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पांचाली

बच्चन सिंह

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5261
आईएसबीएन :81-7124-264-2

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पांचाली के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Panchali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘अर्जुन, मैं राज्य को गँवारों का सुख मानता हूँ। तुम्हारा आग्रह मुझे अस्वीकार्य है। वन में नाना प्रकार के खिले फूलों, लताच्छादित द्रुमों को देखूँगा, रंग-बिरंगे पक्षियों का संगीत सुनूँगा, हवा में घुली सुगंधि पिऊँगा, चुपचाप बहती नदी को घँटों निहारा करूँगा। नगरों में वन्य जन्तु नहीं मिलते वहाँ पर उनके संग रहकर जीवन की पूर्णता प्राप्त करूँगा।’’

महाभारत के विलक्षण चरित्रों को औपन्यासिक रूप में ढालना बेहद कठिन है। कृष्ण द्वैपायन ने इनकी रचना में जगह-जगह स्पेस छोड़ रखा है। उन चरित्रों पर लिखने के मतलब है खाली जगहों को पढ़ना। पांचाली के लेखक बच्चन सिंह इसे ‘सूतो वा सूतपुत्रों वा’ में प्रमाणित कर चुके हैं। द्रौपदी का चरित्र अपनी फाँकों के कारण अपनी बुनावट में जटिल हो गया है इसका शीर्षकन द्रौपदी है न याज्ञसेनी। ‘पांचाली’ साभिप्राय प्रयोग है।

एक अभूतपूर्व अनिंद्य सौन्दर्य। इसके जादू में वह स्वयं बंधी थी दूसरों को भी बाँधे रही। सौन्दर्यगर्विता नारी। पांडव इसी जादू के वशीभूत थे। पंजाब के खेतों की तरह लहराता हुआ उसका यौवन बाँध तोड़कर पाँच व्यक्तियों से एक साथ विवाह करता है आर्योचित परंपरा की धज्जियाँ उड़ाता हुआ। जिस तरह पंजाब पाँच नदियों में विभाजित है उसी तरह पाँच पतियों में विभाजित द्रौपदी का आविभाजित व्यक्तित्व। यह विभाजित व्यक्तित्व ही उसे एक संपूर्ण स्त्री बनाता है। स्त्री के अधिकारों के पक्ष में फूटता हुआ पहला मुखर स्वर। इस उपन्यास में इस स्वर की अनुगूँज सर्वत्र व्याप्त है।

पूरे महाभारत में प्रेम केवल द्रौपदी करती है—असफल प्रेम। वह अर्जुन से प्रेम करती है और अर्जुन यहाँ-वहाँ भटकता रहता है। भीम से प्रेम करना उसकी नियति है। युधिष्ठिर रति-कक्ष में भी उबाऊ कथाएं सुनाते हैं। कृष्ण का सखीत्व रहस्यमय है। कई बार उसका अपहरण होता है— जयद्रथ द्वारा, कीचक द्वारा। इस जद्दोजहद में उसका निर्माण भी होता है। उसके जीवन की सर्वाधिक दुखद और त्रासद अध्याय है—कुरुओं की भरी सभा में उसे नंगा करने का प्रयास। वह अभी भी जारी है।
नंगा होते-होते वह ज्वालामुखी में बदल गई, दुःशासन द्वारा खींचे गए उसके काले घुँघराले केश कुचले साँप की तरह फूत्कार उठे। नारी अपना अपमान नहीं भूलती। कुरुक्षेत्र का मैदान अपमान की चिताओं में धू-धू कर जल उठता है।
नारी मुक्ति आंदोलन का पहला पत्थर द्रौपदी ही रखती है। ‘पांचाली’ में इसके साथ ही है ‘कचिदन्यतोपि’।

युधिष्ठिर

‘‘मेरी ओर देखें मुझ जैसी अभागिन कौन होगी ? मेरे सारे पुत्र मारे गए। फिर भी मैं क्यों जीवित हूँ। आप ही लोगों के कारण न। और आप हैं कि अपने साथ सबको संन्यासी बना देना चाहते हैं। यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवण से मिली है, न दान-दक्षिणा में प्राप्त हुई है, न किसी के समझाने-बुझाने से, न यज्ञ करने कराने से और न भीख माँगने से मिली है। भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि अपराजेय वीरों को पराजित करने पर मिली। इसे आप स्वयं भोगें और दूसरों को भोगने दें। आप स्वयं जिएँ, दूसरों को जीने दें।’’
पांचाली

पांचाली : नाथवती अनाथवत्


  पांचाली महाराज द्रुपद की पुत्री, धृष्टद्युम्न की बहिन, पाँच अजेय पांडवों की धर्मपत्नी और कृष्ण की सखी थी, फिर भी किसी की कुछ नहीं थी। वह जीवनभर अपने अनाथवत् जीवन के विरुद्ध संघर्ष करती रही, लड़ती-जूझती रही। इस जिजीविषा का नाम है ‘पांचाली’।
पांचाली नाम क्यों ? द्रौपदी क्यों नहीं, याज्ञसेनी क्यों नहीं ? पाँच नदियों में विभाजित पंचनद की तरह पाँच पतियों में विभक्त द्रौपदी, अतः पांचाली। युधिष्ठिर की उबाऊ कथा सुनने के लिए अभिशापित थी। अर्जुन को प्यार करती थी, पर वह हमेशा उससे दूर-दूर रहा। भीमकाय भीम की बाँहों में बँधने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। कृष्ण अच्युत थे, अनासक्त कर्मयोगी थे।

पांचाली अपने समय की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी कुरुक्षेत्र की सर्वाधिक बुद्धिमती। पर उसे सुन्दर होने बुद्धिमान होने का मूल्य चुकाना पड़ता है। यों तो स्त्री को स्त्री होने का ही सबसे बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है। पुरातन काल से ही पुरुष-प्रधान समाज में उसका दम घुटता आ रहा है। इस समाज से लड़ने के लिए उसमें आग शुरू से ही मौजूद थी। इस ‘पांचाली’ में उस आग की चिन्गारी देखी जा सकती है। वह तो अग्निकुण्ड से पैदा ही हुई थी। वह आजीवन स्वयं जलती रही और दूसरों को जलाती रही। इस अग्निकुण्ड का प्रतीकात्मक अर्थ इस उपन्यास के ताने-बाने में रचनात्मक ढंग से रचा-बसा है। आज भी स्त्री को नंगा किया जा रहा है, उसे जुएँ के दाँव पर हारा जा रहा है, बेचा जा रहा है, कड़ाही के खौलते तेल में भूना जा रहा है। इसके विरुद्ध द्रौपदी की आवाज कभी तेज, कभी मद्धिम सुनाई पड़ती है।

तारीफ तो यह है कि युधिष्ठिर, भीष्म, द्रोण, भीम, अर्जुन, कृष्ण सभी युद्ध के विरुद्ध हैं पर सभी युद्ध करते हैं। द्रौपदी की अकेली आवाज युद्ध के पक्ष में है –अन्याय के विरुद्ध युद्ध के पक्ष में। युद्ध के पक्ष में धर्मराज युधिष्ठिर से बहस करती रहती है। कृष्ण को भी सांकेतिक ढंग से सन्धि न होने देने की सलाह देती है। उनके आगे दुःशासन द्वारा खींचे हुए अपने नील कुंचिन केश को बिखेर देती है। पाठकों के मन में पश्न उठता है कि युद्ध के लिए किन्हीं अर्थों में पांचाली भी जिम्मेदार है।
बच्चन सिंह के उपन्यासों की खास विशेषता यह है कि पाठक उसका एक पात्र हो जाता है। उसे टेक्स को ‘डी-कांस्ट्रक्ट’ करना पड़ता है। वह उपन्यास में उठे हुए प्रश्नों पर अपने प्रश्न भी उठाता है। ‘भृगु आश्रम’, ‘स्वागत’, ‘क्षेपक’ आदि के प्रयोग से इसके कथा-प्रवाह में बाधा डालते हैं। इनसे उपन्यास की भाषिक रचना को एक नया संदेहात्मक बौद्धिक आयाम देते हैं।
साहित्य की अनेकार्थकता के इस जमाने में कोई इसे प्रेम-कथा कह सकता है, कोई औरत की जिन्दगी की त्रासदी। कोई इसमें युद्ध की उस विभीषका को देख सकता है जिसमें न कोई जीतता है और न कोई हारता है। हार-जीत, सुख-दुःख से गुजरता हुआ महाप्रस्थान या मृत्यु के वरण को मंजिल तक पहुँचाता है। उसके आगे राह नहीं है।
इसे पढ़ने के बाद पाठक किस मंजिल पर पहुँचेगा, कोई नहीं जानता। इसका निर्णय तो उसे ही करना पड़ेगा महाप्रस्थान के पथ पर सब एक साथ चल रहे हैं। कोई किसी के साथ नहीं चल रहा है।

स्वयंवर


पांचाल की राजधानी कांपिल्य। कांपिल्य नगर दुल्हन की तरह सजा था। धुले-पुछे राजमार्ग, पुष्प-रस-गंध में धुली गमकती गलियाँ। स्वयंवर मंडल में तो पांचाल का समस्त ऐश्वर्य और वैभव उड़ेल दिया गया था। वह यौवन-मद से उमड़ती चाँदनी की तरह जगमगा रहा था। मणि-कुट्टिम भूमि, सोने-चाँदी की तारों टँगी झालरें, रंग-बिरंगी फूल मालाएँ। बीच में स्थापित स्वस्तिक-मंडित पुष्प-कलश। आम्र-पल्लवों की तनी वन्दनवारें।
आकर्षक कौशेय वस्त्रों में लिपटी, मूल्यवान आभुषणों से अलंकृत मैं रंगमंडप में पहुँची। आदमकद दर्पण में झिलमिलाता हुआ मेरा प्रतिबिम्ब खिल उठा। मैं सौन्दर्यगर्विता तो थी ही। इस प्रतिबिम्ब के कारण मेरा सौन्दर्य-गर्व और बढ़ गया। मुझे मालूम था कि अपरूप नारियों को तलवार की धार पर दौड़ना पड़ता है। और नशा भले ही छूट जाय, लेकिन सौन्दर्य का नशा नहीं उतरता। मैं अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से राजसभा को सदर्प देख रही थी।

  मेरा भाई धृष्टद्युम्न घोषित कर रहा था—‘‘राजाओं, मेरी बात ध्यान से सुनें। आज मेरी बहिन और महाराज द्रुपद की कन्या का स्वयंवर है। आप देख रहे हैं। पृथ्वी पर लघु मण्डप के नीचे एक धनुष रखा है। पास में पाँच बाण पड़े हैं। ठीक उसके ऊपर कुम्हार के चक्के की तरह एक चक्र घूम रहा है। उसमें एक छेद है। छेद के ऊपर मत्स्य है। जो व्यक्ति नीचे रखे धनुष पर पाँचों बाणों को योजित कर चक्र-छिद्र से मत्स्य-भेद करेगा, द्रौपदी उसका वरण करेगी। पिताश्री की यही प्रतिज्ञा है। आप अपने पराक्रम का परिचय दें।’’
भाई धृष्टद्युम्न स्वयंवर में आगत राजाओं का परिचय दे रहा था। मैं ध्यान से सुन रही थी। दुर्योधन, विविंशति, विकर्ण, युयुत्स, शकुनि, अश्वत्थामा, कर्ण, विराट, सुशर्मा, चेतिकान, दुःशासन, पौंड्रक वासुदेव, भगदत्त, शल्य, सोमदत्त, भूरिश्रवा, कृष्ण, प्रद्युम्न, सात्यकि, जयद्रथ, शिशुपाल, जरासंध इत्यादि। इनमें से अधिकांश के नाम सुने हुए थे। किन्तु इस सूचि में अर्जुन का नाम नहीं था जिससे पिताश्री मेरा विवाह करना चाहते थे।

इनमें से अधिकांश कई स्त्रियों के पति थे। वे एक पत्नी और जोड़ लेना चाहते थे। यह उनकी दिग्विजय की प्रक्रिया का एक अंग है। पर भगदत्त को देखकर हँसी आ गई। यह जरद्गव भी विवाह के इच्छुक हैं। आश्चर्य है कि इनमें से अधिकांश योद्धा कुरुक्षेत्र के युद्ध में भी थे। युद्ध के अवसर पर इनकी भागीदारी का समाचार सुनते समय मुझे अपना स्वयंवर याद आ जाता था। क्या स्वयंवर में ही इस युद्ध का प्रारम्भ था ?
अद्भुत धनुष था वह ! अपने बल, पौरुष, पराक्रम और सौन्दर्य के दर्प में फूले हुए राजा लोग धनुष के पास जाकर ज्यों ही प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करते कि उसके झटके से आहत होकर यहाँ-वहाँ गिर पड़ते—कहीं मुकुट पड़ा होता, कहीं बाजूबंद, कहीं टूटा हुआ हार। फिर वे पराजित मुद्रा में अपनी जगह लौट जाते। जो मत्स्य-भेद के लिए नहीं उठ रहे थे वे मुझे देख रहे थे।

धृष्टद्युम्न ने घोषित किया—‘‘मत्स्यभेद के लिए महारथी कर्ण आ रहे हैं।’’ मैंने कर्ण को देखा—राजाओं की भीड़ का सर्वाधिक सुन्दर व्यक्ति। सोने के कवच-कुण्डल पर पड़ती हुई सूरज की किरणें भी प्रकाशयुक्त हो उठतीं थीं। कोई भी स्त्री उस पर मुग्ध हो सकती थी। मैंने सोचा वह भी अन्य राजाओं की तरह प्रत्यंचा का झटका नहीं सँभाल सकेगा। किन्तु उसने गेंद की तरह धनुष उठा ली, प्रत्यंचा खींची, उसकी टंकार से मण्डप में हलचल हुई। पाँचों बाणों को भी उसने नियोजित कर लिया। लगा निमिष भर में वह मत्स्य-भेद कर लेगा। मैं चिल्ला उठी—‘‘मैं सूतपुत्र का वरण नहीं करूँगी।’’ वह आहत मणिधर सर्प की तरह विचलित हो उठा। उस महामनस्वी ने बिना किसी प्रतिक्रिया के धनुष फेंक दिया, बाण तितर-बितर हो गए।

उधर ब्राह्मण मंडली में हचल हुई। हल्के मेघ-रंग वाला एक ब्राह्मण खड़ा हुआ—उत्साह और उल्लास से भरा हुआ। ब्राह्मण-मण्डली समवेत स्वर में बोली-‘‘शुभेस्तु ते पंथानः।’’ शंख बज उठे। ब्राह्मणों के उत्तरीय हिलने लगे। वह सुन्दर बलिष्ठ युवा धीरे-धीरे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ मत्स्य-मण्डप की ओर बढ़ रहा था। पलक झपकते ही उसने मत्स्य-भेद कर दिया। मत्स्य पृथ्वी पर गिर पड़ा। ब्राह्मण-मण्डली सामगान में निमग्न हो गई। क्षत्रिय राजे चुप थे।
मैं श्वेत पुष्पों की जयमाला लेकर मत्स्य-मण्डप की ओर जाने लगी। चाल में थोड़ी मंथरता आ गई, कपोल देश लज्जारूण हो गए। वरमाला गले में डालते ही शरीर में स्पर्शजन्य स्वेद बढ़ गया, कँपकपी छूटने लगी। उस ब्राह्मण युवा के साथ मैं मण्डप से बाहर निकली। वह स्वयंवर क्या जिसमें युद्ध न हो। एक छोटी-सी लड़ाई जिसमें कर्ण और शल्य दोनों पराजित हुए। कर्ण के बारे में सोचती रही कि केवल पौरुष और धर्म आदमी के सहायक नहीं होते। कुछ और भी होता है। हम लोग स्वयंवर मण्डप से बाहर निकल आए।

हम एक अज्ञात दिशा की ओर चल रहे थे। ऊपर आँख उठाई तो बादल घिरे हुए थे—‘मेघाछन्नम् दुर्दिनम्’। कुछ देर एक कुटिया में रुके। वर्षा बन्द हो गई थी। अब हम भाग्यलिपि की तरह टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर चल रहे थे। आगे-आगे दो ब्राह्मण वीर और पीछे-पीछे मैं। सामने एक कुटिया थी—कुम्हार की। कुम्हार का चक्का तेजी से चल रहा था जीवन के चक्के की तरह। उसने हम लोगों पर ध्यान नहीं दिया और चक्का चलाता रहा। दोनों ब्राह्मणों में से एक बोला—माँ, हम लोग भिक्षा लाए हैं।’’ टूटी-फूटी खिड़की से आवाज माँ तक पहुँची। उसने भीतर से ही उत्तर दे दिया दिया—‘‘भुंक्तेति समेत्यसर्वे’’ सभी भाई बाँट कर खाओ। मैंने सोचा अनजाने यह बात कह दी गई। मैं तो मनोनुकूल वीर पति पाकर फूली न समा रही थी। मां कुंती मुझे देखकर युधिष्ठिर के पास गई और मत्स्य-भेद का रहस्य खोला। फिर उन्होंने अपने कथन ‘भुंक्तेति समेत्यसर्वे’’ का समाचार दिया। युधिष्ठिर चिंतामग्न हो गए।

कुछ देर बार उनका मौन टूटा—‘‘अर्जुन, तुमने इस कन्या को जीता है। तुम्हारे साथ ही इसकी शोभा है। अग्नि प्रज्वलित करो और याज्ञसेनी का पाणिग्रहण करो।’’ ‘अर्जुन’ नाम में अद्भुत जादू था। मेरे आनंद के समुद्र में ज्वार उठा, जीवन में सूखा तट एक अप्रत्याशित क्षण में लहरों में ड़ूब गया—कुछ देर तक डूबा रहा।
ज्वार तो ज्वार ही होता है। आया और गया। अर्जुन बोला—‘‘धर्मराज, बड़े भाई के अविवाहित रहते छोटे का विवाह अधर्म है। यह अनार्य पद्धति है। पहले आपका विवाह होना चाहिए, तब भीम का तब मेरा।’’ मेरे मन में कुम्हार का चक्का तेजी से घूम गया। अलात चक्र।

मैंने पाँचों पाण्डवों को देखा। उनकी आँखों में एक मदिर तृष्णा भर गई। उन्होंने फिर एक दूसरे की ओर देखा। मुझे अपने अपरूप सौन्दर्य पर तृप्ति अनुभव हुआ। पहली बार लगा कि मैं यज्ञकुण्ड से पैदा हुई और मेरी आग की लपट से कोई बच नहीं सकता। धर्मराज ने मेरी ओर देखते हुए अपना निर्णय सुनाया, ‘‘कल्याणमयी द्रौपदी हम पाँचों भाइयों की भार्या होगी।’’ मैंने देखा पाँचों भाइयों के चेहरे पर नन्दन-कानन उग आया था। इसी बीच कृष्ण और बलराम पाण्डवों से मिलने आए। कृष्ण को देखा, देखती रह गई। मेरे मन में उनके प्रति सखीत्व का बीज इसी समय पड़ा।
मैं सोच रही थी—दलदल में फँसती जा रही हूँ। अर्जुन की ओर देखा—एक चुप, हजार चुप। एक साथ ही आर्य और अनार्य धर्म दोनों का पालन। रातभर हम लोग कुम्हार के घर ही रहे। पाँचों पाण्डव मृगचर्म बिछा कर सो गए। मैं उनके पैताने कुशासन पर सोई। स्त्रियों का स्थान पुरातन काल से पुरुष के पैरों के नीचे है। यह सनातन धर्म है। हम सनातम धर्म का पालन कर रहे थे।

दूसरे दिन पिताश्री ने हम लोगों को राजभवन में बुला लिया। एक दिन पिता विवाह मुहुर्त के बारे में युधिष्ठिर से बात कर रहे थे। युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘विवाह तो मेरा भी होगा।’’। द्रुपद एकदम हक्का-बक्का। युधिष्ठिर फिर बोल बैठे—‘‘मेरा ही नहीं, मेरे अन्य भाइयों का भी होगा। द्रौपदी रत्न है रत्न। उसे हम बाँट कल भोगेंगे।’’ द्रुपद ने धैर्य से काम लिया और कहा—‘‘तुम कुन्ती और धृष्टद्युम्न जैसा सोचो।’’ गाड़ी के आगे काठ। मेरे बारे में दूसरों को निर्णय करने का क्या अधिकार है ? लेकिन कन्या को सनातन धर्म के अनुसार चुप रहना चाहिए।
माता-पिता चाहे जिस खूँटें में बाँध दें। मुझसे पूछा तक नहीं गया। पाँच नदियों के देश की राजकुमारी के पाँच पति होने ही चाहिए। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं चुप क्यों थी ? क्या इसलिए कि मैं भारतीय मर्यादा को ढोने वाली कन्या थी ? क्या इसलिए कि युधिष्ठिर जो कुछ बोलें वही धर्म है ? क्या मेरे भीतर ही तो इस प्रकार के संस्कार नहीं थे ? मैं चुप थी।

पता नहीं व्यास ने क्या समझाया कि पिताश्री ने पाँचों पाण्डवों से मेरे विवाह की अनुमति दे दी। मैंने देखा था कि हमारे जीवन की गाड़ी जहाँ कहीं रुकती थी, व्यास उपस्थित। वे ऋषी है, महात्मा हैं, पाण्डवों के पूर्वज हैं, पराशर हैं, कहीं भी दिख सकते हैं। लेकिन व्यास के कथन को जिस ढंग से मुझ तक पहुँचाया गया वह विश्वसनीय नहीं लगा। वे अपनी महाभारत कथा में एक पात्र के रूप में हस्तक्षेप कर सकते हैं, किन्तु जीवन में उनका हस्तेक्षेप हर समय कल्याणकारी कैसे होगा ? पर व्यास की बात पर विश्वास करके मेरा विवाह पाँचों पाण्डवों से हो गया।

यहीं आकर मेरी कथा रुक जाती है। मेरा बार्हस्पत्य संस्कार (चार्वाक) करवट बदलता है। मैं अपने गुरु आचार्य वेद को बुलाती हूँ। मैंने आचार्य से निवेदन किया कि व्यास की बातों की पुष्टि के लिए वे भृगु आश्रम जायँ। कदाचित ‘भृगु सहिंता’ से कुछ भेद खुले। आचार्य हँसे—‘‘तुम न सनातम धर्म को मानती हो। न बार्हस्पत्य को। दोनों के बीच में रस्सी पर टँगे नट की तरह झूल रही हो। ‘भृगु संहिता’ पाखंडियों का आविष्कार है। मैं जाऊँगा। कुछ नए अनुभव, कुछ उलटे-सीधे विचार ले आऊँगा। हो सकता है मेरी ‘बार्हस्पत्य सहिंता’ के लिए कुछ उपयोगी सामग्री भी मिल जाय।’’

भृगुआश्रम में



आचार्य वेद भृगुआश्रम चले गए। वहाँ से लौटकर जो कुछ बताया वह विचित्र था, आश्चर्य-चकित करने वाला था। भृगुआश्रम राजधानी से दूर गंगा के पुण्य तट पर स्थित था। आश्रम की शाखाएँ वटवृक्ष के बरोहों की तरह चारों ओर फैली हुई थीं। महर्षि भृगु का बड़ा नाम था। कहते हैं कि विष्णु भगवान की छाती में लात मारकर बड़ा यश कमाया था, भृगुवंश का वर्चस्व स्थापित किया था। उनके पास दिव्यातिदिव्य दृष्टि थी। वे सब कुछ बता सकते थे।

आचार्य वेद सीधे भृगुआश्रम पहुँचे। अपना-अपना भविष्य जानने के लिए बहुत से लोग एकत्र थे। आश्रम के अंतेवासी भृगुसंहिता से उनका भविष्य बाँच रहे थे। महर्षि के आश्रम में भारद्वाज को छोड़कर कोई नहीं था। उन्हें भीतर बुला लिया गया। दोनों महर्षियों को अभिवादन करके आचार्य वेद चुप बैठ गए।

आचार्य ने निवेदन किया कि याज्ञसेनी आत्मकथा लिख रही है। वह जानना चाहती है कि पाँचों पाण्डवों से उसका विवाह क्यों हुआ, कैसे हुआ ? इसका समाधान केवल आपके आश्रम में मिल सकता है। वेद का दिया हुआ मेरा पाठ भृगु के सामने था भृगु पढ़ रहे थे-धर्मराज ने कहा, ‘‘पहले मेरा विवाह होगा। मेरे बाद अन्य भाइयों से भी इसका विवाह होगा।’’ भृगु की लम्बी सफेद दाढ़ी हिली। भारद्वाज ने कहा—‘‘यह तो अनार्य पद्धति है।’’ भृगु हँसे, ‘‘यही समस्या है, पेंच है।’’
भारद्वाज ने कहा कि व्यास ‘महाभारत’ लिख रहे थे। वे मेरे शिष्य हैं। ‘महाभारत’ की मोटी रूपरेखा मेरे आश्रम में बनी थी। आजकल उनके लेखक गणेश छुट्टी पर हैं। अतः लेखन का काम बन्द है। यह समस्या उनके सामने भी आएगी। वह धर्म क्या जिसकी उदारता सब कुछ समेट न ले, वह धर्मशास्त्र क्या जो प्रत्येक समस्या का समाधान न खोज ले, वह ऋषि क्या जो अपनी दिव्यदृष्टि से सब कुछ देख न ले। यदि इस विवाह को अनार्य पद्धति का विवाह मानते हो तो इसे आर्य पद्धति में ढालना होगा।’ ‘कृण्वेत विश्वमार्यम्’। हमारे यहाँ भेदभाव बहुत है, उसे कम करना होगा। अन्यथा आर्यों की संख्या घटती जायेगी।

वास्तव में हमारे धर्मशास्त्र में क्या नहीं है। अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए पंडित वर्ग अपना कहा हुआ धर्म सम्मत ठहराता है। किन्तु धर्मशास्त्र में जो कुछ खोजो, मिल जायेगा। यह बड़ा लचीला है। एक जगह कर्मकाण्ड का समर्थन है तो दूसरी जगह निषेध। स्वीकृत्यात्मक पक्ष उतना ही सच है जितना निषेधात्मक पक्ष। इसी से हमारा वैचारिक विकास होता है। हमारे पास सारी समस्याओं का समाधान है।
प्रारब्ध और पूनर्जन्म। पूनर्जन्म ऐसा ब्रह्मास्त्र है कि व्यक्ति और किसी अस्त्र से भले ही बच जाय इससे नहीं बच सकता।
पुनर्जन्म की एक कथा गढ़ो। यह कथा व्यास ही कहें। अपने ग्रंथ में वे भी एक पात्र होंगे। यह कथा व्यास ही कहें। उनकी कथा विश्वसनीय होगी, क्योंकि वे दिव्यदृष्टिसम्पन्न हैं। वे एक कथा को प्रामाणिक बनाने के लिए कई कथा डालते रहेंगे। आगे चलकर देशज शैली के नाम से यही शैली ग्राह्य होगी।

वेद ने टोका—‘‘व्यास का हर जगह प्रकट होकर हस्तक्षेप करना विश्वसनीय नहीं है। कथा के बीच कथा से धारावाहिकता भंग होगी।’’ तो सुनो, ‘‘कौरवों-पाण्डवों का परिवार व्यास का ही परिवार है। उसमें वे प्रत्येक समय रहते हैं और नहीं रहते। भारतीय मानस में बसा हुआ है कि ऋषि-मुनि किसी समय कहीं भी जा सकते हैं। उनकी गति मन की गति की तरह सूक्ष्म और आवेगमय है। व्यास का प्रकट होना अविश्वसनीय नहीं है। कथा के बीच कहानी कहना व्यास शैली है। इस पद्धति से देवों, दानवों, नागों, गंधर्वों और मनुष्यों की लोककथाएँ एकत्र हो जायेंगी। बीच-बीच में भार्गवों की कथा भी चलती रहेगी। कथा का प्रारम्भ पौलेम पर्व से होता है। वह भृगुवंश के महत्त्व की ही कथा है। इस वंश की उपेक्षा व्यास नहीं कर सकते। न उस कथा की कर सकेंगे।

‘‘हाँ, बात पाण्डवों और द्रौपदी के पुनर्जन्म की हो रही थी। राक्षसों के डर से इधर-उधर इन्द्र भटकते हुए गंगा के किनारे-किनारे गंगोत्री पहुँचे। वहाँ पानी में खड़ी एक स्त्री रो रही थी। उसका आँसू गंगा के पानी में स्वर्ण कमल बन जाता था। उन कमलों को बटोरकर इन्द्र कैलाश पहुँचे। कैलाश में शिव पार्वती के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। इन्द्र को भगवान शिव पर सन्देह हुआ। कंधे से वज्र उतारा। उसी समय वे स्वयं निःसंग भू-लुंठित हो गए। होश में आने पर उन्होंने शिव की ओर देखा। शिव ने एक गुफा की ओर संकेत करते हुए कहा—‘‘गुफा में प्रवेश करो।’’ इन्द्र को एक अज्ञात शक्ति गुफा की ओर ढकेल रही थी। गुफा-द्वार का पत्थर हटा। इन्द्र भीतर। गुफा-द्वार पर एक खटका। वह शिलाखण्ड से ढँक गया। भीतर चार इन्द्र पहले से ही बन्द थे।

‘‘पाँचों इन्द्रों ने शिव की तपस्या में निराहार सौ वर्ष बिता दिए। अवढरदानी शिव प्रकट हुए। पाँचों इन्द्रों ने शिव की स्तुति प्रारम्भ की। शिव ने कहा—‘‘यह तुम्हारे अहंकार का दंड है। तुम्हें मनुष्य योनि में जाना पड़ेगा। विष्णु की कृपा से एक इन्द्र के पराभाव से दूसरा और दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा और चौथे से पाँचवाँ इन्द्र पैदा हुआ। अब नया इन्द्र नहीं पैदा होगा। मनुष्य योनि में देवताओं के वीर्य से तुम्हारा जन्म होगा।

‘‘रोती हुई स्त्री जल में शिव की तपस्या कर रही थी। वह शची थी। भगवान शिव ने उसे द्रौपदी के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया और कहा कि तुम्हें मनुष्य लोक में पति के रूप में पुनः इन्द्र मिलेंगे। व्यास ने द्रुपद को दिव्यदृष्टि दे रखी थी। वे सब कुछ देख-सुन रहे थे। द्रुपद इस चमत्कार के फलस्वरूप व्यास के चरणों पर गिर पड़े। द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों से विवाह हो गया।’’
आचार्य वेद ने मुझे यह वृत्तांत सुनाया। मैं संतुष्ट थी। उसके विवाह में अनार्यत्व नहीं था। किन्तु आचार्य से न रहा गया। बोले—‘‘भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः। कौन सच है—भृगुआश्रम या आचार्य वेद ?’’
   

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