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स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक मूल्य-संक्रमण

ज्योतीश्वर मिश्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5233
आईएसबीएन :978-81-8031-113

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इसमें स्वतंत्रता के बाद लिखे गये लगभग सौ नाटकों को उपयुक्त उद्धरणों सहित संदर्भित किया गया है।

Swatantryottar Hindi Natak Muylya-Sankraman

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हमारे देश में उपजी एक ज्वलंत समस्या है मानवमूल्य-संक्रमण। डॉ. ज्योतीश्वर मिश्र ने स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटकों में दर्शित इस मूल्य-संक्रमण का गंभीर और प्रामाणिक विवेचन ग्रंथ में किया है। इसमें स्वतंत्रता के बाद लिखे गये लगभग सौ नाटकों को उपयुक्त उद्धरणों सहित संदर्भित किया गया है। स्पष्ट है कि अध्ययन कुछ इने-गिने चर्चित नाटकों तक ही सीमित नहीं रहा। यह लेखक की श्रमशीलता का तथा ग्रंथ की विवेचन-पद्धति उसकी प्रौढ़ दृष्टि का स्पष्ट परिचय देती है।

नाटकों के कथ्य तथा शिल्प पर लेखक द्वारा की गई टिप्पणियाँ बहुत ही सार्थक एवं व्यंजक हैं। ग्रंथ की भाषा विषयवस्तु के सर्वथा अनुरूप, प्रभावशाली तथा प्रवाहपूर्ण है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि साहित्य और समाजशास्त्र दोनों विषयों के अध्येता इस ग्रंथ से बहुत लाभान्वित होंगे।

मंगल-कामना


पूरे विश्व-जीवन और वैश्विक संस्कृति और कलाओं के संदर्भ में यह विषय बहुत प्रासंगिक और जरूरी विषय है क्योंकि मूल्य-संक्रमण बहुत तेजी से बढ़ा है और बराबर बढ़ रहा है। ज्योतिश्वर मिश्र ने इस विषय पर बहुत गंभीर और तार्किक दृष्टि से चिंतन-मनन के साथ कार्य किया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर वह आज तक के हिन्दी नाटकों में सामाजिक राजनैतिक क्रांति, सांस्कृतिक पुनर्जागरण के बीच मूल्य-संक्रमण के विभिन्न त्रासद रूपों का स्पष्ट विवेचन करने में सफल हुए हैं। मार्कस्वाद, गांधीदर्शन, वैज्ञानिक संसाधनों, औद्योगीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति, सूचना-क्रांति आदि का विस्तृत और सूक्ष्म विवेचन नाटकों के माध्यम से इस प्रकार किया गया है कि वह हमें सोचने की नयी दृष्टि देता चलता है, केवल अध्ययन और सामग्री का संकलन मात्र नहीं लगता।

 इसी अर्थ में यह शोधप्रबन्ध अन्य सामान्य शोधप्रबंधों से अलग है। प्राचीनता और नवीनता का द्वंद्व, उसके आयामी रूप, आधुनिकता और वैश्वीकरण के नाम पर उत्पन्न हो रही ‘नवसंस्कृति’ के चित्रण समकालीन हिन्दी नाटकों में प्रस्तुत किये गये हैं। मूल्य-संक्रमण के इस दौर में बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों, संवेदनहीनता और संबंधहीनता के बीच हमारे नाटककार मूल्यों की खोज की चिंता में रचनारत हैं, यही इस शोध प्रबन्ध के लेखक की भी चिंता है। मुझे प्रसन्नता है कि नाटक पर एक अनिवार्य और प्रासंगिक विषय को लेकर ज्योतीश्वर मिश्र ने विचार और शोध-कार्य किया है। वह एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इधर नाटक के कथ्य और विषय पर केन्द्रित पुस्तक की आवश्यकता भी थी। मैं उनके भविष्य की मंगल-कामना करती हूँ और आशा करती हूँ कि यह पुस्तक पढ़ी जाएगी।

गिरीश रस्तोगी

प्राक्कथन


नाटक दृश्यकाव्य और लोककला है। दर्शकों के साथ इसका सीधा और स्थिर संबंध स्थापित होता है। इसीलिए साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा नाटक जीवन के अधिक निकट है, युगीन चेतना से इसका संबंध कहीं अधिक होता है तथा इसकी सम्प्रेषण-क्षमता भी अधिक प्रभाव पूर्ण होती है। नाट्य की इन विशिष्टताओं ने स्वतन्त्रता के बाद इतर विधाओं के प्रतिभाशाली हिन्दी रचनाकारों की ओर आकृष्ट किया; जिसमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भीष्म साहनी, गिरिराज किशोर, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग के नाम उल्लेखनीय हैं। इन रचनाकारों के योगदान से उपेन्द्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लालस, जगदीशचन्द्र माथुर, सुरेन्द्र वर्मा, रमेश बक्षी, मणि मधुकर, शंकर शेष, बृजमोहन शाह, मुद्रारक्षस, दयाप्रकाश सिन्हा, विभु कुमार, कुसुम कुमार, स्वदेश दीपक आदि द्वारा विरचित स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक अधिक समृद्ध होकर आज सर्जनात्मक अभिव्यंजना की श्रेष्ठ विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है साथ ही यह अपने समय तथा समाज से प्रश्न करने वाले एक सशक्त माध्यम के रूप में भी चर्चित हुआ।

साहित्य और मानवमूल्यों या जीवनमूल्यों का घनिष्ठ अंतःसंबंध है। जीवनदर्शन और जीवनमूल्यों से रहित साहित्य मनोविलास मात्र है। साहित्य एक ओर युगीन मूल्यों की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है तो दूसरी ओर जीवनमूल्यों का नियामक उत्पादन भी होता है। इसीलिए साहित्काल को युगद्रष्टा कहा गया। स्वातंत्र्योत्तरकाल मानवमूल्यगत परिवर्तन की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय काल है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक, जो आज की द्वंद्वोन्मुख संवेदना को व्यक्त करने में सक्षम है तथा जिसका मंचीय प्रभाव शोषण और सरमाएदारी के खिलाफ संघर्ष का एक कारगर हथियार सिद्ध हो रहा है, में बदलते जीवनमूल्य, मूल्यों के संक्रमण और विघटन, मूल्यहीनता और नवीन मूल्यों की निर्माण-प्रक्रिया आदि का कारण सहित स्पष्ट विश्लेषण और प्रामाणिक अंकन किया गया। अतः स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाट्य साहित्य के वैशिष्ट्य और उसमें मूल्याभिव्यक्ति की स्थिति को देखते हुए शोधकर्ता द्वारा इस विषय का चयन किया गया।

यह शोध-प्रबंध सात अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में दर्शन, समाजशास्त्र, साहित्यशास्त्र के मान्य विद्वानों के मतों के आधार पर ‘मूल्य’ का सैद्धांतिक  विवेचन एवं भारत वर्ष के संदर्भ में मूल्य-संक्रमण और उसके कारणों का स्पष्टीकरण है। दूसरा अध्याय ‘स्वतंत्रतापूर्वक हिन्दी नाटक : मूल्य-विश्लेषण’, इसमें शोधकर्ता ने स्वतंत्रता के पहले, लगभग सौ वर्ष की अवधि में लिखे गये प्रतिनिधि नाटकों में अभिव्यक्ति मूल्यों का विश्लेषण किया है। तीसरे से लेकर छठे अध्याय तक में स्वतांत्र्योत्तर हिन्दी नाटकों में दर्शित राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्य-संक्रमण का क्रमिक विवेचन विभिन्न उपशीर्षकों में किया गया है। ‘उपसंहार’ अध्याय पूर्व अध्यायों में किये गए विवेचन के निष्कर्ष के रूप में है। प्रबंध के अंत में तीन भागों में दी गई पुस्तक-सूची में वे ही पुस्तकें सम्मिलित हैं जो शोधग्रंथ में कहीं न कहीं उद्धृत हैं।

शोध-प्रबंध से संबंधित कुछ बातों की ओर ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है। नाटक चूँकि दृश्यकाव्य  है इसलिए नाट्यानुभूति की सार्थकता रंगमंच अनुष्ठान  में ही है। नाटक का वास्तविक सृजन मंच पर ही होता है उसका लिखित रूप तो एक ढांचा मात्र है। मान्य तथ्य है कि नाटकों की मंच-प्रस्तुति के संयोग अत्यंत विरल होने के कारण हिन्दी नाटक के शोधकर्ता और समीक्षक की यह सीमा और विवशता है कि मुद्रित नाटक पढ़कर ही उसे विवेचन और मूल्यांकन करना होता है। शोधकर्ता का विनम्र निवेदन यह है कि उसने नाटक पढ़ते समय बहुत सचेत रहकर उसके रंग-प्रभाव अर्थात् मंचाभिनय की भी परिकल्पना करते हुए नाट्यार्थ की, नाट्यानुभूति की विवृत्ति की है।

केवल नाटकों को ही प्रबंध में अध्ययन का केन्द्र बनाया गया है, गीतिनाट्य और एकांकी विवेचन-सीमा में नहीं है क्योंकि हिन्दी में नाटक गद्य की विधा है जबकि गीतिनाट्य पद्म विधा के अधिक निकट है और एकांकी स्वरूप एवं रचना की दृष्टि से नाटक से भिन्न और स्वतंत्र विधा है।

विवेचन में नाटकों के कालक्रम का ध्यान तो रखा गया है किन्तु एक ही नाटककार के अनेक नाटकों को एक साथ और एक नैरंतर्य में रखने के संगत आग्रह के कारण कहीं-कहीं इस क्रम का भंग हो जाना कोई दोष नहीं माना जाना चाहिए। शोध-प्रबंध में उद्धृत पुस्तकों के प्रकाशन-स्थान, प्रकाशन-वर्ष का विवरण अंत में, पुस्तक-सूची में ही दिया गया है, प्रत्येक उद्धृत स्थान पर नहीं क्योंकि पुस्तक के एक ही संस्करण का उपयोग सर्वत्र किया गया है।

इस शोध-प्रबंध के निर्देशकों विद्वन्मनीषी और अनुगीत के प्रवर्त्तक डॉ. मोहन अवस्थी, डी.फिल्. डी.लिट्. सेवानिवृत्त प्रोफेसर हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, मेरे पूज्य पिता के तथा मेरे अनेक श्रद्धेय गुरुओं के गुरुदेव हैं। मेरा परम सौभाग्य है कि आपके निर्देशन में कार्य करने का गौरव मुझे प्राप्त हुआ। शोधकार्य में प्रदत्त सहायता और सत्परामर्श के लिए मैं आपके प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। विभाग के अन्य विद्वान और श्रद्धास्पद गुरुओं- प्रोफेसर सत्यप्रकाश मिश्र, प्रोफेसर रामकिशोर शर्मा, प्रोफेसर श्रीमती शैल पाण्डेय तथा डॉ. मुश्ताक अली के प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ, जिनसे मुझे निरंतर प्रेरणा व प्रोत्साहन मिलता रहा। उन सभी सुधी कृतिकारों के प्रति मैं आभारी हूँ, जिनके ग्रंथ मेरे सहायक और मार्गदर्शक बने। सुप्रतिष्ठित नाट्य समीक्षक और रंगकर्मी आदरणीया श्रीमती डॉ. गिरीश रस्तोगी, पूर्व प्रोफेसर हिन्दी, गोरखपर विश्वविद्यालय की मंगलकामना से उत्साहवर्धन हुआ है। मैं उनका परम अनुगृहीत हूँ।

ज्योतीश्वर मिश्र

1.    मूल्य : अर्थ एवं परिभाषाएँ


‘मूल्य’ वर्तमान युग का अत्यधिक चर्चित शब्द है जो आज के तीव्रगामी परिवर्तनशील वैचारिक युग में मूल व्युत्पत्तिमूलक अर्थ के अतिरिक्त विभिन्न शास्त्रों और विषय-विशेषों में अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होकर एक विवादास्पद शब्द बन गया है।

‘मूल्य’ मूलतः अर्थशास्त्रीय शब्द है जिसका अर्थ है दाम या कीमत। डा. नगेन्द्र के अनुसार, ‘‘मानदण्ड और मूल्य शब्द मूलतः साहित्य के शब्द नहीं हैं। पाश्चात्य आलोचनाशास्त्र में भी इनका समावेश अर्थशास्त्र अथवा वाणिज्यशास्त्र से किया गया है।’’1 किसी वस्तु की क्रय शक्ति मूल्य कहलाती है। इस क्रयशक्ति का निर्धारण वस्तु के उत्पादन, व्यय या उस वस्तु की उपयोगिता के आधार पर होता है। यह क्रयशक्ति मुद्रा के रूप में दी जाती है अतएव विनिमय का प्रतिमान होने से ही मुद्रा ‘मूल्य’ कहलाती है। कहा जा सकता है कि ऐसी वस्तु जो व्यक्ति या समाज के लिये उपयोगी हो, वांछित हो, मूल्य रखती है।

इस अर्थशास्त्रीय दृष्टि के अतिरिक्त उपयोगिता एवं महत्त्व के अर्थ में भी ‘मूल्य’ शब्द का उपयोग किया जाता है। यह नीतिशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय दृष्टि है। इन दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए ‘मानविकी पारिभाषिक कोष’ में मूल्य शब्द का यह अर्थ स्पष्ट किया गया है—‘‘सत्ता का, आस्तित्व और ज्ञानपक्ष के अलावा एक महत्त्व पक्ष भी है। ‘मूल्य’ शब्द इसी महत्त्व या गुरुत्व की ओर संकेत करता है। ‘मूल्य के संबंध में दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। एक यह कि मूल्य एक सामान्य (General) और मुहूर्त (Abstract) गुण है जो वस्तुओं में निहित है। वस्तुएँ अपने आप में मूल्यवान या मूल्हीन होती हैं। मूल्य किसी विशिष्ट प्रकार का हो, यह आवश्यक नहीं है। दूसरा यह कि प्रत्येक मूल्य जीवन के किसी विशेष क्षेत्र का पहलू से संबंधित है। किसी कार्य, तथ्य या सत्ता के विषय में हम कह सकते हैं कि उसका नैतिक मूल्य, कलात्मक मूल्य, आर्थिक मूल्य या सामाजिक मूल्य क्या है। लेकिन केवल यह कहना कि वस्तु में मूल्य है कोई अर्थ व्यक्त नहीं करता।’’2

इस प्रकार नीतिशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय दृष्टि से ‘मूल्य’ शब्द अत्यंत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह कि मूल्य को मनुष्य के जीवन से जोड़कर उसके अनेक पक्षों की चर्चा इसके अंतर्गत निहित है। मानवीय अस्तित्व के संदर्भ में ही मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया क्रियाशील होती है। मूल्य-निर्धारण वस्तुतः मानवी चेतना का ही कार्य है। प्रो. संगमलाल पाण्डेय ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि चाहे मूल्यों के आश्रय के विषय में मतभेद हों किंतु ‘‘मूल्यों का संबंध मनुष्य की चेतना से अनिवार्यतः है। मूल्य का संबंद मात्र ज्ञान, मात्र इच्छा या मात्र भावना से नहीं है अपितु समग्र चेतना के विषय हैं।’’3 इस प्रकार मूल्य के लिए चेतना एक आवश्यक निर्णायक सिद्ध होती है जिसको स्वीकार किये बिना ‘मूल्य’ स्पष्ट नहीं हो सकता।

हमारा अभिप्रेत ‘मूल्य’ शब्द अंग्रेजी के Value शब्द का पर्याय है किन्तु इस शब्द का संस्कृत ग्रंथों में भी प्रयोग प्राप्त होता है।4 ‘मूल्य’ शब्द संस्कृत की ‘मूल्’ धातु के साथ ‘यत्’ प्रत्यय संयुक्त करने से बना है,5 जिसका अभिप्राय है, किसी वस्तु के विनिमय में दिया जाने वाला धन या कीमत। अंग्रेजी का Value  शब्द लेटिन भाषा के VALERE से बना है जिसका अर्थ है—अच्छा, सुन्दर। अर्थात Value  शब्द के अर्थ के लिए संस्कृत के ‘इष्ट’ शब्द को समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया है।6

भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही विचारधाराओं के अंतर्गत मूल्य-मीमांसा एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। भारतीय मनीषियों एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किये गये मूल्य-चिंतन में स्पष्ट भेद दिखाई पड़ता है। भारतीय मनीषियों ने जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से देखकर उसका परीक्षण किया था तथा उसके निर्माण और विकास के लिए किये गये चिंतन में भी उनकी यही दृष्टि थी जबकि अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने उसे भौतिक धरातल पर रखकर परखने का प्रयास किया है। इसीलिए पाश्चत्य विद्वानों द्वारा किया गया मानवमूल्य का स्वरूप विवेचन एवं तत्संबंधी चिंतन उतना गहरा नहीं हो सका है।


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