लोगों की राय

लेख-निबंध >> गांधीजी और उनके शिष्य

गांधीजी और उनके शिष्य

जयंत पंड्या

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5259
आईएसबीएन :81-237-4406-4

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

38 पाठक हैं

इसमें गांधीजी व उनके शिष्यों के जीवन का वर्णन किया गया है

Ghandi Ji Aur Unke shiishya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उनके नाम जिन्होंने जीवन भर जीवन के लिए संघर्ष किया जिनके हृदय अग्नि पुंज थे इन सूर्य पुत्रों ने कुछ घड़ी सूर्य की ओर कदम बढ़ाए और फिर वेगवान पवन पर अपने गौरव के हस्ताक्षर छोड़ गए

स्टेफन स्पेन्डर

प्राक्कथन

अपने जीवन के विकास-काल में मैं महात्मा गांधी का प्रशंसक नहीं था। नैतिक आचार संहिता के रूप में उनके द्वारा निर्धारित ग्यारह प्रतिज्ञाएं मुझे इतनी अतिनैतिक प्रतीत होती थीं कि मैं उन्हें आत्मसात करना कठिन समझता था। यद्यपि गांधीजी की महानता में कोई संदेह नहीं था, किंतु इस तथ्य को भी मैं बेमन से ही स्वीकार करता था। आज मेरी स्थिति बिल्कुल इससे उल्टी है। उनके प्रति मेरा अनुराग मेरी कल्पना से कहीं आगे बढ़ गया है। मैं जैसे-जैसे उनके लेखन में गहराई से उतरता जाता हूं, उनके प्रति मेरा अनुराग मन पर अधिकाधिक गहरा असर डालता जा रहा है हमारे युग पर गांधी जी ने जो चमत्कारी प्रभाव छोड़ा है, वह आने वाली अनेक पीढ़ियों के लिए अनुश्रुति सिद्ध होगा। अन्यथा, वे विनोबा भावे, डा. राजेन्द्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी, ठक्कर बापा, रविशंकर महाराज, जमनालाल बजाज, नानाभाई भट्ट जे.सी. कुमारप्पा, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नायर, आशादेवी, आर्यनायकम, मीराबेन और अन्य अनेक महानुभावों को कैसे प्रेरित कर सके, जो जीवन के विविध क्षेत्रों से ताल्लुक रखते थे और मन-बुद्धि से अत्यंत समृद्ध थे।

गांधीजी के शिष्य असंख्य हैं। जाहिर है कि इस छोटी-सी पुस्तक में उन सभी का समावेश नहीं किया जा सकता है। लेकिन मात्र यह तथ्य ही कि उनकी संख्या अनगिनत है, किसी भी व्यक्ति को उन विभूतियों के जीवन रूपी खजाने की थाह पाने और उनके कार्यकलाप एवं जीवन-शैली के माध्यम से गांधीजी को प्रस्तुत करने का दिशा संकेत दे सकता है। यदि ऐसा किया जाए तो शायद हमें कुछ ऐसी नवोदित प्रतिभाओं का पता लग सके जो पुष्पित एवं पल्लवित होकर एक ऐसे नए गांधी युग का सूत्रपात करें जो इस संसार में स्वयं विकासमान होने में सक्षम हो।

इन संक्षिप्त जीवनचरितों का संकलन करते समय मैंने ऐसे आनंदातिरेक का अनुभव किया है जिसकी तुलना किसी गीतिकाव्य को पढ़ने से होने वाली भाव-विह्वलता से की जा सकती है। कभी-कभी मेरी आंखें नम भी हो गई हैं। मैं नेशनल बुक ट्रस्ट का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे ऐसा सुखद कार्य सौंप इतने आनंददायक क्षणों को जीने का दुर्लभ अवसर प्रदान किया। मैं श्री महेन्द्र वी. देसाई का भी उपकृत हूं जिन्होंने पांडुलिपि को पढ़ जाने और यत्र-तत्र अपने बहुमूल्य सुझाव देने का कष्ट किया।

पुस्तक के अंत में टिप्पणियां दी गई हैं जिनमें उन स्रोतों का उल्लेख है जिनसे सामग्री संकलित की गई है। इन टिप्पणियों में उल्लिखित सभी पुस्तकों के लेखकों एवं प्रकाशकों का आभारी हूं। अंत में, मैं साबरमती आश्रम, अहमदाबाद के गांधी स्मारक संग्रहालय के निदेशक श्री अमृत मोदी को अनेक धन्यवाद देना चाहता हूं। जिन्होंने इस पुस्तक के लिए सारी आधार सामाग्री उपलब्ध कराई और साथ ही चित्र भी दिए।
यह कहना संभवतः आवश्यक नहीं है कि इस पुस्तक की तथ्यात्मक अथवा वर्णनात्मक त्रुटियों के लिए केवल मैं ही पूर्णतया उत्तरदायी हूं।
जनवरी 1993
अहमदाबाद

जयंत पंड्या


1
महात्मा गांधी
उनका बोध एवं कार्यक्रम


मानवीय कार्यकलाप का समूचा दायरा आज एक अविभाज्य समष्टि है। आप जीवन को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और विशुद्ध धार्मिक खानों में नहीं बांट सकते। मानवीय कार्यकलाप से पृथक् मैं किसी धर्म को नहीं जानता। यह अन्य सभी कार्यकलापों को एक नैतिक आधार प्रदान करता है, जिसका अन्यथा उनमें अभाव रहेगा और उसके फलस्वरूप जीवन शोर और उन्माद की भूलभुलैया मात्र रह जाएगा, जिसका कोई महत्त्व ही नहीं होगा।

जिस व्यक्ति ने यह बात कही, वे महात्मा गांधी थे। वे मानव जीवन की पूर्णयता और समाज की विवेकशीलता में विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में, मानव जीवन एक संश्लिष्ट इकाई है जिसका यादृच्छिक विभाजन नहीं किया जा सकता। यह प्रकृति की देन है जिसे सावधानी के साथ और विवेकपूर्वक उपयोग में लाया जाना चाहिए। जीवन गरिमा और योग्य रीति से जीने के लिए है। इसके लिए यह आवश्यक है कि उसे एक अभिकल्प अथवा एकीकृत योजना के अनुरूप विनियमित किया जाए। वह कुछ बुनियादी सिद्धांतों और अभीष्ट मूल्यों द्वारा निर्देशित होनी चाहिए।

गांधीजी ने अपना जीवन उन सिद्धांतों और मूल्यों के अनुरूप जिया जो उन्हें सबसे ज्यादा प्यारे थे। उनकी दृष्टि में, जीवन ईश्वरीय देन है इसलिए उसे एकीकृत एवं उद्देश्यपूर्ण रीति से जीना चाहिए। इसे एक सामंजस्यपूर्ण समष्टि का रूप दिया जाना चाहिए। उनके उपदेशों और सुधार की योजनाओं में यही एकीकरण और सोद्देश्यता की झलक दिखाई देती है। इन गुणों ने गांधीजी को उद्देश्य और लक्ष्य की एक बुनियादी एकता प्रदान की थी। संभव है कि यह एकता ऊपरी तौर पर दिखाई न दे, क्योंकि उसे प्रणालीबद्ध करने का गांधीजी के पास न तो समय था और न ही शायद कोई इच्छा। वस्तुतः गांधीजी उस अर्थ में बौद्धिक थे ही नहीं जो इस शब्द का शास्त्रीय अभिप्राय है। अपने परिवेश का जो बोध उन्हें था, उसे लेकर कोई सिद्धान्त गढ़ने की इच्छा रखने वाले विद्वान अथवा दार्शनिक गांधीजी नहीं थे। वे तो मुख्यतया एक कर्मवीर थे। उन्होंने विभिन्न विषयों पर विपुल साहित्य की रचना की है, पर वह विद्वत्समाज की शोभा बढ़ाने वाले प्रबंध की अपेक्षा लोगों को कर्म का मार्ग दिखाने वाला साहित्य अधिक है।

गांधीजी के अनेक विचार ध्यान देने योग्य एवं क्रांतिकारी हैं। वे एक सृजनशील मस्तिष्क की उपज हैं। उनके मस्तिष्क की यह सृजनशीलता उनके समय की चुनौतियों और सच्चाई से उनका सामना करने की उनकी लगन का परिणाम थी। वे ऐतिहासिक नजीरों और दृष्टांतों को नवीन चिंतन और खोज के मार्ग में बाधक नहीं बनने देते थे। उनका अधिकांश ज्ञान जीवन के साथ उनके सीधे संपर्क और उससे प्राप्त व्यावहारिक अनुभव का परिणाम था। कई बार वे पुराने आध्यात्मिक और सुधारक दिग्गजों का स्मरण करते थे, पर उनकी उक्तियों को उद्धृत उन्होंने शायद ही कभी किया हो। उनके अध्ययन सहज स्फूर्त और ग्रामोद्योग का कार्यक्रम रखने से पहले उन्होंने एक अर्थशास्त्री की भाषा में अपनी योजना के सभी निहितार्थों का पूरा विश्लेषण नहीं किया था। न भारत की अर्थव्यवस्था में विकेंद्रीकृत उद्योग की आवश्यकता और महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए उन्होंने कोई विद्वतापूर्ण प्रबंध ही लिखा। इसके स्थान पर, उन्होंने अपने अनुभव और क्रांतिकारी विचारों के पक्ष में सीधे-सादे और बोधगम्य तर्क और उदाहरण ही प्रस्तुत किए। उन्होंने आम जनता की गरीबी और उनकी बलात् निष्क्रियता की चर्चा की और इस तथ्य पर बराबर बल दिया कि असली भारत गांवों में बसता है।

गांधीजी कहते थे कि स्वराज चरखा और खादी के माध्यम से आएगा, पर उन्होंने इसके संबंध को सिद्ध करने के लिए कोई उपयुक्त शोध प्रबंध नहीं लिखा। बहुत से लोग चरखा और भारत की राजनीतिक स्वाधीनता के पारस्परिक संबंध को अवास्तविक और भ्रामक मानते थे। लेकिन दोनों का संबंध सिद्ध करना कठिन नहीं है। गांधीजी चाहते तो खादी से शुरू करके क्रमशः अन्य कार्यकलाप का समावेश करते हुए भारत के आर्थिक संगठन के अपने इस विचार का एक विशिष्ट रूप में विस्तार कर सकते थे। इससे अर्जित होने वाली विशाल संगठन-क्षमता और अनुभव को राजनीतिक संदर्भ में उद्देश्य, निदेशन, अनुशासन, आत्मबलिदान, सामाजिक दायित्यों की स्वीकृति और पुनरुत्थानशील राष्ट्र के लिए आवश्यक ऐसे ही अन्य गुणों में रूपांतरित किया जा सकता था। पर गांधीजी ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया। यह बात नहीं कि उनमें ऐसा करने की क्षमता नहीं थी, लेकिन वस्तुतः वे अन्य कामों में इतने व्यस्त थे कि उनके पास इस पांडित्यपूर्ण प्रयास के लिए समय ही नहीं था।

गांधीजी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं की चर्चा एक उच्च नैतिक एवं मानवतावादी धरातल पर ले जाकर करते थे। अपने संश्लिष्ट दृष्टिकोण के अनुरूप, गांधीजी जनता की प्रकृति से सामंजस्य बिठाते हुए अपना काम करते थे। सुधारक के रूप में, गांधीजी जीवन की बहुविध जटिलता के प्रति सचेत रहते थे। उनके व्यवहार में, कभी एक पक्ष पर बल रहता था, तो कभी किसी दूसरे पक्ष पर। यह स्थान, काल, श्रोतासमूह और उस समय जिस बात पर जोर देना है, इस पर निर्भर करता था। काम करने का यह तरीका किसी अनम्य तंत्र के साथ बंध कर नहीं चलता। वह जीवन के गतिशील तथ्यों और प्रतिपादक के सर्जनात्मक, गत्यात्मक और क्रांतिकारी चिंतन पर आधारित होता है। गांधीजी ने लौकिक और आध्यात्मिक, तथा व्यक्तिक और सामूहिक जीवन को संश्लेषित करने का प्रयास किया। अतः उन्हें इन दोनों सेटों के साथ वास्ता रखना पड़ता था।

उन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों के हितों, तथा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भलाई में कोई संघर्ष दिखाई नहीं देता था। उनके सभी विचार अभिनव एवं क्रांतिकारी थे, पर वे उनकी मौलिकता का दावा कभी नहीं करते थे। वे बड़ी विनम्रतापूर्वक यह कहते थे कि अपने विचारों का निर्धारण करते समय वे पुराने पैगंबरों और सुधारकों के पदचिन्हों का अनुसरण मात्र कर रहे होते हैं।
गांधीजी का व्यक्तित्व विकासशील था। यही कारण है कि कभी-कभी एक ही विषय पर उनके दो वक्तव्यों में जाहिरा तौर पर असंगति मालूम पड़ती है। असंगति के आरोप का जवाब देते हुए गांधीजी ने कहा था।

लिखते समय मैं यह कभी नहीं सोचता कि मैं पहले क्या कह चुका हूं। मेरा ध्येय किसी मुद्दे पर अपने पहले के विचारों के साथ सुंसंगति बनाए रखना नहीं है बल्कि किसी निश्चित क्षण पर जो सत्य दिखाई देता है, उससे सुसंगति रखते हुए अपनी बात कहना है। इसका परिणाम यह है कि मैं एक सत्य से दूसरे सत्य की ओर प्रगति करता गया हूं; इससे मैं अपनी स्मृति पर अनावश्यक बोझ डालने से बच गया हूं और, इससे भी बढ़कर बात यह है कि, मुझे अपने पिछले लेखन का हवाला देने की जरूरत तभी पड़ी है, जब नवीनतम लेखन को वस्तुतः इसकी आवश्यकता हो, भले ही वह पचास साल पहले लिखा गया हो। लेकिन चुनने से पहले उन्हें यह देखने का प्रयास करना चाहिए कि क्या ऊपर-ऊपर से असंगत दिखाई देने वाली दो उक्तियों के बीच सुसंगति का एक प्रच्छन्न और स्थायी सूत्र विद्यमान नहीं है ?
(हरिजन, 30 सितंबर, 1939)

गांधीजी बदलते हालात से नए-नए और तरह तरह के तरीकों से निबटते थे। उन्होंने अपने चिंतन और कभी-कभी आचारण में भी दिखाई देने वाली असंगतियों को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया।
अगर कोई गांधीजी के जीवन और उनके काम को समझना चाहे तो उसे उनके उन आध्यात्मिक विचारों और आदर्शों को समझने का प्रयास करना चाहिए जिनके आलोक में उन्होंने अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध संघर्ष का संचालन किया। यद्यपि उन्हें अपने-आपको हिंदू कहना बड़ा प्रिय लगता था पर उन्होंने छुआछूत की घातक और निष्ठुर प्रथा का समर्थन नहीं किया। उन्हें भारत में प्रचलित जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं था। वे हिंदुओं के कर्मकांड का भी पालन नहीं करते थे। वे सौजन्य के तकाजे के अलावा शायद ही कभी किसी मंदिर में गए हों। उनका हिंदुत्व उपनिषद् और गीता के उपदेशों पर आधारित था। वे कहा करते थे :

मैं मानवता की सेवा के माध्यम से ईश्वर को पाने का प्रयास कर रहा हूं, क्योंकि मैं जानता हूं ईश्वर न स्वर्ग में है, न नरक में; वह तो हम सबके भीतर बैठा है। प्राणी मात्र की प्रत्यक्ष सेवा ईश्वर को पाने के प्रयास का अनिवार्य अंग इसलिए बन जाती है कि ईश्वर को पाने का एक मात्र तरीका उसे उसकी सृष्टि में ढूंढ़ना और उसके साथ एकाकार हो जाना है। यह सबकी सेवा के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

गांधीजी की दृष्टि में, धर्म और नैतिकता एक-दूसरे के पर्याय हैं। वे सत्य और अंहिसा को नैतिकता के बुनियादी सिद्धांत मानते थे। इन्हीं दो सिद्धांतों का विस्तार करके ग्यारह सिद्धांत बना दिए गए थे जिन्हें पद्यबद्ध करके उनको प्रातः एवं सांध्यकालीन प्रार्थना सभाओं में गाया जाता था। उनका विश्वास था कि सभी धर्म सच्चे हैं, पर वे उन्हें नितांत त्रुटीहीन नहीं मानते थे। धर्मों की सृष्टि मानवों द्वारा की गई है अतः मानवों की अपूर्णताएं उनमें भी समाविष्ट हैं। उन्होंने कहा था : ‘लंबे अध्ययन और अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि
(1)    सभी धर्म सच्चे हैं; (2) सभी धर्मों में त्रुटियां मौजूद हैं।’ उन्होंने यह भी कहा:

‘मैं यह नहीं मानता कि केवल वेद ही दिव्य हैं। मेरी मान्यता है कि वेदों की ही तरह बाइबिल, कुरान और जेंद अवेस्ता भी ईश्वरीय प्रेरणा से प्रकट हुए हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में मेरी आस्था का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं उनके एक-एक शब्द और श्लोक को दैवी प्रेरणा से उद्भूत मानता हूं।...मैं ऐसी किसी भी व्याख्या को मानने से इंकार करता हूं जो तर्क या नैतिक दृष्टि के प्रतिकूल हो, चाहे यह व्याख्या कितनी ही विद्वत्तापूर्ण क्यों न हो।’

चूंकि गांधीजी विश्व के सभी महान धर्मों के बुनियादी सिद्धांतों में आस्था रखते थे इसलिए वे और उनके सह-धर्मावलंबी धर्म-परिवर्तन में विश्वास नहीं करते थे। उनके आश्रम में मुसलमान, ईसाई और पंडित, सभी थे पर गांधीजी ने उन्हें कभी हिंदू बनाने की कोशिश नहीं की। एक बार मीराबेन ने हिंदू धर्म अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की थी। इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया कि उन्हें अपने धर्म में ही बने रहना चाहिए। हिंदू बनने से उनके नैतिक आचरण अथवा मूल्यों में, किसी भी रूप में, कोई सुधार नहीं होगा। गांधीजी के अनुसार, व्यक्ति के लिए धर्म-परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है, उसे अपने ही धर्म के बुनियादी सिद्धांतों के अनुसार कर्म करके रहना चाहिए।

गांधीजी धर्म को कोई ऐसी चीज नहीं मानते थे जिस पर आचरण करने के लिए किसी गुफा या पर्वत शिखर पर जाने की जरूरत हो। उन्हें ईश्वर के प्रति आस्था थी पर उनकी दृष्टि में ईश्वर नैतिक नियम अर्थात् धर्म का ही दूसरा नाम है। वे राम का नाम लेते थे, किंतु उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका राम सीता पति अथवा दशरथ पुत्र राम नहीं अपितु मानव मात्र के हृदय में वास करने वाला अर्थात् अंतर्यामी राम है। जहां तक उनका संबंध था, वे निराकार और गुणातीत ईश्वर में विश्वास करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था रखने के कारण, गांधीजी को प्रार्थना में बहुत अधिक विश्वास था। उनकी प्रार्थना सभा में कोई मूर्ति या प्रतीक नहीं रखा जाता था, हालांकि वे मूर्तिपूजा की आवश्यकता को स्वीकार करते थे। उनकी प्रार्थनाओं में कोई याचनाएं नहीं होती थीं बल्कि उत्कंठित आत्मा द्वारा प्रस्तुत प्रशंसात्मक भजन होते थे। उनकी प्रार्थना सभाओं में राष्ट्रीय गीत कभी नहीं गाए जाते थे। अपने देश के प्रति व्यक्ति का प्रेम कितना ही अच्छा और श्रेयस्कर क्यों न हो, वह ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं कहा जा सकता। अपनी प्रार्थना सभाओं में भी वे महत्त्वपूर्ण मुद्दों और समस्याओं पर जनता को विश्वास में लेने के लिए अपनी बात करते थे। ये जनता को उसी वैचारिक धरातल पर लाने के प्रयास होते थे जिस पर गांधीजी उन्हें लाना चाहते थे।

गांधीजी आत्मानुशासन में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि उनकी व्यक्तिगत उन्नति और जो भी कुछ उपलब्धि थी, वह उनके अनुशासनयुक्त जीवन जीने का फल थी। वे व्रत रखने में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि उपयुक्त विधि से व्रत रखने से इच्छाशक्ति दृढ़ होती है। उनका यह भी मानना था कि अच्छी तरह से विनियमित जीवन में, अपनी आवश्यकताओं को एक सीमा से अधिक बढ़ने देना मनुष्य के लिए भारस्वरूप सिद्ध होता है।
 
गांधीजी द्वारा भारत में छेड़े गए आंदोलनों को निष्क्रिय प्रतिरोध, सविनय अवज्ञा असहयोग आदि नामों से पुकारा गया है। लेकिन गांधीजी का विचार था कि ये नाम उनके द्वारा संगठित संघर्ष के नैतिक और आध्यात्मिक पक्षों को पूरी तरह प्रकट नहीं करते। अतः उन्होंने इन्हें एक महत्त्वपूर्ण नाम दिया ‘सत्याग्रह’, जिसका अर्थ है दृढ़तापूर्वक सत्य का अनुसरण।
सत्याग्रह मानव-बंधुत्व में विश्वास करता है। यह अस्तित्व के लिए संघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता की जैविक संकल्पना को नकारता है। इसके बजाय यह प्रेम और परस्पर सहायता और सहयोग को सामाजिक संसर्ग तथा मानव प्रगति का आधार मानता है।

इस प्रकार, सत्याग्रह की पहली शर्त है सत्य का दृढ़तापूर्वक सम्मान। अहिंसा सत्य का स्वाभाविक परिणाम है। गांधीजी कहा करते थे ‘‘सत्य और अहिंसा उतने ही प्राचीन हैं जितने कि पर्वत।’’ उन्होंने अपने बचपन से ही सत्य का सम्मान करने का अपना स्वभाव विकसित किया था। अहिंसा सत्य का स्वाभाविक परिणाम है। जहां हिंसा होगी, वहीं असत्य का प्रवेश हो जाएगा। दोनों अविच्छेद्य हैं। अहिंसा के विषय में गांधीजी ने कहा।
मैंने पाया है कि विनाश के बीच भी जीवन की धारा बहती रहती है, इसलिए विनाश के नियम से इतर कोई उच्चतर नियम अवश्य होना चाहिए। इसी नियम के अंतर्गत एक सुव्यवस्थित समाज बोधगम्य होगा और जीवन जीने योग्य बनेगा। और यदि यही जीवन का नियम है तो हमें इसे अपने दैनंदिन जीवन में उतारना चाहिए। जब भी तुम्हारे सामने बाधाएं आएं, जब भी किसी विरोधी से तुम्हारा सामना हो, तो उसे प्यार से जीतो। इसी मोटे रूप में मैंने इसे अपने जीवन में उतारा है।
सत्य और अहिंसा के दो सिद्धांतों के अलावा, गांधीजी ने सत्याग्रह के संचालन के लिए एक तीसरे सिद्धांत का प्रतिपादन और किया। यह था साधन की शुद्धता का सिद्धांत। जब किसी व्यक्ति ने तर्क किया कि सराहनीक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किन्हीं भी साधनों को अपनाना उचित है तो गांधीजी ने कहा:

तुम्हारा यह विश्वास कि साधनों और साध्य के बीच कोई संबंध नहीं है, बड़ी भारी भूल है। इसी भूल के कारण, धार्मिक माने जाने वाले व्यक्तियों के हाथों भी बड़े-बड़े भयंकर अपराध हुए हैं। तुम्हारा तर्क वैसा ही है जैसा कि यह कहना कि हम कोई विषबेल लगाकर उससे गुलाब का फूल प्राप्त कर सकते हैं। अगर मुझे कोई समुद्र पार करना है तो मैं पोत का इस्तेमाल करके उसे पार कर सकता हूं; अगर मैंने इसके लिए गाड़ी का इस्तेमाल किया तो गाड़ी और मैं, दोनों ही समुद्र में तुरंत डूब जाएंगे। ‘जैसा भगवान, वैसा भक्त’ कहावत विचार के योग्य है। इसके अर्थ को विकृत कर दिया गया है और लोग मार्गभ्रष्ट हो गए हैं। साधन की उपमा बीज से दी जा सकती है और साध्य की वृक्ष से। जो अविच्छिन्न संबंध बीज और वृक्ष के बीच है, वही साधन और साध्य के बीच है।

सत्याग्रह की कल्पना जिस रूप में गांधीजी ने की, वह मनुष्य को उच्चतर जीवन के लक्ष्य की ओर ले जाने और साथ ही, तत्कालीन राजनीतिक और  अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। एक नेता और सुधारक के रूप में, यह गांधीजी की अनुपम देन है।
गांधीजी इस बात से सहमत नहीं थे कि निर्धनता अधिकांश मानवजाति की नियति होना अपरिहार्य है। उनका विश्वास था कि विद्यमान सामाजिक व्यवस्था में बदलाव लाकर निर्धनता और रहन-सहन की गई बीती परिस्थितियों का इलाज किया जा सकता है। उनकी धारणा थी कि चूंकि समस्त संपत्ति का उत्पादन समाज द्वारा किया जाता है इसलिए उसे समान रूप से वितरित किया जाना चाहिए। भारत की वर्तमान परिस्थितियों में यह व्यावहारिक न हो तो भी खेत या कारखाने के किसी मजदूर को जीवन की अनिवार्य वस्तुओं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान आदि से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। समुदाय के आर्थिक जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि सभी को जीवन की अनिवार्य वस्तुएं उपलब्ध हों। वह निजी खैरात को ठीक नहीं समझते थे। उनके विचार में यह खैरात देने वाले और उसे लेने वाले, दोनों का पतन करती है।





प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book