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लालाजी का पर्दा

अशोकजी

प्रकाशक : अनुराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5240
आईएसबीएन :000

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हास्य-विनोद कहानियों का संग्रह...

Lalaji ka Parda

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कड़ी धूप में चलते-चलते, किसी पेड़ की छाया में, जो सुख मिलता है, वही संघर्षमय जीवन में हास्य-विनोद के कुछ क्षण सुख देते हैं।
‘लालीजी का पर्दा’ ऐसी ही हास्य विनोद की कहानियों का संग्रह है। पत्रकार अशोकजी गम्भीर परिस्थियों में भी हास्य विनोद से गुदगुदाते रहते थे। इस संग्रह की कहानियाँ समाज के विभिन्न व्यक्तियों और उनके व्यवहार के मनोरंजक प्रसंग प्रस्तुत करती हैं।
सामाजिकता और शिष्टाचार के शिक्षक, संयत हास्य के समर्थक प्रसिद्ध व्यंग्कार, लोकप्रिय नागरिक और मद्रास के राज्यपाल आदरणीय श्री प्रकाशजी को सादर समर्पित।

प्रकाशकीय


काशी विरासतों का नगर है, भौतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक विरासतों से कहीं अधिक साहित्य बौद्धिक विरासत है जिसे सँजोने, सँवारने की जरूरत है। काशी ने सर्वप्रथम विभिन्न धर्मों की पताका फहराने के साथ साहित्य, कला, दर्शन और पत्रकारिता की ध्वजा भी फहराई। ऐसे कितने साहित्यकारों, विद्वानों, पत्रकारों को हमने भुला दिया है जो हमारी धरोहर हैं। वह धरोहर ही काशी की पहचान है।
अशोकजी आज विस्मृति के अंधकार में लुप्त हो गये हैं। आज उन्हें कितने लोग स्मरण करते हैं ? उनकी कृतियाँ आज भी स्मरणीय हैं। वे एक जिन्दा दिल इंसान थे। पत्रकार, लेखक, प्रशासक कितने रूपों से उनका कृतित्व है, उस धरोहर को स्मरण करें और उससे ऊर्जा प्राप्त करें।

सन् 1955 में अशोकजी का 23 हास्य कहानियों का संग्रह ‘हजामत का मैच’ नाम से प्रकाशित हुआ था। इस कहानी संग्रह का प्रस्तुत नवीन संकलन ‘लालाजी का पर्दा’ नाम से प्रकाशित किया गया है। लालाजी का पर्दा इस कहानी संग्रह की एक कहानी है।
अशोकजी की प्रकाशित रचनाओं में पुस्तक के रूप में सिर्फ यही संग्रह सुलभ हैं शेष रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी है। उनकी एक रचना ‘उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज नवाब’ अत्यन्त रोचक लेख हैं, इस लेख का संग्रह इस पुस्तक में कर दिया गया है।

अशोकजी का हास्य व्यंग्य उस परम्परा की अभिव्यक्ति है जिसे भारतेन्दुजी ने जन्म दिया था। अशोकजी से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व राजभवन कालोनी के बँगले में मिला था। उस समय अशोकजी की गोष्ठी में अमृतलाल नागर, ज्ञानचंद जैन तथा अन्य प्रमुख विभूतियों के दर्शन हुए। नागरजी हमारे बीच नहीं हैं। ज्ञानचंदजी को इस संग्रह के प्रकाशन की जानकारी हुई तो उन्होंने बंधुवर अशोकजी शीर्षक से अशोकजी का परिचय भेजा और ‘उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज नवाब’ रचना सुलभ कराई। इन दोनों का उपयोग इस संकलन में कर लिया गया है। ज्ञानचंदजी की भूमिका से अशोकजी के जीवन और कृतित्व पर प्रकाश पड़ता है जिससे पाठकों को लेखक को समझने में सुविधा होगी। ज्ञानचंदजी के इस स्नेह सहयोग के लिए आभारी हूँ।

पुरुषोत्तमदास मोदी


बंधुवर अशोकजी


अशोकजी के साथ मेरे घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। इस मैत्री का सूत्रपात उस समय हुआ जब हिन्दी दैनिक पत्रकारिता से जुड़ने के बाद हम दोनों का कर्मक्षेत्र लखनऊ बना। अंग्रेजी के बहुत पुराने दैनिक ‘पायनियर’ का प्रकाशन करने वाले पत्र संस्थान ने 15 अगस्त 1947 में ‘स्वतन्त्र भारत’ दैनिक का प्रकाशन आरम्भ किया। 31 वर्षीय अशोकजी उसके सम्पादक बनाये गये। उसके बाद ही लखनऊ से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रनायक जवाहरलाल नेहरू द्वारा संस्थापित अंग्रेजी दैनिक ‘नेशनल हेरल्ड’ का प्रकाशन करने वाले पत्र संस्थान ने 1 नवम्बर 1947 से हिन्दी दैनिक ‘नवजीवन’ का प्रकाशन आरम्भ किया। इन्हीं दोनों दैनिकों से लखनऊ में राष्ट्रीय स्तर की हिन्दी दैनिक पत्रकारिता की सुदृढ़ नींव पड़ी। मैं ‘नवजीवन’ का समाचार सम्पादक बनकर अक्टूबर में ही लखनऊ आ गया और उसके सम्पादकीय विभाग की व्यवस्था का सारा भार सम्भाल लिया।
अशोकजी का जन्म 12 जुलाई 1916 को हुआ था। वे वय में मुझसे डेढ़ साल बड़े थे।

हम दोनों के व्यक्तित्व का निर्माण उस युग में हुआ जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले स्वाधीनता संग्राम के कारण सारे देश का वातावरण राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत था। अशोकजी जब बनारस के हरिश्चन्द्र स्कूल में पढ़ रहे थे, 1931 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह आन्दोलन चला। आन्दोलन में भाग लेने के कारण अशोकजी स्कूल से निकाल दिये गये। उन्होंने श्रीमती एनी बेसेन्ट द्वारा स्थापित सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल में नाम लिखा लिया और वहीं से हाईस्कूल किया। उन्होंने जिस साल 1936 में हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. किया, उसी साल मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। बी.ए. करने के बाद अशोकजी इलाहाबाद चले गये और 1938 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास में एम.ए. किया। मैंने उसी वर्ष आगरा कॉलेज (आगरा विश्वविद्यालय) से एलएल.बी. किया।
अशोकजी एम.ए. करने के बाद बनारस लौट कर हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. अनन्त सदाशिव आल्टेकर के निर्देशन में शोध कार्य करने लगे। इसी अवधि में उन्होंने बी.टी. भी कर लिया और उसी हरिशचन्द्र कॉलेज में अध्यापक हो गये जिसमें कभी पढ़ते थे। अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा।

1 जनवरी 1943 से बनारस से एक नये दैनिक समाचारपत्र ‘संसार’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इसे ‘आज’ के भूतपूर्व व्यवस्थापक बलदेवप्रसाद गुप्त ने  निकाला था। ‘आज’ के सम्पादकीय विभाग के सभी वरिष्ठ सदस्य इस पत्र में सम्मिलित हो गया। उनके अनुरोध पर हिन्दी दैनिक पत्रकारिता के पितामह बाबूराव विष्णु पराड़कर ने पत्र का प्रधान सम्पादक बनना स्वीकार कर लिया। पराड़करजी के सम्पादन में इस पत्र ने बनारस में वही प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली जो कभी ‘आज’ को प्राप्त थी। पराड़करजी की शिष्यता में अशोकजी 1943 में इसी पत्र के माध्यम से हिन्दी दैनिक पत्रकारिता से जुड़े।
मैं बी.ए. एलएल.बी. होने के बाद 1938 में इलाहाबाद से निकलने वाले प्रसिद्ध राष्ट्रीयतावादी अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ के सहयोगी हिन्दी दैनिक ‘भारत’ के सम्पादक मण्डल में सम्मिलित हो गया। उस समय दैनिक ‘भारत’ अंग्रेजी समाचारपत्रों की भाँति 16 पृष्ठ का निकलता था और मोनो पर कम्पोज होकर रोटरी पर छपता था। दैनिक ‘भारत’ में कार्य करते हुए मैंने हिन्दी में एम.ए. किया।

अशोकजी और मैं, हम दोनों हिन्दी दैनिक पत्रकारिता से उस युग में जुड़े जब वह मात्र जीविका का साधन न होकर एक मिशन, एक जीवनव्रत, जीवन को उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समर्पित करके राष्ट्रसेवा, समाजसेवा, हिन्दी सेवा तथा साहित्य सेवा का एक माध्यम था। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के मंत्र ‘निज भाषा उन्नति है, सब उन्नति को मूल’ ने हमारे हृदयों में घर करके हमें हिन्दी निष्ठ बना दिया था। इसी हिन्दी निष्ठा ने हम दोनों को मैत्री-सूत्र में बाँध दिया।

लखनऊ में श्रीनारायण चतुर्वेदी ‘श्रीवर’ राज्य की शिक्षा सेवा के एक उच्च अधिकारी होते हुए भी अनन्य हिन्दी-निष्ठ थे। शिक्षा सेवा से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने हिन्दी की पुरानी पत्रिका ‘सरस्वती’ का सम्पादन भार अवैतनिक रूप से ग्रहण कर लिया और उसके माध्यम से हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की उन्नति में जो योगदान किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। लखनऊ में उनका निवासस्थान हिन्दी साहित्यकारों और हिन्दी-प्रेमियों का मिलन केन्द्र था। हम लोगों ने उसका नाम ‘सिविल लिबर्टी लॉज’ रख दिया था। वहाँ सभी को अपने विचार स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने की पूरी छूट थी। मैं यह तो भूल गया कि अशोकजी से मेरी पहली भेंट कब हुई, किन्तु इतना याद है कि हमारी पहली भेंट श्रीवरालय में हुई। अशोकजी बड़े सुलझे हुए विचारों के व्यक्ति थे। स्पष्टवादी थे और अपनी बात बड़ी निर्भीकता के साथ बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करते थे। पहली ही भेंट में हम दोनों में जो सौहार्द भाव स्थापित हुआ, दिनोदिन बढ़ता गया।

 

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