की झोरी में भरे मैले कंकाल की, साँस-साँस से ‘राम हो ! पुकारते एक शूद्ध सांस्कृतिक पुरुष की, जो बीती सदी में एक दूर देहात में जनमा और वहीं की मिट्टी से चिपका, सन-सफेद बाल, अपने द्विधाहीन भोले विश्वासों की चट्टान पर अडिग खड़ा है। बहुत सीमित है उसका जीवन-बोध और ज्ञान-अनुभव। पर मूल्य और महत्त्व उतना इसका नहीं कि उसका बताया इतिहास भूगोल और धर्म कितना सच्चा या यथार्थ है, जितना आपकी जानकारी के संदर्भ में उसकी दृढ़ता है। अवश्य लगता है कि वह जैसे अतीत में ठहरा हुआ एक प्राणी है; और आधुनिक बोध का अतिरेक उदग्र होकर उसके सारे धराकाश को निरा अन्ध विश्वास पुकार उठना चाहता है। पर भीतर से इसे भी चेतना के स्तर पर पूरा समर्थन इसके लिए मिल पाता है क्या ?

वास्तव में ‘पुरुष-पुराण’ एक करुण गाथा है पुरानी और नयी पीढ़ियों के विभेद-संघर्ष की जो एक सहज सत्य बना प्रत्येक वर्ग और समाज, महल और झोपड़ी को परिव्याप्त किये हुए हैं, और जिसमें जीवन का सारा अँधेरा ही नहीं, उजाला भी समाया हुआ है। ‘पुरुष पुराण’ एक सीधी-सरल रोचक रचना, किन्तु अर्थवान् और महत्वपूर्ण; पीढ़ियों के संघर्ष में उब-डुब करते मानस के लिए तो अनिवार्य।

अमृतलाल नागर अध्यक्ष, हिन्दी समिति

प्रिय भाई,

इस ब्रज आलसी को आपकी नव वर्ष की बधाइयों ने भले काम में लगा दिया, इसलिए वह सचमुच ही स्वीकारने योग्य है। वैसे मैंने भी अपनी नीयत अभी तक भली ही रखी थी। आपका ‘पुरुष-पुराण’ मेरे तख्त पर मेरी नज़रों के सामने ही रहा, इस नीयत से कि एक न एक दिन आपको अवश्य ही पत्र लिख दूँगा। बहरहाल काम आपका यह बधाई-पत्र ही आया। चौक  के पते पर आपने जो पत्र मुझे भेजे थे वे मुझे यथासंभव ही मिले थे, किन्तु क्या कहूँ। आप इसे ‘बड़ेन का उत्पात’ मान कर क्षमा कर दीजिये। इससे आयु में छोटे होने पर भी आप मुझसे बड़े हो जाएंगे और मुझे बड़ा ही सुख मिलेगा।
आपका ‘पुरुष-पुराण’ पढ़ कर मुझे अपना भी एक ऐसा ‘खेल-खिलवाड़’ याद आ गया। सन् ’41 में आगरे के एक गोटा व्यापारी चरित्र को सुन कर मैंने भी ऐसे ही ‘सेठ बाँकेमल’ लिखा था। सन् ’41 से सन् ’75 में जो फ़र्क है, वही आपकी और मेरी किताब में है। बहुत प्यारा चरित्र और बहुत ही प्यारी भाषा में अंकित भी। आपके दुखन पण्डित की अनुराधा जी, पुलिसमुनि सुपनेखिया, काशीपुरी, सरजना की कथा, रामायण शब्द का व्यापक अर्थ-बोध, उनके चाय बनाने का तरीका आदि इतनी बातें मुझे पसन्द आई कि बखान करते नहीं बनता। बहुत ही सुख पाया आपका ‘पुरुष-पुराण’ पढ़कर। ऐसे चरित्र चित्रों की शुरुआत भी मेरी समझ में हमारे निराला जी ने ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ और ‘कुल्लीभाट’ जैसी रचनाओं से की थी। आपका ‘पुरुष-पुराण’ उसी परम्परा को बड़े सशक्त ढंग से आगे बढ़ाता है। पुस्तक इतनी रोचक है कि जब भी पढ़ा जाये, मजा दे जाती है। मुझे पूरा विश्वास है कि आपका नया उपन्यास भी ऐसा ही जानदार और गाँव की मिट्टी की सौंधास लिए होगा। उसको पढ़ने के लिए मैं अभी से उत्सुक हूँ। किताब छपे तो एक प्रति मुझे भी भेजने की कृपा कीजियेगा। मेरी प्रतिक्रिया, यदि जीवित रहा तो देर सबेर मिल ही जायेगी। आशा है सानन्द होंगे।

सुना है कि हमारे प्रिय मित्र और हिन्दी समिति के सचिव श्री काशीनाथ उपाध्याय ‘भ्रमर’ ने गाज़ीपुर में हमारे मिलने का कुछ जोगाड़ किया है। ब्राह्मन’ जी मैं तब पतियाय’ वाली कहावत के अनुसार उनका बचन सिद्ध होने पर ही आपकी और अपनी भेंट होने का श्रेय उन्हें दूँगा। रवीन्द्रनाथ द्वारा प्रशंसित ग़ाज़ीपुर के गुलाबों के बीच में आपको देखने की तमन्ना दिल में है। नये वर्ष की, आने वाले-नये-नये वर्षों को, नित्य नये-नये दिनों के लिये मेरी अनन्त शुभकामनाएँ स्वीकारें।

शुभाकांक्षी, अमृतलाल नागर

पुरुष-पुराण

मेरा दूसरा उपन्यास ‘पुरुष-पुराण’ विशुद्ध सांस्कृतिक लघु उपन्यास है। मेरे एकपात्रीय और लघु आकार वाले इस उपन्यास में आदि से अन्त तक बूढ़ा सन्त दूखन अपने जर्जर शरीर को ढोता हुआ सबका मनोरंजन करता, काम-धाम करता, उपकार करता, छेड़खानी करनेवालों को डाँटता, गालियाँ देता, बुद्धिजीवियों तथा गँवई नरों को धर्मोपदेश देता और एकमात्र ईश्वर में ध्यानमग्न रहता है। ईश्वर के प्रति उसकी आस्था और विश्वास चरम पर है। प्रकृति-प्रदत्त प्रत्येक रूप में वह ईश्वरीय अंश रामायणी पात्रों के दर्शन करता है। कहीं वह लंगूर के रूप में पवन-पुत्र हनुमान का दर्शन करता है, कहीं गँवई लड़कों के रूप में निशाचर हिरनाकुश और ताड़का सुबाहु के कलंकी पुत्र के दर्शन करता है और पुलिसवालों के रूप में रावण-गणों का दर्शन करता है। रामायणी पात्रों से भिन्न उसकी दृष्टि नहीं जाती। प्रत्येक बात को समझने और सुलझाने के प्रमाण में दूखन ‘अर्जुन-गीता’, ‘रामायण’, ‘दानलीला’, ‘भजनलीला’ का कोई न कोई उदाहरण अवश्य सुना देता है। महार की बुद्धिजीवियों की बुद्धि उसकी तर्कशीलता के आगे निस्तेज हो जाती है। द्विधाहीन भोले विश्वासों की चट्टान पर खड़े इस जर्जर तन जीव की पोथीमयता निःसीम है।

मेरे दूखन के ज्ञान भण्डार के ऊपर रामायण का प्रभाव है। रात-दिन रामायण ! रामायण !! रामायण !!! रामायण पर अखण्ड और अगाध विश्वास ! रामायणी उक्तियों, उदाहरणों, प्रमाणों और उसकी धर्म-विश्वासवादिता को देखकर मेरा उपन्यास आरम्भ में ही दूखन को ‘रामायणी’ की संज्ञा से अलंकृत करता है। त्रिशंकु की किंवदन्ती यहाँ झूठ हो गयी है।

 ‘पुरुष-पुराण’ का वृद्ध सन्त न केवल सशरीर दरबार में पहुँचता बल्कि भगवान से बात-व्यवहार भी करता और लोगों के कर्मफल भी देखता है। दूखन के शब्दों में—‘‘भगवान के यहाँ यह बहुत अच्छा इन्तजाम है कि पापियों को दूसरा जनम उन्ही के लायक दे देते हैं। देखा न, जमींदार मरा और यदि पुण्य करके वैकुण्ठ नहीं गया तो बैल बना। अब चलो हल खींचो, मोट खींचो, बैलगाड़ी में नधा जाओ। सौदा गड़बड़ देनेवाला व्यापारी मरा तो उसे टट्टू का जनम दे दिया। चलो, जिस पर सामान लादकर उपर से खुद बैठ भी लेते थे, अब तुम वही हो जाओ। भला देखो तो कैसा मजा मिल रहा है ?’’ (पृ.7) एक नहीं कई-कई बार यह बूढ़ा सन् विष्णु भगवान के बंगले पर जाता है, परमेश्वर से झगड़ता है और कभी-कभी तीन सीढ़ी चढ़ने के बाद ही लौट आता है। विष्णु का द्रष्टा, हनुमान का द्रष्टा, निशाचरों का द्रष्टा, कुम्भकरण की ठठरियों का द्रष्टा और सगर के साठ हजार पुत्रों का द्रष्टा वह है।

जो कुछ दूखन कहता है वह कोरी कल्पना नहीं क्योंकि बराबर वह कहता है ‘‘यह झूठ नहीं, मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है।’’ तो क्या सचमुच यह सिद्ध पौराणिक पात्रों का द्रष्टा है ? आश्चर्य है उसका दिव्य द्रष्टि पर। वास्तव में दुखना ने किसी को प्रत्यक्ष नहीं देखा। देखा अवश्य किन्तु उन शब्दों के माध्यम से देखा जो पोथियों, पत्रों और शास्त्रों में बन्द है। यह है उसकी पोथीजीविता। वह पोथी और आँख के बाहर की कोई बात नहीं कहता।

गांव के सभी बूढ़े-बच्चे उसकी प्रत्युत्पन्न मति पर विस्मित है। मैं स्वयं उसके ज्ञान पर चकित हूँ—‘‘पता नहीं, दूखन की पोथी में कितनी चीजें लिखी हैं। पोथीजीविता में भी एक सीमा होता है। दूखन में वह असीम है। पोथी में ऐसा अखण्ड विश्वास भी अनुपम है।’’कथा का एकाकी पात्र दूखन अपढ़, गँवार किन्तु संस्कृति से उकसा जीव है जिसकी दृष्टि में बौद्धिक और भौतिक शिक्षा अपूर्ण है। नयी शिक्षा और उसकी गिरावट पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कथानक एक स्थान पर बालमण्डली से कहता है, ‘‘लो, यह भी नहीं जानते हो ? क्या पढ़ते-लिखते हो ? इतने बड़े-बड़े घोड़े की तरह तुम लोग हो गये और राजा निरिग को नहीं जानते हो ? आजकल मदरसो में न जाने क्या घास-भूसा पढ़ाया जाता है।’’ (पृ. 11) और यह एक ज्वलन्त सत्य है।

 आधुनिक शिक्षा जो मूलतः धर्म से, संस्कृति से कट कर चली जा रही है वह कितनी वांछनीय है ? दूखन का तर्क आधुनिक अपूर्ण शिक्षा पर करारी चोट है, ‘‘अब के बेटवा न जाने क्या कोदो दे के पढ़ते हैं। ज्ञान की पूँछ नहीं भेंट पाते। जिनिगी भर पढ़कर सिर्फ नौकरी भर पाते हैं। पूछने पर बकर-बकर मुँह ताकते हैं।’’ (पृ. 28)

मेरे लघु उपन्यास ‘पुरुष-पुराण’ का दूखन आरम्भ में परिवार (पतोहू) से तंग आकर सिलहट चाय बागान में चला जाता है और बत्तीस वर्षों तक अंग्रेजों के साथ रह वह अपने गाँव सेनवानी आ जाता है। अत्यन्त उपकारी, परोपकारी और धर्मात्मा दूखन किसी की मदद अथवा किसी से किसी प्रकार का अहसान नहीं लेता, शायद इससे उसके परलोक-नाश की आशंका है। सत्तर वर्ष पूरा करने पर भी उसके हाथ इतने मजबूत हैं कि वह करके खाता है। खाँची बिनना, रस्सी बँचना, चारपाई बुनना, पहरा देना, घास छीलना और पटुए का दाना अलग करना आदि यही उसके कर्म की गति है। किन्तु इसके पीछे किसी प्रकार का लोभ नहीं। यही उसकी नौकरी और जीविका का सहारा है। किसी का कोई कार्य करता है तो इस आशा से कि कुछ खाने का प्रबन्ध हो जायागा। (पृष्ठ संख्या 41 और 44 पर उसका संकेत स्पष्ट है) जहाँ खाँची के मालिक से आधा सेर बाजरा, पहरे के प्रस्तावक से रात्रि का भोजन, मंत्र के उम्मीदवार से तमाखू और घास चाहक से माठे की माँग दूखन करता है। दिनभर के भूखे इस जीव को कथाकार स्वयं भोजन कराता है पर यहाँ भी यह सिद्ध चूकता नहीं, बदले में राम चर्चा (पृ. 55) सुना जाता है। इस सम्बन्ध में मैंने देखा है कि गाँव का यह सिद्ध अपनी सिद्धई का प्रतिफल भी बहुत नहीं चाहता, बस उदरसमाता वाली नीति चलती है। (पृ. 57)

‘पुरुष-पुराण’ की रचना में मैं कभी-कभी अनायस ही बहुत भावुक हो गया हूँ और यह भावुकता कविता क्षेत्र की भावुकता बन गयी है। उपन्यास के आरम्भ में किंचित् अन्तरों के साथ मुख्य पात्र दूखन के गृह त्याग की तुलना मैंने तुलसी के साथ की है। मध्य में आकर दूखन के शरीरिक ढाँचे को समझाने के लिए मैंने निराला के ‘बिखारी’ का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है और अन्त आते-आते (जब दूखन पटुए के सड़कर फूले डंठलों को छीलता है) विशुद्ध तारसप्तक के कवियों की तरह अप्रस्तुतों को टटोला है, पटुए के फूले डंठल को हलके हाथों टोता-टटोलता है जैसे प्रेमी-प्रेमिका की उँगलियों को। फिर वह एक-एक को लेकर सड़ासड़ छिलके उतारता जाता है जैसे पुरातन चोले में यह कोई नया विद्रोही कवि है और अपनी अकविता में गोरी छरहरी जंघाओं को नंगा करता चलता है। (पृ. 71) मेरा दूखन सांस्कृतिक भारत का प्रतिनिधि है। अत्यन्त वृद्ध और बहुत कम समय के अपने मेहमान मित्र दूखन की अन्तिम इच्छा, ‘‘मुझे भी अपनी लेखनी में लिख दीजियेगा।’ को मैंने विस्तृत रूप में पाठकों के सामने रखा है, यह भी एक संयोग है कि ‘बबूल’ में मैंने निम्न वर्ग के हरिजन महेसवा को कथा का मुख्य पात्र माना और ‘पुरुष-पुराण’ में इसी वर्ग अर्थात् कुम्हार जाति के दूखन को उठाया है। और इससे मुझे संतोष मिला है।

विवेकी राय

मानक लघु उपन्यास : पुरुष-पुराण


विवेकी राय का ‘पुरुष-पुराण’ कई दृष्टियों से हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। कहने के लिए तो इसे लघु उपन्यास कहते हैं। लेकिन लघु उपन्यास के रूप में भी यह अपने ढंग का है। यदि परम्परा की खोज ही करनी हो, तो इसे निराला के ‘कुल्ली भाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। ‘कुल्ली भाट’ से अधिक ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की परम्परा में। ठीक ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की तरह ही ‘पुरुष-पुराण’ में भी एक ही पात्र प्रधान है। पर ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में जहाँ पात्र प्रधान हैं वहां ‘पुरुष-पुराण’ में पात्र प्रधान होने पर भी पात्र का परिवेश, गाँव भी, वैसा ही प्रधान है। दूखन पण्डित के ब्याज से लेखक ग्रामीण वातावरण, मानसिकता, संस्कार, जीवनबोध, धारणा-विचारणा आदि के जो विस्वस्त और पूर्ण विवरण और चित्रण आदि  देते हैं उसे देखते हुए कहना कठिन है कि उपन्यास में दूखन पण्डित की करुण गाथा अधिक है या गाँवों की आत्मा का सधा और मार्मिक चित्रण अधिक है। दोनों बातों को लेखक ने इस प्रकार कौशल से गूँथ दिया है कि निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। शायद यही इसे सही मानी में ‘पुराण’ बना देता है।

कभी-कभी कोई बात, बहुत हल्के-फुल्के ढंग से, यों ही कही जाती है। लेकिन वही बात जब गहरे उतर जाती है, तो सार्थक और सटीक भी हो जाती है। यही बात ‘पुरुष-पुराण’ के नामकरण के बारे में भी सही है। लेखक ने इसे ‘दुखन-पुराण’ न कहकर ‘पुरुष-पुराण’ कहा है। ऐसा करके लेखक ने दूखन के चरित्र को एक व्याप्ति दे दी है। दूखन के रूप में वह एक व्यक्ति मात्र रहता है। लेकिन पुरुष रूप में उसका सामान्यीकरण हो गया है। इसके साथ ‘पुराण’ शब्द जोड़कर सचमुच में लेखक ने इसे एक पुराण बना दिया है।

इस छोटे-से पुराण में लेखक ने करीब-करीब गागर में सागर भरने की चेष्टा की है। गाँव का कौन ऐसा पक्ष है जो इसमें नहीं आया है। यदि पात्र अनेक होते, घटनाओं का घटाटोप भी होता और तब गाँव अपनी सम्पूर्णता में व्यक्त होता, तो एक बात थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है और फिर भी यह गाँव का पुराण हो गया है, तो यह एक बहुत बड़ी बात है। इतने थोड़े से पृष्ठों में गाँव इतनी विविधता और सम्पूर्णता से अवतरित हुआ हो, यह हिन्दी साहित्य की एक आश्चर्यजनक घटना है। जहाँ तक ज्ञात है शिवपूजन सहाय का ‘देहानी दुनिया’ और फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ ही हिन्दी की ऐसी कृतियाँ हैं जिनमें देहात अपने ठेठ आंचलिकता के साथ लगभग ज्यों-का-त्यों, उपस्थित होने के लिए सचेष्ट है। इस परमन्परा में अब ‘पुरुष-पुराण’ का नाम भी आसानी से, और गौरव के साथ, लिया जा सकता है।

‘देहाती दुनिया’ और ‘मैला आँचल’ की तुलना में इसकी अपनी विशेषताएँ भी हैं। इसलिए यह उस जमीन की रचना होकर भी अनुकृति नहीं है, सही अर्थ में मौलिक है। उसकी मौलिकता इस रूप में भी है कि यह कथा-कृति होते हुए भी ग्रामीण जीवन के बारे में एक लघु-प्रबन्ध है, बिना नीरस और गरिष्ठ हुए।

इस रूप में यह उपन्यास होते हुए भी उपन्यास नहीं है, व्यक्ति चित्रण होते हुए भी व्यक्ति-चित्रण नहीं है, ग्राम्य जीवन के बारे में लेखक की टिप्पणी होते हुए भी मात्र टिप्पणी नहीं है। यह एक विधा के बन्धनों में होकर भी उससे परे हैं। विवेकी राय की कला इस बात में है कि उन्होंने कथा-विधा को इस हद तक लचीला बनाया है कि वह कुछ भी साबित की जा सकती है। लेखक ने जिस आत्मीयता और अपनापे से दूखन को चित्रित किया है, लगभग उसी आत्मीयता और अपनापे से गाँव को भी चित्रित किया है। दूखन भी इतना आत्मीय इसलिए है कि उसमें गाँव साकार हो उठा है। विवेकी राय की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि उनके पात्रों का परिवेश उनके पात्रों में उसी प्रकार समाया हुआ है, जैसे कर्ण के शरीर में कवच-कुण्डल समाहित थे। उनके पात्रों को छीलकर या लहूलुहान कर ही उनके परिवेश को अलग किया जा सकता है। उनके पात्रों और परिवेश का सम्बन्ध जल और मछली की तरह है। परिवेश से अलग पात्र जल बिना मछली की तरह तड़पते दीखेंगे, या मृत या जड़ मालूम होंगे। शायद यही कारण है कि विवेकी राय अपने पात्रों को गाँवों से अलग ले जाना पसन्द नहीं करते। ‘पुरुष-पुराण’ में दूखन जहाँ-तहाँ इस बात का उल्लेख जरूर करता है कि उसके जीवन के कितने ही वर्ष चाय-बागानों में, अंग्रेज साहबों के मध्य में, गुजरे हैं। पर वह दूखन का अपना हिसाब-किताब है, लेखक को उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह तो दूखन के गाँव के प्रतीक-पुरुष के रूप में ही जानता है और चित्रित करता है।

छोटी-से-छोटी चीज भी पात्रों में ग्रामीणता का ऐसा रंग भर देती है कि आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए दूखन का सोटा लीजिये। दूखन से उसके इस सोटे को अलग कर लीजिये, देखियेगा कि उसका बहुत कुछ उससे छिन गया। यही बात उसके मुख से निकलने वाले ‘राम हो’ के बारे में सही है। उसके ‘राम हो’ कहने पर लेखक की टिप्पणी है—एक दूर तक जाने वाली दृष्टि, एक जीवन का समवेत—समग्र लेखा-जोखा रखने वाले अवचेतन का सहज-स्वाभाविक स्फोट, सारे जगत्प्रपंचों की मायवी उपलब्धि, अन्तिम सहारे की प्रतिध्वनि, निराशा और थकान के पड़ोसी वैकल्प आर वार्द्धक्य की अन्तर्ध्वनिस वेदनामय निस्सारता की पक्की मुहर, स्वयं प्रमाणित संसार की दुःखमयता का अंतिम संकेत ! आँखें चुरायें, पलायित हों, रोकें—मगर वह अनचाहा सदा सामने है।....धन्यवाद, दूखन ! चंचल काल की कटीली शैय्या पर बेहोश सोये जन के लिए ‘राम हो’ !’ मीठी नींद में अलसाये सुखाभिलाषियों के लिए ‘राम हो’ ! मैं चाहता हूँ, मेरे सामने दुःख की शकल आकर खड़ी न हो, कोई कुरूपता न रोये और कोई बूढ़ी जिंदगी टूटती आवाज में ‘राम हो’ कहकर मुझे न छेड़े।

विवेकी राय कभी-कभी रेणु की तरह ही अंग्रेजी के शब्दों, वाक्यों को ग्रामीण रंग-रूप देकर उपस्थित करना पसन्द करते हैं। एक जगह दूखन अपने स्वर्ग पहुँचने  की बात बताता है। वहाँ विष्णु भगवान के बंगले पर द्वार का सिपाही चीखकर कहता है—‘हुकुम सदर!’ यह ‘हू कम्स देयर’ का ग्रामीण रूप है। इसी प्रकार अंग्रेजी के कम आन को दूखन साहबों के रोबीले उच्चारण की नकल के साथ ‘क्वाण्ट’ रूप में ग्रहण करता है (पृ. 63)। इसी तरह पुलस्त्य मुनि को वह ‘पुलिस मुनि’ और अक्रूर को ‘अंकूर जी’ कहता है। व्यक्ति का चित्रण जहाँ विवेकी राय इस रूप में करते हैं—बुढ़वा आ रहा है खट्-खट्-खट्-फाल-फाल पर बज रहा हे सोटा। इकहरी हड्डिया का झुका-झुका धनुषाकार लंगोटिया शरीर, पेट सटकर पीठ की ओर खिंचा, चश्मा और चप्पल अपनी ओर से जोड़ दें तो एक और इस गाँव का गाँधी ! हाँ, ठीक वैसा ही लचीला, मगर कुछ अधिक हठीला। बहुत अधिक पवित्र है काया। रोयें-रोयें में न जाने कितनी बारहखण्डी अर्जुनगीता, हनुमानचालीसा और भजनमाला आदि की पंक्तियाँ गुँथीं हुई हैं। वह देह नहीं, देह के बेठन में बँधी एक पावन पोथी।

वहाँ परिवेश का चित्रण इस प्रकार का है—‘सुबह बहुत दूर तक खेतों की ओर टहलता हुआ बढ़ गया और देख रहा हूँ कि सरेहि रंग बाँधने लगी है। हरियाली उमड़ने लगी है। किरनों के बच्चों खेलने के लिए खूब छुट्टी है। फसल अभी अंखफोरू नहीं हुई है उसका पानी खूब आकर्षित करता है। डीभी पर गहरी सुन्दरता छायी है। जब यह मन पर चढ़ती है तो सारी चिन्ताएँ उतर जाती हैं। वृंदावन क्या कहीं दूर हैं ? वह यहीं है। लगता है कि अब किसी ओर से किसी साँवरिया की वंशी-धुन सुनाई पड़ी, अब किसी गुजरिया के कोकिल-कण्ठ की रसदार छलकी। खेतों को यदि छोड़ भी दें तो गाँव की गलियों का चित्रण भी कुछ कम नहीं है—दिन ढल रहा है। धूप अभी चटक है, कुछ तीखी और टाँठ। गली इस धूप से अभी पूर्ण रूप से भरी है। गजब की गली है, सदाबाहार। किसी ओर कोई लड़का ‘भोंभा’ बजाता निकल जाता है तो किसी ओर से ‘बाबा चम्मल भर दे’ की सदा लगाते और पाक परवरदिगार के नाम पर मुट्ठीभर अन्न के लिए ढेर-सी दुआओं के फूल बिखेरते साईं बाबा धमक जाते हैं। बहू का काम पूरा हो चुका है। मिट्टी की दीवारें कोमल हाथों को सहलाव पाकर सहज चिकनाई से दमक उठी हैं। दुधिया-सी मिट्टी घोल एक तरफ पोताई भी हो गई है। सोंधी सुगन्ध से नाक वाह-वाह कह उठती हैं। गली को कितना प्यार मिला। कूड़ा-करकट लजाकर छिप गये। झाड़ू लगी जमीन पर अभी अगस्त के फूल-जैसे पाँवों के निशान मिटे नहीं हैं। घर में छिपी सुन्दरता की आभा बाहर गली में बिखर गयी है।’

ग्रामीण लोकोक्तियों और कहावतों का का तो कहना ही क्या है ? ‘हम खेलाई डिल्ली, हमें खेलावे गाँव की बिल्ली’ ‘दिन भर की कमाई तेलिया गढ़ में गँवाई’, ‘जस कपड़ा तस जाड़, ‘नहीं कपड़ा नहीं जाड़’, ‘लोक न लरिका, चले अदुरिका’, ‘कम्बल पर जब परे बिछौरी, तब जाड़े में कौन चिरौरी,’ ‘आधे माघे कम्बल काँधे’, ‘बूढ़वा कूदे बयासी हाथ’, ‘सब दिन संध्याकासी, मरती बेर मगहर का बासी’ जैसे सटीक प्रयोग लेखन में स्वाद और मिठास भरते हैं।

कहीं लेखक गाँव की विशेषता—कि गाँव लोगों को याद करना जानता है। वे विशेषताएँ अजीब हैं कि लोग याद किये जाते हैं। कोई कवक्कड़ है तो कोई बतक्कड़, कोई वीर, कोई कायर, कोई शाहखर्च, कोई कंजूस।—बताता है, तो कहीं कातिक के बारे में कहता है—‘यह महीना भी बहुत विचित्र है। इस गाँव में गहमागहमी भरा सुनसान लेकर आता है और सुखद गुदगुदी बनकर छा जाता है। पूरब में सुकवा उग आया तो गली में बैलों की घण्ट के टुन-टुन शब्द का लम्बा काफिला घण्टों तक गुजरता रहा और भोर होते-होते सब शान्त। न एक बरगद, न एक मरद। सारा मेला उतर गया खेतों में।’ (पृ. 68) एक जगह लेखक ने दूखन द्वारा बँसवारी की विशेषता इस प्रकार वर्णित की है—यहाँ कोई रस नहीं। कोलाहल नहीं है। कोई फाँस या जोखिम नहीं है। जिस प्रकार मैं सूखा हूँ, उसी प्रकार ये बाँस हैं, मेरी हड्डियों की तरह खड़खड़। हवा के इशारे पर इसकी पत्तियाँ सरसरा उठती हैं। कोई आकर यहाँ बैठे तो। बैठने की जगह यह भी है। यहाँ की सूखी पवित्रता संसार से मन को हटा देता है। यहाँ मोह की मयार छाँह नहीं है। चिरई यहाँ भी चहकती हैं, पर चहक के साथ कोई महक नहीं है।

राग और आकरसन से हीन यही तो जगह है जहाँ ज्ञान की तरह निर्मल बाँस सीधे आसमान की ओर बढ़ते हैं। विचारों की तरह सुदृढ़ कइनि की झाँग चारों ओर से छायी है। कितनी सुरक्षा है ? एक बार यहाँ यमराज का भैंसा भी आये तो सींगों का मोर्चा छूट जाये। ये बाँस रगड़कर आपस में टकराते हैं तो आल्हा-ऊदल की लड़ाई वाला वीर रस उत्पन्न हो जाता है।
इसकी तुलना में अमराई दूखन को नापसन्द है। उसके बारे में वह कहता है—आम खाने को मिलेगा कि गुठलियों का मसान जगाना पड़ेगा ? चारों ओर जूठी गुठलियाँ दाँत से चिचोर कर फेंक दी गयी हैं, गीली लाल गुदियों और रेशों के सा, वैसे ही छिलके भी पड़े हैं। छिः-छिः, मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। छुट्टा मवेशी घूम रहे हैं। चोत-चोत गोबर भिनक रहा है। पेड़ से चुए आम मवेशी न खा जाएँ, इस बचाव के लिए कोई ‘इटहरा चला रहा है। कहीं वह देह पर बज गया तो ? और क्या पता कि कब नहीं किसी भड़के मवेशी की सींगों पर आ गिरे। दाँत-हाथ का खतरा हुआ तो ? फूँक-फूँक कदम न रखा तो कहीं किसी हट्टे ने काट खाया। किसी खड़बड़ जगह में छिपे बिच्छुओं ने डंक मारा। बाप रे बाप ! पेड़ों के आसमान से खड़खड़ाते हुए वज्र की तरह, सिरभंजन करने वाले लौह-गोलक की तरह, आम की अगर देह पर बमबाजी हो गयी तो ? राम नाम सत्य है ! बाबू साहब ! किसी लाल-पीले आम का रूप देखकर सुआ सेमल की गति भी तो हो सकती है ? हाथ में लेकर चूमा तो हरहर माहुर। खट्टा की सरक गया नाभिकुण्ड तक। खाँसते-खाँसते उखड़ गयी कुण्डलिनी और मीठे की ललक में कहीं चढ़ गये पेड़ पर तो ?

हे अर्जुनजी, लोभ से नाश होता है। स्वाद में जीव नष्ट हो जाता है। पैर फिसला या डाल चटक गयी तो क्या भाव पड़ा ? अकालमृत्यु में भूत-प्रेत बनकर डहकना पड़ा। हे अर्जुनजी, मधु में फँसकर मक्खी की जान जाती है। हर स्वाद महँगा पड़ता है। आम चूसते यदि गुठली गले में अटक गयी तो कितना बखान करूँ ? बाबू साहब, महीने भर की बहार रही। निझाड़ होने पर क्या होगा ? मन कितना लुलुआया रहेगा ? ऐसे स्थलों पर लगता है कि लेखक ने गाँवों को बहुत गहरे तक भोगा और जाना है। अमवारि की तुलना में बँसवारि का यह महत्त्व प्रतिपादन सभी लेखक नहीं कर सकते।

कहीं-कहीं लेखक ने ग्रामीणजनों के दर्द को भी बड़ी सार्थक अभिव्यक्ति दी है। जैसे—‘लड़के रोवें या ठनगन करें तो उन्हें बुझाने या फुसलानेवाले बहुत होंगे। बूढ़े को कौन पूछेगा ? मन में ‘टिसुना’ जगी तो मार साले को ! इस कुत्ते की आयु भोगने वाले का क्या चारा है ?’ इस प्रकार गाँवों में चाय का जो प्रचलन हुआ है, उसके बारे में लेखक का खयाल है—ठंडी जिंदगी के लिए गरम चाय का तालमेल हरगिज नहीं बैठना चाहिए। चाय किसी और के लिए नाश्ता है, दूखन-जैसों के लिए तो वह ‘जीवन’ ही है तो भला। ऐसे स्थलों पर ग्रामीण जीवन को लेकर लेखक की चिन्ता और दर्द की सटीक अभिव्यक्ति हुई है।


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