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गालिब

मुहम्मद मुजीब

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5257
आईएसबीएन :9788126004299

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गालिब का जीवन, व्यक्तित्व तथा उनकी रचनाएँ

Galib

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ग़ालिब उर्दू कवियों में सर्वाधिक प्रमुख कवि के रूप में उभर कर सामने आते है अतः यह उचित ही है कि भारत तथा अन्य देशों के ग़ैर-उर्दूभाषी लोगों को उनके जीवन और कृतित्व से अवगत कराया जाय।

ग़ालिब ने स्थापित काव्य-परंपरा का ही अनुसरण किया है तथा अपनी कल्पना-शक्ति, सूझ-बूझ और अनुभवों से उस परंपरा की अभिवृद्धि की। प्रारम्भिक दौर में उनकी अभिव्यक्ति शक्तिशाली तो थी किंतु उसमें उर्दू और फ़ारसी के मुहावरे को नज़रअदाज़ किया गया था। फिर ग़ालिब ने फ़ारसी में लिखना प्रारंभ किया और अन्त में उर्दू पर उतर आए। उनके अन्तिम दौर की रचनाओं ने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की और आगे आने वाली पीढ़ियो ने भी यह पाया कि ग़ालिब ने अपने अंतरतम विचारों को अत्यधिक प्रभावशाली अंदाज में अभिव्यक्त किया है। प्रोफेसर मुहम्मद मुजीर एक साहित्य मर्मी के अतिरिक्त इतिहासज्ञ भी है। अतः वह ग़ालिब के युग और ग़ालिब द्वारा प्रयुक्त काव्य-परंपरा का विषद चित्रण सफलतापूर्वक कर पाए हैं।

1


ग़ालिब का ज़माना
मिर्जा़ असद उल्लाह खाँ ‘ग़ालिब’ 27 दिसंबर 1797 को पैदा हुए।
सितंबर, 1796 में फ्रांसीसी- पर्दों- जो अपनी क़िस्मत आज़माने हिन्दुस्तान आया था दौलत राव सिंधिया की ‘शाही फ़ौज’ का सिपहसालार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिन्दुस्तान का गवर्नर भी था। उसने देहली का मुसासरा करके1 उसे फ़तह2 कर लिया था, और अपने एक ‘कमांडर- ले मारशां- को शहर का गवर्नर और शाह आलम का मुहाफ़िज़3 मुक़र्रर4 किया। उसके बाद उसके आगरा पर क़ब्जा किया। अब शुमाली5 हिन्दुस्तान में उसके मुक़ाबले का कोई नहीं था, और उसकी हुकूमत एक इलाके पर थी जिसकी सालामा माल गुज़ारी6 दस लाख पाउंड से ज़्यादा थी। वह अलीगढ के क़रीब एक महल में शाहाना7 शानो-शौकत8 से पहता था। यहीं से वह राजाओं के नाम अहकामात9 जारी करता और बग़ैर किसी मदाख़लत10 के चंबल के समतल तक अपना हुक्म चालाता था।

15 सितंबर, 1803 ई० को जनरल लेख सिंधिया के एक सरदार बोगी ईं को शिकस्त11 देकर फ़ातेहाना12 अंदाज में दहेली में दाख़िल हुआ। बोगी ई का कुछ अर्से तक शहर में कब्ज़ा रह चुका था और उसने इस अंग्रेजों के लिए खाली करने से पहले बहुत एहतेमाम13 से लूटा था। जनरल लेक शहंशाह की ख़िदमत में हाज़िर हुआ उसे बड़े-बड़े खिताब14 दिए गए और शाह आलम और उसके जा-नशीन15 ईस्ट इंडिया कम्पनी के वज़ीफ़ा-ख़्वार16 हो गए।
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1. घेर कर 2. जीत 3. रक्षक 4. नियुक्त 5. उत्तरी 6. भूमि-कर 7. राजसी 8. ठाट-बाट 9. आदेश 10. रोक-टोक, हस्तक्षेप 11. पराजय 12. विजयी. विजेता 13. आयोजन 14. उपाधियाँ. अलंकरण 15. उत्तराधिकारी 16. वज़ीफ़ा पाने वाले।

अट्ठारवीं सदी का दूसरा हिस्सा वह ज़माना था जब यूरोप से सिपाही और ताजिर1 हिदुस्तान में अपनी क़िस्मत आजमाने आए और उन्होंने खूब हंग में किए। इसके मुकाबले में वस्त2 एशिया से मौंके और मआश3 की तलाश में आने वालों की तादाद कम थी मगर थोड़े-बहुत आते ही रहे। इन्हीं में से एक मिर्ज़ा को क़ोक़ान बेग, मुहम्मद शाही दौर के आख़िर में समरकंद से आए और लाहौर में मुइन-उल-मुल्क के यहाँ मुलाज़िम4 हुए। उनके बारे में हमें बहुत कम मालूम है। उनके दो लड़के थे, मिर्जा़ ग़ालिब के वालिद5 अब्दुल्लाह बेग और नस्त्र उल्लाह बेग। अब्दुलाह बेग को सिपगहरी6 के पेशे में कोई ख़ास कामयाबी नहीं हुई, पहले वह आसिफ़ उद्दौला की फ़ौज में मुलाज़िम हुए, फिर हैदराबाद में और फिर अलवार के राजा बख़्तावर सिंह के यहाँ। बेशतर7वक़्त उन्होंने ‘ख़ाना दामाद’8 की हैसियत से गुज़ारा। सन् 1802 ई० में उनके सबसे क़रीबी9 अजीज़10 रू के नवाब, भी तुर्किस्तान से आए हुए ख़ानदान के थे और उनके जद्दें-आला11 उसी ज़माने में हिन्दुस्तान आए थे जबकि मिर्जा क़ोक़ान बेग।

ऐसे हालात, जबकि निज़ामे-जिंदगी12 क़ायम रहने का ऐतबार13 हो और निराज14 और तसदुद्द15 का दौरः हो, जब मालूम होता हो कि सब कुछ चंद16 जाँबाजों17 के हाथ में है, समाज पर अपना असर डालते हैं और मुस्तक़िल18 मायूसी19 की फ़िजा20 पैदा कर देते हैं। वैसे हस्सास21 तबीअतें खुशी से ज्यादा दर्द और गम की तरफ़ माइल22 रहती हैं। ग़ालिब की ज़िन्दगी का पसे-मंज़र23 मुग़ल सल्तनत का ज़वाल24, देहाती सरदारों का लउभरना और इक़्तिदार25 हासिल करने के लिए उनके मुसलसल26 मुक़ाबले हैं मगर इन्हें कुछ ख़ास अहमियत27 नहीं दी जा सकती। हिन्दुस्तान में सियासी28 ज़िन्दगी का दायरा वसीअ29 नहीं था, नमक-हलाली का क़द्र की जाती थी, लेकिन सियासी वफ़ादारी को आम तौर पर एक अख़्लाक़ी30 उलूक31 नहीं माना जाता था रिआया32 के खैर-ख़्वाब33 हाकिम34 अम्न35 और इत्मीनान36 क़ायम रखने की अपने बस भर कोशिश करते थे, मगर देहाती आबादी में ऐसे अनासिर37 थे जो मौक़ा पाते ही रहज़नी38 शुरू कर देते। हम अगर अन्दाज़ा करना चाहें कि शुमाली39 हिन्दुस्तान की मुश्तरिक शहरी40
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1. व्यापारी 2. मध्य 3. जीविका 4. नौकर 5, पिता 6. सिपाहीगीरी 7. अधिकांश 8. घरजवाँई 9. निकट के 10 प्रिय व्यक्ति 11. पूर्वज 12. जीवन व्यवस्था 15 हिंसा 16 कुछ 17 जान पर खेंले जाने वाले, लड़ाकू 18. स्थायी 19. निराशा 20. वाताररण 21 संवेदनशील 22. प्रवृत्त 23 . पृष्ठभूमि 24. पतन 25. सत्ताधिकार प्रभुत्त्व 26. निरंतर 27. महत्त्व 28. राजनैतिक 29. विस्तृत 30. नैतिक 31. सिद्धांत 32. प्रजा 33. शुभचिंतक 34. अधिकारी 35. शांति 36. संतोष, विश्वास 37. तत्व 38. डाका डालना 39. उत्तरी 40 मिली-जुली, साझे की।

तहजीब1 और अदब2 पर जो उस तहज़ीब का तर्जुमान3 था, क्या-क्या असरात4 पड़े, तो देखेंगे कि उसकी तशकील5 में बर्तानवी6 तसल्लुत7 से पहले की बदनज़्मी8 से ज़्यादा दख़्ल9 उन आदतों और उन तसव्वुरात10 को था जो सदियों से उस तहजीब को एक ख़ास शक्ल11 दे रहे थे। उस मुश्तरिक शहरी तहजीब को शहरी होने और शहरी रहने की ज़िद थी। उसके नज़दीक शहर की वहीं हैसियत थी जो सहरा12 में नख़लिस्तान13 की, शहर की फ़सील14 गोया15 तहजीब को उस बरबरियत16 से बचाती थी जो उसे चारों तरफ़ से घेरे हुए थी।

ज़िन्दगी सिर्फ़ शहर में मुमकिन17 थी, और जितना बड़ा शहर उतनी ही मुकम्मल18 ज़िन्दगी। यह हो सकता था कि इश्क और दीवानगी में कोई शहर से बाहर निकल जाए क़ुदरत19 के क़रीब होने का शौक़ में शायद ही कोई ऐसा करता, इसलिए कि यह मानी हुई बात थी क़ुदरत की कोई तकमील20 शहर में होती है और शहर के बाहर क़ुदरत की जानी-पहचानी शक्ल नज़र नहीं आती। शहर में बाग़ हो सकते थे और फूलों के हुजूम,21 सर्व22 की क़तारों के दरमियान32 ख़िरामे-नाज़24 के लिए रविशें,25 पत्तियों और पंखुड़ियों पर मोतियों की शबनम26 की बूँदें, यहाँ बादे-सबा27 चल सकती थी, बुलबुलें गुलाबों को अपने नग़्में28 सुना करती थीं, क़फ़स29 के गिरफ़्तार आज़ादी से लुत्फ़30 उठाते हुए परिंदो पर रश्क31 कर सकते थे, आशियानों32 पर बिजलियाँ गिर सकती थीं। बे-शक शाइर का तसव्वुर33 तशबीहों34 और इस्तआरों35 की तलाश में शहर से बाहर जाने पर मजबूर था, जिनकी मिसाल36 क़ाफ़िले और कारवां और मंज़िलें, तूफानों से दिलेराना मुक़ाबिले, दश्त37, सहरा, समंदर और साहिल38 थे । लेकिन इस्तारों की इफ़रात39 भी शहर के अंदर थी, मयख़ाना, साक़ी, शराब, ज़ाहिद,40 वाइज़,41 कूच-ए-यार,42 दरबानस, दीवार, सहारा लेकर बैठने या सर फोड़ने के लिए, वह बाम43 जिस पर माशूक़ इत्तफ़ाक44 से या जल्वः- गरी45 के इरादे से नमूदार46 हो सकता था वह बाज़ार यहाँ आशिक़ रुस्वाई47 की तलाश में जा सकता था या जहाँ दार48 पर चढ़ने के मंज़र49 उसे दिखा सकते थे कि माशूक़ की संगदिली50 उसे कहाँ तक पहुँचा सकती है। शहरों
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1. सभ्यता, संस्कृति, 2. साहित्य, 3. प्रवक्ता, 4. प्रभाव (असर का बहुवचन) 5. निरुपण 6. ब्रिटिश 7. सत्ता 8. दुर्व्यवस्था, 9. अधिकार, हस्तक्षेप 11. रूप, 12. मरुस्थल, 13. मरुद्वीप, 14. परकोटा, 15. मानो, जैसे कि 16. पशुता 17. संभव 18. पूर्ण 19. प्रकृति 20. पूर्णता 21. भीड़ 22. सरो वृक्ष 23. मध्य 24, सैर (प्रेयसी की मन्थर गति) 25. बाड़ 36. ओस 27. प्रायः समीर 28. गीत 29. पिंजरा 30. आनंद 31. ईर्ष्या 32 घोसलों 33. कल्पना 34. उपमानों 35. रुपकों 36. उदाहरण 37. जंगल 38,. किनारा 39. आधिक्य 40. धर्मभीरू 41. उपदेशक 412 प्रेमिका की गली 43 मुँडेर 44. संयोग 45. रूप-सौन्दर्य दिखाने, दर्शन देने 46. प्रकट 47. बदनामी 48. सूली 49. दृश्य 50. कठोर हृदयता।

ही में महफ़िले हो सकती थी जिनको शम्मएँ रौशन1 करतीं है और जहाँ परवाने शोले पर फ़िदा होते, जहाँ आशिक़ और माशूक़ की मुलाक़ात होती। हम शहरों पर इसका इल्ज़ाम2 नहीं रख सकते की उन्होंने शहर को यह अहमियत दे दी, शहर और देहात की बेगानिगी सदियों से चली आ रही थी, यो गोया हिन्दुस्तान के दो मुतज़ाद3 हिस्से थे।
मुल्क की तक़सीम4 इसी एक नहज4 पर नहीं थी। बादशाह, उमरा6 सिपहसालार इक़्तिदार7 की कशमकश8 में मुब्तिला9 थे, एक जुए के खेल में जहाँ हर एक हिम्मत, मौक़ा और अपनी मस्लेहत10 के लिहाज़ से11 बाज़ी लगाता, बाक़ी आबादी को बस अपनी सलामती12 की फ़िक्र थी। ज़मीर13 और अख़्याकी14 उसूल बहस में नहीं आते थे, बाजी हारना और जीतना क़िस्मत की बात थी। आम मफ़ाज15का कोई तसव्वुर था भी तो वह जाती16 अग़राज17 की गंजलक18 में खो जाता और अगर कोई आम मफ़ाज को महसूस करता और उसे बयान करना चाहता तो उसे दीनी19 और फ़िक़री20 इस्तलाहों21 का सहारा लेना पड़ता, जिसका लाज़मी22 नतीजा यह होता है कि मज़हबी बहस खड़ी हो जाती।

शाह इस्माइल शहीद की तसानीफ़23 में जहाँ कहीं सियासी मसाइल24 मोज़ू-ए-बहस24 हैं वहां हम देखते हैं कि एक नेकनीयत इंसान जिसकी ख़वाहिश यह थी कि हुकूमत की बुनियाद अदल28 और मुदल्लल29 बात कहना मुमकिन नहीं था। शाइर को इख़्तियार था कि अहले-दौलतो-सर्वत30 की शान में क़सीदे31 लिखे या तवक्कुल32 पर दरवेशों की सी ज़िन्दगी गुज़ारे। किसी मुरब्बी33 पर भरोसा करने के आला34 मेयार35 की शाइरी करने में रुकावट पैदा नहीं होती थी, मुरब्बी का अहसास मानना एक रस्मी36 बात थी, इश्क़ और वफ़ादारी का मुस्तहक़37 सिर्फ़ माशूक था, और शाइर अपनी तारीफ़ भी जिस अंदाज से चाहता कर सकता था, और अगर वह किसी हद तक भी नाम पैदा करता तो उसका शुमार मुन्तख़ब38 लोगों में होता था और उसकी दुनिया मुन्तख़ब लोगों में होता था और उसकी दुनिया मुन्तख़क लोगो की दुनिया होती थी।
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1. प्रकाशित 2. आरोप 3. प्रतिकूल, परस्पर विरोधी 4. विभाजन 5. ढंग 6. अमीर का बहुवचन 7. सत्ताधिकारी 8. संघर्ष 9. व्यस्त 10. स्वार्थ, हित 11. दृष्टि से 12. कुशल-क्षेम, सुरक्षा 13. अन्तरात्मा 14. नैतिक 15. लाभ 16. व्यक्तिगत 17. स्वार्थ (गर्ज़ का बहुवचन) 18 उलझन 19. धार्मिक. 20. धर्मशास्त्रीय 21. परिभाषित शब्दावली 22. अनिवार्य 23. ग्रंथों, रचनाओं 24. समस्याएँ 25. विषाद का विषय 36 न्याय 27 अभिव्यक्ति 28. स्पष्ट 29. तर्क-संगत 30. धनाढ्य और समृद्ध लोग 31. प्रशंसा-काव्य 32. अल्लाह के भरोसे 33. संरक्षण, अभिभावक 34. ऊंचा, श्रेष्ठ 35. आदर्श 36. पारंपरिक 37 अधिकारी 38. चुने हुए।

एक और तक़सीम ‘आज़ाद’ यानी शरीफ़ मर्दों और औरतों की थी। आम तौर पर लोगों को अंदेशा1 था कि देखने से गुफ्तगू2 और गुफ़्तगू से बदन छूने तक बात पहुँचती है, और बदन छूने का नतीजा यह हो सकता था कि दोनों फ़रीक़3 बेक़ाबू हो जाएँ। इस अंदेशे ने एक रस्म बनाकर आज़ाद ना-महरम4 मर्दों-औरतों को सख़्ती से एक-दूसरे से अलग कर दिया। इसी वजह से आजात औरतों के बारे में लिखना उन्हें ज़बान और अदब की आँखों से देखने के बराबर और इसलिए ना-मुनासिब5 क़रार दिया गया।6 इश्क से मुराद7 मर्द-औरत की वह मुब्बत नहीं थी जिसका मक़सद8 रफ़ीके-हयात9 बनाना हो, और इस बिना10 पर शाइर यह ज़ाहिर नहीं कर सकता कि उसका माशूक़ मर्द है या औरत। माशूक़ के चेहरे और कमर का ज़िक्र किया जा सकता था, इसके अलावा उसके जिस्म के बारे में कुछ कहना बेहुदगी में शुमार होता था, अगरचे11 ऐसे दौर भी गुज़रे हैं जब बयान में उरयानी12 वज्रः13 के ख़िलाफ नहीं समझी जाती थी। लेकिन क़ायदे की पाबंदी का मतलब यह नहीं था कि औरत के वुजूद14 को ही नज़रंदाज15 किया गया। उन मिसालों को छोड़कर यहाँ ईरानी रिवायत16 की पैरवी में माशूक़ को अमरद17 माना गया है, यह साफ़ जाहिर हो जाता है कि उर्दू के शाइर का ‘माशूक’ औरत हो। अलबत्ता इस बात का पता उसके तौर-तरीक़, नाजो अंदाज से चलता है, जिस्मानी18 तफ़सीलात19 से नहीं, और पसे-मंजरे़ घर नहीं है, बल्कि तवाइफ़20 की बज़्म21।

‘‘मुरक़्क़ः 22 –ए-देहली’’ से, जो 1739 की तसनीफ़ है, मालूम होता है कि तबाइफें किस दर्जा24 शहर की तहज़ीबी25 और समाजी ज़िन्दगी पर हावी26 थीं लखनऊ और दूसरे बड़े शहरों की हालत वही होगी जो देहली की। शाह इस्माईल शहीद के बारे में एक क़िस्सा है कि उन्होंने बहुत-सी औरतों की टोलियों को जो बहुत आरास्ता-पैरास्ता27 थीं, रास्तें पर से गुजरते देखा। दरयाफ़्त28 करने पर मालूम हुआ कि तवाअफ़ें हैं और किसी मुमताज़29 तवाइफ़ के यहाँ किसी तक़रीब30 में शिरकत31 के लिए जा रही हैं। शाह साहब ने उन्हें राहः-ए-रास्त32 पर चलने की तरग़ीब33 दिलाने के लिए इसे एक बहुत अच्छा मौका समझा और फ़क़ीर का भेष बनाकर उस मकान के अंदर पहुँच गए जहाँ तवाइफ़े जमा हो रही थी।
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1. आशंका 2. वार्तालाप 3. पक्ष 4. अपरिचित, ग़ैर 5. अनुचित 6. ठहरा दिया गया 7. आशय, अर्थ 8. उदेश्य 9. जीवन-साथी 10. आधार 11. हालाँकि 12. नग्नता 13. रीति, प्रणाली 14. अस्तित्व 15. उपेक्षित, उपेक्षा 16. परंपरा, चलन 17. वह लड़का जिसके अभी दाढ़ी-मूछ न आई हो 18. शारीरिक 19. विवरण 20. वेश्या 21. महफिल 22. वह ग्रंथ जिसमें लेखन कला के सुंदर नमूने का चित्र संग्रहित हों 23. रचना 24. किस सीमा तक 25. सांस्कृतिक 26. छाई हुई 27. सजी-धजी 28. पूछ-ताछ 29. लोकप्रिय 30 आयोजन 31. भाग लेने, सम्मिलित होने 32. सीधी राह 33. प्रलोभन, आकर्षण।

थीं। उनकी शख़्सियत1 में बड़ा वक़ार2 था और अगरचे उन्हें इस्लाम3 का काम शुरू किया ज़्यादा अर्सा नहीं हुआ, साहिबे खानः4 ने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया। उसके सवाल के जवाब में की वह कैसे तशरीफ़ लाए हैं शाह साहब ने क़ुरआन की एक आयत5 पढ़ी और एक वाज़6 कहा जिसको सुनकर तवाइफ़ें आबदीदः7 हो गई। नदामत8 से आँसू बहाना तवाइफ़ों को तहज़ीब में शामिल था, अगरचे निजात5 की ख़ातिर पेशा तर्क कर देना10 का़बिले तारीफ़11 मगर ख़िलाफ़े-मामूल12 समझा जाता था। तवाइफ़ें अपने ख़ास क़ायदों और रस्मों के मुताबिक13 ज़िन्दगी बसर करती थीं और अगर एक तरफ़ उनका पेशा बहुत गिरा हुआ माना जाता था तो दूसरी तरफ़ वाज़14 ऐतबार से15 इस नुक़सानन की कुछ तलाफ़ी16 भी हो जाती थी।

वह बज़्म, जिसका उर्दू में इतना ज़िक्र आता है, दोस्तों की महफ़िल नहीं होती थी, लोग किसी मेज़बान की दावत17 पर जमा नहीं होते थे, न तहज़ीबी मशाग़िल18 के लिए आम इज़्तमा19 होता था। ऐसी महफ़िलों में माशूक़ और रक़ीब20 और ग़ैर21 क्या काम होता, मगर तवाइफ़ की ब़ज़्म में यह सब मुमकिन था। ग़ालिब ने ये शेर कहे तो ऐसी ही बज़्म उनकी नज़र में होगी-


मैंने कहा कि बज़्में-नाज़22 चाहिए ग़ैर से तही23
सुनकर सितम-ज़रीफ़24 ने मुझको उठा दिया कि यूँ


हाँ वो नहीं खुदा-परस्त25 जाओ वो बे-वफ़ा सही
जिसको हो दीनो-दिल अज़ीज़26 उनकी गली में जाए क्यों
हम जितना उन सूरतों पर ग़ौर करें जिनमें कि माशूक़ एक औरत है और देखें कि वह आशिक़ के साथ क्या बर्ताव करती है उतना ही यह वाज़ह27 हो जाता है कि इस शाइराना इस्तआरः28 से मुराद क्या है और उतना ही साफ़ बज़्म का नक़्शा हो जाता है। इसका हरग़िज यह मतलब नहीं है कि वो तमाम शाइर जो माशूक़ की बज़्म का ज़िक्र करते हैं तवाइफ़ों की बज़्म में शरीर29 होते थे, जैसे शराब और मयखाना का ज़िक्र करने का मतलब नहीं है कि वो शराब की
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1. वक्तित्व 2. वैभव 3. सुधार 4. मेज़बान, आतिथेय, गृह-स्वामी (स्वामिनी) 5. वाक्य 6. प्रवचन. 7. आँखें भर लाईं 8. लज्जा, पश्चात्ताप 9. मुक्ति 10. छोड़ देना 11.प्रवचन 12. सामान्य आचरण के प्रतिकूल 13. अनुसार 14. कुछ 15. दृष्टियों से 16. क्षतिपूर्ति 17. आमंत्रण 18. कार्यों 19. सभा, सम्मेलन 20. प्रति-द्वन्दी 21. पराया 22. प्रेमिका की महफ़िल 23. खाली 24 विनोद-विनोद में सताने वाला, सितम करने वाला 25. ख़ुदा-भक्त 26 प्यारा, प्रिय 27. स्पष्ट 28. रूपक 29. सम्मिलित।

दुकान पर बैठकर ठर्रा चलाते थे। मगर इसमे शक नहीं की शहर में लौंडियों और ख़ादिमाओं1 और मज़दूर-पेशा औरतों के अलावा सिर्फ़ तवाइफ़ें बे-नकाब2 नज़र आती थीं नाजो-अदा दिखाने, तल्ख़3 और शीरीं4 गुफ़्तगू करने, लुत्फ़ और सितम से पेश आने का मौक़ा उन्हीं को था। उन्हें नाच और गाने के अलावा गुफ़्तगू का फ़न5 सिखाया जाता था और तवाइफ़ों की बज़्म ही एक ऐसी जगह थी जहाँ मर्द बे-तकल्लुफ़ी6 और आज़ादी के साथ रंगीन गुफ़्तगू, फ़िकरेबाजी और हाजिर जवाबी में अपना कमाल दिखा सकते थे। ब़ड़ी खानदानी तक़रीबों7 में तवाइफ़ों का नाच गाना कराना खुशहाल घरानों का दस्तूर8 था और जो लोग ‘बज़्म’ में शिरकत करना रसंद न करते वे ऐसे मौक़ों पर गुफ़्तगू के फ़न में अपना हुनर9 दिखा सकते थे। शरीफ़ों और तवाइफों के यक-जा10 होने के मौके़ उर्स फ़राहम11 करते थे, जिनमें से अक्सर वे तवाइफ़ों को शरीक़ होने की इजाजत थी। अब खुद ही सोच सकते है कि माशूक़ की तस्वीरें किस बुनियादी अक्स12 को सामने रखकर बनाई गई होंगी और ऐसी औरत कौन हो सकती थी जिसका कोई ख़ानदान न हो, ताल्लुक़ात13 और ज़िम्मेदारियाँ न हों और जो इस वजह से एक वुजूदे-महज़14 एक खालिस15 जमालियाती16 में तब्दील की जा सके।

उन्नीसवीं सदी के निस्फ़-आख़िर18 की ज़हनी क़ैफ़ियत19 और इस्लाह की मुख्लिसाना20 कोशिशों ने इस हकीकत21 पर पर्दा डाल दिया है। दूसरी तरफ़ पारसा मिजाज़22 और हया-ज़दा23 लोग इस पर मुसिर24 रहे हैं कि मयखाना और शराब की तरह माशूक़ भी एक अलामत25, एक इस्तआर है, जिसे मजाजी26 कसाफ़तों27 से कोई निस्बत28 नहीं। उन्हें अपनी जिद पूरी करने में कोई दुश्वारी29 नहीं होती, इसलिए कि सूफ़ियाना30 शाइरी की रियायत31 ने तमाम कैफ़ियतों32 को, और ख़ास तौर से आशिक़ो-माशूक के रिश्ते को एक रूहानी33 हक़ीक़त का अक्स माना है। लेकिन इस वजह से हमारे ज़माने के नक़काम34 क्यों समाजी हालात को नज़रंदाज़ करें और क्यों शइर को इस इल्ज़ाम से न बचाएँ कि उसका माशूक़ बिलकुल फ़र्जी35, उसका इश्क़ महज़ धोखा और एहसासात36 ख़ालिस तमन्ना37 है।
अब कुछ और समाजी हालात को देखिए जिनका अदब पर अक्स पड़ा।
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1. सेविकाओं 2. बे-पर्दा 3. कड़वी 4. मीठी 5. कला 6. अनौपचारिक 7. उत्सव-आयोजन 8. चलन 9. कौशल 10. एक स्थान पर 11 उपलब्ध 12. प्रतिबिम्ब 13. संबंध 14. अस्तित्व मात्र 15. शुद्घ 16. सौंदर्यशास्त्रीय 17. कल्पना. 18. उत्तरार्ध 19. मानसिक स्थिति मनोदशा 20. सौहार्दपूर्ण 21. वास्तविकता 22. धर्मनिष्ठा 23. लोक-लाज के मारे हुए 24. आग्रही 25. प्रतीत 26. लौकिक 27. विकारों 28. संबंध 29. कठिनाई 30. सूफियों (संसारिक मोहों से मुक्त होकर ईश्वर-साधना में लगे लोगों) –जैसी 31. परंपराओं 32. स्थिति 33. आध्यात्मिक 34. आलोचक 35. कृत्रिम 36. अनुभूतियाँ 37. बनावटी।

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