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सिख धर्म और संस्कृति

अमरसिंह वधान

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5244
आईएसबीएन :81-7124-488-2

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सिख धर्म और संस्कृति पर आधारित पुस्तक...

Sikh Dharma AurSanskriti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने वैचारिक चिंतन, व्यावहारिक समयबोध और स्तरीय लेखन के जरिए डॉ. अमरसिंह बधान हिन्दी साहित्य जगत् में एक प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त कर चुके हैं। ‘समकालीन हिन्दी कहानी’, ‘भाषा और सूचना प्रौद्योगिकी’, ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति’, ‘साहित्य और उत्तर संस्कृति’, ‘21वीं सदी से संवाद’ आदि डॉ. वधान की बहुचर्चित कृतियाँ साक्षी हैं कि वे समय की आहट को ध्यान से सुनते हैं, उसके रुख को बारीकी से पहचानते हैं और समय को अपने से आगे नहीं निकलने देते। एक लेखक के रूप में डॉ. वधान असाधारण इस वजह से हैं कि वे अपनी बात जोखिम उठाकर कहते हैं, लेकिन संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ते हैं। महानगरीय परिवेश में रहते हुए भी उन्होंने सादगी, सदाचार और मनुष्यता का दामन नहीं छोड़ा। डॉ. वधान का मानना है कि किसी देश, समाज, धर्म और व्यक्ति की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए सेवा, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होती है। इसी निकर्ष पर रचित उनकी नवीनतम कृति ‘सिख धर्म और संस्कृति’ प्रतिपादित करती है कि सिख गुरुओं ने अपने धर्म, दर्शन, विचारधारा, अन्तःप्रक्रिया त्याग और कुर्बानियों से आने वाली शताब्दियों तक मनुष्य को जीवन जीने एवं मुक्ति का सही ढंग बता दिया।

इस पुस्तक में दर्ज सिख धर्म, दर्शन, विचारधारा आदि ग्रंथ, मानव मूल्य, पंजाबी संस्कृति एवं सामाजिक शक्ति, सिख शहीदी, भक्ति और शक्ति आदि का विषयक विमर्श एवं निष्कर्ष स्थापित करते हैं कि आत्मकेन्द्रित और क्रत्रिम संस्कृति से दुःखी आज का मनुष्य सिख गुरुओं के बताए गए मार्ग पर चलकर ही आनंद, खुशी एवं शांति प्राप्त कर सकता है। अपने नए युगबोध, सामाजिक एवं राजनीतिक सवालों, सक्रिय व गतिशील सच्चाई को उद्घाटित करती यह अप्रतिम पुस्तक सिख धर्म, दर्शन और संस्कृति के क्षेत्र में अपना एक सार्थक एवं निर्णायक स्थान प्राप्त करेगी, यह तय है।

पुरोआदित्य


यदि गौर से देखा जाए तो मानव-जाति को ‘धर्मशास्त्र’ और ‘दर्शनशास्त्र’ ने सबसे अधिक गहराई तक प्रभावित एवं अभिप्रेरित किया है। अपने विकास-क्रम में मनुष्य के विश्वास ने धर्म को तथा उसकी जिज्ञासा ने दर्शन को जन्म दिया है। यही वज़ह है कि समाजशास्त्र में संरचना की दृष्टि से इन दोनों शास्त्रों का अत्यधिक महत्त्व है। हमारे मनीषियों ने तो धर्म को मानव-जीवन का सुगन्ध-सौरभ कहा है। इसमें दो राय नहीं कि धर्म के बिना मनुष्य का  जीवित रहना संभव नहीं। कहा भी गया है कि धर्महीन व्यक्ति पशु के समान है। धर्म से ही जीवन में सत्यम्, शिवम् सुन्दरम् की सृष्टि होती है। सच्चा धर्म भी वही है, जिसे जीवन में धारण किया जा सके, सम्यक् आधार का विकास बनाया जा सके और जीवन-शक्तियों को बिखरने तथा नष्ट होने से बचाए।

मोटे तौर पर धर्म के चार आयाम माने गए हैं-व्यक्तिगत, सामाजिक, मानवतावादी एवं आध्यात्मिक। वैसे विश्व धर्म में मुख्य रूप से डेढ़ दर्जन धर्म पाए जाते हैं। यथा-हिन्दू धर्म, सिख धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, मुस्लिम धर्म, कन्फ्यूशियन धर्म, बहाई धर्म आदि। इन सभी धर्मों के वाह्य रूप अलग-अलग होने पर भी इनके मूलतत्व एक समान हैं। कहना न होगा कि इन धर्मों का मूलाधार ‘सत्य’ है और सभी का प्रधान लक्ष्य ईश्वर की सम्प्राप्ति है। यह भी कि साधना-पद्धतियाँ और पूजा-विधियाँ भिन्न-भिन्न होते हुए भी इन सबका का लक्ष्य तो एक ही ईश्वर है। धर्म की इमारत आस्था, विश्वास, साधना, दृढ़संकल्प, मानवतावाद आदि मूल्यों पर खड़ी होती है। विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि धर्म के विरुद्ध बगावत करने वाले को अन्तिम शरण धर्म के तले ही मिली है। अत: धर्म कोई भालू की दीवार नहीं कि ज़रा-सा निर्दयी हवा का झोंका इसे गिरा दे।

भारतीय धर्मों में सिख धर्म का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त किया। उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े।
गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं।

पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार।।
आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू।।
कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू।।6।।

(आदिग्रन्थ, पृ. 55)

 गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-

सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ।।
ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ।।

(आदिग्रन्थ, पृ. 617)

सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ खरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानन्द, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया।

 उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। लेकिन अपने देहावसान के पूर्व गुरु गोविन्द सिंह ने देहधारी गुरु परम्परा समाप्त कर दी और सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को ‘गुरु पद’ पर आसीन कर दिया। उस समय आदिग्रन्थ गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।

सिख धर्म को कालजयी बनाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने सभी धर्मों और जातियों के लोगों को गुरु-शिष्य-परम्परा में दीक्षित किया। उन्होंने आने वाली शताब्दियों के लिए इस नए मनुष्य का सृजन किया। यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (जफ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी।

यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ।

सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है।

सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रजारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है।

 पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है। सिख गुरुओं का इतिहास उठाकर देख लीजिए, उन्होंने साम्राज्यवादी अवधारणा कतई नहीं बनाई, उल्टे सांस्कृति,क धार्मिक एवं आध्यात्मिक सामंजस्य के माध्यम से मानवतावादी संसार की दृष्टि ही करते रहे। आज़ादी के पूर्व, भारत-पाक विभाजन एवं इसके बाद कई दशकों में पंजाब में समय-समय पर आए हिंसात्मक-ज़लज़लों एवं निर्दयी विध्वंसों के बावजूद इस धरती के लोगों ने अपना शान्तिपूर्ण अस्तित्व बनाए रखा है। कौंध इनका मार्गदर्शन करती रही है।

प्रस्तुत ‘सिख धर्म और संस्कृति’ शीर्षक नवीनतम कृति में सिख गुरुओं की विचारधारा सिख धर्म एवं दर्शन, आदिग्रन्थ, गुरु अर्जुन देव, गुरु तेग बहादुर, गुरु गोविन्द सिंह, शहीद भगत सिंह एवं शहीद उधम सिंह की कुर्बानियाँ एवं शहीदियाँ, पंजाबी लोकगीत एवं लोकनृत्य, संत कबीर एवं संत रविदास, जलियावाला बाग हत्याकाण्ड, भक्ति और शक्ति, भौतिकता और अध्यात्म आदि विषयों को केन्द्र में रखते हुए निष्कर्षित किया गया है कि मानवीय चेतना, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक से परिपुष्ट होकर संचरित होती है और फिर यह मानवाचरण का महामार्ग प्रशस्त करती है। यही लोक-जीवन के सद्आचरणोन्मुखी आधार आगे चलकर स्थायी मूल्यों का निर्माण करते हैं।,/div>
 

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