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प्रसाद की काव्यभाषा

रचना आनन्द गौड़

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5252
आईएसबीएन :978-81-8031-114

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इस पुस्तक में जहाँ एक ओर प्रसाद की काव्य-भाषा का विकासात्मक और प्रतीतिपरक मूल्यात्मक विवेचन किया गया है वहीं दूसरी ओर संवेदना या जनता की चित्तवृत्ति में होने वाले परिवर्तनों के कारण खड़ी बोली के काव्यभाषा के रूप में विकास का भी अत्यंत व्यवस्थित वर्णन है।

Prasad Ki Kavyabhasha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘प्रसाद की काव्यभाषा’ शीर्षक से प्रकाशित इस पुस्तक में जहाँ एक ओर प्रसाद की काव्य-भाषा का विकासात्मक और प्रतीतिपरक मूल्यात्मक विवेचन किया गया है वहीं दूसरी ओर संवेदना या जनता की चित्तवृत्ति में होने वाले परिवर्तनों के कारण खड़ी बोली के काव्यभाषा के रूप में विकास का भी अत्यंत व्यवस्थित वर्णन है। इस दृष्टि से यह पुस्तक दोहरी अर्थवत्ता रखती है।....
प्रसाद की प्रारंभिक कृतियों से अनेक उदाहरणों द्वारा डॉ. गौड़ ने यह सिद्ध किया है कि कैसे अन्ततः एक बड़े कवि की खोज भाषा की ही खोज होती है।
मेरा मानना है कि इस पुस्तक के द्वारा केवल छायावाद और प्रसाद की काव्याभाषा क्षमता को ही नहीं समझा जा सकता है बल्कि खड़ी बोली की संभावना को भी रेखांकित किया जा सकता है।....
पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है।

आशीर्वचन

हिंदी काव्यभाषा का उत्कर्ष छायावाद में देखा जाता है और उसमें भी जयशंकर प्रसाद के काव्य में। इस तथ्य को लेखिका ने सम्यक् रूप से इस ग्रंथ में दिखा दिया है। लेखिका को समग्र हिंदी काव्य-परम्परा का विशद ज्ञान है। साथ ही काव्य की उसकी सूझ-बूझ भी प्रौढ़ और पूर्ण है। काव्यभाषा की सही परख हिंदी के कम आलोचकों को है। मुझे यह देखकर बड़ा संतोष हुआ कि लेखिका ने काव्यभाषा विषयक मानक ग्रंथों का अध्ययन कर तदविषयक अपनी समझ को पुष्ट किया है जिसका प्रमाण ग्रंथ में पग-पग पर प्राप्त होता है। बड़ी सुविचारित योजना के अनुसार यह ग्रंथ तैयार हुआ है, फलत: इसमें कहीं कोई त्रुटि दिखायी नहीं पड़ती है। लेखिका ने प्रतिपाद्य विषय की प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार की सामग्रियों का गम्भीर आलोड़न किया है। उसमें अपने मंतव्य को युक्ति और सफाई के साथ प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है। विवेच्य विषय के साथ-साथ ग्रंथ की भाषा भी ध्यान आकृष्ट करती है। इस ग्रंथ की भाषा आलोचना की आदर्श भाषा है जो प्रतिपाद्य विषय को रमणीय रूप में प्रस्तुत करती है।  
 
इस सुंदर ग्रंथ की प्रस्तुति के लिये मैं श्रीमती रचना आनंद गौड़ को हार्दिक बधाई देता हूँ तथा इसके प्रकाशन का स्वागत करता हूँ।

सियाराम तिवारी

कृत्ति-महत्त्व

‘प्रसाद की काव्यभाषा’ शीर्षक से प्रकाशित इस पुस्तक में जहाँ एक ओर प्रसाद की काव्यभाषा का विकासात्मक और प्रतीतिपरक मूल्यात्मक विवेचन किया गया है वहां दूसरी ओर संवेदना या जनता की चित्तवृत्ति में होने वाले परिवर्तनों के कारण खड़ीबोली के काव्यभाषा के रूप में विकास का भी अत्यंत व्यवस्थित वर्णन है। इस दृष्टि से यह पुस्तक दोहरी अर्थवत्ता रखती है। प्रारंभ में ही डॉ. रचना गौड़ा ने आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी के कुशल विद्वतापूर्ण निर्देशन में खड़ीबोली के विकास के कारणों और कारकों का सारगर्भित संकेत किया है और यह स्थापित किया है कि संवेदना के बदलाव के कारक भाषा के भी बदलाव के कारक होते हैं। ‘नई चाल’ में ढलने के पूर्व खड़ी बोली ने कितनी मंज़िलें पार कीं और किस प्रकार धर्म, राजनीति, शिक्षा, प्रचार-प्रसार तथा छापेखाने आदि के माध्यम से संवाद और विमर्श की भाषा के रूप में गद्य में विकसित हुई इसका अत्यंत सटीक और सतर्क विवेचन इतिहास और मूल्यवत्ता दोनों दृष्टियों से किया गया है। इस अर्थ में पुस्तक का यह एक अतिरिक्त महत्त्व है। गद्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा की विफलता और खड़ीबोली की सफलता का यह इतिहास काफी रोचक और हिन्दी साहित्य तथा हिन्दी जाति की प्रतिष्ठा की दृष्टि से अत्यंत सार्थक है।

खड़ीबोली काव्य आन्दोलन और स्वच्छंदतावादी काव्यधारा के दौर में प्रसाद के पूर्व खड़ीबोली किस प्रकार शैशवावस्था से किशोरावस्था को प्राप्त कर रही थी इसका संकेत दूसरे अध्याय में श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, हरिऔध मैथिलीशरण गुप्त और रामचरित उपाध्याय आदि की कृतियों और महावीर प्रसाद द्विवेदी की संपादन क्षमता सामर्थ्य और अनुशासन प्रियता तथा खड़ीबोली के मानकीकरण के प्रयत्नों के विवेचन क्रम में अनेक उदाहरणों के द्वारा किया गया है। छायावाद को किस प्रकार की काव्यभाषा मिली थी और उन्होंने किस प्रकार इसे और भाव-विचार-सम्प्रेषणक्षम बनाया इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर तीसरे अध्याय में है। ब्रजभाषा की कोमलता और मसृणता को खड़ी बोली में अन्तरिम करने के प्रयत्न में कविता की क्या भूमिका है यह छायावाद के माध्यम से ही समझा जा सकता है। छायावाद ने हिन्दी में लाक्षणिकता संकेतपरकता और चित्रात्मकता को किस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त करते हुए भाषा की अन्तर्निहित शक्ति के स्रोत का उद्धाटन किया यह भाषा, काव्य, चिंतन और प्रगति अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

डॉ. रचना की यह पुस्तक इस अर्थ में नयी स्थापना करती है। और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की स्थापनाओं का विनम्रतापूर्वक सतर्क ढंग से प्रत्याख्यान भी करती है। शोधपरकता और विश्लेषण क्षमता का यह लक्षण होता है कि वह उस संभावना को भी रेखांकित करती चलती है जिससे महत्त्वपूर्ण कृतियाँ विकसित होती हैं। प्रसाद की कृतियों की काव्यभाषा के मूल्यांकन में इसका संकेत बराबर मिलता है। प्रसाद के कवि व्यक्तित्व और उनकी काव्यभाषा का क्रमिक विकास कैसे हुआ इस पुस्तक में कालक्रमिक और मूल्यक्रमिक ढंग से प्रतिपादित किया गया है। प्रसाद की प्रारंभिक कृतियों से अनेक उदाहरणों द्वारा डॉ. गौड़ ने यह सिद्ध किया है कि कैसे अन्तत: एक बड़े कवि की खोज भाषा की ही खोज होती है। मेरा मानना है इस पुस्तक के द्वारा केवल छायावाद और प्रसाद की काव्यभाषा क्षमता को ही नहीं समझा जा सकता है बल्कि खड़ीबोली की संभावना को भी रेखांकित किया जा सकता है। जिस परिश्रम और समझदारी के साथ रचना ने पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए इतना विद्वतापरक और मूल्यवान कार्य किया है वह आश्चर्यचकित करता है मेरे गुरु प्रो. राजेन्द्र कुमार वर्मा की बीमारी से विचलित होने के बावजूद उसने मेरे बार-बार आग्रह करने पर यह कार्य अन्ततः उसी दक्षता के साथ पूरा किया जैसा परिश्रम उसने वास्तविक निर्देशक प्रो. चतुर्वेदी के कहने पर किया था। पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है। इस पुस्तक के प्रकाशन से हिन्दी विभाग के शोध की स्तरीयता भी सिद्ध होगी ऐसा मेरा विश्वास है।

सत्यप्रकाश मिश्र

निवेदन

खड़ीबोली के बीज प्राचीन काल से ही सिद्धों और नाथों की रचनाओं में मिलने लगते हैं किन्तु आधुनिक काल से पूर्व यह परम्परा मिश्रित रूप में ही मिलती है। इस प्रकार खड़ीबोली का इतिहास यद्यपि पुराना है, लेकिन उसके काव्यभाषा बनने और काव्यभाषा के रूप में पूर्ण स्वयत्तता प्राप्त करने का इतिहास अपेक्षाकृत आधुनिक है। बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना जहाँ एक ओर हिन्दी कविता को मध्यकालीन भक्ति और श्रृंगार से अलगाती है, वहीं उससे जुड़ी खड़ीबोली को काव्यभाषा के रूप में स्वीकृति मिलती है। आधुनिक काल से पूर्व गद्य की परम्परा नहीं के बराबर थी, साथ ही हमारा अधिकांश साहित्य ब्रजभाषा में मिलता है। इस प्रकार खड़ीबोली की प्रतिष्ठा और गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास-ये दो महत्त्वपूर्ण बदलाव आधुनिक काल में दिखाई देते हैं। यह रोचक तथ्य है कि गद्यभाषा के रूप में खडी़बोली की प्रतिष्ठा अत्यन्त सहज रूप में हो गई किन्तु काव्यजगत में उसके प्रयोग का एक लम्बा इतिहास है। भारतेन्दु युग में जबकि गद्यभाषा के रूप में खड़ीबोली पूर्णत: प्रतिष्ठित हो गई थी, काव्य जगत् में ब्रजभाषा का ही एकाधिकार रहा। भाषा का यह द्वैत भारतेन्दु के बाद खड़ीबोली काव्यान्दोलन को जन्म देता है और द्विवेदी युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयत्नों से काव्यभाषा के रूप में उसे स्वीकृति मिलती है।

 चूँकि आधुनिक काव्य का आरम्भ ब्रजभाषा से होता है, अत: आरम्भिक खड़ीबोली काव्य पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी स्वाभाविक था। पं. श्रीधर पाठक से लेकर अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, नाथूराम शंकर शर्मा, रायदेवी प्रसाद पूर्ण और लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि खड़ीबोली के छोटे-बड़े कवि रचनाकारों के साथ स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी की आरम्भिक खड़ीबोली रचनाएँ ब्रजभाषा के प्रभाव से एकदम अछूती नहीं है। खड़ीबोली रचनाएँ ब्रजभाषा के संस्कार से मुक्त कर व्यवस्थित करने के प्रयास में द्विवेदी युग में जो खड़ीबोली आती है वह इतिवृत्तात्मकता का  संस्कार लिये आती है और इस इतिवृत्तात्मकता से मुक्ति छायावाद की काव्यभाषा को जन्म देता है। काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की इस विकास प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत शोघ प्रबन्ध का एक पक्ष है।

आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा का यह विकास क्रम प्रसाद के काव्य में सर्वाधिक स्पष्ट होता है। प्रसाद पहले ब्रजभाषा में लिखते थे, अत: उनकी आरम्भिक खड़ीबोली रचनाओं पर ब्रजभाषा का प्रभाव है। ‘इन्दु’ में समय-समय पर प्रकाशित प्रसाद की ब्रजभाषा कविताएँ ‘चित्राधार’ में संकलित हुई। ब्रजभाषा में लिखा गया उनका कथाकाव्य ‘प्रेमपथिक’ आठ वर्ष बाद खड़ीबोली में लिखा गया। ‘काननकुसुम’ की खड़ी बोली रचनाओं पर भी एक ओर ब्रजभाषा का प्रभाव है तो दूसरी ओर अधिकांश कविताओं की शैली इतिवृत्तात्मक है। इसी प्रकार ‘झरना’ की अनेक कविताएँ जबकि छायावाद की प्रवृत्तियां सबसे पहले झरना में दिखाई दीं द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता से मुक्त नहीं है। ‘झरना’ के बाद ‘आंसू’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’ कवि की तीन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृतियाँ छायावाद का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रसाद की रचनाओं के इस क्रमिक विकास का अध्ययन खड़ीबोली काव्यभाषा के संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो जाता है। काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की विकास प्रक्रिया के विश्लेषण के बाद इस विकास क्रम में प्रसाद-काव्य का अध्ययन प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का दूसरा पक्ष है जो नि:सन्देह पूर्व पक्ष से अभिन्न रूप में सम्पृक्त है अथवा यों कहा जा सकता है जिसका विकास पूर्व पक्ष की पृष्ठभूमि में होता है।

विषय के व्यवस्थित अध्ययन के लिये उसे पाँच अध्यायों में बाँटा गया है। खड़ीबोली से पूर्व ब्रजभाषा की समृद्ध काव्य परम्परा थी। पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल में काव्यभाषा के पद पर एकाधिकार रखने वाली ब्रजभाषा को पदच्युत कर काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा अनायास और अप्रत्याशित नहीं थी। इसके विकास के पीछे अनेक कारण थे। आधुनिक युग में बदलती हुई परिस्थितियाँ किस प्रकार बदली हुई उन परिस्थितियों का विवेचन प्रथम अध्याय के अन्तर्गत पृष्ठभूमि के रूप में किया गया है।

खड़ीबोली के प्रयोग की परम्परा यद्यपि प्राचीन है किन्तु प्रस्तुत अध्ययन आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा से सम्बन्धित है। भारतेन्दु युग में गद्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा किन्तु काव्य जगत में ब्रजभाषा का प्रयोग फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी का आगमन और खड़ीबोली को ब्रजभाषा तथा अन्य प्रान्तीय शब्दों के प्रभाव से मुक्त कर व्याकरणबद्ध करना, अन्तत: व्यवस्था के इस क्रम में द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता से मुक्ति का संकेत और छायावाद का आरम्भ-काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली के इस पूरे विकास को दूसरे अध्याय में समेटा गया है। चूँकि अध्ययन खड़ीबोली काव्यभाषा का विवेचन समग्र रूप में द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत किया गया है।

प्रसाद के पहले खड़ीबोली काव्य संग्रह ‘काननकुसुम’ में संकलित ‘प्रथम प्रभात’ कई अर्थों में द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मक शैली से अलग नई काव्य क्षमता का संकेत देती है जिसका विकास आगे चलकर छायावाद में होता है। एक ओर मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डेय में छायावाद का पूर्वाभास मिलने लगता है, तो दूसरी ओर निराला की ‘जुही की कली’ और पंत के ‘पल्लव’ में यह नई काव्य क्षमता खड़ीबोली को नया स्वर देती है। द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मकता से छायावाद की चित्रात्मकता और बिम्ब क्षमता का काव्यभाषिक विश्लेषण तृतीय अध्याय के अन्तर्गत किया गया है।
प्रसाद पहले कवि है जिनकी रचनाओं में छायावाद की प्रवृत्तियाँ दिखाई दीं। ‘चित्राधार’ से लेकर ‘कामायनी’ तक प्रसाद की काव्यभाषा का विकास आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा के विकास क्रम को दर्शाता है।

 ब्रजभाषा से खड़ीबोली में लिखने का प्रयास और प्रयास की इस प्रक्रिया में उनकी आरम्भिक खड़ीबोली रचनाओं पर ब्रजभाषा का प्रभाव, साथ ही द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मक शैली का संस्कार स्पष्टत: देखा जा सकता है। आगे चलकर ‘आँसू’ ‘लहर’ और ‘कामायनी’ में छायावाद की काव्यभाषा का विकास दिखाई देता है। अध्याय-4 के अनुभाग ‘क’ के अन्तर्गत प्रसाद के ब्रजभाषा काव्य का अवलोकन करते हुए अनुभाग ‘ख’ के अन्तर्गत उनके खड़ीबोली काव्य के महत्त्वपूर्ण सोपानों के आधार पर प्रसाद की काव्यभाषा के विकास क्रम को दर्शाया गया है। प्रसाद की काव्यभाषा का यह विवेचन काव्यभाषा के सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा व्यावहारिक धरातल पर अधिक है।

छायावाद के रूप में खड़ीबोली को अपना पूर्ण वैभव प्राप्त होता है। महाकाव्य के नूतन कलेवर में कामायनी न केवल अपने समय की बल्कि हिन्दी काव्य जगत की महानतम उपलब्धि के रूप में सामने आती है। ‘आँसू’ की सूक्ष्म प्रबन्ध कल्पना और ‘लहर’ की गीतसृष्टि खड़ीबोली काव्य में शिल्प के नये आयाम जोड़ती है। आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा के विकास में प्रसाद के इस योगदान का मूल्यांकन अन्तिम अध्याय के अन्तर्गत समाहार रूप में किया गया है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के विषय चयन से लेकर, इसके अध्ययन की रूपरेखा और इसकी अध्ययन दृष्टि में स्वर्गीय प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी की भूमिका सर्वोपरि है। प्रो. चतुर्वेदी की विशिष्ट अध्यापन शैली से मैं छात्र जीवन से ही प्रभावित थी। विशेष अध्ययन के लिये प्रसाद का चयन उनके गम्भीर गुरु व्यक्तित्व से मेरी निकटता का कारण बना। फिर शोध छात्रा के रूप में उनके निर्देशन में मेरा नामांकन और उनका यह कथन ‘भाई, इस विषय पर शोध कर पाओगी’ (स्पष्ट ही जहाँ जोर विषय पर अधिक था) मेरे लिये बड़ी चुनौती बनने के बावजूद यह शोध प्रबन्ध धीमी गति से लिखा गया है। इस लम्बी अवधि में अपने कड़े अनुशासन में जिस धैर्य और स्नेह से उन्होंने मेरे शोध कार्य की देखरेख की, उसकी पुण्य और पवित्र स्मृति जीवन पर्यन्त मेरे साथ रहेगी।

प्रो. चतुर्वेदी के निधन के बाद मेरे गुरु और इस शोध प्रबन्ध के निर्देशक श्रद्धेय प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र का अवलम्ब और सम्बल यदि मुझे न मिलता, तो यह अधूरा शोध कार्य शायद पूरा न होता। प्रो. चतुर्वेदी जैसी विद्वता, गुरुता और गम्भीरता मैंने प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र में सदैव देखी। चतुर्वेदी जी के आकस्मिक निधन पर मुझे अपने निर्देशन में लेने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर उन्होंने मेरे थकित उत्साह को जो नई स्फूर्ति और चेतना प्रदान की, साथ ही शोध कार्य में आने वाली अनेक समस्याओं का समाधान कर मुझे मेरे उस गन्तव्य तक पहुंचाया जिसकी मुझे वर्षों से प्रतीक्षा थी, मैं उनके प्रति श्रद्धावनत हूँ।

मेरे गुरु प्रो. राजेन्द्र कुमार मुझसे जब भी मिलते मेरे शोध कार्य के विषय में अवश्य पूछते और शीघ्र ही इस कार्य को पूरा करने के लिए प्रेरित भी करते, अत: आज इस महत् कार्य के समाप्त होने पर अपने गुरु प्रो. राजेन्द्र कुमार का स्मरण भी मेरे लिए अत्यन्त सुखद है।

गुरु को तो कबीर ने गोविन्द से भी ऊंचा स्थान दिया है। अत: गुरुजनों के बाद अपने पिता प्रो. राजेन्द्र कुमार वर्मा के प्रति कृतज्ञता के निर्वाह से मैं यों उऋण नहीं हो सकती कि उन्होंने तो न केवल शोध कार्य के दौरान बल्कि जीवन में अनेक बार विचलन की स्थिति से उबार कर अध्ययन अध्यापन की मेरी रुचि को जिस रूप में विकसित किया, पिता के उस दायित्व निर्वाह में, अनुशासन और स्नेह में मैंने सदैव अनुशासन को ही ऊपर पाया, जिसके परिणाम से मिली प्रसन्नता के हम दोनों बराबर के प्रतिभागी हैं।
शोध कार्य की व्यस्तता में कई बार जाने-अनजाने मातृत्व के दायित्व का समुचित निर्वाह नहीं कर सकी, अत: इसके समाप्त होने पर वल्लरी और वैभव का, तथा बच्चों की पढ़ाई लिखाई और अन्य तमाम जिम्मेदारियों से मुझे चिन्तामुक्त रखने के कारण अपने श्वसुर स्वामी परमानंद जी का स्मरण भी मेरे लिये सुखद है।

अन्त में, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के श्री द्वारकानाथ शुक्ल और श्री जगतनाथ पाण्डेय के प्रति मैं अपना विशेष आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने विषय से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें और पत्रिकाएँ उपलब्ध कराने में हमेशा मेरा साथ दिया। मेरे इस कार्य में मुझे हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद तथा हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद से भी विशेष सहयोग मिला। अत: इनके पुस्तकालयाध्यक्षों और अन्य कार्यकर्ताओं के प्रति, साथ ही टंकण सम्बन्धी संशोधनों में धैर्यपूर्वक मेरा साथ देने वाले मो. खालिद के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए मेरा यह शोध प्रबन्ध प्रस्तुत है। शोध प्रबन्ध जैसा भी है, जिस रूप में प्रस्तुत है, मेरे लिये हर्ष और संतोष का विषय होने के साथ, अपनी कमियों और सीमाओं के साथ आगामी अध्ययन और जिज्ञासा का विषय भी। अध्ययन की यह जिज्ञासा शोध और लेखन के रूप में प्रतिफलित होगी, इसी कामना और विश्वास के साथ अपना यह निवेदन समाप्त करती हूँ।

रचना आनन्द गौड़

1. आधुनिक युग में खड़ीबोली की संवर्धक शक्तियाँ और काव्यभाषा के रूप में उसकी स्वीकृति

आधुनिक काल: भाषा और संवेदना का बदलाव


खड़ीबोली के बीज यद्यपि सिद्धों और नाथों की रचनाओं में आदिकाल से ही मिलने लगते हैं किन्तु आधुनिक काल से पूर्व तक खड़ीबोली की यह परम्परा मिश्रित रूप में मिलती है। आधुनिक काल भाषा और संवेदना दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तन का काल है। बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना जहाँ एक ओर हिन्दी कविता को मध्यकालीन भक्ति और श्रृंगार से अलगाती है, वहीं उससे जुड़ी खड़ीबोली को काव्यभाषा के रूप में स्वीकृति मिलती है।

गद्य भाषा के रूप में खड़ीबोली का विकास


आधुनिक काल से पूर्व गद्य की परम्परा नहीं के बराबर थी, साथ ही हमारा अधिकांश साहित्य ब्रजभाषा में मिलता है। इस प्रकार खड़ीबोली की प्रतिष्ठा और गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास-ये दो महत्त्वपूर्ण बदलाव आधुनिक काल में दिखाई देते हैं और ये दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं। हम देखते हैं कि आधुनिक काल में खड़ीबोली का आगमन गद्य भाषा के रूप में होता है। यह रोचक है जबकि अधिकांश भाषाओं में विकास का क्रम काव्य से गद्य की ओर गतिमान होता है, खड़ीबोली में विकास का यह क्रम उलट जाता है। आधुनिक हिन्दी काव्यभाषा के विकास क्रम में मैथिलीशरण गुप्त के योगदान की चर्चा के प्रसंग में डा. नामवर सिंह ने खड़ीबोली हिन्दी के इस वैशिष्ट्य और अपवाद को ठीक ही पहचाना है, ‘‘पहले काव्य और फिर गद्य। विकास का यह क्रम अधिकांश भाषाओं में मिला है। नहीं मिलता तो खड़ी बोली हिन्दी में। खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य का आरम्भ ही गद्य से हुआ इस मामले में वह आदमी अपनी संगोतिया उर्दू से भी भिन्न हैं।’’1


पुनर्जागरण, वैचारिक जागृति और गद्य का विकास : अन्तर्सम्बन्ध



इस विपरीत विकास क्रम में हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल जिसका आरम्भ भारतेन्दु के रचनाकाल के साथ माना जाता है हिन्दी गद्य के विकास का काल भी है। भारतेन्दु से पूर्व रीतिकाल के सामन्तीय दरबारी परिवेश में चमत्कार अतिशयोक्ति और श्रृंगारपरक साहित्य की ही प्रधानता रही, जनजीवन और जनचेतना से विमुख रहने के कारण गद्य का विकास प्राय: अवरुद्ध रहा। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क से जो पुनर्जागरण आया, उसका सीधा प्रभाव साहित्य पर पड़ा। राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन, दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द इस पुनर्जागरण के सूत्रधार बने और इस पुनर्जागरण से उत्पन्न वैचारिक जागृति का साहित्य में प्रतिफलन रीतिकालीन दरबारी श्रृंगारिकता से अलग आधुनिक सामाजिक चेतना के साथ हुआ। जनजीवन की इस अभिव्यक्ति के लिए गद्य अनिवार्य आवश्यकता बन गई और खड़ीबोली ने जो अपने ठेठ रूप में देख के कई भागों में बोली जाती थी और उन्नीसवीं शती तक उत्तर भारत की शिष्ट भाषा हो चुकी थी, गद्य के क्षेत्र में सहज ढंग से प्रवेश किया।


खड़ीबोली के विकास में फोर्ट विलियम कॉलेज की भूमिका



गद्य के क्षेत्र में, खड़ीबोली की प्रतिष्ठा ने काव्यजगत में उसके प्रयोग की पीठिका तैयार की, यद्यपि उसकी स्वीकृति लम्बे अन्तराल के बाद, आधुनिकता का एक चरण बीतने के साथ हुई। आधुनिक काल में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोग के संबंध में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं, जिस समय रीतिकाल के अंतिम प्रसिद्ध कवि पद्माकर ब्रजभाषा का परिष्कार ठेठ हिन्दी क्षेत्र में रहकर अपने कवित्त-सवैयों में कह रहे हैं, उसी समय सुदूर राजधानी कलकत्ते में हिन्दी गद्य के साथ नये प्रयोग चल रहे हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद या तत्सम्बन्धी वृत्तान्तों के रूप में कुछ पुराना ब्रजभाषा या खड़ीबोली हिन्दी गद्य का रूप अभी तक मिलता था, पर व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये नियोजित गद्य का सजग रूप में प्रयोग यहाँ से आरम्भ होता है। स्पष्ट ही ये नये प्रयोग 1800 ई. में संस्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. जॉन वौर्थविक गिलक्राइस्ट द्वारा हिन्दी/हिन्दुस्तानी गद्य में लिखवाई गई पुस्तकों के रूप में थे। इन पुस्तकों में लल्लू लाल की रचना ‘प्रेमसागर’ और सदल मिश्र की रचना ‘चन्द्रावती’ या ‘नासिकेतोपाख्यान’ विशेष महत्त्वपूर्ण है। संवत् 1860 अर्थात् सन् 1803 ई. में लिखी गई इन दोनों ही रचनाओं की भूमिका में खड़ीबोली के आरम्भिक प्रयोग का संकेत क्रमश: यों मिलता है-

‘श्रीयुक्त गुनगाहक गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से संवत् 1860 में लल्लूजी कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने विसका सार ले यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ीबोली में कह नाम प्रेमसागर धरा।’3


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