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साँसों के साये

मदनलाल वर्मा

प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5306
आईएसबीएन :81-88435-13-9

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पुरस्कृत उपन्यास

Sanson Ke Saye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पहला उच्छ्वास

काले-काले धब्बे उभर रहे थे दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे ! कहीं कुछ दिखाई नहीं देता था। इतना घना अँधेरा। आँखें पूरी तरह खुली हुई थीं, पर उस भयानक जंगल में कोई भी तो ऐसा नहीं था, जिसे वह देख सकता। आसमान के सितारे भी गायब थे, उनको बादलों ने अपने अंदर छुपा लिया था। कृष्णपक्ष की अमावस्या की रात को बाहर निकल पड़ना और वह भी शहरी कोलाहल से कई किलोमीटर दूर, दिमाग में खराबी होना नहीं तो और क्या था ? उसके दिमाग को कीड़ों ने चाट रखा था और उसे ठण्डक पहुँचाने के लिए एक दिन मुलायम गद्देदार बिस्तर को भी छोड़ना पड़ा था।

मखमली मनसद के सहारे बैठने वाला, एयरकण्डीशण्ड कमरों की शोभा बढ़ाने वाला और चापलूस नौकरों की चिकनी-चुपड़ी बातों से कानों में एक दिव्य सुख की अनुभूति करने वाला आज खाक छान रहा था जंगलों में बादल काले थे, पर बिजली की चमक उनमें नहीं थी। अँधेरी रात की गुफाओं में किसी शेर-चीते की दहाड़ भी तो वहाँ सुनाई नहीं दे रही थी।
अन्यथा उनकी आँखों की चमक से कुछ रास्ता तो उसे दिखाई देता !
वह अपने मन के अन्धकार पर विजय पाने के लिए प्रकाश की ओर भागने की कोशिश में था। जीवन की विलासिता का भरपूर आनन्द उठाने की शायद उसने कसम खाकर यह पग बढ़ाया था।
उसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे दैत्याकार ! ऊपर आकाश में कालिमा का साम्राज्य था। खुले स्थान पर जहाँ कोई ऊँची दीवार नहीं थी, उसे घुटन महसूस होने लगी। उसने चलना नहीं छोड़ा। बादल खूब इकट्ठे हो गए थे, पर बरसात का नाम भी नहीं था। अन्धे की तरह टटोल-टटोलकर रास्ते की दूरी तय करना उसी के बस की बात थी
सपनों और नींद के बखेड़े को छोड़कर सामूहिक स्मृतियों के जाल को उड़ाते हुए वह मानों इस दुनिया से पलायन कर रहा था। स्थिति पर काबू पा लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। एक अनजानी राह की ऊबड़-खाबड़ चट्टानें थीं उसके सामने, पर उन्हें वह देख नहीं पा रहा था।
घुमड़ते हुए बादलों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। काफी देर के बाद उसने बिजली की लकीर में अपनी चुँधियाती आँखों से चारों तरफ देखा। उसे डर लगने लगा। पाँव लड़खड़ाने लगे।
भगवे कपड़ों में झिलमिलाता उसका तेजस्वी शरीर फीका पड़ने लगा। हाथ में पकड़ा कमण्डल डोलने लगा। चेहरे की लाली पर एक मूक सफेदी उभर आई। उसका गोरा मुख और अधिक गोरा हो गया। दाईं भुजा पर कलाई से थोड़ा ऊपर कुहनी की विपरीत दिशा से नीचे अंग्रेजी में खुदे अपने नाम पर उसकी अचानक नजर पड़ गई।

उसने बड़े ध्यान से अपना नाम पढ़ा—‘एल.आर.य मोदी’ अर्थात् लखपतराय मोदी। उसके दिल में आया—‘अपने इस नाम को किसी जंगली शूल से खरोंच डालूँ,’ पर वह ऐसा न कर सका। अब वह ‘भास्करानन्द गिरि’ था उसे अपने पुराने नाम से नफरत हो रही थी।
अचानक बादल बरस पड़े। वह भीगने लगा। अपना शरीर ढकने के लिए उसे कहीं आश्रय न दिखाई दिया। वह झाँसी की जगमगाती नगरी से काफी दूर निकल आया था। जब वहाँ से चला था, रात के दस बजे थे।
भीगते कपड़ों में वह सोचने लगा—
‘अब तक तो सब सो चुके होंगे। वह मोटी नाक वाला सर्वदानन्द गिरि भी अब जरूर सो गया होगा। कितना ज्ञान बघारता था उसके सामने। गृहस्थ आश्रम का परित्याग किए उसे भी तो डेढ़ वर्ष हो चुका है।
—और एकाएक उसके दिल का डर कहीं दूर क्षितिज में विलीन हो गया। उसे याद आया।
‘दस साल पहले जब उसका विवाह हुआ था, तो अपनी अर्धांगिनी की सुन्दरता पर मोहित होकर अपने शेष कर्तव्यों को भूलकर दिन-रात भोग-विलास में रत रहता था। उसे माता-पिता, भाई, चाचा सभी समझाते थे, पर वह था कि उसके कानों पर जूँ न रेंगती थी। और जिस लिए वह सब झूठा सपना है।
सारी-सारी रात अपनी पत्नी के संग विहार करते हुए कटती थी। धन की परवाह न थी उसे। पिता का करोड़ों का व्यापार था। ऐशो-आराम में रूपया पानी की तरह बहाते हुए उसे शर्म तक न महसूस होती थी। वही वह आज नारी-मात्र से नफ़रत करता है।
गोरी चमड़ी के आकर्षण में साढ़े नौ वर्ष व्यतीत हो गए और एक दिन किसी छोटी-सी बात पर उसकी अपनी पत्नी सुरेखा से तू-तू मैं-मैं हो गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह रात के गहरे सन्नाटे में चुपचाप घर को छोड़कर निकल भागा।’
....वर्षा बहुत तेज़ हो गई। दामिनी की दमक में भास्करानन्द गिरि को एक खण्डहर दिखाई दिया। वह उसी ओर बढ़ गया काली चट्टानों को लाँघता हुआ। खण्डहर के एक भाग में सिर छुपाने की पर्याप्त जगह थी। वह वहाँ बैठ गया।
ओले पड़ने लगे। उसने परमात्मा का धन्यवाद किया कि वह ओलों से थपेड़ों की मार से बच गया।
उस पहाड़ी प्रदेश में अब वह उन्मुक्त था। किसी के आधीन नहीं था। ऊपर विस्तृत आकाश और नीचे वह एकाकी। उसे विचित्र सुख की अनुभूति हुई। हिंस्र जीवों और जहरीले साँपों का भय अब पूरी तरह से दूर हो गया।
विचारों की श्रृंखला टूटी न थी। वह अतीत की याद में लीन था।
‘...वह घर छोड़कर नगर में ही रात में एक दूकान के चबूतरे पर काटकर ब्राह्यमुहूर्त बेला में चल पड़ा था किसी गुरु की खोज में, जो उसके मन में उठते हुए बवण्डर को शान्त कर सकता।
उसने कई मठों में साधुओं की शरण ली, पर कहीं भी उसके मन को शीतल करने वाला गुरु न मिला था। आखिर उसने झाँसी से कुछ किलोमीटर परे श्मशान भूमि में रहने वाले एक अघोरी साधु के विषय में सुना कि ‘वह साधु चमत्कारी सिद्ध है। जिस पर उसकी कृपा हो जाती है। वह इस संसार में रहता हुआ भी सब प्रकार की बाधाओं से छूट जाता है। उसके दिल में शान्ति का निर्झर बहने लग जाता है।
तब उसने निश्चय किया कि उस अघोरी साधु की शरण में जाएगा।
एक दिन शाम को अपने भावी गुरु की भेंट के लिए कुछ बर्फी लेकर और उसे अपने झोले में छुपाकर वह चल पड़ा उसी श्मशान भूमि की ओर।
वह जब वहाँ पहुँचा, तो आश्चर्य हुआ कि वहाँ कोई भी न था। किसी की चिता जल-जल कर बुझ रही थी। एक छोटी-सी घासफूस की झोपड़ी थी पर अन्दर कोई भी न था।
उसे पहले तो बड़ी निराशा हुई, पर दूसरे ही क्षण वह यह सोचकर कि झोंपड़ी के सामने बने हुए कुएँ की जगत पर बैठ गया कि—‘साधु जी कहीं जंगल में समिधाएँ बटोलने गए होंगे, अभी थोड़ी देर में आ जाएँगे।’
श्मशान भूमि रात की काली चादर से ढक गई। गीदड़ों की आवाज़ें आने लगीं। उसका दिल दहल उठा। पर निश्चय का प्रस्तर काफी भारी था, उसे मन की गुफा के द्वार से हटाना असम्भव था।
झलमल-झलमल नक्षत्रों के नीचे पड़ा वह किसी दुःस्वप्न् में डूबने लगा कि अचानक अँधेरे में उसे किसी की धूमिल छाया दिखाई दी। बड़ी लम्बी-चौड़ी छाया !
भय के कारण उसकी आँखें बन्द हो गईं और वह जैसे गिरने को था कि अचानक एक भारी भरकम-सी आवाज पड़ी उसके कानों में।
‘‘बच्चा ! डरो नहीं, मैं तुम्हारे पास हूँ। आओ अन्दर ! बाहर क्यों बैठे हो ! मैं तुम्हें ही तो ढूढ़ने निकला था।’’
और वह बिना कुछ उत्तर दिए उस काली छाया के पीछे-पीछे चलने लगा।
उसकी निराशा आशा में बदल गई। ये वही साधुजी थे, जिनके लिए वह इतनी बाधाएँ पार करके वहाँ पहुँचा था।
झोंपड़ी के अन्दर प्रवेश करते ही उन्होंने उसे जमीन पर बैठने का संकेत किया। धूनी की आग में उसने भावी गुरुजी की आकृति देखी।
...लम्बी-लम्बी दाढ़ी। लम्बा-साँवला सुगठित शरीर। तन पर केवल ए लंगोटी। आँखें बड़ी-बड़ी लाल-लाल। गालों पर स्निग्ध लालिमा। मस्तक विशाल। जटाओं की सघनता। चेहरा मूछों और दाढ़ी के बालों में मानो पूरी तरह ढका हुआ।
ग्रथों में समाधि लगाने वाले योगियों की जैसी चर्चा पढ़ी थी और साधुओं के मुख पर जिस तेज की कल्पना मन में की थी, वह सबकुछ यहाँ प्रत्यक्ष देख रहा था।
उनकी आज्ञानुसार वह उनके सामने ही नीचे पृथ्वी पर टिककर बैठ गया दोनों हाथ जोड़कर। झोला अपनी काँख में दबाकर उसने सोचा।
‘साधूजी को बर्फ़ी भेंट करूँ।’
साधुजी जैसे उसके मन की बात को ताड़ गये, अतः उन्होंने झट ऊँची आवाज़ में कहा, ‘‘बच्चा ! लाओ बर्फ़ी, जो मेरे लिए झोले में छुपाकर रखी हुई है।’’
और उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने बर्फ़ी झोले में से निकालकर उनको अर्पित करते हुए मन में सोचा—
‘ये तो त्रिकालदर्शी महात्मा हैं। मैं इन्हें ही अपना गुरु बनाऊँगा।’
थोड़े क्षणों तक वहाँ बिलकुल खामोश रही। अब तक उसके मुख से बोल तक न फूटा था। वह तो जैसे गूँगा हो चुका था। उसकी दशा एक यन्त्र की भाँति थी, जिसका ‘मेन स्विच’ साधुजी के वश में था। अतः वे जैसा कहते, वह करता रहा।
अचानक उन्होंने आँखें मूँद लीं और वह चुपचाप उनकी इस चेष्टा को निहारता हुआ वहीं जमीन पर बैठा रहा।

भय के कारण अब तक आँखों में नींद नहीं थी, पर उनके आँखें मूँदते ही उसकी भी आँखें तन्द्रिल होने लगीं। उसकी इच्छा हुई, वह जमीन पर सो जाए; और अचानक साधुजी ने आँखें खोलकर उसे कहा—‘बच्चा ! नींद आ रही है क्या ! सो जाओ यहीं पर। भूख लगी है, तो लो यह बर्फ़ी और सेब।’’


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