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जीवन कथाएँ >> दिग्विजय

दिग्विजय

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5303
आईएसबीएन :0000

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स्वामी शंकराचार्य के जीवन पर आधारित उपन्यास...

digvijay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वामी शंकराचार्य ने अपने मात्र 33 वर्ष के जीवन में इस देश में जो भी सांस्कृतिक पुनरुत्थान किया, उसकी व्याख्या ही ‘दिग्विजय’ उपन्यास की विषयवस्तु है। तदपि यह स्वामी शंकराचार्य की जीवनी नहीं है, क्योंकि उनके व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित किसी घटना का इसमें उल्लेख नहीं है। भारत की विभिन्न दिशाओं में घूम-घूमकर उन्होंने भारतीय संस्कृति और भारतीयों के धार्मिक जीवन पर जो प्रेरक एवं क्रान्तिकारी कार्य किया है उसका वर्णन ही औपन्यासिक रूप में इस पुस्तक में किया गया है।

इस दृष्टि से इस कथा के कथानायक तो स्वामी शंकराचार्य ही हैं। किन्तु उपन्यास को रोचक बनाने के लिए उसमें जिस प्रकार एक नायक और नायिका होती है, उस दृष्टि से देखा जाय तो विरोचन इसका नायक और रुक्मिणी तथा नीलमणि इसकी नायिकाएँ मानी जा सकती हैं। तदपि मुख्य स्वामी शंकराचार्य जी तथा उनके कार्य की ही परिधि में होने से वे ही इसके वास्तविक नायक है।

कथा का प्रारम्भ भारत के तत्कालीन सांस्कृतिक नगरों में प्रमुख काशी नगरी में स्वामी जी के प्रथम पदार्पण काल से होता है। स्वामी जी अपनी मण्डली के साथ देवताओं का स्तुतिगान करते हुए नगर में प्रविष्ट होते हैं तो काशी-निवासी यह सब देखकर चकित हो जाते हैं। क्योंकि अब तक काशी नगरी ही क्यों, समस्त भारतवर्ष में अनेक देवी देवता और अनेक अवतारों की विभिन्न प्रकार से पूजा-अर्चना का प्रचलन हो जाने से ‘एकता में अनेकता’ प्रकट होने लगी थी, जबकि स्वामी जी की मण्डली ‘अनेकता में एकता’ का गान कर रही थी। काशीवासियों को गंगा के किनारे नर्मदा की स्तुति यदि कर्णकटु नहीं तो विचित्र सी अवश्य लग रही थी। उपन्यासकार ने स्वामी जी के मत के विषय में स्वामी जी के मुख से ही कहलाया, ‘‘हम सब वेदानुयायी एक बात में सहमत हैं। हम अपने आचार-विचार को धर्म संगत रखने में एकमत हैं। धर्म खान-पान से सम्बन्ध नहीं रखता। यह पूज्य देवता से भी सम्बन्ध नहीं रखता। हमारा धर्म है धृति-क्षमा-दमोऽस्तेयं...इत्यादि। हम स्वयं जीना चाहते हैं, परन्तु दूसरों को मार-काटकर नहीं। हम उनके मित्र हैं जो हमारे धर्म का मान करते हैं और उनके शत्रु हैं, जो हमारे धर्म के विरोधी हैं।’’

इसके साथ ही स्वामी जी ने महाराज को गायत्री की उपासना का भी उपदेश दिया।
उपन्यास पठनीय तथा रोचकता में अन्यतम है।

प्रकाशक

भूमिका

स्वामी शंकराचार्य के काल के विषय में मतभेद है। उनका जन्म आज से दो सहस्र वर्ष पूर्व से लेकर तेरह-चौदह सौ वर्ष पूर्व तक कभी हुआ माना जाता है। फिर भी यह तो निश्चित है कि भारत में बौद्ध-मत के ह्रास के आरम्भ के उपरान्त ही इनका अवतरण हुआ था। तदपि आठवीं शताब्दी से पूर्व अवश्य ही इनका जन्म हो चुका था।

यह उपन्यास स्वामी जी का जीवन-चरित्र नहीं। यह उपन्यास उनके काल की पृष्ठिभूमि पर आधारित है। यह यत्न किया गया है कि उस काल के समाज की धार्मिक एवं सांस्कृतिक अवस्था की पृष्ठभूमि का स्पष्ट चित्रण हो। उस काल में बौद्ध-धर्म के अवषेशों पर, वेदादि ब्राह्मण-ग्रन्थों का आधार लेकर, आर्य धर्म के पुवरुद्धार का यत्न किया गया था, परन्तु इस प्रयत्न से जो धर्म बना वह न आर्यधर्म था न ही श्रुति धर्म। उसको मात्र वैष्णव-धर्म ही कहा जा सकता है।

इस वैष्णव-धर्म में असुरों की लिंग-पूजा, जैनियों की मूर्ति-पूजा तथा मांसादि का निषेध, बौद्धों की सहनशीलता, उपनिशदों की आत्मा-परमात्मा की विवेचना और वेदों का नाम, सब-कुछ विद्यमान था। वर्तमान भागवत पुराणादि ग्रन्थ इसी काल में लिखे गये। कई लोगों का मत है कि रामायण और महाभारत भी इसी काल में रचे गये। पर विद्वान इसे नहीं मानते। वैष्णव मत पूर्वोक्त सब बातों का समन्वय ही है।
इस समन्वय का उद्देश्य यह था कि देश में एक राष्ट्र की नींव डाली जाय, परन्तु प्रतीत होता है कि कर्मकांडियों ने अपने-अपने देवताओं की पूजा की भिन्न-भिन्न पूजा विधि तथा उनके भिन्न-भिन्न चिह्न बना लिये, परिणामस्वरूप देश में एक राष्ट्र होने की अपेक्षा परस्पर घोर वैमनस्य उत्पन्न हो गया।
 
ऐसा भी प्रतीत होता है कि धन और ऐश्वर्य में वृद्धि होने के कारण सुख-सुविधा एवं वासना की प्रवृत्ति प्रबल हो गयी थी। कालिदास की रचनाएँ प्रायः श्रृंगार प्रधान है। सम्भवतः गुप्तकाल में संगीत नृत्य तथा चित्रकला में विशेष उन्नति हुई थी और ललित-कलाओं का अनधिकारियों के हाथ में चला जाना इसके दूषित दिशा में प्रयोग का कारण हो सकता है।

कुछ भी हो, देश की अवस्था ऐसी थी कि छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये थे। उन पर कोई चक्रवर्ती सम्राट् नहीं रहा था। अनेक देवी-देवता बन गये थे और उन सबके उपासक एक दूसरे की निन्दा और आत्मश्लाघा में लीन थे।
 
जैन-धर्म कभी भी वैश्य समाज के बाहर नहीं गया। बौद्ध-धर्म प्रायः सब वर्णों में फैला था और इसके अवशेष तब तक विद्यमान थे तथा वे सभी वर्ण नास्तिकवाद का प्रचार कर रहे थे।
ऐसी अवस्था में स्वामी शंकराचार्य का इस देश में अवतरण हुआ और उन्होंने अपनी अल्प आयु में देश में भारी आन्दोलन खड़ा कर दिया। इस आन्दोलन का उद्देश्य जहाँ-बौद्ध धर्म द्वारा प्रतिपादित नास्तिकवाद का खण्डन था, वहाँ आस्तिकों आन्दोलन की प्रतिध्वनि आज भी देश में विद्यमान है।
स्वामी शंकराचार्य के काल की अवस्था का दिग्दर्शन और स्वामी जी के कार्य का संक्षिप्त विवरण ही इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।
वेदान्त तथा वैष्णव-धर्म द्वारा स्वामी जी के कार्य को जैसा समझा है, वैसा ही देने का यत्न किया गया है। शेष तो उपन्यास होने से पाठकों के रसास्वादन तथा समझने एवं विचार करने का विषय है।

गुरुदत्त

एक
:1:

भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य की राजधानी, निर्विवाद रूप से काशी रही है। यह अमर नगरी, परमपावनी गंगा के किनारे बसी हुई, भारतीय संस्कृति के अनेकानेक रूपों के अवशेष लिये हुए, आज भी अपना मस्तक ऊँचा किये विद्यमान है। इसकी उच्च अट्टालिकाएँ, इसके मन्दिरों के गगन-भेदी कलश और इसकी लम्बी-लम्बी सीढ़ियों वाले घाट, उन सब सांस्कृतिक, धार्मिक एवं मत मतान्तरों की स्मृतियों को हरा-भरा करते हैं, जो भारत के विभिन्न कालों और भागों में, अति प्राचीन काल से प्रादूर्भूत होते रहे हैं।
गंगोत्री से निकली, सर्वथा स्वच्छ, निर्मल और पवित्र भागीरथी, अनेकानेक अन्य नदी-नालों से आने वाले अनेक प्रकार के जलों को आत्मसात् करती हुई, गंगा के रूप में काशी के चरण-स्पर्श करती हुई आगे बहती गयी है। भिन्न-भिन्न नदी नालों से आये मैले कुचैले जल और उनके साथ आने वाली अपवित्रता को विलीन करती हुई यह गंगा, काशी के घाटों पर स्नान करने वाले कोटि-कोटि भक्तों के शरीरों को पवित्र करने के साथ ही भक्तों की आत्मा को शान्ति भी प्रदान करती है।
इसी प्रकार अनादि काल से वेदों से उत्स्रवित हुआ धर्म और मनु के काल से प्रचलित संस्कृति परवर्ती काल में अनेकानेक मस्तिष्कों द्वारा विचारित तथा प्रचारित विचारधाराओं को आत्मसात् एवं उनकी कलुषित और दूषित बातों को भस्म करती हुई, आज भी काशी की पाठशालाओं में विद्यार्थियों के कण्ठों से उद्घोषित मन्त्रों द्वारा प्रतिध्वनित होती हुई सुनी जा सकती है। आज भी ‘ओं अग्निमीले पुरोहित’ आदि मन्त्रों की ध्वनि काशी की गलियों में गूँजती रहती है।

यदि काशी नगरी का इतिहास लिखा जाय तो वह भारत की सांस्कृतिक हलचलों का पूर्ण इतिहास हो जायेगा। काशी की इस महत्ता का विचार कर ही आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व एक युवा संन्यासी ने अपने शिष्यों के साथ भारत की सांस्कृतिक विजय करने के लिए स्तुति-प्रार्थना के इन श्लोकों का गान करते हुए पश्चिम की ओर से काशी में प्रवेश किया था-

‘‘गणपतिर्विघ्नराजो लम्बतुण्डो गजाननः।
द्वैमातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः।।

विनायकश्चारुकर्णः पशुपावों भवात्मजः।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।।

विश्व तस्य भवेद् वश्यं न च विघ्नं भवेत् क्वचित्।
सौराष्ट्रे सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरं।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गोमतीतटे।

वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने।।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये।।

वाराणसी में यह ध्वनि विलक्षण प्रतीत हो रही थी। गणेश, सोमनाथ त्र्यम्बक, विष्णु, ब्रह्मादि सब देवताओं की स्तुति में एक ही मुख से, एक ही स्वर में ये श्लोक, यहाँ की जनता में कौतूहल उत्पन्न करने वाले थे। यहाँ तो बौद्ध, जैन तथा वैण्णव मतावलम्बी और फिर वैष्णवों में शिव, राम कृष्ण काली इत्यादि के भक्त रहते थे और परम्परा एक-दूसरे की उपासना की निन्दा करते थे।
यह संन्यासियों की मण्डली तो एक ही स्वर में, एक ही मुख से भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं को नमस्कार कर रही थी।
जब यह मण्डली दशाश्वमेध घाट पर पहुँची तो उस समय गा रही थी-

‘‘सबिन्दुसिन्धुरस्खलत्तरंगभंगरंजितं
द्विषत्सु पापजातजातकारिवारिसंयुतम्।
कृतान्तदूतकालभूतभीतिहारिवर्मदे
त्वदीयपादपंकजं नमामि देवि नर्मदे।

यह अनोखी बात देख यहाँ के पण्डों, ब्राह्मणों, पूजा पाठ कराने वालों की भीड़ उनके चारों ओर एकत्रित होने लगी। सब विस्मय से गंगा के किनारे खड़े होकर नर्मदा की स्तुति के अष्टक सुन टुकर-टुकर इन संन्यासियों का मुख देखने लगे। फिर भी किसी को साहस नहीं हो रहा था कि वह इनके इस व्यवहार पर आपत्ति करे। यह काशी नगरी थी। यहाँ भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों के लोग आते थे और अपनी-अपनी डफली बजाते थे।
मण्डली के चारों ओर एकत्रिक भीड़ में एक प्रौढ़ावस्था का ब्राह्मण, माथे पर त्रिपुण्ड चित्रित किये, सिर पर चोटी की बड़ी-सी गाँठ दिये, कमर में धोती और कन्धे पर शिव नाम की ओढ़नी ओढ़े, पाँवों में खड़ाऊँ और हाथ में माला लिये खड़ा था। उसके पास एक चौदह पन्द्रह वर्ष की वय का बालक, लगभग वैसा ही वेश धारण किये खड़ा था। दोनों अन्य देखने वालों की भाँति अवाक् इन संन्यासियों की मण्डली की ओर देख रहे थे।

ये संन्यासी घाट पर पहुँच, वस्त्र उतार, लंगोट कसे हुए गंगा-स्नान के लिए जल में उतर गये। दर्शकों की भीड़ कम होने लगी। देखने वाले धीरे-धीरे अपने-अपने काम पर जाने लगे। वह वृद्ध ब्राह्मण भी समीप खड़े बालक को सम्बोधित कर कहने लगा, ‘‘चलो बेटा, विरोचन !’’
‘‘बाबा ये कौन हैं ?’’ बालक ने प्रश्न किया।
‘‘कह नहीं सकता।’’
बालक और वृद्ध दोनों चल पड़े। घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वृद्ध ने कहा ‘‘आज भारत में सब अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं। कोई किसी की नहीं सुनता। यही कारण है कि नित-नये, विचार और नये मार्ग निर्माण हो रहे हैं। आश्चर्य-कारक बात तो यह है कि सब अपने-अपने मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।’’
‘‘ऐसा क्यों करते हैं, ये लोग ?’’

‘‘क्योंकि लोग परस्पर एक दूसरे का विश्वास खो चुके हैं। सब स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं। देश और दाति का कल्याण वे अपने ही मार्ग से सम्भव मानते हैं। यहाँ तक कि वे दूसरे की बात सुना भी नहीं चाहते।’’
‘‘परन्तु ऐसा क्यों है बाबा ?’’
‘‘पढ़े-लिखे आप्त पुरुषों की महिमा कम हो गयी है।’’
‘‘यही तो पूछ रहा हूँ। यह अमानुषीय व्यवहार क्यों चल पड़ा है ?’’
‘‘एक अल्पशिक्षित और भावुक प्रकृति के व्यक्ति ने सहस्रों वर्षों से संकलित शास्त्र-ज्ञान को व्यर्थ कहकर, प्रत्येक व्यक्ति को केवलमात्र चिन्तन से मोक्ष-प्राप्ति का आश्वासन दे दिया था। अधिकांश शूद्र जाति के लोग, जो शिक्षा प्राप्त करने के अयोग्य सिद्ध हो चुके थे, जो किसी भी कार्यसिद्धि के लिए तपस्या-त्याग करने की सामर्थ्य नहीं रखते थे और जो समाज में शिक्षित लोगों की सेवा करने के ही योग्य थे, इस प्रकार मोक्ष-प्राप्ति का आश्वासन पा, उस व्यक्ति के भक्त हो गये। बाद में एक राजा का समर्थन प्राप्त कर मोक्ष-प्राप्ति का यह उपाय अति प्रिय हो गया।

‘‘बिना आधार के चिन्तन पृथकता का प्रतीक होता है। पृथकता समाज में द्वेष की सूचक है। ऐसी अवस्था उत्पन्न होने के बाद भारत में अनेक मत उत्पन्न हो गये और फिर उन मतों में सहनशीलता नहीं रही।’’
‘‘बाबा !’’ उस किशोर ने वृद्ध के मुख की ओर देखकर पूछा, ‘‘चिन्तन का आधार क्या होना चाहिए था ?’’
‘‘चिन्तन का आधार परमात्मा है। परमात्मा एक है, वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ सर्वनियन्ता, सर्वाधार इत्यादि गुणयुक्त होने से चिन्तन करने वाले पूर्ण संसार में एकता उत्पन्न करता है। ऐसे लोग स्वार्थरत होकर सबमें एक और एक में सबको देखने लगते हैं।

‘‘परन्तु वह भावुक व्यक्ति न तो परमात्मा को मानता था और न अपने में किसी आत्मा के अस्तित्व को।’’

इस समय वे एक गली में से जाते हुए विश्वनाथ जी के मन्दिर के सम्मुख होकर निकले तो वृद्ध एक दो क्षण के लिए खड़ा हो गया। वह मन्दिर की ओर मुख कर, हाथ जोड़ आँखें मूँद मुख से कुछ उच्चारण करता रहा। फिर शीश नवा आगे चलते हुए बालक को कहने लगा, ‘‘इस विश्वनाथ में सबका कल्याण करने की सामर्थ्य है। यही सबका कष्ट निवारण कर सकता है।’’
बालक गम्भीर विचार में मग्न हो गया। उसकी आँखों के समक्ष मन्दिर के भीतर का दृश्य आ गया। द्वार लाँघकर, मन्दिर के कोने-कोने में देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित थीं और भीतर आने वाले भक्त से प्रत्येक देवता का पुजारी अपने देवता के लिए भेंट माँगता था। ये पुजारी परस्पर एक दूसरे को सुहाते नहीं थे। न ही मुख्य मन्दिर का पुजारी इन पुजारियों को वहाँ देखना चाहता था। न अपनी इच्छा से कोई मन्दिर को छोड़कर जाना चाहता था और न कोई किसी दूसरे को निकालने की सामर्थ्य रखता था।

वह वृद्ध था काशिराज रत्नसिंह का पुरोहित पण्डित गजानन मिश्र और उसके साथ चलने वाला किशोर उसका पुत्र विरोचन कुमार था। दोनों दशाश्वमेध घाट पर स्नान कर अपने घर को आ रहे थे।
 
घर पहुँच पुरोहित जी अपने पूजागृह में चले गये और युवक अपनी माँ के पास चला गया। माँ पूजादि से निवृत्त हो चुकी थी। विरोचन उसके पास पहुँचा तो वह उसको पाकशाला में ले गयी। इसी समय साथ के कमरे में से एक बारह-तेरह वर्ष की लड़की निकलकर रसोईघर में आयी और विरोचन के समीप बैठ अल्पाहार की प्रतीक्षा करने लगी। जब माँ उनके लिए मिठाई निकाल रही थी तो विरोचन ने पूछा, ‘‘रमा ! अभी अल्पाहार नहीं किया ?’’
उत्तर माँ ने दिया, ‘‘इसकी तो नींद ही अब खुली है। कठिनाई से अभी शौचादि से निवृत्त हुई है।’’
‘यह तो तामसी व्यवहार है, रमा !’’
‘‘भैया ! मुझको सोने में आनन्द आता है।’’
‘‘यह प्रवृत्ति ब्राह्मण की लड़की के लिए उचित नहीं है।’’
‘‘विरोचन !’’ माँ ने रमा के सामने मिठाई रखते हुए कहाँ, ‘‘अब इसका विवाह कर देंगे, इसकी सास इसके स्वभाव को ठीक कर लेगी।’’
रमा ने ‘ऊँहूँ !’ कहकर माँ की योजना का तिरस्कार कर दिया। माँ ने विरोचन को कहा, ‘‘अब पाठशाला जाने के लिए तैयार हो जाओ। समय हो गया है।’’

:2:


काशी के महाराजा कभी बौद्ध नहीं हुए। एक ऐसा समय भारत में आया था, जब पाटलिपुत्राधिपति, सम्राट अशोक, कामभोज से कटक-पर्यन्त भारत का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए अपने सम्बन्धियों तथा विरोधियों को रक्त की नदी में डुबो, बौद्ध बन गया था। उस समय भारत के अधिकांश राजा और सामन्त अपने सम्राट के उदाहरण का अनुकरण करने में अपना कल्याण मानने लगे थे। जनता का वह वर्ग, जो आलस्य और प्रमाद से आच्छादित था, बौद्ध भिक्षु बनकर सुख प्राप्ति की आशा से, बौद्ध-विहारों में प्रविष्ट होता जाता था।
ऐसे समय में भी, जब बौद्ध मत की तूती बोल रही थी और देश का वह वर्ग जो राज्याश्रय में जाने में लाभ समझता था, बौद्ध-मतावलम्बी हो रहा था, तब भी काशी के महाराज अपने प्राचीन वैदिक सिद्धान्त पर दृढ़ रहे थे। काशी-नरेशों में वैदिक मत की परम्परा सी चल रही थी और इस परम्परा को काशी के शास्त्रियों और विद्वानों से समय-समय पर बल मिलता रहता था।

यों तो महात्मा बुद्धि ने भी अपने मत का प्रचार काशी, सारनाथ से ही आरम्भ किया था और यहीं पर उसने अपने विचारों को एक रूप दिया था। यहीं उसने बौद्धमन्त्र ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरण गच्छामि’ का प्रथम बार समाघोष किया था, फिर भी बौद्ध मत यहाँ फल-फूल नहीं सका। यहाँ की भूमि अर्थात् जनता में सदैव आर्य विचाराधारा की मात्रा इतनी प्रबल बनी रही है कि उसकी विद्यमानता में युक्ति-विहीन अथवा अव्यावहारिक बौद्ध-विचारधारा अंकुरित नहीं हो सकी।

काशी के विद्वानों के सम्मुख न तो चार्वाक की नास्तिकता और न ही महात्मा बुद्धि की यह बात कि पूर्ण जगत् माया और प्रकृति का एक रूप मात्र है, चल सकी। जब-जब भी नास्तिकवाद के समर्थकों ने काशिराज के सम्मुख उपस्थित हो, अपने पक्ष का समर्थन करना चाहा, तब ही वहाँ एक महान् धर्म-सम्मेलन सम्पन्न कर दिया गया और उसमें दूर दूर के विद्वानों को आकर अपने-अपने मत का समर्थन करने के लिए अवसर गिया गया।
ऐसे सम्मेलनों में वाद-विवाद के प्रायः दो विषय होते थे-आत्मा-परमात्मा का अस्तित्व और वर्णाश्रम-धर्म की उपयोगिता।
नास्तिकवादी कह देता-परमात्मा नहीं है। वह कहीं दिखाई नहीं देता।’

वैदिक धर्मानुयायी पूछ लेता, ‘क्या किसी वस्तु का दिखाई न देना इस बात का प्रमाण है कि वह नहीं है ?’
‘इसमें दो वचन नहीं हो सकते।’
‘तो भिक्षु महोदय यह बताने का कष्ट करें कि उनकी पीठ के पीछे बैठा व्यक्ति क्या कर रहा है।’


 



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