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विश्वास

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5290
आईएसबीएन :0000

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परमात्मा पर विश्वास, श्रद्धा अथवा निष्ठा का एक व्यावहारिक रूप...

Vishwas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

परमात्मा के अस्तित्व के विषय में आदि काल से चलते आ रहे विवाद के आधार पर इस उपन्यास की रचना की गयी है। परमात्मा के अस्तित्व को मानने वालों में सदा यह मतभेद रहा है कि परमात्मा ही एक है अथवा परमात्मा भी एक है ?
इस अनिर्णयात्मक प्रश्न को लेकर आस्तिकों ने अपने ग्रन्थों में बहुत लम्बे-चौड़े आख्यान लिखे हैं। उन आख्यानों पर टीकाएँ और फिर टीकाओं की टीकाएँ भी की हैं।

इनको आधार बनाकर ‘विश्वास’ उपन्यास को लिखने का यत्न किया है। परमात्मा पर विश्वास, श्रद्धा अथवा निष्ठा का एक व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करने में इस कहानी का ताना-बाना बनाया गया है।
आस्तिकों के इस विवाद में नास्तिकों की झलक का लाना आवश्यक हो गया था। दोनों विचार अर्थात् परमात्मा ही है तथा परमात्मा भी है का घात-प्रतिघात नास्तिकों पर कैसा रहता है, इसकी विवेचना करने का यत्न किया है।
कुछ विद्वानों का मत है कि नास्तिक्य को काटने के लिए ही अद्वैतवाद (परमात्मा ही है) का जन्म हुआ था। इस पुस्तक में इससे विपरीत मत की सम्भावना पर प्रकाश डालने का यत्न किया है।
शेष तो उपन्यास ही है। पात्र, स्थान इत्यादि काल्पनिक हैं।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद

‘‘देखो सुधा ! मैं बीसवीं शताब्दी में पैदा हुआ हूँ और साथ ही डॉक्टर ऑफ फिलौसोफी की उपाधि प्राप्त हूँ। जिन लोगों ने मुझको डॉक्टर की उपाधि दी है, वे मूर्ख नहीं हैं। तीन प्रसिद्ध यूनिवर्सिटियों के ख्यातिप्राप्त प्रोफेसरों ने एक मत होकर मेरी ‘थीसिज़’ को अपने विषय का सर्वोत्कृष्ट विवेचन माना है।

‘‘इस कारण मैं कहता हूँ कि मेरे सामने यह साधु-सन्त, महात्माओं का पाखण्ड नहीं चलेगा। छोड़ो इस बात को कि वह क्या कहता है। जो मैंने कहा है, उस पर ध्यान दो।’’
इतना कह डॉक्टर जगदीशचन्द्र माथुर घूरकर अपनी पत्नी की आँखों में देखने लगा। पत्नी त्रस्त नेत्रों से डॉक्टर साहब की उक्त बात को सुनती रही और उसका खण्डन नहीं कर सकी। भले ही वह मन में से कुछ अन्य समझती थी। वह जानती थी कि उसके पति के डॉक्टरेट के ‘थीसिज़’ की परीक्षकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। वह यह भी जानती थी कि ऑक्सफोर्ड प्रेस वालों ने उसे छापकर और उसका दो पौण्ड मूल्य रख संसार-भर के पुस्तकालयों में डॉक्टर का लेख प्रसारित किया है; डाक्टर साहब दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हैं और दिल्ली के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के प्राण हैं।

ऐसी अवस्था में वह भला कैसे कह सकती थी कि स्वामी परमानन्द का कथन, कि संसार मिथ्या है और केवल ब्रह्म ही सत्य है, ठीक है और उसके पति डॉक्टर जगदीशचन्द्र माथुर का कहना गलत है।

डॉक्टर का कहना था कि प्रकृति अर्थात् ‘मैटर’ ही एक विवर्त्त में घूमता हुआ पूर्ण चराचर जगत का रूप लेता रहता है।

डॉक्टर ने अपनी पत्नी सुधा को चुप देख समझ लिया कि वह निरुत्तर हो गई है। इस कारण उसने अपनी विजय का परिणाम निकालते हुए कहा, ‘‘इसीलिए मैं कहता हूँ कि आज से उस ब्रह्म मन्दिर में जाने की आवश्यकता नहीं है। घर बैठकर पढ़ा करो। शरत् बाबू के अथवा मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास ले आओ। उनसे तुम्हारा मन बहल जाया करेगा।’’

‘‘मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले हैं। उनके पढ़ने से तो चित्त को शान्ति मिली नहीं। अब और पढ़ने से क्या होगा ?’’
सुधा का कहना था।
‘‘चित्त की शान्ति तो कभी भी नहीं मिल सकती। चित्त प्रकृति का एक ऐसा उपकरण है, जो सदा चलता रहने के लिए बना है। जिस वस्तु का काम चलना ही है, वह भला शान्त कैसे हो सकती है ? जब शान्त होगा तो फिर वह चित्त रहेगा ही नहीं। इस कारण उसे शान्त करने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो। अभी तो तुम बीस-बाइस वर्ष की युवती हो। कम-से-कम सत्तर-अस्सी वर्ष की आयु तक तो जिओगी। तब तक चित्त चलेगा और इसको चलने दो।
‘‘परन्तु जी ! शान्ति का अर्थ मरना नहीं है। मेरा और अपने धर्म-शास्त्र का शान्तिशब्द से अभिप्राय तो परमानन्द अर्थात् पारब्रह्म परमेश्वर में लीन हो जाने से ही। वह अवर्णनीय आनन्द का भण्डार है और उसमें लीन हो जाने के अर्थ है स्वयं आनन्दमय हो जाना।’’

‘‘यही तो पाखण्ड है, जिससे मैं तुमको सचेत कर रहा हूँ। न कोई ब्रह्म है, न ही उसका परमानन्द। भला किसमें लीन हो जाओगी और फिर कैसे आनन्द पाओगी ?’’
‘‘तो फिर, आप मेरे चित्त की शान्ति के लिए क्या उपाय बताते हैं ? मैं यहाँ अकेले में बैठे-बैठे अपने मन में भारी असन्तोष का अनुभव करती हूँ।
परन्तु जब मैं स्वामीजी के सामने बैठती हूँ तो मेरी सब कामनाएँ, मेरी सब इच्छाएँ, सब-की-सब विलुप्त हो जाती हैं। मैं ऐसा अनुभव करती हूँ कि मुझमें सन्तोष भर गया है, मैं तृप्त हो गई हूँ और सर्व प्रकार के दुःख-क्लेशों की निवृत्ति हो गई है।’’

‘‘यह सब भ्रम है। मेरा तो यही कहना है कि वहाँ जाना छोड़ दो। तब तुमको सब कुछ अपने घर में ही प्राप्त होने लगेगा।’’
सुधा अपने मन की उत्कण्ठा का वर्णन समाप्त नहीं कर सकी थी कि उसकी सहेली श्रद्धा आ गई। सुधा को मन्दिर ले जाने के लिए वह अपनी मोटर में आई थी।

प्रोफेसर साहब श्रद्धा के लिए मन में मान रखते थे। वह उनके एक सहपाठी महेश्वरदयाल की पत्नी थी। महेश्वरदयाल के पिता सुखदयाल दिल्ली में कपड़े के बहुत बड़े व्यापारी थे और जगदीशचन्द्र के विद्यार्थी-जीवन में बहुत सहायता करते रहे थे। उसके स्कूल-कॉलेज की फीस तो वे देते ही थे, कभी-कभी पुस्तकों और कपड़ों के लिए भी रुपया मिलता रहता था। जगदीशचन्द्र जानता था कि बिना महेश्वरदयाल के पिता की सहायता के वह अपनी एम.ए. तक की पढ़ाई नहीं कर सकता था। डॉक्टरेट तो उसने यूनिवर्सिटी में लैक्चरर का स्थान पा जाने के पश्चात् की थी।
वह महेश्वरदयाल के एक अन्य एहसान के नीचे दबा हुआ अनुभव करता था। जब वह कालेज में पढ़ाने लगा था तो महेश्वरदयाल ने ही उसके विवाह का प्रबन्ध किया था। जगदीशचन्द्र का विवाह तो हो जाता, परन्तु सुधा जैसी सुन्दर, सुशील, सभ्य और सन्तुलित मन वाली पत्नी न मिलती। इसका कारण था महेश्वरदयाल का सुधा के माता-पिता के ‘कन्वैसिंग’ और सुधा की सहेली श्रद्धा के माता-पिता के सम्मुख अपने पति के सहपाठी का गुणगान।

जगदीश निर्धन विधवा का पुत्र था और दिल्ली में उसकी किसी प्रकार की सम्पत्ति नहीं थी। सुधा के पिता महावीरप्रसाद रेलवे में इंजीनियर थे। वेतन तो केवल ग्यारह सौ रुपया महीना था, परन्तु उसने सुधा की माँ के नाम हनुमान रोड पर चार मकान बनवा रखे थे। यूँ भी नकद तथा भूषण बहुत थे। सुधा के पिता ने सुधा के विवाह के समय अपने दामाद को जहाँ भूषण-वस्त्र और नकदी दी थी, वहाँ सुधा के नाम बैंक में पच्चीस हजार रुपया भी जमा करवा रखा था।
इस समय तो सुधा के पिता का देहान्त हो चुका था और धन धीरे-धीरे कम होता जाता था।
जगदीशचन्द्र को सुधा जैसी सुन्दर पत्नी मिली थी और साथ ही लम्बा-चौड़ा दहेज मिला था। इस कारण वह महेश्वरदयाल और श्रद्धा का एहसान मानता था। वह अनुभव करता था कि वह कुछ भी नहीं होता, यदि महेश्वर और उसके पिता उसकी सहायता न करते।

श्रद्धा आई तो जगदीश उसको देख, अपना व्याख्यान समाप्त कर, वहाँ से टल जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।
श्रद्धा ने कह दिया, ‘‘भाई साहब ! मैं श्रद्धा हूँ। कोई पर्दानशीन स्त्री नहीं हूँ, जो मेरे आने के शब्द सुनकर ही भाग चले हैं।’’
जगदीश विवश लौट पड़ा और कहने सगा, ‘‘भाभी ! भाग नहीं रहा। मुझको कॉलेज में, एक मीटिंग में उपस्थित होना है। इसी कारण जा रहा हूँ।’’
‘‘अब तो चार बजने वाले हैं। भाभी को चाय भी नहीं पूछेंगे ?’’
‘‘यह तुम्हारी बहिन क्या इतनी भी शिष्ट नहीं, जो यह छोटी-सी बात भी कर नहीं सकेगी ? मुझको चाय कॉलेज में पीनी है।’’

इस समय सुधा ने कह दिया, ‘‘मैं श्रद्धा के साथ ब्रह्म मन्दिर जा रही हूँ।’’
सुधा जानती थी कि श्रद्धा के सम्मुख उसके पति के मुख में जिह्वा भी नहीं रहती। इस कारण उस पूर्ण उपदेश का, जो उसका पति, श्रद्धा के आने से पूर्व, दे रहा था, एक क्षण में निराकरण हो जायगा।
जगदीशचन्द्र ने मुस्कुराकर सुधा की ओर देखा और पश्चात् श्रद्धा को हाथ जोड़कर नमस्कार कर घर से बाहर निकल गया। सुधा का काम बन गया। डॉक्टर गया तो दोनों सहेलियाँ, मोटर में सवार हो ब्रह्म मन्दिर जा पहुँचीं।
स्वामीजी के एक भक्त ने ढाई लाख रुपया लगाकर मन्दिर बनवा दिया था। मन्दिर बनने से पूर्व तो स्वामीजी दिल्ली कभी-कभी ही आते थे।

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