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बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5288
आईएसबीएन :000

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित अनूठा उपन्यास है ‘वनवासी’।

Banvasi a hindi book by Gurudutt - बनवासी - गुरुदत्त

प्राक्कथन

भारत का पूर्वांचल, अरुणोदय का प्रदेश, उसी प्रदेश के वन्य प्रान्तों में अनेक जन-जातियाँ निवास करती हैं। उनके अपने-अपने रीति-रिवाज हैं, परम्परायें हैं, प्रचलन हैं, पूजा अर्चना के विविध प्रकार हैं। सब कुछ उनका अलग ही हो, ऐसी बात भी नहीं है, अन्ततोगत्वा हैं तो वे भारतवासी ही। उनके पूर्वज और हमारे पूर्वज तो एक ही थे। सभ्य समझे जाने वाले देश के शेषभाग में आज जो रीति-रिवाज अथवा परम्परायें प्रचलित हैं, वे आदिकाल से चली आ रही हों ऐसी बात भी नहीं है। ज्यों-ज्यों शासक और शासन में परिवर्तन होता गया, इन प्रचलनों में भी उसी अनुरूप और अनुपात में परिवर्तन होते गये। परन्तु पूर्वांचल तक विदेशी शासकों की पहुँच बहुत विलम्ब से हुई। यहाँ तक कि मुगल प्रशासकों को वहाँ तक पहुँच पाने का तो अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ। किन्तु अंग्रेज शासकों को वह अवसर शीघ्र सुलभ हो गया। उसका मुख्य कारण कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्य कार्यालय होना माना जा सकता है। भारत में अंग्रेजों का प्रवेश जल मार्ग से हुआ, जबकि मुगलों का प्रवेश थल मार्ग से। मुगल पश्चिम से प्रविष्ट हुए और अंग्रेज़ पूर्व और दक्षिण से। यही कारण है कि पश्चिमोत्तर प्रान्तों में मुस्लिम संस्कृति ने अपनी जड़ें, जमाने का यत्न किया। इसी प्रकार अंग्रेज़ों, की जड़ें दक्षिण-पूर्वी भाग में जमती गईं।

‘वनवासी’ का अभिप्राय उस वनवासी से नहीं है जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भाँति वन में वास करने के लिए चला जाता है अथवा अपना घर बार छोड़कर संन्यास ग्रहण कर वनों में जाकर तपस्या करता है। ‘वनवासी’ ऐसी वन्य जाति की कहानी है जो आदिकाल से पूर्वांचल के वनों में वास करते आ रहे हैं। जैसा कि हमने कहा है, उनके अपने रीति-रिवाज हैं, परम्परायें हैं। वे बड़े ही सरल चित्त प्राणी हैं। जिस काल की यह कहानी है उस काल में उनमें इतना अन्तर अवश्य आ गया था कि अपनी उपज को निकट के नगरों और उपनगरों में ले जाकर बेचने लगे थे। इससे वे अपनी उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे थे जो शहरी सभ्यता के सम्पर्क में आकर उन्होंने अपना ली थी। यहीं से उनके पतन की कहानी भी आरम्भ होती है।

जिस स्थान का यह कथानक है वहाँ पर एक गाँव में एक कबीला रहता है। कबीला बढ़कर अब दूसरे कबीले के सम्पर्क में आने के कारण कबीले में कुछ बाहरी तत्वों का भी प्रवेश हो गया है। सामान्यतया उनमें परस्पर विवाह आदि गाँव के भीतर ही होते हैं। गाँव की पंचायत और गाँव के पुरोहित के आदेश ग्रामवासियों को सर्वमान्य होते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों वे अन्य कबीलों के संपर्क में आते गये त्यों-त्यों उनमें भी विकृति बढ़ती गई। परिणामस्वरूप कुछ लोग उतने सरलचित नहीं रहे जितनी कि उनसे अपेक्षा की जाती थी।
पंचों के मन में मैल आ जाना और पुरोहित का मन विचलित हो जाना, स्वाभाविक हो गया। इसके परिणामस्वरूप कुटुम्बरूपी उस गाँव में विघटन के विष बीज पनपने लगे, यह सब अंग्रेजी सभ्यता और शासन की देन थी जो उन्हें समीप के नगरों के संसर्ग से मिली थी।

विदेशी शासन अभिशाप होता है। अंग्रेज़ शासक अपने उस अभिशाप को तथाकथित वरदान के रूप में इस देश में लेकर आये थे। जहाँ मुगलों ने तेग और तलवार अपने सम्प्रदाय की वृद्धि का बीड़ा उठाया वहाँ अंग्रेजों ने लोभ-लालच का मार्ग अपनाया। स्वाभाविक है, अंगेज इस दुष्टक्र में सफल होते गये और आज भी उनका वह दुष्चक्र प्रचलित है।
पूर्वांचल की आज जो स्थिति है उसका पूर्वाभास हमारे उपन्यासलेखक को आज से तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व हो गया था। यहाँ यह स्मरण रहे कि ‘वनवासी’ उपन्यास का रचनाकार 1956 है। उसका दिग्दर्शन उन्होंने अपने इस उपन्यास में किया है कि किस प्रकार ईसाई षड्यन्त्र भोले-भाले वनवासियों को अपने अधिकार में लेकर उनको पथच्युत कर रहा है। उपन्यास के नायक-नायिका तथा उनके माता-पिता पर जो कुछ बीता है वह भारतवासियों को संकेत देता है कि एक दिन ऐसा आएगा जब पूर्वांचल से भारतीयता सर्वथा लुप्त हो जाएगी। यदि उस समय के शासकों अथवा राजनेताओं ने इस ओर ध्यान दिया होता तो पूर्वांचल की जो स्थिति आज है वह न होती। आज पूर्वांचल शेष भारत से सर्वथा पृथक्-सा हो गया है। वहाँ पर ईसाई-वर्चस्व स्थापित हो गया है। वे स्वयं को भारतवासी मानने के लिए उद्यत नहीं हैं। आज जहाँ नागालैण्ड बन गया है। उसके आसपास के वनों की यह कहानी आज से पैंतीस वर्ष पूर्व हमारे उपन्यासकार ने बखान कर दी थी।

ईसाइयों द्वारा लोभ-लालच की यह प्रक्रिया देश के उन सभी प्रदेशों में प्रचलित है जहाँ निर्धनता है, जीवन के विभिन्न साधनों का अभाव है। ईसाई मिशनरी अपने घर से हजारों मील दूर आकर उनमें अपने पंथ का प्रचार करते हैं और उनके प्रचार का ढंग होता है वहाँ के वासियों को सुख–सुविधा के जीवन के प्रति आकर्षित करके उन्हें वे सुख-सुविधायें प्राप्त कराने का आश्वासन। न केवल आश्वासन अपितु आरम्भ में वे उनको अपनी ओर से उन सुख-सुविधाओं को उपलब्ध भी कराते हैं। इसके लिए ईसाईबहुल सम्पन्न देशों से अकूत धन इस देश में आ रहा है। जब वनवासी पूर्णतया आश्वस्त होकर ‘प्रभु ईसा’ के बाड़े की भेड़ के रूप में पहुँच जाते हैं तो उसके बाद भी उनका विशेष ध्यान रखा जाता है। जबकि हिन्दू किसी का प्रत्यावर्तन करते भी हैं तो उसको अपने कुल और परिवार में सम्मिलित नहीं करते। न उसका कोई कुल होता है और न गोत्र। जबकि ईसाई बनते ही उसको कुल गोत्र सबकुछ प्राप्त हो जाता है। ईसाई बनते ही वह हिन्दुओं में भी सम्मान प्राप्त कर लेता है।

इसी पृष्ठभूमि पर इस उपन्यास की रचना की गई है। उपन्यासकार ने न केवल नायक के माध्यम से अपितु उसके माता-पिता जो स्वयं भी पतित होकर पुनः अपने पंथ में लौटने के लिए छटपटा रहे हैं, उनके माध्यम से भी अपने पाठकों को बताने का यत्न किया है कि किस प्रकार धर्मान्तरण किया जाता है, धर्मान्तरित की क्या मानसिकता होती है, ईसाई मिशनरी किस अपना दुष्चक्र चला रहे हैं और उसका निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है।
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित अनूठा उपन्यास है ‘वनवासी’।

अशोक कौशिक

प्रथम परिच्छेद
1

चौधरी धनिक का लड़का बड़ौज दस कोस की पैदल यात्रा कर अपनी बस्ती में पहुँचा। वनवासी पहाड़ियों की यह बस्ती असम देश की एक पहाड़ी की तलहटी में घने जंगल से घिरी हुई थी। इस बस्ती में पचास के लगभग झोंपड़े थे और उनमें इतने ही परिवार रहते थे। ये लोग वन्य पशुओं का शिकार करते थे और अपनी आवश्यकताओं के लिए उन पशुओं की खालें तथा अस्थियाँ बेचने के लिए समीप के नगरों में जाते रहते थे। यह बस्ती सभ्य और असभ्य संसार की मध्यवर्ती सीमा पर थी।

जब, जहाँ भी मानवों का समूह बनता है, वहीं उनका कोई नेता, चौधरी, प्रधान अथवा राजा बन जाता है। यह आवश्यक भी होता है। मानव प्रकृति एक समान नहीं होती और उच्छृंखल प्रकृति वालों को नियंत्रण में रखने के लिए सर्वमानित नेता अर्थात् प्रधान बनाना आवश्यक हो जाता है। यह प्रथा सभ्य-असभ्य नगरों में बसे हुओं अथवा वनवासियों, सबमें समान रहती है। उस सरगने अथवा चौधरी की मान-प्रतिष्ठा ही उस क्षेत्र में, जिसमें उसका काम होता है, व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होती है।

इसी आवश्यकता के अनुसार नागाओं के इस कबीले का चौधरी धनिक अपने कबीले में सम्मानित और प्रतिष्ठित माना जाता था। अपनी युवावस्था में वह अति बलशाली और सबसे अधिक बुद्धिमान पिता का पुत्र समझा जाता था। इसका पिता भी चौधरी था। यौवनारम्भ में धनिक ने कबीले की सर्वश्रेष्ठ सुन्दर कन्या सोना से विवाह कर लिया था।
सोना के माता-पिता इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे, परन्तु सोना के हठ के सम्मुख उनको नतमस्तक होना पड़ा। वे समझते थे कि धनिक के पिता ने अपनी पदवी का अनुचित लाभ उठाकर उनकी लड़की को बरगलाया है। सोना के धनिक को स्वीकार करने पर ही कबीले के सब परिवारों ने इस संबंध को स्वीकार किया था और इस अवस्था में सोना के माता-पिता को चुप रह जाना पड़ा। उनका अपना विचार तो अपनी लड़की को कबीले के बाहर एक नागा युवक के साथ, जो अब खेती-बाड़ी करने लगा था, विवाह करने का था। इस सम्बन्ध में वह कई बार सोना के माता-पिता से मिलने के लिए भी आया था। परन्तु सोना का चयन तो धनिक ही था।

इस बात को बीते बीस वर्ष हो गए थे। धनिक के माता-पिता का देहान्त हो गया था और अब धनिक स्वयं चौधरी बन गया था। सोना का लड़का अब अपना तीर कमान लेकर स्वतन्त्र रूप में शिकार खेलने के लिए जाता था और माता-पिता को अतिप्रिय था। सोना इच्छा कर रही थी कि वह उस जैसी ही सुन्दर कन्या के साथ विवाह कर उनका कुल चलाएगा। परन्तु कबीले में उसकी दृष्टि में अपने लड़के के लिए कोई लड़की ही नहीं जँचती थी।

फिर भी बड़ौज की बहू का निर्वाचन हो चुका था। आज से तीन वर्ष पूर्व। वह भी कबीले की ही एक लड़की थी। उसका नाम था बिन्दू। लड़के-लड़की में बात हो चुकी थी। परन्तु लड़की के माता-पिता को बताया नहीं गया था। बिन्दू की विवाह-योग्य आयु हो गई है अथवा नहीं, इसका निश्चय होना था; और यह निश्चय कबीले के पुरोहित साधु को करना था।
प्रथा के अनुसार इस निश्चय के होने की सूचना लड़की के माता-पिता को मिलती तो वे उसको वधुओं के पहनने योग्य उत्तरीय से ढाँप देते और फिर इस बात का समाचार कि अमुक लड़की के विवाह का समय आ गया है, कबीले में फैल जाता था। उचित युवक उसके लिए यत्न करते और माता-पिता तथा चौधरी की अनुमति से विवाह हो जाता।
बिन्दू के विषय में पुरोहित की घोषणा होती ही नहीं थी। बड़ौज विवाह की इच्छा करने लगा था और उसको पत्नी के रूप में बिन्दू उपयुक्त प्रतीत हुई थी। बस्ती के पास स्नान करती हुई बिन्दू को देखकर ही उसकी इच्छा विवाह करने की हुई थी और उसने बिन्दू को अपने मन की बात बताई तो बिन्दू ने कहा, ‘‘चौधरी से कहो कि मेरे माता-पिता से बात करे।’’
यह बात जब बड़ौज ने चौधरी से कही तो उसने बताया कि जब तक साधु उसको युवती घोषित नहीं करता, कोई उससे विवाह की इच्छा नहीं कर सकता।

बड़ौज धैर्य से इस घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा था। बिन्दू से छोटी आयु की लड़कियों के विषय में घोषणा हो चुकी थी, परन्तु न जाने बिन्दू पर पुरोहित की दृष्टि क्यों नहीं गई कि उसके विषय में वह कुछ कहता ही नहीं था।
बड़ौज और बिन्दू मिलते-जुलते थे, परन्तु कबीले के नियम से बँधे हुए अपने मन की बात किसी से कह नहीं सकते थे। इस प्रतीक्षा में तीन वर्ष व्यतीत हो गए। लड़की की छाती का उभार और अन्य यौवन के लक्षण तो अब सब कबीले वालों को दिखाई देने लगे थे और इस विषय में पुरोहित का मौन सबके लिए विस्मय का कारण बन रहा था।
कबीले के लोग अपनी खालें और दूसरी वन की उपज बेचने तथा कपड़ा इत्यादि आवश्यक पदार्थ क्रय करने के लिए नगरों में जाते थे। इसके लिए दस-बीस-तीस कोस की यात्रा करनी पड़ती थी।

एक ऐसी ही यात्रा पर चौधरी का लड़का बड़ौज गया हुआ था। वह तीन दिन की यात्रा के पश्चात् घर लौटा। अन्तिम पड़ाव की दस कोस की यात्रा कर वह अँधेरा हो जाने के पश्चात् बस्ती में पहुँचा। वह अभी बस्ती से कुछ अन्तर पर ही था कि उसको बिन्दू एक पेड़ के नीचे खड़ी उसकी प्रतीक्षा करती मिली। बिन्दू को विदित था कि बड़ौज आ रहा है और वह उसके आने के समय का अनुमान लगाकर मार्ग-तट पर आ खड़ी हुई थी।

बड़ौज को सन्देह हुआ तो वह ठहर गया और अपने थैले से, जो उसने कन्धे से लटकाया हुआ था, एक लम्बी-लम्बी चमकदार बस्तु निकाली और उसको उस ओर कर दिया जिधर से उसको आहट सुनाई दी थी। वह बैटरी की टॉर्च थी जिसे वह लुमडिंग से दो रुपये में खरीदकर लाया था। बड़ौज ने बटन दबाया तो प्रकाश हो गया और बिन्दू सामने खड़ी मुस्कराती दिखाई दी। इस बस्ती में यह टॉर्च पहली बार आई थी और इसके प्रकाश से चकाचौंध बिन्दू ने अपनी आँखों के आगे हाथ धर लिया था।

बड़ौज ने वटन पर से अपना अँगूठा उठाया और अँधेरा हो गया। बिन्दू लपककर उसके गले में बाँह डाल उससे लिपट गई। बड़ौज ने कसकर आलिंगन किया और बोला, ‘‘यह मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ।’’
‘‘सत्य ?’’
‘‘हाँ, यह एक नई प्रकार की लालटैन है, जो बिना तेल के जलती है।’’
‘‘परन्तु मुझे तो यह नहीं चाहिए।’’
‘‘तो तुम्हें क्या चाहिए ?’’
‘‘मेरा दिल तो तुमसे विवाह करने के लिए करता है।’

‘‘परन्तु अभी तुम्हारी विवाह के लायक आयु तो हुई नहीं।’’
‘‘माँ तो कहती है कि हो गई है। कल माँ और बाबा में बातचीत हुई है। माँ ने कहा था कि मेरा विवाह हो जाना चाहिए। बाबा कहता था कि साधु से पूछूँगा। बाबा आज बहुत देर तक साधु से बातें करता रहा है। न जाने उसने क्या कहा है कि माँ और बाबा परस्पर बहुत चिन्ता में बातचीत करते रहे हैं।’’
‘‘क्या कहा होगा उसने ?’’
‘‘मैं क्या जानूँ ? तुम साधु से मिलकर पूछो, नहीं तो...’’
‘‘नहीं तो, क्या ?’’

‘‘पहले पूछ लो फिर बताऊँगी।’’ इतना कह उसने बड़ौज को छोड़, उससे पृथक होकर कहा, ‘‘अब जाओ, तुम्हारी माँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।’’
‘‘तुम कैसे जानती हो यह ?’’
बिन्दु ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया और वह भाग गई। बड़ौज उसको अँधेरे में बस्ती की ओर विलीन होता देखता रहा। जब अन्धकार में विलीन हो गई तो वह भी बस्ती की ओर चल पड़ा। वह अभी दो पग ही गया था कि उसको अपने कन्धे पर किसी का हाथ रखने का अनुभव हुआ। वह एक सतर्क युवक की भाँति एकदम कन्धे पर रखे हाथ को पकड़ बैठा।
‘‘छोड़ो।’’ यह साधु पुरोहित की आवाज़ थी।
‘‘ओह !’’ बड़ौज के मन में भय समा गया। वह सोचने लगा कि साधु ने उसको बिन्दु से आलिंगन करते देख लिया है और यह कबीले के नियम के विरुद्ध है। इस कारण वह काँप उठा। साधु ने धीरे से कहा, ‘‘मैंने तुम दोनों को गले मिलते देख लिया है।’’

बड़ौज ने साहस पकड़कर कहा, ‘‘तो फिर क्या हुआ ?’’
‘‘यह विवाह से पूर्व वर्जित है।’’
‘‘माँ का पुत्र से प्यार भी ?’’
‘‘वह तुम्हारी माँ नहीं है।’’
‘‘बहिन तो हो सकती है !’’
‘‘वह तुमसे विवाह करना चाहती है, मैंने सुन लिया था।’’
‘‘किया तो नहीं ?’’
‘‘चलो चौधरी के पास। तुम दण्ड के भागी हो।’’

बड़ौज चुप रहा। साधु ने उसको बाँह से पकड़कर ऐसे ले जाना चाहा जैसे वह उसका बन्दी हो। बड़ौज ने झटका देकर अपनी बाँह छुड़ा ली और बोला, ‘‘मैं भाग नहीं रहा, चलो चलता हूँ।’’
चारों ओर अँधेरा था। सब खाना-पीना करके सोने की तैयारी में लगे थे। वे दोनों बस्ती से गुज़रते हुए बस्ती के पार, ठीक किनारे पर, चौधरी की झोंपड़ी के बाहर आ खड़े हुए। साधु ने आवाज़ दी, ‘‘चौधरी ! बाहर आओ !’’
धनिक झोंपड़ी से निकल आया। बड़ौज ने यह कहकर कि वे दोनों बात करें और वह स्वयं भीतर सामान रखने जा रहा है, भीतर चला गया। वह भीतर गया और थैला अपनी माँ के पास रख और अपनी टैंट से रुपये निकालकर माँ को देते हुए बोला, ‘‘माँ ! तुम इनको समेटो, मैं अभी आता हूँ !’’
‘‘क्या बात है ?’’

‘‘कुछ नहीं, साधु झगड़ा करने के लिए आया है।’’
‘‘क्या झगड़ा करता है ?’’
बड़ौज ने बताया नहीं। झोंपड़े से निकल उन दोनों बड़ों के समीप खड़ा हो गया। साधु कह रहा था, ‘‘पचास रुपए।’’
‘‘बहुत अधिक हैं।’’ धनिक का कहना था।
‘‘बिन्दू जैसी लड़की से विवाह भी तो बड़ी बात है।’’
‘‘परन्तु यह विवाह का मूल्य तो नहीं है। यह तो इस बात का मूल्य है कि तुमने बड़ौज को किसी लड़की से आलिंगन करते देखा है।’’
‘‘दोनों में घना सम्बन्ध है।’’

‘‘देखो साधु ! तुमने इतनी बड़ी होने पर भी बिन्दू को अभी विवाह के योग्य घोषित नहीं किया, जबकि उससे छोटी लड़कियों के विवाह हो चुके हैं।’’
‘‘भगवान ने प्रेरणा नहीं दी।’’
इससे चौधरी का मुख बन्द हो गया। परन्तु बड़ौज ने कह दिया, ‘‘बाबा, झूठ बोलता है। भगवान ने कहा है, परन्तु इसके मन में पाप है।’’
साधु बोला, ‘‘देखो चौधरी। तुम्हारी लड़का क्रिस्तान हो गया है।’’
‘‘यह भी झूठ है।’’
‘‘तो कल पंचायत निर्णय करेगी।’’

‘‘करने दो ! तुम जैसे झूठे की कोई नहीं सुनेगा।’’
दोनों बाप बेटों को वहीं छोड़, साधु ने अपने झोंपड़े का रास्ता पकड़ा। चौधरी कुछ देर तक खड़ा विचार करता रहा; फिर साधु के पीछे चल पड़ा। बड़ौज भागा हुआ झोंपड़े में गया और वहाँ से कोई चीज़ लेकर उन दोनों के पीछे-पीछे चल पड़ा।
उसे जाता देख सोना पूछने लगी, ‘‘कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘माँ ! अभी आया।’’

इसके लगभग चौथाई घण्टे बाद घायल अवस्था में चौधरी अपने झोंपड़े में आया। उसने आते ही अपनी पत्नी से कहा, ‘‘सोना, शीघ्र ही प्रकाश करो !’’
सोना ने चकमक घिसा, बत्ती जलाई और देखा कि उसके पति के कन्धे से रक्त बह रहा है। उसने तुरन्त आग जलाई और झोंपड़ी के किसी कोने में रखी एक जड़ी निकालकर पानी में उबाल चौधरी के घाव पर बाँध दी।
अभी वह बाँध ही रही थी कि बड़ौज भी लौट आया। उसके हाथ में रक्त रंजित छुरा था। वह पिता को रक्त से लथपथ देख बोला, ‘‘बाबा ! अब क्या हाल है ?’’

‘‘तुम कहाँ से आ रहे हो ?’’
‘‘तुम पर किए आक्रमण का बदला लेकर।’’
‘‘क्या किया है तुमने उसको ?’’
‘‘उसका शव नदी में बहा दिया है।’’
‘‘यह तो घोर पाप हो गया है !’’
‘‘नहीं बाबा, उसे उसके किए का फल मिला है। उसके अपने मन का पाप भगवान के नाम पर लगाकर भारी अपराध किया था।’’

‘‘तो भगवान उससे निपट लेता !’’
‘‘उसने ही तो मुझे ऐसा करने के लिए कहा था।’’
‘‘मुझे भय लग रहा है।’’
‘‘चिन्ता न करो बाबा ! मैं निपट लूँगा।’’


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