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अनदेखे बंधन

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5273
आईएसबीएन :81-88388-36-x

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एक सामाजिक उपन्यास...

Andhekhe Bandhan a hindi book by Gurudutt - अनदेखे बंधन - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

भारतवर्ष की पवित्र व पावन भूमि पर अनेकों महान साहित्यकारों ने जन्म लिया है। इनमें से अनेकों ने अपनी कलम के चमत्कार से न केवल अपना वरन् भारतभूमि का नाम भी विदेशों में आलोकित किया और भारत के यश व गौरव में वृद्धि की।
ऐसे ही अनेकों महान साहित्यकारों में स्व. श्री गुरुदत्तजी का नाम उसी प्रकार अजर-अमर व अटल है जिस प्रकार आकाश में ध्रुव तारे का नाम। गुरुदत्तजी पेशे से वैद्य थे लेकिन इसके बावजूद इनकी रगों में साहित्य सृजन की लहर दौड़ती थी। अपनी साहित्य सृजन यात्रा का श्रीगणेश इन्होंने ‘स्वाधीनता के पथ पर’ नामक उपन्यास से किया। इस उपन्यास के प्रकाशन ने इन्हें लाखों-करोड़ों पाठकों से हृदय का सम्राट बना दिया और ये यश व प्रसिद्धि की सीढ़ियां चढ़ते चले गये। श्री गुरुदत्तजी ने राजनीतिक, समाज व इतिहास आदि पर अपनी कलम चलाई और एक के बाद, एक से बढ़कर एक लगभग 200 उपन्यासों का सृजन किया।

इनका जन्म लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान) में सन् 1894 को हुआ था। तब लाहौर भारत का ही अंग था। ये आधुनिक विज्ञान के छात्र थे और पेशे से वैद्य। इन्होंने रसायन विज्ञान से एम.एस.सी. (स्नातकोत्तर) की लेकिन वैदिक साहित्य-साधना के व्याख्याता का कार्य चुना और साहित्य-सृजन व साहित्य-साधना में जुट गये। आजीवन साहित्य-साधना में लगे रहते हुए 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में इन्होंने शरीर त्याग दिया।
अब रजत प्रकाशन, मेरठ से श्री गुरुदत्तजी के उपन्यासों का प्रकाशन करते हुए हमें अपार गौरव का अनुभव हो रहा है। साथ ही हिन्दी भाषी पाठकों के लिये तो यह हर्ष का विषय है कि श्री गुरुदत्त का साहित्य अब उन्हें सुलभ प्राप्त हुआ करेगा।
‘अनदेखे बंधन’ जैसा कि नाम से ही विदित होता है, यह गुरुदत्तजी का एक सामाजिक उपन्यास है जिसमें उन्होंने ग्रामीण व शहरी विचारधाराओं का बड़ा ही अनोखा समन्वय प्रस्तुत किया है।

इस उपन्यास का नायक ग्रामीण परिवेश का नवयुवक है जो विद्या प्राप्ति के लिये गांव से शहर आता है। कठिन परिश्रम करता है। मेहनत, मजदूरी करता है और अपनी शिक्षा पूर्ण करता है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिए एक युवती के मार्मिक प्रेम को भी ठुकरा देता है।

इस उपन्यास की कथावस्तु अत्यंत ही रोचक व मनोरंजक होने के साथ-साथ आज के युवाओं के लिये शिक्षा के ज्ञान का अतुल भंडार है। इसमें गुरुदत्तजी ने युवाओं को यह संदेश दिया है कि लम्बी तपस्या और कठिन परिश्रम ही सफलता का मूल मंत्र है। ऐसी सफलता मिलने वाली अनुभूति का आनन्द कुछ और ही होता है।
प्रस्तुत उपन्यास लोकप्रिय है जो भाषा शैली, कथानक, शब्द-संयोजन, मनोरंजन, ज्ञान व प्रस्तुतिकरण प्रत्येक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट है।
निःसंदेह हिन्दी भाषी पाठकों के लिये श्री गुरुदत्त का यह उपन्यास एक मनोरंजक व ज्ञान का अनमोल खजाना साबित होगा।
एक पत्र द्वारा हमारे इस प्रयास पर अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।

प्रकाशक

प्रथम परिच्छेद

किसी कार्य के सफलतापूर्वक समाप्त होने पर जो शान्ति, सुख और आनन्द की अनुभूति होती है उसका वर्णन शब्दों में कर सकना सुगम नहीं। वर्णन करने वाला यदि कुशल हो तो, अधिक से अधिक, वैसी ही परिस्थिति में किसी अन्य की कल्पना कर दोनों की तुलना करते हुए ही अपने आशय को प्रकट कर सकता है।
सफलता जब लम्बी तपस्या और कठोर परिश्रम के उपरान्त मिली हो, तब तो इससे उत्पन्न अनुभूति का पारावार नहीं रह जाता।
विद्यानन्द की ऐसी ही अवस्था थी, जब उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के कार्यालय के बाहर लगे नोटिस-बोर्ड’ पर अपनी श्रेणी के परीक्षाफल को देखा।

परीक्षाफल एम.ए. अर्थशास्त्र विषय का था। दस उत्तीर्ण विद्यार्थियों के रोल नम्बर तथा परीक्षा में प्राप्त अंक लिखे थे। विद्यानन्द का रोल नम्बर उनमें था। और उसके रोल नम्बर तथा अंकों के नीचे लाल स्याही से एक रेखा खिंची थी और सामने लिखा था ‘रेकॉर्ड’।

यह पन्द्रह वर्ष की घोर तपस्या और परिश्रम का फल था। वह दस वर्ष की आयु में घर से विद्या-अध्ययन के लिए निकला था और एक भी पैसा अपने पिता से मँगवाये बिना, मेहनत-मजदूरी से उपार्जन करते हुए, अपनी शिक्षा का अन्तिम सोपान पार कर एक विचित्र प्रकार के सुख और आनन्द का अनुभव कर रहा था।

‘माउण्ड ऐवरेस्ट’ की चोटी पर पहुँचने वाले पर्वतारोही से क्या कम आनन्द मिल रहा है उसे ? अपने मन की अवस्था को वह समझ नहीं पा रहा था। अतः उस अवस्था में स्तब्ध, ज्ञानशून्य हुआ ‘बोर्ड’ की ओर देखने खड़ा हुआ तो फिर वह खड़ा ही रह गया।
अन्य विद्यार्थी आते थे और अपने को उत्तीर्ण छात्रों की सूची में उपस्थित अथवा अनुपस्थित देख प्रसन्न वदन अथवा उदास मन लौट जाते थे। विद्यानन्द वहीं अतीत की कठिन घड़ियों की स्मृति में उलझा हुआ, अपने वर्तमान से अनभिज्ञ, खड़ा ही रह गया।

इतना तो उसे विश्वास था कि वह उत्तीर्ण हो जाएगा और अच्छे अंक लेकर उत्तीण होगा, परंतु वह श्रेणी में प्रथम आयेगा और फिर विश्वविद्यालय का पूर्व ‘रेकॉर्ड’ पार कर जायेगा, इसकी वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता था।
अर्थ-व्यवस्था और अर्थ की मीमाँसा पर अपने प्राध्यापकों से उसका सदा मतभेद रहा था। केवल मतभेद ही नहीं, बल्कि तीव्र वाद-विवाद भी हो चुका था। उन प्राध्यापकों में एक थे पी. राय। उनके साथ तो वाद-विवाद भी होता रहता था वे मुख्य परीक्षक थे। इसके साथ ही प्रायः प्रत्येक प्रश्न-पत्र में विवादास्पद विषय पर प्रश्न थे। विद्यानन्द ने उन सब विवादास्पद विषयों वाले प्रश्नों पर विस्तार से लिखा था। उसने अपने विचार युक्ति और प्रमाण देकर बहुत ही ठीक ढंग से लिखे थे। इस पर भी मतभेद तो था और वह समझता था कि उस मतभेद की उपस्थिति में, कम से कम उन प्रश्नों में, शून्य नहीं तो बहुत कम अंक उसे मिले होंगे। अतः उसका विचार था कि उसको पूर्ण परीक्षा में प्रथम श्रेणी से वंचित कर दिया जाएगा, परन्तु अपनी स्थिति देख वह आश्चर्यचकित था।

वह इन विचारों में निमग्न, काल, स्थान और आने-जाने वालों के ज्ञान से रहित खड़ा था कि इस समय किसी ने उसके पीछे से कहा, ‘‘मिस्टर विद्यानन्द ! चलियेगा नहीं ?’’
वह चौंका और प्रश्न-कर्ता को देखने के लिए घूमा। प्रश्न-कर्ता को देख वह विस्मित उसका मुख देखने लगा।
यह एक लड़की थी। उसकी ही श्रेणी की छात्रा थी। उसने भी परीक्षा दी थी। उस लड़की ने, विद्यार्थी जीवन के पाँच वर्ष तक उसके साथ इकट्ठे पढ़ते हुए भी, कभी बात करने की कृपा नहीं की थी। इन पाँच वर्षों में केवल एक बार उससे विद्यानन्द का आमना-सामना हुआ था। श्रेणी के ‘स्टडी सर्कल’ में उसने कहा था कि अर्थ-व्यवस्था एक मिथ्या अर्थवाचक शब्द है। इसके स्थान पर नाम होना चाहिये धर्म-व्यवस्था। अर्थ पर धर्म की व्यवस्था एक स्वाभाविक नियम है। इस पर इस लड़की ने ताली बजाकर विद्यानन्द की हँसी उड़ाते हुए कहा था, ‘‘हमारे विद्वान कॉमरेड के कहने का अर्थ निकलता है कि कारखानों, बांधों, विद्युत-उत्पादन, संस्थानों, खेतों और व्यापार संस्थानों पर पण्डे, पुजारियों का नियन्त्रण हो जाना चाहिए।’

सब उपस्थित-गण हँस पड़े थे और लड़की ने यह समझा था कि उसने धोती-कुर्ता और चप्पल पहने विद्यार्थी का बहुत बढ़िया मजाक उड़ाया है।
विद्यानन्द इसका उत्तर देने लगा तो लड़की ने कहा था, ‘‘इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातों को सुनने के लिए हमारे पास समय नहीं है।’’ तब विद्यानन्द चुप हो गया था और इसके उपरान्त लड़की ने कभी इस निर्धन विद्यार्थी की ओर देखने का कष्ट नहीं किया था।
आज उसे ‘चलियेगा नहीं’ कहते हुए सुन वह विस्मय में पूछने लगा, ओह ! आप ? आपका रोल नम्बर क्या है ?’’
‘‘मेरा नम्बर भी आपके साथ सूची में है। मैं आपको पिछले पन्द्रह मिनट से यहाँ खड़े देख यह समझी थी कि कदाचित् आप अनुत्तीर्ण हो गए हैं, परन्तु मैंने देखा कि आपका नम्बर तो वहां है और फिर उसके नीचे लाल रेखा देख मैं चकित थी; परन्तु आप वहां से हिले ही नहीं। इस कारण मैंने यह प्रश्न पूछा है।’’

‘‘हां।’’ विद्यानन्द ने अब लड़की के साथ-साथ बरामदे की सीढ़ियां उतर सामने घास की ‘लॉन’ की ओर चलते हुए कहा, ‘‘जीवन की एक मंजिल समाप्त हुई। उससे जो अनुभव हुआ है, उसको समझने की लिये ही खड़ा था। जब विचार करने लगा तो बस फिर विस्मरण ही कर बैठा कि मैं कहाँ खड़ा हूँ ?’’
लॉन के किनारे पहुंच लड़की ने खड़े हो पूछ लिया, ‘‘इधर कहां जा रहे हैं ?’’
‘‘कोई स्थान देख रहा हूं जहां कुछ काल के लिये एकान्त में बैठ भूत और भविष्य की संधि अर्थात् वर्तमान को समझने का यत्न करूं।’’
‘‘और वर्तमान का सुख भोगने का विचार नहीं है क्या ?’’
‘‘समझकर ही तो भोग सकूंगा।’’

‘‘तो अभी तक आप समझे नहीं क्या ? देखिये, मैं आपको समझाती हूं। आप एम.ए. अर्थशास्त्र में उत्तीर्ण हो गये हैं। आपको सबसे अधिक अंक मिले हैं। यहां तक कि आज से पहले विश्वविद्यालय में इस विषय में किसी ने भी इतने अंक प्राप्त नहीं किये थे।
‘‘बताइये, समझ में आया है अथवा नहीं ? देखिये, अभी इतना समझना ही पर्याप्त होगा। अभी इतने मात्र का भास करना चाहिये। बताइये, आप इतने अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुए हैं तो मुझे चाय पिलायेंगे अथवा नहीं ?’’
‘‘इच्छा तो कर रहा हूं, परन्तु मीना जी ! इस समय मेरे पास डेढ़ रुपया है और मैं अपने परीक्षाफल का परिणाम तार द्वारा पिताजी को भेजना चाहता हूं। यह चाय का निमंत्रण दो दिन पीछे नहीं हो सकता क्या ?’’
‘‘पर विद्यानन्द जी ! मैंने चाय का निमन्त्रण माँगा है, उसके दाम नहीं। चलिये, निमन्त्रण आपका और दाम मेरा। ठीक है न ?’’
विद्यानन्द विचार कर रहा था कि आज मीना को क्या हो गया है ? यह उसकी हँसी उड़ाने का आयोजन है अथवा उसकी सफलता पर फूल चढ़ाना है।

उसने बात टालने के लिए कह दिया, ‘‘पर आप मुझ जैसे मूर्ख के लिए दाम क्यों व्यय करेंगी ?’’
‘‘मैं समझती हूं कि आज इस हेरा-फेरी के काल में मूर्ख विद्वान बन रहे हैं और विद्वान मूर्ख। मैं इसी बात को सिद्ध करने के लिये यह दावत आप से माँग रही हूं और दाम स्वयं व्यय करने का प्रस्ताव कर रही हूं।’’
‘‘तो इस उलटे चल रहे काल में आप भी उलटा चलना चाहती हैं ?’’
‘‘हां, और मैं विचार कर रही हूं कि जब दाम मुझे देना है तो विद्यानन्द जी की दावत विश्वविद्यालय की ‘कैंटीन’ में न होकर नई दिल्ली ‘वोलगा’ अथवा ‘वैगर’ में हो तो ठीक होगा। आखिर ‘रेकॉर्ड बीट’ करने वालों की दावत इस टटपुँजिये टिफिन रूम में तो ठीक लगती नहीं।’
विद्यानन्द समझ गया कि उसकी हँसी उड़ायी जा रही है। वह उससे छुट्टी पाने का बहाना ढूंढ़ने लगा। परन्तु मीना ने श्रेणी की एक अन्य लड़की सुधा को बुला लिया। वह भी अपनी परीक्षा का परिणाम देख घर को जा रही थी। मीना ने आवाज दे दी, ‘‘सुधा ! कहां जा रही हो ?’’
‘‘घर।’’
‘‘घर क्या है ?’’
‘‘माँ मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रही होगी। मैं उसे कहकर आई हूं कि मैं परीक्षाफल देखने जा रही हूं।’’

‘‘तुम्हारे तो घर पर टेलीफोन है। मैं अभी टेलीफोन कर दूंगी। देखो, कॉमरेड विद्यानन्द ने ‘रेकॉर्ड’ तोड़ा है। इस उपलक्ष में ये चाय पार्टी दे रहे हैं। ये तुमको आमंत्रित कर रहे हैं।’’
सुधा ने विद्यानन्द के मुख पर देखा। वह मुस्करा रहा था।
सुधा ने समझा कि कालेज के टिफिन रूम में चाय पार्टी होगी। उसने कहा, ‘‘तब तो ठीक है। मैं घर पर टेलीफोन कर रही हूं। मीना ! तुम्हारे पास तीस पैसे हैं तो देना।’’
‘‘चलो, ‘‘वैंगर’ में चलकर टेलीफोन करेंगे। मैं तुम्हें मोटर में लिये चलती हूं। पर, एक बात है। तीन आदमी ठीक नहीं। एक कोई और मिल जाये तो चाय हो जाये।’’

सुधा ने कह दिया, ‘‘वह देखो, डॉक्टर राय इधर ही आ रहे हैं।’’
‘‘उनसे कहने में डर लगता है।’’
‘‘उनको विद्यानन्द स्वयं कह देंगे।’’
इस समय डॉक्टर राय की दृष्टि इन पर पड़ गयी। वह कहीं जाते-जाते इनकी ओर ही लौट पड़े। इस पर सुधा ने कह दिया, ‘‘डॉक्टर साहब तो इधर ही आ रहे हैं।’’
‘‘मिस्टर विद्यानन्द ! डॉक्टर साहब को निमन्त्रण आप ही देना। यही ठीक रहेगा।’’
विद्यानन्द कहने वाला था कि जो दाम दे रहा है, वही निमन्त्रण दे, परन्तु इस समय तक डॉक्टर साहब समीप आ कहने लगे, ‘‘हैलो बॉय ! बताओ, अपने अंक देखे हैं ?’’
‘‘जी।’’ विद्यानन्द ने कह दिया।
‘‘मैं तुमको बधाई देता हूं।’’
‘‘सब आपकी कृपा है। मैं आप सब गुरुजनों का आभारी हूं।’’
डॉक्टर हँस कर बोले, ‘‘मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है।’’

इस समय मीना कुमारी ने ही कह दिया, ‘‘तो डॉक्टर साहब ! एक कष्ट करिये। विद्यानन्द जी अपने ‘रेकॉर्ड बीट’ करने के उपलक्ष में चाय पार्टी दे रहे हैं। यदि आप इस अवसर की शोभा बढ़ाने की कृपा करें तो हमें बहुत प्रसन्नता होगी।’’
‘‘यह दावत एक दो दिन के टल नहीं सकती क्या ?’’
‘‘मैं तो रात की गाड़ी से नैनीताल जा रही हूं और विद्यानन्द जी भी कदाचित् यहां नहीं होंगे।’’
‘‘मेरे पास एक घण्टा है।’’ डॉक्टर साहब ने कलाई में बंधी घड़ी देखते हुए कहा।
‘‘बहुत है डॉक्टर साहब !’’ मीना ने ही उत्तर दिया, ‘‘मैं आपको अपनी गाड़ी से यहां तक छोड़ जाऊंगी।’’

बात बन गयी। चारों मोटर गाड़ी की ओर चल पड़े। चलते हुए डॉक्टर ने पूछ लिया, ‘‘विद्यानन्द ! कहां चलना होगा ?’’
विद्यानन्द के कुछ कहने से पूर्व ही मीना ने गाड़ी का द्वार खोलते हुए कह दिया, ‘‘वैंगर से तो कम हो सकती ही नहीं।’’
‘‘बहुत दूर है।’’
‘‘डॉक्टर साहब ! मोटर गाड़ी पास हो तो क्या दूर है ? बैठिये।’’
डॉक्टर पिछली सीट पर बैठा तो विद्यानन्द उनके पास बैठ गया। मीना और सुधा आगे बैठ गयीं। मीना स्वयं गाड़ी चला रही थी।

:2:


‘‘विद्यानन्द ! तुम्हारी इस दावत से मैं यह तो समझ गया हूं कि तुम इतने अंक लेने से प्रसन्न हो, परन्तु तुम यह जानते नहीं कि यह कैसे हुआ है ? यदि तुम इसे एक रहस्य समझ कर मन में रख सको तो मैं तुमको बता सकता हूं ?’’
‘‘यदि आप इसे ‘रहस्य’ समझते हैं तो मैं वचन देता हूं कि किसी से नहीं कहूंगा।’’

‘‘यह तो एक खुला रहस्य है कि मैं अर्थशास्त्र की परीक्षा में मुख्य परीक्षक था और सब पर्चों का पुनरावलोकन करने का मेरा अधिकार था। प्रथा यह है कि मुख्य परीक्षक प्रत्येक परीक्षक से अंकित पर्चों में से कोई एक-आध पर्चा निकालकर उसके अंक लगाने की शैली का निरीक्षण कर लेता है। यदि अंक लगाने में कुछ कठोरता अथवा नम्रता का अनुभव हो तो पर्चे उचित टिप्पणी के साथ परीक्षक को लौटा दिये जाते हैं। उसे उन पर पुनरावलोकन करने के लिए कहा जाता है।
मैंने एक बंडल में से एक पर्चा निकाला तो उसमें अंक पचनावे प्रतिशत थे। मैंने विस्मय अनुभव करते हुए पर्चा पढ़ा तो मुझे समझ में आया कि दस-पन्द्रह प्रतिशत से अधिक अंक नहीं होने चाहिये। मैंने दूसरे परीक्षकों के बण्डल में से उसी रोल-नम्बर का उत्तर-पत्र निकालकर देखा तो उसमें उस विद्यार्थी के बानवे प्रतिशत अंक थे। मैंने उस पर्चे को भी पढ़ा। मेरी समझ में उस छात्र को तीस-पैंतीस प्रतिशत से अधिक अंक नहीं मिलने चाहिए थे। इस प्रकार बारी-बारी से सब बण्डल देखे। एक परीक्षक ने, नाम नहीं बताऊंगा, तुमको पचपन प्रतिशत अंक दिये थे। वह उत्तर-पत्र भी मैंने पढ़ा वह मूल्यांकन मुझे ठीक प्रतीत हुआ। मैंने उत्तर-पत्र बदलकर परीक्षकों के पास पुनः भेज दिये और उनको लिखा कि इस उत्तर पत्र को ध्यान से देखा जाये।

‘‘परिणाम आशा से उल्टा हुआ। उस उत्तर-पत्र के अंक जिसमें पचपन प्रतिशत थे, बढ़ाकर नब्बे प्रतिशत कर दिये गये। जिस परीक्षक ने उस छात्र को केवल पचपन प्रतिशत अंक दिये थे, उसके पास वह उत्तर-पत्र गया जिसमें पचानवें प्रतिशत अंक दिये गये थे। उस परीक्षक ने इस छात्र को साठ प्रतिशत अंक दिये थे। शेष लगभग वैसा ही मूल्यांकन रहा जैसा पहले था। इस पर मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने उन छः परीक्षकों में से तीन जो दिल्ली में थे, उनको चाय पर आमन्त्रित कर लिया और उसी छात्र के विषय में बातचीत की। मैंने पूछा, ‘जबकि इस छात्र के उत्तर वर्तमान मुख्य सिद्धांतों के विपरीत हैं तो आप सबने उस छात्र को किस प्रकार लगभग शत-प्रतिशत अंक दे दिये हैं ?’’

‘‘इस पर पहले तो वे बेचारे मेरा मुख देखते रह गये, परन्तु फिर एक-एक करके उस छात्र की सफाई देने लगे। एक परीक्षक ने युक्ति यह दी कि विद्यार्थियों के विषय को समझने और उसके विषय को उपस्थित करने की योग्यता की परीक्षा की जाती है। उसके वर्तमान और प्राचीन मतों के मानने न मानने की परीक्षा नहीं की जाती। उसने यह कहा कि विचाराधीन छात्र ने जिस योग्यता से प्रत्येक प्रश्न को समझा है और उसका विश्लेषण उपस्थित किया है, उसकी वह प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता।

‘‘मैं विवश हो गया और मुझे उन उत्तर-पत्रों के प्रथम मूल्यांकन को स्वीकार करना पड़ा। जब पूर्ण परिणाम, प्रकाशित होने के लिए मेरे पास आया तो मैंने देखा कि वह छात्र तुम हो। मैं स्वयं चकित था। यदि मैं अकेला उत्तर-पत्र देखने वाला होता तो तुमको कठिनाई से थर्ड डिवीजन देता।’’
‘‘डॉक्टर साहब ! तब तो मुझे आपका और भी अधिक आभारी होना चाहिये। आपने अपने अन्तरात्मा की पुकार के विपरीत मुझे यह शोभा प्रदान की है।’’

‘‘देखो विद्यानन्द ! मेरा तुमसे अथवा किसी से भी बैर नहीं है। केवल मुझे अपनी युक्तियां ही सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होती हैं। और यद्यपि उस परीक्षक की बात का सिद्धान्त रूप से मैं खण्डन नहीं कर सका; इसलिए स्वीकार भी नहीं कर सका।’’
इस पर सुधा जो मीना के पास बैठी पूर्ण वार्तालाप सुन रही थी, बोल पड़ी, ‘‘प्रोफेसर साहब ! जब सिद्धान्त का खण्डन नहीं हो सका तो फिर क्या बात है आप स्वीकार नहीं कर सके ?’’
‘‘विद्यानन्द के निष्कर्ष को स्वीकर नहीं कर सका। ये निष्कर्ष आज से एक सौ वर्ष पहले के अर्थशास्त्री बताया करते थे। पिछले एक सौ वर्ष में संसार का अनुभव और सूझ-बूझ बहुत आगे निकल चुकी है।’’

इस समय वे वैंगर के नीचे जा पहुँचे। मीना ने गाड़ी ‘पार्क’ की और उसमें से चारों निकल रेस्टोरां के ऊपर चढ़ गए। वहां ऊपर पहुंचते ही सुधा घर पर टेलीफोन करने चली गई।
साढ़े चार बज रहे थे और चाय पीने वालों की भीड़ हो रही थी। अतः बैरे को इन तक पहुंचने में देर हो रही थी। डॉक्टर राय ने विद्यानन्द से पूछ लिया, ‘‘अब क्या करोगे ?’’
‘‘किसी कालेज में काम पाने की आशा करने लगा हूं।’’
‘‘यह दिल्ली में तो हो नहीं सकेगा। परीक्षा में अधिक अंक ले लेने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि तुम ठीक अध्यापन भी कर सकोगे। तुम्हें तो मैं जानता हूं तुम अर्थशास्त्र की पुरानी पद्धति के मानने वाले हो। इस प्रकार के गये जमाने की बातें पढ़ाने के लिए सरकार करोड़ों रुपये विश्वविद्यालय पर व्यय नहीं कर रही।’’

मीना ने कुछ व्यंग्य के भाव में कह दिया, ‘‘डॉक्टर साहब ! क्या आज की दावत से आपके प्रेजुडिसेज (पूर्वाग्रह) में कुछ अन्तर नहीं पड़ेगा ?’’
डॉक्टर खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसने हँसते हुए कहा, ‘‘वे पूर्वाग्रह नहीं हैं, मीना कुमारी। वे अनुभव, युक्ति और प्रमाण से सिद्ध विचार हैं।’’
‘‘परन्तु प्रोफेसर साहब ! आप मार्ग में तो यह कह रहे थे कि युक्ति से आप इनके उत्तर-पत्रों के परीक्षकों को समझा नहीं सके थे। जो बात युक्ति से न समझी जा सके, इस पर भी मानी जाये, वही तो पूर्वाग्रह होते हैं।’’
डॉक्टर अपने को निरुत्तर पाने लगा। इस समय सुधा आई और बोली, ‘‘माँ नाराज हो रही है। मेरे बताने से पहले ही वह मेरा परीक्षाफल जान चुकी थीं। कोई, जो मुझमें रुचि रखता है, मेरे अंकों का पता कर मुझे बधाई देने घर आ पहुँचा है और मैं किसी अन्य को बधाई देने यहां आ बैठी हूं।’’
‘‘तो सुधा !’’ विद्यानन्द ने कह दिया, ‘‘तुम्हारी बधाई मिल गई। तुम अब मीना का धन्यवाद कर स्वयं बधाई लेने घर जा सकती हो।’’




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