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वेदान्त और आइन्सटीन

अनिल भटनागर

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :71
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5262
आईएसबीएन :81-7124-539-0

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भौतिक विज्ञान के आयामों का वर्णन...

Vedanta aur einstein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भौतिक विज्ञान ऐसा विषय है जो मनुष्य को अमूर्त चिन्तन सिखाता है। पिछले 300 वर्षों से अधिक समय से बुद्धिजीवी वर्ग ने ब्रह्माण्ड की परम अमूर्त सत्ता का निर्धारण करने के लिए इस विषय को चुना है। गैलीलियो, न्यूटन, कोपरनिकस, आइन्सटीन, मैक्स प्लांक, नील बोर और अन्य दृढ़ निश्चयी विद्वानों के माध्यम से हुए इस विषय के 300 वर्षों के विकास के परिणामस्वरूप ब्रह्माण्ड की इस अमूर्त सत्ता के बारे में दो भिन्न-भिन्न सिद्धांत अल्बर्ट आइन्सटीन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धान्त से प्रभावित है और दूसरा मैक्स प्लांक के क्वांटम सिद्धान्त से, जिसका परिवर्धन नील बोर और श्रोयडिंगर ने किया। आइन्सटीन का सिद्धान्त वृहत् (Macro) समष्टि (ब्रह्माण्ड) का सिद्धान्त है और मैक्स प्लांक का सिद्धान्त सूक्ष्म (Micro) समष्टि (ब्रह्माण्ड) का सिद्धान्त है। आज के वैज्ञानिक समष्टि (ब्रह्माण्ड) का एकीकृत सिद्धान्त खोज पाने के उद्देश्य से इन दोनों सिद्धान्तों को एक करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

श्री अनिल भटनागर ने ‘वेदान्त और आइन्सटीन’ नामक अपनी पुस्तक में भौतिक विज्ञान के इस आयाम में वेदों के ज्ञानकाण्ड के अमूर्त चिन्तन का उपयोग किया है, जिसे सामान्य रूप से वेदान्त के नाम से जाना जाता है और जो उपनिषदों में प्रतिपादित है। सम्भवत: यह अपनी तरह का पहला प्रयास है जब भौतिक विज्ञान और वेदान्त के निष्कर्षों को एक-दूसरे के साथ रखा गया है, जिससे चौंकाने वाले परिणाम सामने आये हैं। कदाचित् श्री भटनागर ने उसे सम्भव बनाने का प्रयत्न किया है जिसे अभी तक उन दार्शनिकों ने असंभव कहा है जो तत्वमीमांसा (Metaphysics) को भौतिक विज्ञान से बिल्कुल अलग मानते हैं।  

प्राक्कथन

अरस्तू ने कहा था, ‘मनुष्य स्वभावत: जिज्ञासु है,’ और मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा सृष्टि की व्याख्या करना है। सृष्टि का विकास इस रूप में हुआ है कि इसने प्रज्ञावान तर्कबुद्धियुक्त प्राणियों को उत्पन्न किया है जो कतिपय परम प्रश्न कर सकते हैं और उनको समझ सकते हैं। सृष्टि का उद्भव कहाँ से हुआ और इसका स्वरूप क्या है ? क्या इसका कोई प्रारम्भ था या यह अनादि-अनंत है ? क्या वह सृजन है या प्रकटीकरण है ? धर्मविज्ञानियों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की इन प्रश्नों में रुचि रही है। पिछली दो शताब्दियों के दौरान वैज्ञानिकों ने कुछ मनोमुग्धकारी सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, परन्तु अन्तिम हल अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। वर्तमान समय में वैज्ञानिक दो मूल किन्तु अधूरे सिद्धान्तों के अनुसार सृष्टि की व्याख्या करते हैं- द जनरल थ्योरी ऑव रिलेटिविटी और क्वांटम थ्योरी। परन्तु इन सिद्धान्तों में आपस में असंगति है। स्टीफेन हाकिंग सहित अनेक वैज्ञानिक एक ‘ग्रान्ड यूनीफाइड थ्योरी ऑव क्वांटम ग्रैविटी’ विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। बिग बैंग थ्योरी एक ऐसी एकात्मकता इंगित करती है, जिसके सामने विज्ञान के समस्त ज्ञात नियम ध्वस्त हो जाते हैं।

 ज्ञात नियमों के सहारे हम बिग बैंग की ही घटना को स्पष्ट नहीं कर सकते। कुछ वैज्ञानिक क्वांटम भौतिकी की सहायता से इस स्थिति को सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं। जब क्वांटम मेकानिक्स को जनरल थ्योरी ऑव रिलेटिविटी से संयुक्त किया जाता है तब नवीन संभावनायें उभरती हैं। स्पेस तथा समय एक साथ मिलकर एक ससीम चतुर्विम समष्टि की संरचना करते हैं, जो एकात्मकता अथवा परिसीमाओं से रहित है। तथापि, यह सिद्धान्त अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है। परन्तु यदि कोई संगत सिद्धान्त बना लिया जाता है तो कतिपय प्रश्न फिर भी विद्यमान रहेंगे। हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते है कि सृष्टि का अस्तित्व क्यों है, जिसका वर्णन कल्पित सिद्धान्त में किया जायेगा। इसका सम्भव समाधान वैज्ञानिक ज्ञान और दार्शनिक चिंतन के मेल से हो सकता है।

पुस्तक ‘वेदान्त और आइन्सटीन’ में श्री अनिल भटनागर की योग्यता प्रदर्शित होती है। वह अपने निष्कर्ष वर्तमान वैज्ञानिक सिद्धान्तों से निकालते हैं और यह निरूपित करने का प्रयत्न करते हैं कि इन सिद्धान्तों के निहितार्थ अद्वैत वेदान्त के विचारों का समर्थन करते हैं।

वह विभिन्न बलों की व्याख्या अनुभूतियों के रूप में करते हैं और चेतना की चार अवस्थाओं यथा- जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था, स्वप्न रहित, निद्रावस्था और चौथी अवस्था अर्थात ब्रह्म चेतनावस्था के अनुसार उनका विश्लेषण करते हैं। ग्रान्ड यूनीफाइड थ्योरी विशुद्ध चेतना की अवस्था है, जो सर्वोच्च वास्तविकता है। सब कुछ विशुद्ध चेतना का ही प्रकटीकरण है। श्री भटनागर स्वीकार करते हैं कि आज के वैज्ञानिक उनके विचार से सहमत नहीं होंगे, परन्तु किसी भी संतोषजनक सिद्धान्त को एक शाश्वत अचर के रूप में अंतत: विशुद्ध चेतना की ओर ले जाना होगा। यह पुस्तक उद्दीपक भी है और प्रदीप्तकारक भी।
डी.एन. द्विवेदी
पूर्व विभागाध्यक्ष, दर्शनशास्त्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय

आमुख

ईश्वर क्या है ? जहाँ एक ओर यह पुस्तक ईश्वर के संबंध में उस आदि प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास है कि ईश्वर किस तत्व का नाम है या ईश्वर कौन है। पहले मैं यह प्रश्न करूँगा कि वेदान्तवादी विचार का अस्तित्व तीन हजार वर्षों के बाह्य आक्रमण, आतंरिक कलह और विरोध के बावजूद पूरे जोर के साथ इसे वेदान्त के पारंपरिक विद्यालयों की सीमाओं से देशों तक पहुँचाने, बल्कि प्रसार करने के भी किसी प्रयास के न होते हुए भी युगों, बल्कि पाँच हजार वर्षों के ज्ञात और शोध किये गये ऐतिहासिक तथ्यों के बाद भी आज तक क्यों विद्यमान है। इस प्रश्न का उत्तर वेदान्तवादी विचार की अपनी सामर्थ्य का संकेत देता है, जिसने सुनिश्चित किया कि इसके अध्ययनकर्ता इससे विमुख न हों।

आज स्थिति यह है कि मेसोपोटामियन, कनफ्यूसियन और पैगन जैसे विचार और दर्शन की अन्य पद्धतियों के अनुयायी न के बराबर हैं। केवल यही बात किसी भी बुद्धिजीवी मनुष्य के लिए वेदान्तवादी विचार पढ़ने, सीखने और समझने की रुचि उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। वेदान्तवादी विचार के अध्ययनकर्त्ता के लिए सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि आधुनिक ज्ञान, जिससे समान्यतया वैज्ञानिक ज्ञान के रूप में माना जाता है, स्वयं उस आदि प्रश्न का उत्तर देने के निकट पहुँच चुका है, बल्कि इसने पहले ही इसका उत्तर दे दिया है। बात केवल इतनी है कि वैज्ञानिक ज्ञान के विशाल भंडारों ने इस ज्ञान को वेदान्तवादी विचार में अंतरित नहीं किया है। यह पुस्तक इस वैज्ञानिक ज्ञान को वेदान्तवादी विचार में अंतरित करने और प्रदर्शित करने का एक प्रयास है कि आधुनिक विज्ञान उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचा है, जो वेदान्तवादी विचार में निहित हैं।

इस पुस्तक का पहला भाग उपनिषदों में यथा प्रस्तुत अद्वैत वेदान्त की व्याख्या करने का प्रयास है। पुस्तक का दूसरा भाग आज के समय में जिस रूप में आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान को समझा गया है, उसे एक स्थान पर एकत्र करने और यह प्रदर्शित करने का प्रयास है कि निष्कर्ष वही हैं जो अद्वैत वेदान्त में हैं। ये निष्कर्ष अल्बर्ट आइन्सटीन के सापेक्षतावादी भौतिक विज्ञान और मैक्स प्लांक के क्वांटम सिद्धान्त के बीच एक सहमति इंगित करते हैं और उस बिन्दु तक पहुँचने के द्वार हैं जिसे आज ‘थ्योरी ऑव एवरीथिंग’ या ‘द ग्रान्ड यूनीफाइड थ्योरी’ कहा जाता है।

यहाँ पर मैं ईसापूर्व 10 वीं शताब्दी से लेकर 14 वीं शताब्दी तक भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित ज्ञान की विभिन्न संस्थाओं द्वारा अभिव्यक्त अठारह पुराणों जिनको पुरा-कथाओं के रूप में समझा दिया गया है, परन्तु वास्तव में उपनिषदों और वेदान्तवादी विचार के स्पष्टकारी वक्तव्य हैं जो इतिहास के उस काल, जिसमें उन्हें इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया था। मैं यही करने का प्रयास कर रहा हूँ, अर्थात् वेदान्तवादी विचार को आज की भाषा और ज्ञान (वैज्ञानिक नाम) के स्तर पर स्पष्ट करना चाहता हूँ ताकि इसे विशेषकर वैज्ञानिक समुदाय अधिक उपयुक्त ढंग से समझ सके और इस प्रकार मैं ‘ए थ्योरी ऑव एवरीथिंग’ की अभिधारणाओं को व्यवस्थित करने में उनकी सहायता करने का प्रयास कर रहा हूँ जिसके लिए वे लगभग एक शताब्दी से संघर्ष कर रहे हैं। संभवत: इससे अल्बर्ट आइन्सटीन और मैक्स प्लांक की आत्मायें प्रसन्न होंगी।

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