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सभ्यता की ओर

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5295
आईएसबीएन :000

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नगरवासियों और वनवासियों पर आधारित उपन्यास...

Sabhyata Ki Or

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गांव के निवासी जो न तो खाने का ढंग जानते हैं, न पहिनने का, नगरवासियों के सामने असभ्य समझे जाते हैं, परन्तु वास्तव में वे अधिक सभ्य हैं, जैसे कैसे भी धन बटोरने में लगे नगरवासी इन बनवासियों की अपेक्षा कहीं अधिक असभ्य हैं।
इस विषय पर एक अत्यन्त रोचक उपन्यास
सभ्यता की ओर..

‘‘तुम इतने बड़े आदमी हो गए हो कि हम जंगली, जो न खाने का ढंग जानते हैं न पहनने का, तुम्हारे साथ जाकर तुमको लज्जित करना नहीं चाहते। तुम जाओ और सुख से अपना जीवन-यापन करो।’’
‘‘वे अपने को असभ्य समझते हैं ? मैं इसके विपरीत ही समझ रही थी। हम नगर-निवासी धन और भोग-विलास के पीछे भागने वाले उनसे कहीं अधिक असभ्य हैं। वे निर्धन कहे जा सकते हैं, असभ्य नहीं।’’

भूमिका

हिंदी शब्दोकोष में सभ्यता का अर्थ लिखा है....‘सभ्य होने का भाव’ सभ्य के अर्थ लिखे हैं—‘सभा के योग्य, शिष्ट, सुसंस्कृत, नम्र एवं विश्वस्त।’
आज सभ्यता के व्यावहारिक अर्थ और ही बन गए हैं। वे अर्थ हैं—पक्के बढ़िया मकान में रहनेवाला, सफेद तथा स्वच्छ कपड़े पहनने वाला, मीठी-मीठी बातें करने वाला, दूसरों की किसी भी बात का प्रतिवाद न करने वाला, लड़ाई-झगड़े में शांति स्थापित करने वाला, वैज्ञानिक उन्नति से लाभ उठाने वाला और नवीन वैज्ञानिक विचारों को स्वीकार करने का दावा करनेवाला।

इन अर्थों में बंबई में रहने वाला मिलों का करोड़पति मालिक, एक उच्च पदाधिकारी, एक बातूनी वकील, अपनी अयोग्यता को छुपाने में सफल डॉक्टर इत्यादि सभ्य माने जाएँगे। एक नगर में रहने वाला, इस विचार से एक देहाती से अधिक सभ्य समझा जाएगा तथा एक वनवासी, दूर पहाड़ की घाटी में अकेला रहने वाला गड़रिया कम सभ्य समझा जाएगा। इसी कारण गड़रिए की सभ्यता से वनवासी की और वनवासी से ग्रामीण तथा उससे भी अधिक श्रेष्ठ एक नागरिक की सभ्यता समझी जाएगी।
एक यूरोपियन का जीवन-स्तर एक हिंदुस्तानी से उच्च माना जाता है, इसी कारण उसका जीवन अनुकरणीय समझा जाता है। आज हम ऊँचे-ऊँचे महल अथवा विशाल सड़कें बना, जहाज अथवा मोटरें रखकर अपने को उन्नति और सभ्यता की ओर ले जा रहे हैं। वास्तव में यह गति सभ्यता की ओर नहीं है। जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है, सभ्य और सभ्यता के ये अर्थ नहीं हैं। ये व्यावहारिक सभ्य और सभ्यता के अर्थ गलत हैं।

योग्य, शिष्ट, संस्कृत, विनयी और विश्वस्त व्यक्ति को ही सभ्य मानना चाहिए। पग-पग पर झूठ बोलने वाला, धोखाधड़ी करने वाला, अभिमानयुक्त तथा कुटिलता का व्यवहार करने वाला, अपने से हीन को दुःख देने वाला, भले ही वह महलों में रहता हो, सभ्य नहीं माना जा सकता। और उस जैसा व्यवहार रखना, नगरों में रहना, मोटर और हवाई जहाजों में घूमते हुए वस्त्रादि पहनना सभ्यता नहीं मानी जाएगी।
यह पुस्तक इसी विषय पर, उक्त विचारों को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। सभ्य और सभ्यता का मापदंड मन और व्यवहार की श्रेष्ठता है, न धन-सम्पदा-संपन्नता।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद

(1)

प्रातः समीर चलती है तो दूर छिपे अज्ञात स्थानों पर भी जा पहुंचती है। न्यूनाधिक मात्रा में इसका प्रभाव सब पर होता है। भले ही कोई भाग्यहीन, दूर किसी गुफा के अँधियारे में पड़ा हो, वह भी प्रातः की समीर के प्रभाव से बच नहीं सकता।
भारत में भी प्रातः की एक सुखद समीर चली। स्वराज्य मिला। एक सहस्र वर्ष दासता की श्रृंखलाएँ टूटीं और भारत का मानव स्पंदित हो उठा। दो सहस्र मील लंबा-चौड़ा देश प्रसन्नता से देदीप्यमान हो गया। कलकत्ता और बंबई सदृश्य प्रमुख नगरों में तथा दिल्ली, लखनऊ, पटना, मद्रास इत्यादि राजनीतिक हलचल के केन्द्रों में तो स्वराज्य मिलने की धूम थी ही, यह धूम राजस्थान की शुष्क मरुभूमि में बसे तीन-चार घरों में गाँवों तथा हिमालय के दुर्गम मार्गों पर बनी गड़रियों की झोपड़ियों में भी पहुँचती। कैसे पहुँची और पहुँचने पर कैसी अनुभूति हुई, यह वर्णनातीत है। परंतु जब पहुंची तो एक नव-उमंग की तरंग को लिए हुए, मानव के लिए स्वर्ग का द्वार खोलती हुई, उसके सुख-स्वप्नों को साकार करने की आशा से भरी हुई।

जैसे बंदी की बेड़ियाँ खुलने पर प्रथम क्रिया जो उसके मन पर होती है, वह जकड़कर बाँधे हुए अंगों को फैलाता है, वैसे ही भारत में मानव ने साँस ली। उसने दीर्घ साँस ली और प्रभात के उस मलयानिल को अपने शरीर में भर लिया।
कुमाऊँ की पहाड़ियों में अल्मोड़ा से कैलाश के मार्ग पर, मार्ग से भी एक ओर हटकर, गड़रियों का एक परिवार रहता था। वह परिवार वहाँ कब से रहने लगा और क्यों वहाँ गया, यह कोई नहीं जानता था। उस परिवार का प्रमुख व्यक्ति, जिसका नाम श्रीपाल था, बस इतना ही जानता था कि उसने अपने बाबा को इसी कुटिया में मरते देखा था। बाबा के पश्चात् दादी मरी। उसके पिता के तीन भाई और एक बहन थी। दो भाई परिवार छोड़ गए थे। एक तो इस पुरखा के होश सँभालने से पहले ही चला गया था और दूसरा एक गौरवर्णीय यात्री के साथ कैलाश को गया तो फिर लौटकर नहीं आया। पुरखों के पिता की बहन वहाँ से दस कोस के अंतर पर एक अन्य परिवार में दे दी गई थीं और उसका पिता, उनके परिवार की एक लड़की को अपनी पत्नी बनाकर ले आया।

पुरखा के पिता के घर में एक लड़का और दो लड़कियाँ हुईं। एक लड़की की अदला-बदली तो एक परिवार की लड़की से हो गई। इस प्रकार पुरखा का विवाह हुआ और उसका परिवार चला। इसकी दूसरी बहन के बदले में किसी लड़की के लिए कोई लड़का नहीं था। लड़की बड़ी होने लगी और भाई की चिंता बढ़ने लगी। एक दिन एक पादरी, नीली-नीली आँखोंवाला, सुनहरी बाल, गोरा रंग, चाँदनी के समान स्वेत चोगा पहने और उस पर काला रस्सा कमर में बाँधे हुए, इस कुटिया के सामने से गुजरा और अविवाहित युवती को अकेली देख खड़ा हो गया।
लड़की का भाई भेड़ें और बकरियाँ इकट्ठी करने गया हुआ था। भाभी कुटिया के अंदर बैठी अपने नवजात शिशु को स्तन-पान करा रही थी। पादरी ने पूछा, ‘‘लड़की, तुम्हारी शादी हो गई है ?’’

इस प्रश्न को सुन लड़की का मुख लज्जा से लाल हो गया और पादरी समझ गया। इस स्थान पर इतनी बड़ी आयु की अविवाहित लड़की मिलनी प्रायः असंभव थी। पादरी लोग जानते थे कि जहाँ भी ऐसी लड़की होती है, वहाँ कुछ-न-कुछ विवशता कारणीभूत होती है। उस विवशता से लाभ उठा, प्रभु यीशु की भेड़ों की संख्या में वृद्धि के अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।


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