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वेताल पचीसी

श्रीरंजन सूरिदेव

प्रकाशक : वाई.डी. पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5237
आईएसबीएन :81-89498-11-8

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वेताल द्वारा राजा त्रिविक्रमसेन को कही गई पच्चीस कहानियाँ...

Vetal Pachchisi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘राजन ! आपने, अन्यों के लिए दुष्कर कार्य सम्पन्न करके मुझ पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। आप जैसा कोई कहाँ है और इस तरह का प्रयत्न करने वाला भी कोई कहाँ है ? और फिर, इस प्रकार का न तो देश है, न ही समय। सचमुच ही आपको सत्कुलोत्पन्न राजाओं में प्रमुख कहा जाता है, जो स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ की साधना में संलग्न रहते हैं। महान पुरुषों की यही महत्ता है कि वे स्वीकृत कार्य को प्राणपण से पूरा करते हैं।’’

‘‘राजन ! आप यहाँ मन्त्रशक्ति दे द्वारा अधिष्ठित देवता-विशेष को आठों अंगों से गिरकर प्रणाम (साष्टांग प्रणाम) करें। इससे यह वर देने वाला देवता आपको अभीष्ट की सिद्धि प्रदान करेगा।’’

‘‘भगवन ! मैं इस प्रकार के प्रणाम कि विधि नहीं जानता हूँ। इसलिए पहले आप यह विधि करके दिखायें, तब मैं वैसा करूँगा।’’

भिक्षु ज्यों ही प्रणाम की विधि दिखलाने के लिए जमीन पर पड़ा, त्यों राजा ने खड़ग के प्रहार से उसके सिर को काट डाला और उसके हृदय-कमल के भी दो टुकड़े कर दिये।

‘‘हे योगीन्द्र ! यदि आप प्रसन्न हैं तो कौन ऐसा अभीष्ट वर है, जो प्राप्त न हो ? तथापि अमोघ वचन के धनी आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि अनेक प्रकार के आख्यानों से मनोरम आपकी ये चौबीस प्रश्नकथाएँ पच्चीस कथाओं में पूर्ण होती हैं। ये कथाएँ समस्त भू-मण्डल में प्रसिद्ध और पूजनीय हों।’’

‘‘राजन ! एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ! यहाँ विशेष रूप से मैं तो कहता हूँ, उसे सुनें
‘ये कथाएँ कामदायिनी हैं। जो इसके अंशमात्र को भी कहेगा या सुनेगा, वह तत्क्षण पापमुक्त हो जायगा। जहाँ भी ये कहानियाँ कही जायेंगी, वहाँ यक्ष, राक्षस, डाकिनी, वेताल, कुष्माण्ड, भैरव राक्षस आदि का प्रभाव नहीं पड़ेगा।’’

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