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कहानी संग्रह >> लाल हवेली

लाल हवेली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5241
आईएसबीएन :81-8361-117-6

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श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...

Lal haveli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गूँगा

सर्जन पंड्या को दूर से देखने पर लगता, कोई अंग्रेज चला आ रहा है। सुर्ख गालों पर सुख, सन्तोष और स्वास्थ्य की चमक थी। उनके हाथ में कुछ ऐसा यश था कि उनकी प्रतिभा का स्पर्श पाते ही, मुरझाए मरीज भी चंगे होकर बैठ जाते। उनकी फीस भी उनके व्यक्तित्व की भाँति रोबीली थी, ऐसा-वैसा व्यक्ति तो उनकी फीस सुनकर ही पीला पड़ जाता, पर रोगी के पीले चेहरे से भी उनकी आँखों में करुणा नहीं उभरती। कभी-कभी वे अपनी विकट फीस में थोड़ा-सा अन्तर भी कर देते थे। बशर्ते, मरीजा सुन्दरी हो या मरीज किसी मौलिक बीमारी का नमूना हो। पर असंख्य रोगियों को जीवन दान देने वाला यह अनोखा मसीहा अपनी ही पत्नी का इलाज नहीं कर सका था। एक ही पुत्री को जन्म देकर उसकी पत्नी सौर में ही पगला गई थी और सर्जन उसे ठीक नहीं कर पाए थे। सोलह वर्ष से वह आगरा के पागलखाने में पड़ी थी।

 बीच-बीच में सर्जन उसे देखने भी जाते थे और कुछ लोग तो कहते थे कि वह उतनी पागल नहीं थी कि उसे घर न लाया जा सके, पर सर्जन कभी लौटकर पत्नी के उन्माद का प्रसंग भी पुत्री के सामने नहीं छेड़ते और न पुत्री ही कुछ पूछती। सर्जन की कन्या का नाम था कृष्णा। रंग था गेहुँआ, पर मुखश्री अनुपम थी। सघन कृष्ण वेणी को वही ढीली-ढाली गूँथकर पीठ पर डाल देती। माँ के अभाव को पिता के स्नेह ने कभी खटकने नहीं दिया था। देखरेख की लगाम तो नहीं थी, पर पिता का शासन कड़ा था। कृष्णा ने पढ़ाई के साथ संगीत और नृत्य की शिक्षा प्राप्त की। पैरों में घूँघर बाँधते ही वह स्वर्ग की अप्सरा बन जाती, बड़े से बड़ा कला-मर्मज्ञ हो या नृत्य-संगीत से एकदम ही अनभिज्ञ कोई अरसिक, सब उसके नृत्य की रस माधुरी में डूबकर रह जाते; यही उसके नृत्य की विशेषता थी। एक बार एक नृत्योत्सव में तीन घंटे तक नाचकर दर्शकों को मन्त्रमुग्ध किया और अन्त में जब हाथ जोड़कर दर्शकों की ओर सिर झुकाया तो तालियों से हाल गूँज उठा। सर्जन की आँखों में आनन्दाश्रु छलक उठे। अन्तःकरण को अमृतवृष्टि से परिप्लावित करती उस छवि को एकटक देखते, एक और व्यक्ति की भी आँखें तरल हो गई थीं और वह था तरुण स्क्वैड्रन लीडर वी. डीसूजा। वह कृष्ण के पड़ोसी डॉ. डीसूजा का पुत्र था। उसके पिता सर्जन के क्लिनिक में ही काम करते और सर्जरी में ही हाथ में छुरी लग जाने से टिटनेस से उनकी मृत्यु हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद मातृहीन डीसूजा सर्जन के साथ ही छुट्टियाँ बिताता। कृष्णा के आकर्षण जाल में वह किस बुरी तरह फँस गया है यह वह उसी दिन जान पाया। स्वभाव से ही लजीले उस सौम्य गोवानी युवक पर सर्जन का अत्यन्त स्नेह था। उसके लम्बोतरे चेहरे पर साँले रंग की चमक थी, पतली मूछों के नीचे उसके पतले होंठों पर सदा संयम की चाबी लगी रहती। वह बड़े नम्र स्वर में बोलता और बड़े ही सलीके से कपड़े पहनता। उसके जूते ऐसे चमकते कि कोई चाहे तो अपना मुँह देख ले ! सर्जन, उसके जूतों की इसी चमक पर फिदा थे। शाब्बास बेटे, तुम्हारे जूतों की चमक देखकर मेरी तबियत खुश हो जाती है। जो शख्स अपने जूते चमका कर रखता है उसका दिल भी हमेशा चमकता रहता है।" पता नहीं, सर्जन का कथन किस अंश तक सच था, पर डीसूजा का दिल सचमुच ही एकदम साफ था। वह जितना ही कृष्णा से बचकर निकलता, वह उसे उतना ही घेर लेती।

इसी बीच सर्जन को अपने निःसन्तान बूढ़े चाचा की क्रिया निबटाने पहाड़ जाना पड़ा। कुछ ही दिन पूर्व उसके चाचा का अनुनय-भरा पत्र आया था-मैं मरणासन्न हूँ, मेरी मृत्यु के बाद जैसे भी हो, मुझे पीपल-पानी कर जाना, नहीं तो मेरी आत्मा भटकती रहेगी। सर्जन प्रगतिशील विचारों के होकर भी घोर सनातनी थे। अपने राजप्रासाद के गुसलखाने में लघुशंका से निवृत्त होने भी जाते, तो जनेऊ कान पर चढ़ा होता। चाचा की आत्मा को तो उन्होंने भटकने से बचा लिया, पर पुत्री की आत्मा भटक गई। तेरहवीं कर लौटे तो चित्त प्रसन्न था। आत्मीय स्वजनों ने उसकी पुत्री के लिए एक हीरे-सा टुकड़ा वर ढूँढ़ दिया था। कृष्ण उन्हें लेने एअर-पोर्ट पर आई-क्यों बेटी कान्तम्मा तुम्हें छोड़कर छुट्टी ले घर तो नहीं चली गई थी ?" उन्होंने पूछा। कान्तम्मा उनकी वर्षों पुरानी बूढ़ी आया थी। ‘‘ना पापा’’, नम्रमुखी कन्या उन्हें कुछ पीली सी लगी। "पापा मेरे लिए पहाड़ की कमाई बालसिंघौड़ी लाए या नहीं ?" बच्ची की तरह मचलकर उसने पूछा। "लाया क्यों नहीं, और भी एक चीज आया हूँ अपनी दुलारी बेटी के लिए, जानती हो क्या ?" सर्जन ने मुस्कराकर कहा।
"क्या पापा ?"

"एक सुन्दर-सा वर, जिसे ढूँढ़ने ही शायद भगवान ने मुझे पहाड़ भेजा था।" सर्जन ने कनखियों से बेटी की ओर देखा और ममता से उनका गलाभर आया। थोड़े ही दिनों में उनकी बेटी पराई हो जाएगी। कृष्ण का चेहरा आश्चर्यजनक रूप से सफेद लग रहा था, वह पहले गुमसुम हो गई, फिर अचानक दृढ़ स्वर में बोली, "आपको मेरे लिए वर नहीं ढूँढ़ना होगा-मैंने वर ढूँढ़ लिया है !"
सर्जन दंग रह गए, कहती क्या है लड़की कहाँ से वर ढूँढ़ लिया, यहाँ तो अपने समाज का एक परिवार भी नहीं था।
"क्या बात कर रही है पगली, कैसा वर ?" उन्होंने स्वर को करुण बनाकर पूछा।

"हाँ, पापा, मैं विकी से ही ब्याह करूँगी।" सामान्य-सी किशोरी के कंठ की दृढ़ता में कहीं भी नम्रता की मिठास नहीं थी। सर्जन क्रोध से काँफते चुपचाप अपनी मूँछें नोचने लगे। सामान्य-सा पाइलट डीसूजा, उस पर भी ईसाई और कहाँ कुमाऊँ के महापंडितों के खानदान की पुत्री कृष्णा ! कार घर पहुँची, तो डीसूजा को बुलाने आदमी भेजा, पता लगा- डीसूजा मद्रास चला गया है। शासन की लक्ष्मण रेखा में पुत्री को बाँधकर सर्जन निश्चिन्त हो गए। बिना उनसे पूछे अब वह गुसलखाने भी नहीं जा सकती थी। सर्जन को इसी बीच जयपुर की मेडिकल सेमिनार में अध्यक्षता करने जाना पड़ा। कान्तम्मा को कड़ी हिदायतें देकर वे दो और बूढ़ी नौकरानियाँ तैनात कर गए, किन्तु तीन जोड़ी बूढ़ी आँखों को धोखा देने के लिए कृष्णा की एक ही जोड़ी जवान आँखें काफी थीं। डीसूजा खबर पाते ही छुट्टी लेकर आ गया और दोनों फिर लुक-छिपकर मिलने लगे। पापा के आने में केवल आठ दिन हैं विकी।" एक दिन कृष्णा ने उसकी छाती पर माथा टिकाकर कहा, तुम्हें पाँच दिन बाद लम्बी ट्रेनिंग के लिए फ्रांस जाना है, क्यों न हमसेंट पाल के बूढ़े पादरी की खुशामद कर शादी कर लें ? पापा फिर कर ही क्या लेंगे ?"

एक शाम दोनों जंगल में खो गए। बच्चों की भाँति, एक दूसरे का हाथ कसकर पकड़े सेंट पाल से लौटे। तीसरे दिन डीसूजा चला गया। सर्जन लौटे, ढाई तीन माह तक मरीजों में फँसे रहे। एक दिन लेटे-लेटे। वे अखबार पढ़ रहे थे कि पहले ही पृष्ठ पर तरुण भारतीय पाइलेट की मृत्यु की खबर देखकर चौंक गए। डीसूजा की मृत्यु हो गई थी। वे मन-ही-मन ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद दे रहे थे कि एक चीख सुनकर चौंक पड़े। कृष्णा उनके पीछे खड़ी थी। उसका रोना और कोई न सुन ले, यह सोचकर सर्जन ने चट
 से उसे उसके कमरे में धकेलकर अन्दर से चिटकनी चढ़ा दी। पर कृष्णा सिसकती रही। क्या तूफान मचा रखा है तुमने ? कोई नादान बच्ची तो नहीं हो, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी शादी तय हो चुकी है।" बाल बिखराए ही कृष्णा तड़पकर उठी बैठी-"मेरी शादी हो चुकी थी पापा !"
"क्या बकती है ?" सर्जन ने तिलमिलाकर बेटी की ओर चाँटा साधा; फिर बड़ी चेष्टा से बिना मारे ही हाथ खींच लिया।
"हाँ, पापा, तीन माह पहले सेंट पाल के पादरी ने हमारी शादी करवाई थी विकी मेरा पति था।" उसके होंठ काँपने लगे।
"चुप कर बेहूदी। तुम अभी नाबालिग हो, शादी हो ही कैसे सकती थी ?"
गुस्से से पैर पटककर सर्जन धड़धड़ाते पादरी के पास गए, न जाने कितने के चेक से उसका मुँह बन्द किया। लौटे तो कृष्णा को समझाते हुए कहा, "मैंने पादरी को समझा दिया है, वह सब रिकार्ड जला देगा। खिलवाड़ को कोई भी धर्म शादी नहीं कह सकता।"

पर एक बात और है पापा", सिर झुकाकर कृष्णा जमीन में गड़ गई।
"क्या ?" चीखकर ही पूछा सर्जन ने।
"मैं माँ बननेवाली हूँ।" दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर वह सिसक उठी।
नियति से जूझकर सर्जन अब धराशायी थे। रात भर वे पिजड़े में बन्द शेर की तरह चक्कर लगाते रहे, फिर भोर होते-होते उन्होंने कमर कस ली। दूसरे दिन वे पुत्री को लेकर यह कहकर चले गए कि सगाई की रस्म पूरी करने वे पहाड़ जा रहे हैं। मार्ग में उन्होंने बेटी को कितना समझाया, अठारह वर्ष की जिन्दगी, वह अकेली नहीं काट सकती। देहली में एक बहुत बड़े महिला आश्रम की संचालिका काशीबाई को वे जानते थे। कुछ वर्ष पूर्व उसे ब्रेस्ट कैन्सर हो गया था। उन्होंने उस विधवा सुन्दरी को कभी जीवन दान दिया था। आज उसी का प्रतिदान माँगने जा रहे थे। सबकुछ सुनकर काशीबाई हँसकर बोली, "आप निश्चिन्त रहें सर्जन, किसी को कानों-कान खबर नहीं होने की।"

भाग्य ने सर्जन पर दया करके समय से पूर्व कृष्णा को मुक्ति दे दी। सतमासी पुत्र को जन्म देकर वह चार माह बाद घर लौट आई। कुछ ही दिनों बाद उसके विवाह की तैयारियाँ जोर-शोर से होने लगीं। सात फेरे लगाकर सप्तपदी पूर्ण हुई तो सर्जन के दिल का पहाड़ हट गया। काशीबाई पर उन्हें पूरा भरोसा था और किसी को कानोंकान कुछ खटका भी नहीं हुआ था। धीरे-धीरे समय बीतता गया। विवाह को अब छः वर्ष पूरे हो गए थे। कृष्णा के एक पाँच वर्ष का पुत्र भी था, किन्तु अभी भी उसके सौन्दर्य में वही अल्हड़ा-सा भोलापन था। वह नृत्य का निरन्तर अभ्यास करती थी, उसके ओडिशी और भरतनाट्यम की ख्याति राजधानी तक पहुँची और महारानी के स्वागत समारोह में उसे आग्रहपूर्वक आमन्त्रित किया गया। वह अपने पति और पुत्र के साथ ही आई थी, क्योंकि ठीक सातवें दिन उसके पति को वाशिंगटन दूतावास में सेक्रिटरी के पद का भार ग्रहण करने पहुँचना था।

दुर्भाग्य से ठीक नृत्य समारोह के दिन ही राजीव को तेज ज्वर हो आया। इकलौता जिद्दी लाड़ला माँ के गले में अपनी ज्वराक्रान्त तपती बाँहें डालकर झूल गया-"नहीं ममी, तुम यहीं रहो।" बड़ी कठिनता से एक इलेक्टिकल ट्रेन और चाकलेट का उत्कोच देकर कृष्णा को छुट्टी मिली। उस दिन के नृत्य प्रदर्शन ने उसके गले में कीर्ति की जयमाला डाल दी। स्वयं महारानी एलिजाबेथ ने उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे बधाई दी। प्रशंसा और तालियों के नशे में झूमती वह पति के साथ कार में लौट रही थी कि सर्र से महिला आश्रम के पास से कार गुजर गई। एक पल ही में उसकी सारी प्रसन्नता उड़ गई। जिस घाव की सूखी पपड़ियाँ तक झर गई थीं, वही आज नासूर बन गया था। घर पहुँची और बच्चे को छाती से चिपटाकर लेट गई, पर सो नहीं सकी। माँ को पाकर राजीव ने प्रसन्नता से छाती में मुँह छिपा लिया।



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