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नारी विमर्श >> गुलाम बेगम

गुलाम बेगम

परदेशी

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5255
आईएसबीएन :81-85830-28-2

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खंडरनुमा हवेलियों में कैद नारी-जीवन का मार्मिक चित्रण

Gulam Begam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ठकुरानियाँ रिसाले की उन घोड़ियों की तरह थीं, जिन्हें बँधे-बँधे ही दाना-पानी दिया जाता है। वे दिन भर सिंगार-साधना में लगी रहतीं। वे सर्वथा अनपढ़ और गँवार थीं। नित्य का गृह-कलह उनका मनोविनोद था। पर वे बड़ी खूबसूरत थीं। हजारों वर्षों से परदों में रहने के कारण (परदा, जिसने सूरज की रोशनी भी नहीं देखी थी) उनके खून में अजीब लाली आ गई थी और चेहरे में अनोखा नुकीलापन था। उनकी आँखें बूँदी की कटार की तरह थीं। उनकी कटि जैसलमेर की तलवार-सी थी। उनका वक्ष काँठल के अनार और बीकानेर के संगमरमर-सा था।

उनकी चाल उदयपुर की हथिनियों-सी थी और उनकी मस्ती में सर्वहारी एक आग थी; जो भी पास आता, उसमें भस्म हो जाता। उनका खून उन ऊँचे खानदानों का था, जिन्होंने अपनी नारियों को केवल भोग की सामग्री माना था। वे हर साल नए ब्याह रचाते और जिस तरह एक आम को जरा-सा चूसकर छोड़ देते, उसी तरह न जाने कहाँ-कहाँ से बड़े-बड़े दहेज के साथ लाई गई कामिनियों को एक बार चूसकर रख देते। उन्होंने औरत को सदैव अपनी जायदाद माना और दहेज को औरत। उनके ठिकाने पर जब-जब कर्ज बढ़ जाता, वे विवाह कर दहेज कमाते, जिसका अधिकांश कर्ज-चुकाई में चला जाता और शेष भाग के बल पर विलास की लौ जरा और तेज हो जाती।

इसी उपन्यास से

नारी उत्पीड़न की परंपरा मुगल काल में प्रारम्भ हुई और राजपूत शासन में चरम पर पहुँच गई। उस समय वह भोग की नहीं, शौक की वस्तु-मात्र बनकर रह गई थी। उन खंडहरनुमा हवेलियों में कैद नारी-जीवन का मार्मिक चित्रण ही इस उपन्यास में किया गया है।

एक

गाँव पहाड़ी के उस पार था ।
इस लंबे चढ़ाव के बाद उतार आता था, और उतार के बाद अगले मोड़ पर बसे गाँव की सीमा शुरु होती थी।
कँकरीली और कँटीली पगडंडियों के परे इस चढ़ाई पर चढ़ने वाले ये कुल पाँच पंथी थे- दो स्त्रियाँ और तीन पुरुष।
पुरुषों में सबसे आगे चलने वाला एक जवान था, जो अपनी भावज का गौना कराकर ले जा रहा था। दूसरा एक वृद्ध था, जो शहर की अदालत से लौट रहा था। तीसरा था अधपके बालोंवाला देहाती डॉक्टर, जिसकी डिग्री की चमक शहर में जब मंदी पड़ गई तो गँवई-गाँव में आ बसा था और अब पास के कस्बे से कुछ आवश्यक दवा-दारु खरीदकर लौट रहा था। दूसरी औरत अध्यापिका थी-अध्यापक की मजबूरी जिसके चेहरे पर लिखी थी।

गरमियों के सूखे और बेरहम दिन थे। पवनदेव कंजूस नाग की तरह अपने वायुकोष पर कुंडली मारकर बैठे थे। वातावरण में चारों ओर साँय-साँय की सरसराहट थी। उदास और रुआँसी, दीर्घकाल की वियोगिनी दोपहरी विदेश में भरे पल्टनियाँ जवान की विधवा की तरह पछाड़े खा-खाकर घाटी की चट्टानी दीवारों से सिर पटक रही थी। उसका विलाप पहले तो पड़ोस की पहाडि़यों में प्रतिध्वनि बनकर लहराता, फिर तपते तीर की तरह सनसनाती आती लू के साथ लौट आता।
सफरी जवान ने पीछे मुड़कर देखा-बूढ़ा पास के पलाश-पेड़ के पत्ते पगतली पर बाँध रहा था। सचमुच, चढ़ाव के कंकर भभकती भट्ठी के नन्हे कोयले-से तप उठे थे और उनकी नुकीली नोकों से बचने के लिए बूढ़े का प्रयास उसकी गँवई परंपरा के अनुरूप ही था।

तभी-‘उई’ कहकर जवान की भौजाई रुक गई। उसके पैर में काँटा चुभ गया था। चुभनेवाला यह सातवाँ काँटा था, और वह सातवीं बार राह में रुकी थी। उसकी एड़ी पर थूहर का एक बड़ा-सफेद काँटा लगा था। जवान ने तिरस्कारपूर्वक काँटे की ओर देखा और एक ही झटके में उसे बाहर खींच लिया। गँवई के पास से आनेवाली, गौने की उस गोरी वधूटी की आँखों में आँसू छलक आए। वह फिर से चलने लगी और साथ ही उसका मन इस आशंका से भर आया कि अब क्या आँठवा काँटा भी लगेगा ? आज तक कौमार्य की अनबींधी बाँसुरी वह बजाती रही थी।

अब बीच में ब्याह ने आकर उसके स्वरों में एक नया स्वर मिला दिया था और आज जब उस नए स्वर की पुकार पर किसी अनजाने परदेशी के घर-आँगन की दीपावली बनकर जा रही थी, यह नया, अनजाना और अपरिचित स्वर रह-रहकर उसके अंतरतम में गूँज उठता था। किशोरी के अछूते मानस-मन्दिर में, अपने स्वप्नों के अनजाने राजकुमार की देव-मूर्ति प्रतिष्ठित हो गई थी, जिसकी स्थित के भान ने उसे संज्ञाविहीन और बेभान बना दिया था और मालवा की वैशाखी दोपहरी में जब अमराइयों में कोयल की काकली खिली हो और अंतहीन काले खेतों में अफीम के लाल और सफेद फूल किन्हीं वन-बालाओं-से खिलकर महक रहे हों और कोयल फिर से बैचेन बनी कूक उठी हो, तो काँटा क्यों न गड़ जाए और जवान की भौजाई जीवन की अनचली लंबी गैल पर क्यों न रूक जाए ! आखिर गति और प्रगति का नाम ही जीवन और यौवन है।

जब तक जवान ने काँटा निकालकर भौजाई को चलने के लिए प्रेरित किया तब तक उसके साथी राहगीर आगे निकल गए। इसी समय भौजाई ने देखा कि उसने लगभग सौ कदम की दूरी पर एक युवक और एक युवती चले आ रहे हैं। सो, उसने देवर को उनकी उपस्थिति इशारे में समझाई। जवान ने देखा- आनेवाला निश्चय ही शहरी युवक है। क्योंकि उसकी चाल बतलाती थी कि वह ऐसे कँटीले और पथरीले मार्गों का अभ्यस्त नहीं है।
उसने कहा, ‘‘भौजी, जरा रुकें। ये कोई शहराती मेहमान मालूम होते हैं। हमारा साथ हो जाएगा।’’
पाँच मिनट में युवक और युवती जवान के निकट पहुँच गए। जवान ने पहले ‘राम-राम’ किया, फिर जय एकलिंग कहा जिसके उत्तर में युवक ने हाथ जोड़ दिए।

‘‘रतनगढ़ जाना है।’’
‘‘हम भी वहीं जा रहे हैं। अब तो गाँव पास आ गय़ा है। आप किसके यहाँ जाएँगे ?’’
‘‘ठाकुर समरसिंह के यहाँ।’’
‘‘उनके यहाँ !’’ जवान की वाणी में युवक को विस्मय की ध्वनि लगी। लेकिन एक अपरिचित राहगीर के प्रति अधिक उत्सुक होना उसे उचित प्रतीत न हुआ।
दूर-दूर तक बड़े-बड़े बरगद, आम, जामुन, इमली और पीपल के पेड़। दूर-दूर तक करोंदी की गंध-भरी झाड़ियाँ। देखकर अविनाश का मन मोहित हो गया उसने दाहिना हाथ उठाकर पास की भरी-पूरी झाड़ियों की ओर इंगित किया और बोला, ‘‘अचला, देखो, ये झाड़ियाँ हैं, शेर और चीतों के राजमहल। इनमें वे कितनी शान्ति और सुविधा के साथ सो रहे होंगे ! सचमुच, सुख और शांति आजादी के साथ।’’

अचला ने कुछ न कहा। वह केवल अविनास की ओर देखकर मुसकरा दी। अविनाश ने देखा, उसकी मुसकान में थकान भरी है और अनादिकाल से अलसाए उसके नयनों में उनीदापन छलक रहा है। और वह बहुत कुछ....!!!
अविनाश सब समझ गया। अचला के मन-मानस की स्थित मानो बेतार से उसके अंतर्लोक में झंकृत हो जाती है और तब अविनाश और अचला-अचला और अविनाश के बीच की दूरी अमर अहिवात के सामीप्य में बदल जाती है। लेकिन लड़खड़ाती दुनियाँ में विचरते पंखहीन जीवन में ऐसे क्षण कितने, जिनमें जीवन के अनेक तार मिलकर एकाकार हों, एक तान, एक सुर, एक राग गा पाते हैं ! और जीवन किसी एक स्वर या आलाप का नाम तो नहीं है। वह तो वैविध्य का पर्याय है, जिसमें प्रतिपल अनेक सुर, ताल, लय और राग प्रतिध्वनित हो रहे हैं। इस गूढ़ भेद को अविनाश जाने तो जाने, अचला क्या जाने ! अचला जो कल ही फ्राक से साड़ी में आयी है, कल ही स्कूल से कॉलिज में प्रविष्ट हुई है और जो कल ही जेल से भागकर उस राह पर लगी है जो रतनगढ़ को जाती है।

‘‘आगे बढ़ो, अचला, राहें थमने के लिए नहीं होतीं। समय चलते रहने को मिलता है। निराशा को मन में जगह न दो।... तुमने कभी इन पेड़-पौधों को निराश होते देखा है ? ये सारी आँधियों को अपने सिर पर झेलते हैं। और इन वनैले जंतुओं को आशा के अभाव में आत्महत्या करते देखा है, जो भूखे मरते हैं और प्यास को सहते हैं ! निराशा का आविष्कार तो मनुष्य ने किया है। ऐसे करिश्में उसी को आते हैं।’’
‘‘अब चलो भी...’’ अचला ने विचला वाणी में कहा।

‘‘तुम ठाकुर समरसिंह को जानते हो ?’’ गौर से बात सुनते जवान ने अविनाश से पूछा।
‘‘आस के अस्सी और पास के पचास गाँवों में उन्हें कौन नहीं जानता ? लेकिन आजकल वे..’’
‘‘कहो, रुक क्यों गए...’’
‘‘आप सरकारी आदमी तो नहीं हैं ?’’
‘‘नहीं भाई, नहीं, सरकारी आदमी ‘आदमी’ नहीं होता। वह तो शक्ल-सूरत से ही पहचान लिया जाता है। तुम तो इतने अबोध नहीं लगते !’’

‘‘ठाकुर साहब फरारी में हैं। सरकार ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ लाने के लिए, बीस हजार का इनाम निकाला है।’’
अविनाश और अचला स्तब्ध रह गए। सरकार के जिस कानून और न्याय की छाया से छू़टकर वे इस अपरिचित प्रदेश में भाग आए थे, वहाँ भी छाया उनका पीछा कर रही थी और सुरसा की तरह अपना रूप और आकार बढ़ाकर उन्हें निगल जाने को तरस रही थी ! काली बेरहम और हिंसक छाया... जिसके पास कोर्ट-कचहरी कटघरे-इलजाम जीप गाड़ियाँ, कानून-वकील और संगीनें हैं। मौत और जहर है। फिर भी जो न्याय की रक्षिका और शांति की संस्थापिका है ! यह नर और नारायण का कैसा मजाक है।

‘‘रतनगढ़ की आबादी कितनी है ?’’ अविनाश ने जवान से बातचीत चालू रखने के अभिप्राय से पूछा।
‘‘यही कोई चार हजार। बाँस-मिट्टी के झोंपड़े और कच्चे मकान मिलाकर, कुल आठ सौ घर हैं। एक मिडिल स्कूल है। एक दवाघर है। डाकघर भी है। एक मन्दिर और एक मस्जिद भी है। ईदगाह और दशहरे का मैदान भी है।’’
‘‘दशहरे में रावण मरता है।’’ भौजाई ने धीमे स्वर में, जैसे, अचला से कहा।
‘‘रावण की मौत मैदान में ही होती है। वह सत्य की सीता का हरण करता है और कुटिल शक्ति और कूटनीति के तर्क बढ़ाकर उसे अपने यहाँ रख लेना चाहता है; परन्तु कोई रावण आज तक सीता को अपने यहाँ रखने में सफल नहीं हुआ और अपनी जिस अमृत-कुंडली का उसे अभिमान था, उसी पर प्रहार कर सत्य की शक्ति ने उसे पराजित किया।’’ अचला का स्वर ऊँचा होता गया, जिससे आगे चलते अदालती बूढ़े का ध्यान आकर्षित हुआ और वह रुककर इन लोगों के साथ हो गया।

अचला ने एक दृष्टि उस पर डाली और स्वर का आरोह मध्यम से तीव्र की ओर बढ़ा, ‘‘बहन, रावण को शक्ति का मद था शक्ति का अन्त हनन शक्ति से ही होता है। शक्ति का दूसरा नाम रचना है। शक्ति जब नव-निर्माण में नहीं लगाई जाती तो वह आसुरी शक्ति बन जाती है; और उसकी यह संहार शक्ति ही उसके समूल आत्मविनाश का अस्त्र बन जाती है।’’
भौजाई अचला का मुँह देखती रह गई। अचला हरी चोली पहने थी। साफ धुली साड़ी में उसकी गौर, इकहरी देह म्यान में रखी तलवार की तरह थी। लंबी नासिका और लंबी बरौनियोंवाली इस अचला के लिए, गाँव की इस कृषक-वधू की ममता सहज ही उभर आई। वह अब भी एकटक मुँह जोहते हुए बोली, ‘‘मास्टरनी बाई, गँवई सत्-असत् में क्या समझें ?’’
वृद्ध आगे बढ़कर बोला, ‘‘क्यों न समझें ? इतना तो हम भी जानते हैं कि जो पराया है वह हमारा नहीं है। उसे लेने का हक भी हमारा नहीं है, और जो अपना है, उसे सहेज रखने का भी हक अपना है और दूसरों की चीज चोरी-छिपे हम भी लेते नहीं, तो अपनी जबरन देंगे नहीं। यों प्रेम के बदले अपना सरबस भले न्योछावर कर दें।’’
‘‘ठाकुर बीस गाँव के मालिक हैं। उनकी मर्जी...’’ जवान ने कुछ कहा और दुलहन रुक गई। अचला जब बोली कि कहती जाओ बहन, तुम्हारी बातें मुझे अच्छी लगती हैं, तो, भौजाई’ कह देने-भर’ के अपने अधिकार और लोभ का संवरण न कर सकी।

‘‘जागीर समर सिंह रावण है रतनगढ़ लंका है।’’
‘‘और तुम सीता-खुद लंका की ओर जा रही हो ?’’ अचला ने बड़ी-बड़ी आँखों की नीलिमा पसारकर पूछा।
ग्राम-वधू पहले पद्यिनी-सी लज्जा गई, ‘‘कहाँ सीता रानी, कहाँ हम ?... हमें तो नैहर छोड़े नौ दिन ही हुए हैं। रीति-नीति हम क्या जानें ?’’
अब तक अविनाश चुप था और चुपचाप पीछे चल रहा था। ग्राम्या की ऐसी मिसरी-भरी बातें सुनकर, उसका कवि-मन भावना-भँवर में भटक गया। बनारस की पुरानी, सुनहरी साड़ी में ग्राम्या की देह-यष्टि पतले पीले तार सी लग रही थी। अपने भार को असह्य मान, उसने अदालती बूढ़े को देखकर पूछा, ‘‘लोग कैसे हैं रतनगढ़ के ?’’

‘‘अभी रतनगढ़ का नक्शा देखोगे बाबू तो खुद ही समझ जाओगे की रतनगढ़वाले कैसे हैं.. दूर ढाल के किनारे जो कठोर और काली चट्टानें हैं, उन सा ही है रतनगढ़-वालों का जीवन। निर्जन और अन्तहीन ! कहीं कोमलता नहीं, कहीं रस नहीं, कहीं सीमा नहीं। लालिमा और हरीतिमा उनकी छाया से परे है। धरती बिछौना और आकाश उनका ओढ़ना रहा है। बामन-बनियों की तो बात मैं नहीं करता, पर रावले (ठाकुर या उनका महल) का शरीर तो प्रकृति की गोद में ही पलकर बड़ा हुआ है, हालाँकि ईश्वर ने उन्हें कुछ भी देने में कुछ कमी नहीं रखी है।’’

‘‘लेकिन दो मिनट पहले ही सब लोग रावले की अस्तुति यानी निंदा कर रहे थे ?’’ अविनाश ने जवान की ओर संकेत कर वृद्ध को रोका।
‘‘वह निंदा नहीं, ब्याजस्तुति थी,’’ अचला ने देवर को संकोच के घेरे से बचा लिया। वह भी हँस दिया और इन सबको हंसते देख भौजाई भी हँस दी।
‘‘पहाड़ी चट्टानों सा जिनका जीवन है, धरती जिनकी सेज और आकाश जिनका छत्र है, तारे जिनके दीपक और चाँद-सूरज जिनके पहरूए हैं-ऐसे रतनगढ़वाले रावले की माँजी अचला देवी !’’ अविनाश ने तनिक व्यंगपूर्वक कहा। किंतु जवान इसे अपनी वार्ता का अनुमोदन जान, बोला, ‘‘बाबू, ठीक कहते हो।’’ ‘‘करोदीं की इन अंकड़-बंकड़ झाड़ियों की तरह, जिनके जीवन के सूत्र उलझे हुए हैं। मेरा अनुमान है, साधारण मनुष्यों की उपेक्षा उनमें कुछ अंतर है। यह भूमि बड़ी ही विचित्र प्रतीत होती है, ऐसे ही विचित्र होंगे न यहाँ के प्राणी ?’’
अविनाश ने जैसे अचला की आँखों से प्रश्न किया है, इस प्रकार उत्तर भी वह उसके तरल रतनारे लोचनों में ही खोजता रहा।
परन्तु उत्तर न मिला।
दाएँ हाथ पर, पगडंडी से हटकर एक कुइयाँ थी।

जवान ने आगे बढ़कर अपना लोटा-डोर सँभाला।
भौजाई कुइयाँ पर छाया-रचते पीपल के भैरों के चबूतरे पर माथा टेककर एक ओर बैठ गई।
अचला उसके पीछे थी। वह निःसंकोच भाव से जवान के निकट बढ़ी। प्यास उसे नहीं थी, पर वह पहली बार यह देखना चाहती थी कि गाँव के कुओं का पानी कैसा होता है।
अविनाश दूर तक पलक पसारे रतनगढ़ को पढ़ लेना चाहता था, मानो जिसमें धारा, नियम, उपनियम, जुर्माना और सजा की अवधि लिखी है ?...
चारों बटोही फिर बढ़ चले।

दो

अचला ने माँ का सुख नहीं देखा था। उसका मुख ही देखा था। बचपन में ही माँ मर गई थी, उसे नन्ही और अकेली छोड़कर।
माँ की वह सूरत आज भी अचला की आँखों में घूम जाती है-
ऊपरी मंजिल के सूने कमरे में वह एकाकिनी लेटी रहती-अपनी उस शय्या पर, जो पहले सुहाग-शय्या, बाद में रोग शय्या और अन्त में मृत्यु-शय्या बनी।
वह अचला को अपने पास बिठाकर उसकी अलकें सुलझाया करती, फिर वह ज्यादा बीमार रहने लगी और उसने अचला की अलकें सँवारना छोड़ दिया। अब सिर्फ वह अचला का मुँह देखा करती- अपलक। फिर उसकी आँखें भर आतीं।
नन्ही-सी अचला कहती, ‘‘मत रो, माँ।’’

और माँ फूट-फूटकर रोने लगती। तकिए में मुँह छिपाए वह सुबकती रहती। नौकरानी आती। कभी दवा बदल जाती। कभी सुराही में पानी भर जाती। कभी चाय दे जाती। कभी अचला को कमरे में बिठा जाती या उठा जाती।
माँ के सामने दीवार पर, खिड़की के ऊपर, एक बड़ी घड़ी टिक्-टिक् किया करती।
फिर डॉक्टर दिन-भर नीचे के कमरे में ही रहने लगा और माँ से उसका मिलना बंद हो गया।
तब से अचला को डॉक्टर अच्छे नहीं लगते। उनका सूट, उनका स्टेथेस्कोप, उनका बैग-सबसे अचला को घृणा है। एक अनजाना भय है। किसी भी डॉक्टर को देखते ही उसे वह गंध आती है, जो माँ के कमरे में बनी रहती थी। आज तो यह गंध ही माँ के अन्तिम दिनों की स्मृति है।

फिर एक दिन घर में न जाने कैसी मनहूस उदासी छा गई और नौकर-चाकर, दास-दासियाँ, खवास और हजूरी सब नीचा सिर किए इधर-उधर होने लगे, रोने लगे।
‘‘रानी जी का स्वर्गवास हो गया।’’
माँ जब अचला को न दिखाई दी तो, उसे रानी जी के स्वर्गवास का अर्थ मालूम हो गया। हरिराम उसे बहलाता, ‘‘बा अन्नदाता भगवान के यहाँ पधारी हैं।’’
‘‘भगान् के याँ बा गई है ?’’ छोटी अचला ने पूछा था, यह न जानते हुए कि ऐसे विकट प्रश्न का उत्तर एक हजूरी के दिमागी-दायरे से बाहर की चीज है।
बा अन्नदाता भगवान् के घर से वापस नहीं लौटी।
और अचला उसकी राह देखते-देखते पंद्रह के पार आ गई। एक दिन अचला कॉलेज से लौटी तो देखा, घर में कुछ मेहमान आए हैं। उसके साथ जो दुबला-पतला, पर एकदम गोरा तरुण है, उसका नाम अविनाश है। उन लोगों को वहीं रहना था।
अविनाश के परिवार का अजमेर की उस कोठी में रहना, उसकी माँ की ममता, उसके पिता का स्नेह-सब अचला को याद है।

पिताजी का मन राजपूताना के इस क्षेत्र में ऊब गया था। वे इंग्लैंड जाकर बसना चाहते थे।
अचला ने अविनाश के पिता से चर्चा करते-करते पिता की बात यों सुनी थी-
‘‘इंग्लैंड जाने की मर्जी है, मित्र ! इस देश से दिल भर गया है। जमाने-भर की बेवकूफी जैसे यहाँ के लोगों के पल्ले पड़ी है। न्याय की माँग जहाँ अन्यायी करते हैं, ईमान की कसम जहाँ बेईमान खाते हैं, दुनिया का सबसे बड़ा और पवित्र हिन्दू धर्म जहाँ अपमानित है, जहाँ अपने ही लोग अपने शत्रु हैं।’’
‘‘तुम इतने निराश क्यों हो चले हो ? मैं बार-बार देखता हूँ कि भाभी के स्वर्गवास के बाद तुम बहुत कुछ बदल गए हो।...लोगों की ‘बेवकूफी’ से तुम्हें क्या ‍?...’’
‘‘हम लोगों से, जनता से कट-हटकर नहीं रह सकते। समझदार, विलक्षण, सरल और निरभिमानियों के बीच बैठकर मन प्रसन्न होता है; इसके बजाय जाहिल, काहिल, कुटिल और घमंडी लोग अपने और औरों के बोझ बनते हैं।’’
चुप बैठी अचला दोनों की बात ध्यान से सुनती रहती। ऐसी अनेक संध्याएँ उसने इन दोनों साथियों के सम्पर्क में बिताई थीं।

समय और समाज के ढाचे में ढला जीवन बीतता जा रहा था। अपने एरिस्टोक्रेटिक परिवार के या अपने वर्ग के विश्वास, ‘ईगो’ और ‘कॉम्प्लैक्स’ अचला में उभरने लगे थे।
इधर बालापन बीत रहा था और चुपके-चुपके कदम धरता यौवन आ रहा था। बहार जब आती है, तो लुकती-छिपती आती है। अपने ही रूप और सौंदर्य से वह डरती है कि उसकी छवि की छिटकती छटा से जमाने को कुछ हो न जाए।
सो अचला का यौवन भी अपने सौरभ की चपलता से चिंतित था। इसलिए उसकी गति मंद थी और उसका ज्वार इस प्रकार शनैः-शनैः चढ़ रहा था, जैसे किन्हीं निरभ्र नीले नयनों में रतनारी जोत की ज्वाला चढ़ती है-धीरे-धीरे !
फिर पराग के मधुरस की मादकता बढ़ती जाती है। फिर नशा नहीं उतरता है और दुनिया की शक्ल बदल जाती है। इन्हीं दिनों अविनाश की सहायता से अचला ने बी.ए. कर लिया था।
इस घर की रीति ही अजब रही है कि अविनाश इतना निकट आकर भी अचला से दूर था। अचला को कुछ अच्छा नहीं लगता था। वह क्या चाहती है-वह स्वयं भी नहीं जानती थी। फिर भी, हृदय में एक चाह थी, ललक थी, अधीरता थी, सूनापन था और एक अनजान खामोशी थी।
किसी डाल पर बैठकर गाती-चहकती चिड़िया से अचला को रश्क होता था।

तीन


गढ़ी के लंबे चौड़े अहाते में आकर अचला और अविनाश रुक गए। जवान और उसकी भौजाई उन्हें बड़े दरवाजे तक पहुँचा गए। बिदा लेकर वे एक ओर चले गए। जहाँ कुछ टूटी-फूटी झोपड़ियाँ खड़ी थीं।
अविनाश ने आगे बढकर दरवाजे पर दस्तक दी। उत्तर में कोई ध्वनि नहीं आई। दूसरी बार अविनाश ने दरार में झाँककर देखा, भीतरी आँगन श्मशान की तरह सूना था। तीसरी खड़खड़ाहट पर अचानक जोर की आवाज आई, ‘‘कौन है ?’’
सुनकर अविनाश सहम गया और अचला चौंक पड़ी। इस आवाज से जैसे रावले की पुरानी दीवारें और छत हिल गए।
दरवाजा खुला-और एक अति विशालकाय व्यक्ति सामने खड़ा हो गया। उसने दोनों आगंतुकों को गौर से देखा सहसा मुसकराकर बोला, ‘‘आप हैं।’’
‘‘जी, मामा साहब !’’
उसने अचला को गले लगा लिया।

‘‘आइए-आइए !’’ बड़े स्नेह और सम्मानपूर्वक ठाकुर समरसिंह ने अविनाश से कहा।
ठाकुर समरसिंह जितने विशालकाए थे, उतने ही बलशाली भी थे। पूरा सात फिट ऊँचा, कसरती बदन था उनका। बड़ी-बड़ी लाल आँखें। बड़ी-बड़ी काली मूँछें। बड़े सिर पर बड़े केशों के पट्टे और हाथ में हर वक्त भरी रहनेवाली बंदूक, जिसने अब तक जाने कितनों को अपना निशाना बनाया था।

ठाकुर के ठिकाने की आमदनी तो उतनी थी, जितनी एक अच्छे राज-परिवार के लिए काफी होती है, परंतु राजपूती ठकुराइन और जातीय व्यवहारों ने उनका अधिकांश द्रव्य-रस चाट लिया था। और शादी-ब्याह तथा जन्म-मरण के अवसरों पर अक्सर कर्ज से काम चलाया जाता था। लेकिन आज तक कर्ज से किसी का काम नहीं चला। मूल से व्याज भारी होता है, जैसे छोटे-से साँप के जहर की एक बूँद भी भयंकर होती है।

ठाकुर समरसिंह बरसों से अपने सूबे में प्रख्यात थे, अपने अतिथि-सत्कार और नियमित शिष्टाचार्य के लिए। उनके द्वार पर आया-दुश्मन भी कभी भोजन-विश्राम किए बिना नहीं लौट सकता था और उसके साथ किसी प्रकार का छल नहीं बरता जाता था, जैसीकि सच्चे क्षत्रिय-परिवार की परम्परा रही है। वे कुख्यात भी थे, अपनी क्रूरता के लिए, दंड और कठोर दंड उनका एकमात्र अस्त्र था, जिसे लेकर वे रतनगढ़ का एकच्छत्र, निरंकुश शासन चलाते थे, और रतनगढ़ की बस्ती से दूर, इस विजन वन-प्रांतर में रहते थे, जहाँ दुनिया की सारी सभ्यताओं और उन्नतियों का सम्मिलित प्रकाश भी अभी नहीं पहुँच सका था। कोई कानून, कोई नियम लागू नहीं था जहाँ ठाकुर का हुक्म ही वहाँ ईश्वरीय आदर्श था, मानवीय न्याय था और सरकारी सिक्का था। ठाकुर कुछ भी कहें, उसका उत्तर ‘जो हुक्म अन्नदाता’ के विनम्र शब्दों में ही दिया जाना चाहिए। वरना... ? क्या कहें, ऐसी स्थिति आज तक तो उपस्थित न हुई। वरना, सिर कटवा लेना, अंगभंग करवा देना, खेत में आग लगवाना, गोली मार देना, औरत उड़ा ले जाना-आदि सजाएँ थीं। जिनके प्रहार की प्रतिध्वनि तक न होती थी। सात द्वीप नौ खण्ड भूमि पर जिसके विरूद्ध कहीं सुनवाई नहीं थी। संक्षेप में ठाकुर समरसिंह किसी छोटे-मोटे बैल या चीते जैसे थे। उनका भोजन, खान-पान रहन-सहन, वेष-भूषा, चरित्र, कर्म-धर्म सब उन्हें बस्ती से अधिक वन का प्राणी घोषित करते थे। एक प्रकार से वे वन-मानुष थे।

आँगन में पहुँचकर अचला ने कहा, ‘‘मामा साहब, ये अविनाश कुमार हैं, राजा रामगढ़ के सुपुत्र।’’
‘‘राजा साहब तो तुम्हारे पिता के परम मित्र हैं। हैं न ? कोई बाईस वर्ष पहले कुँवर-बा (अचला की माँ) की बरात में वे रतनगढ़ आए थे। तब मैं उनसे मिला था।’’
‘‘जी,’’ अविनाश और अचला ने एक साथ कहा
‘‘ये मुझे यहाँ तक पहुँचाने आए हैं।’’
‘‘पहुँचाने आए हैं ? क्या मतलब ? तो क्या बिना साल छः महीने यहाँ मेहमान बने चले जाएँगें ? राजा साहब बड़े आदमी हैं, तो क्या हमारे मेहमान नहीं होंगें ?’’
अविनाश इस दैत्याकार व्यक्ति की विनम्रता और शालीनता देखकर दंग रह गया। मुसकराते हुए बोला, ‘‘मैं रावले का बड़ा आभारी हूँ। बरसों से आपका नाम सुनता आ रहा था और बड़ी इच्छा थी कि कभी रतनगढ़ आकर आपके दर्शन करूँ और आपको कष्ट दूँ।’’

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