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यह संसार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5284
आईएसबीएन :000000

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मानव धर्म पर आधारित उपन्यास...

Yah sansar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद् दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको अथाह सागर देख उसी में रम गये।
वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।

भूमिका

‘यह संसार’ स्व. श्री गुरुदत्त का पारिवारिक-सामाजिक उपन्यास है। इसमें धर्म और मजहब की विस्तार से विवेचना की गई है। यत्र-तत्र राष्ट्रीयता का वर्णन भी इस उपन्यास में किया गया है। मनुष्य के वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक आचरण पर इस उपन्यास में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। मनुष्य का पहरावा और खान-पान तथा रहन-सहन किस प्रकार मनुष्य अथवा समाज को प्रभावित करते हैं, इसका विशद वर्णन उपलब्ध है।

ऐसा देखने में आता है कि परिवार तथा समाज की मुख्य समस्या विवाह संबंधों को लेकर उत्पन्न हुई है। दो आर्यसमाजी परिवार तथा दो ईसाई परिवारों की सामाजिक गुत्थी को इस उपन्यास में बड़े तार्किक और मार्मिक रीति से सुलझाया गया है। समुदायेतर संबंधों को उपन्यासकार ने सदा ही ग्राह्य माना है। किन्तु इसके लिए परस्पर समन्वय और सामंजस्य होना भी नितान्त अनिवार्य बताया है।

हिन्दू जीवन-दर्शन के प्रति उपन्यासकार गुरुदत्त सदा सजग रहे हैं। उनके अकाट्य तर्क पाठक को बरबस उस दिशा में विचार करने के लिए बाध्य कर देते हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यास का पाठक जब समाज में स्थापित होने लगता है तो अपनी बात बड़ी स्पष्टता से कहने में समर्थ हो जाता है। हिन्दी पाठकों को उनकी यह विशेष देन है। वे जिस विचारधारा का प्रतिपादन करते हैं, अपने पाठक को भी उसी प्रवाह में सम्मिलित कर लेते हैं। इस प्रकार उसकी बुद्धि के परिष्कृत होने में वे सहसा सहायक बन जाते हैं। यही उनकी विशेषता है।

प्रस्तुत उपन्यास में आर्यसमाज की विचाधारा और आर्यसमाजियों के आचरण पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। किसी समुदाय का मात्र सदस्य होना एक बात है, और उस विचारधारा को हृदयंगम कर तदनुरूप अपने जीवन का संचालन करना सर्वथा पृथक बात है। इसी को इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने कहलवाया है- ‘‘....आर्यसमाज कहो अथवा वैदिक धर्म कहो, इसमें ज्ञान-ध्यान की महिमा तो है परन्तु आचरण की कुछ अधिक महिमा नहीं मानी जाती। कर्म ही मोक्ष दिलाता है, ऐसा आर्यसमाज मानता है। परन्तु क्षमा करें, आपके परिवार में बातों की महिमा को आचरण से ऊँचा समझा जाता है।’’
वर्तमान में आर्यसमाजियों की यही स्थिति है, जबकि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द ने आचरण पर ही विशेष बल दिया है।

मत-मतान्तर और राष्ट्रीयता का इस उपन्यास में विस्तार से उल्लेख किया गया है। हिन्दू युवक का ईसाई कन्या से तथा हिन्दू कन्या का ईसाई युवक से लगाव होना इस उपन्यास का ताना-बाना होने के कारण हिन्दुत्व और ईसाइयत की इस उपन्यास में तर्कपूर्ण व्याख्या की गई है। वैदिक नामधारी होने से ही कोई हिन्दू नहीं हो सकता और जौन, पौल आदि नामधारी होने से ही कोई ईसाई भी नहीं हो सकता। प्रश्न मनुष्य की राष्ट्रीयता और विचारधारा का होता है। विचारों तथा आचरण से शुद्ध-पवित्र व्यक्ति किसी भी मत का मानने वाला हो, वह वास्तव में मानव है और मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है।

मनु द्वारा प्रतिपादित दस लक्षणों की इसमें व्याख्या और विवेचना की गई है। भारत में रहने वाला यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति भारतीय कहला सकता है, किन्तु क्या उसका आचरण भी भारतीयता से सामंजस्य स्थापित कर सकता है ? यही सबसे बड़ा प्रश्न है। जो व्यक्ति मन-वचन-कर्म से भारतीय है वही वास्तव में भारतीय है, फिर उसका सम्प्रदाय अथवा मजहब हिन्दू, मुसलमान अथवा ईसाई कुछ भी हो। भारतीयता ही मुख्य है।
इन सब विषयों को कथावस्तु का आधार बनाकर   इस उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है। यह तो पाठक पर ही निर्भर करता है कि वह अपनी बुद्धि के आधार पर किस विचारधारा को ग्राह्य मानता है और किसको अग्राह्य।

-अशोक कौशिक
(संपादक)

वैदिक नामधारी होने से ही कोई हिन्दू नहीं हो सकता और जौन, पौल आदि नामधारी होने से कोई ईसाई भी नहीं हो सकता। प्रश्न मनुष्य की राष्ट्रीयता और विचारधारा का होता है। विचारों तथा आचरण से शुद्ध-पवित्र व्यक्ति किसी भी मत का मानने वाला हो, वह वास्तव में मानव है और मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है।
मनु द्वारा प्रतिपादित दस लक्षणों की इसमें व्याख्या और विवेचना की गई है। भारत में रहने वाला यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति भारतीय कहला सकता है, किन्तु क्या उसका आचरण भी भारतीयता से सामंजस्य स्थापित कर सकता है ? यही सबसे बड़ा प्रश्न है। जो व्यक्ति मन-वचन-कर्म से भारतीय है वही वास्तव में भारतीय है, फिर उसका सम्प्रदाय अथवा मजहब हिन्दू, मुसलमान अथवा ईसाई कुछ भी हो। भारतीयता ही मुख्य है।

प्रथम परिच्छेद
1

‘‘मैं तो मानता हूँ कि पाप-पुण्य अपने-अपने समझने की बात है। आप लोग जो बार-बार शास्त्र, सिद्धान्त और वेद की बात कहते रहते हैं उसे मेरी बुद्धि स्वीकार नहीं कर सकती।’’
पाँव में गले तक योरोपियन पहिरावा पहने हुए एक व्यक्ति, अपनी एक एकड़ भूमि पर बनी दो मंज़िली कोठी के भूमि तल पर, प्रत्येक प्रकार की सुख-सुविधा से युक्त ड्राइंगरूम में बैठा, धोती, कुर्ता पहने और पगड़ी बाँधे हुए एक व्यक्ति को समझा रहा था। कहने वाला व्यक्ति सिर से नंगा था। वह घर का स्वामी था। धोती-कुर्ता पहने व्यक्ति अपने दो साथियों के साथ उसके निमन्त्रण पर भोजन करने के लिए आया हुआ था।

नगर में आर्यसमाज का वार्षिक उत्सव हो रहा था और केसरिया पगड़ीधारी महाशय नत्थूराम उत्सव में भजनीक के रूप में पधारे थे। उत्सव में पंडितजी ने बहुत ही मीठी और ओजपूर्ण वाणी में भजन गाये थे और उपदेश दिया था। पंडितजी के भजनोपदेशों से कोठी के स्वामी श्री स्वामी पी.एन. ग्रोवर साहब की पत्नी श्रीमती प्रमिला ग्रोवर बहुत प्रभावित हुई थीं और वास्तव में यह निमन्त्रण उन देवीजी के आग्रह पर ही उनके पति मिस्टर ग्रोवर ने दिया था।
श्री ग्रोवर आर्यसमाज के प्रधान थे और श्रीमती ग्रोवर ने यह ठीक समझा कि पंडित नत्थूरामजी जैसे प्रभावी उपदेशक को प्रधान के बारे में घर में बढ़िया भोजन खिलाकर तृप्त किया जाय। जब पंडित जी को बुलाया गया तो उनके साथ बाहर से आये दो अन्य वक्ताओं को भी आमन्त्रित कर लिया गया। ग्रोवर साहब ने आर्य-समाज के चार-पाँच अन्य प्रमुख व्यक्तियों को भी आमन्त्रित किया हुआ था।

मुख्य अतिथि जो पंडित नत्थूरामजी ही थे। अन्य व्यक्ति तो गौण थे। उसका कारण यह था कि उन अन्य लोगों के भाषण में श्रीमती ग्रोवर को वह रस नहीं मिला था जो उनको पण्डित जी के भजनों और उपदेशों से प्राप्त हुआ था।
श्रीमती ग्रोवर द्वारा आमन्त्रित अन्य अतिथि अभी तक नहीं आये थे और उनकी प्रतीक्षा में बैठे हुए ही समय निकालने के लिए आतिथेय महोदय अपने मनोद्गार प्रकट रहे थे।
पंडित नत्थूराम ने उसी सायंकाल अपने एक भजन में गाया था-

दान धर्म और पुण्य कर्म से
तो स्वर्ग द्वार खुल जाते हैं।
यह हम साधन प्रभू लीला से,
हम इसी देह में पाते हैं ।।

ग्रोवर साहब इस दान-धर्म और पुण्य-कर्म की व्याख्या कर रहे थे। श्रीमती ग्रोवर तो भजन के लिए मेज़ लगवा रही थीं और ग्रोवर साहब का सुपुत्र, भूषण अतिथियों के स्वागत के लिए कोठी के द्वार पर खड़ा था।
पंडित नत्थूराम ग्रोवर साहब की उक्ति को समझने के यत्न में लीन होने के कारण अभी मौन थे। ग्रोवर साहब पंडितजी को मौन देख यह समझे कि उस व्यक्ति को, जिसने उत्सव में दस सहस्त्र से भी अधिक नर-नारियों को अपने भजनों से मंत्रमुग्ध किया हुआ था, उन्होंने निरुत्तर करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। इससे गर्व से फूलते हुए ग्रोवर साहब ने अपना वक्तव्य जारी रखा।

वे कहने लगे, ‘‘मैं एक बात जब सुन लेता हूँ तो फिर उसे समझकर स्वीकार अथवा अस्वीकार कर देता हूँ। तदुपरान्त मुझे उस बात को पुन: सुनने में रुचि नहीं रहती और आप तो वही परमात्मा-आत्मा की बात अनादि काल से अनन्त काल तक करते जाते हैं।’’
पंडित नत्थूराम यह अनुभव करने लगा था कि यह धनी-मानी व्यक्ति उस सदृश साधारण आर्थिक स्थिति के भजनोपदेशक का अपमान करने के लिए ये सब बातें कह रहा है। वह स्वयं को छोटा समझता हुआ, मौन रहने में अपना कल्याण समझने लगा था।

इसी समय भूषण भी शेष आने वाले चार सज्जनों को लेकर भीतर आ गया था। ये लोग एक ही मोटर गाड़ी में आये थे। इसमें एक ठेकेदार थे। उनका नाम था लाला रामनारायण। ये भी लखपति थे और नगर में पाँच-छ: कोठियों के मालिक थे अन्य लोग भी आर्य समाज के संगठन में सक्रिय भाग लेने वाले थे।

पंडित नत्थूराम ने समझा कि अब तो ग्रोवर साहब की डाँट-डपट से छुट्टी मिलेगी। उसका विचार था कि अपने ही नगर के अन्य आर्यसमाजियों के सामने ग्रोवर साहब सिद्धान्त के विरुद्ध बात नहीं केरेंगे। परन्तु ग्रोवर साहब अपने स्वभाव से विवश थे और अब नत्थूराम को छोड़कर नगर के बाहर से आये एक अन्य व्याख्यानदाता को सम्बोधन करते हुए बोले, ‘‘क्यों साहब ! आप तो पढ़े-लिखे व्यक्ति प्रतीत होते हैं। आप भी क्या ऐसा ही समझते हैं जैसे कि पुराने विचारों के लोग समझते हैं ?’’


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