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वे भेड़िए

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

प्रकाशक : पराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :181
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5312
आईएसबीएन :81-7468-045-4

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मध्यवर्गीय स्त्रियों के जीवन पर आधारित कहानी-संग्रह...

Ve bhediye - An Indian Book by Chandrakiran Saunrexa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘तीव्रता की दृष्टि से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा सबसे अधिक उल्लेखनीय है।....मध्यवर्गीय जीवन में पाखण्डों और स्वार्थ पर, आकांक्षाओं पर, चन्द्रकिरण इतनी गहरी चोट करती हैं कि पाठक तिलमिला उठे...।’’
-अज्ञेय

‘‘महादेवी ने जो प्रसिद्धि कविता क्षेत्र में प्राप्त की है, चन्द्रकिरण ने वही कहानी के क्षेत्र में पाई। मध्यम वर्ग की नारी का जितना यथार्थ चित्रण आपकी कहानियों में हुआ उतना कदाचित ही किसी कथाकार की कृतियों में हुआ हो।’’

-विष्णु प्रभाकर

‘‘निम्न मध्यवर्ग के घरों के अन्दर का, विशेषकर स्त्रियों का इतना स्वाभाविक और पैना चित्र अन्यत्र दुर्लभ है। नारी की स्वभावगत तुच्छता एवं क्षुद्रता का भी, उनका अध्ययन बहुत व्यापक है। आज के कहानीकारों में, मैं उनका स्थान बहुत ऊँचा मानता हूँ।’’

-श्रीपत राय

‘‘सजीव पात्रों की सृष्टि करने में वे शरदचन्द के समकक्ष ठहरती हैं, तो सरल एवं प्रभावपूर्ण भाषा-शैली में मुंशी प्रेमचन्द से टक्कर लेती प्रतीत होती हैं।’’

-डॉ. उर्मिला गुप्ता


राह के रोड़े

पूरे अढ़सठ दिनों की मेहनत और दौड़-धूप के बाद फज्जा आज स्टेशन पर अपना ताँगा लेकर खड़ा था। कल दिन-छिपे उसे नम्बर और लाइसेन्स मिला था। घोड़े की रास एक बार फटकारकर अपने ताँगे के नए रंग-रोगन की टीप-टाप को संतोष की दृष्टि से देख उसने पुकार लगाई—‘‘बाबू जी, शहर को।’ फिर वह चुप हो गया, क्योंकि उसे याद आ गया कि यह दिल्ली है, अमरोहा नहीं, जहाँ पुकारते-पुकारते गला सूखा जाने पर भी आठ आने से ज्यादा की सवारी एक बार में न मिली  थी और जहाँ सड़कें इतनी खराब थीं कि हर पन्द्रहवें दिन घोड़े के नाल ठुकवानी पड़ती थी तथा टायर साल बीतने से पहले ही चल बसते थे। तीन-चार साल ताँगा हाँककर भी वहाँ जब पेट के लाले पड़ा रहे हैं, तब दो सौ रुपये सेखू नूर अहमद से उधार लेकर ताँगे की मरम्मत कराकर वह दिल्ली आ गया। सुना था कि दिल्ली में सोना बरसता है और यहाँ आकर वह दंग रह गया था, चार दिन में वह उसका घोड़ा पूरे पच्चीस रुपये खा चुके थे, जल्दी लाइसेन्स लेने के लिए पुलिस वालों के पेट में जो कुछ उतार चुका था, वह बट्टे खाते में था। परन्तु यहाँ के रेट बहुत चढ़े हुए हैं, यह यहाँ के ताँगेवालों ने उसे समझा दिया था कि यहाँ तीन आने सवारी के हिसाब तो कुतुब रोड से पहाड़गंज तक ही दिन में पचास फेरे डाल सकते हो। दस रुपए रोड तक तो  मामूली चीज है।

पेशावर मेल रुका और पन्द्रह मिनट में ही ताँगे सवारियाँ भरने लगे।
तीन मुसलमान, कुलियों के सिर पर सामान रखाए, फज्जा के ताँगे की तरफ बढ़े।
‘‘मियाँ मसूद, इसमें चलेंगे।’’ उन्होंने अपने साथी को पुकारा।
‘‘करौल बाग क्या लोगे ?’’ दूसरे ने फज्जा से पूछा।
‘‘दो रुपए।’’

‘‘लाहौल बिला कूवत। अरे मियाँ सवा रुपया लो। तुम दीनारों को भी लूटते हो।’’
‘‘दीनदारों से पेट नहीं भरता साब !’’ कहकर फज्जा ने ताँगे का रुख दूसरी तरफ फेर लिया—‘‘दीनी भाई है, तो इन्हें मुफ्त में ले चलो, खूब कही। नूर भी तो दीनी भाई है, वह क्या अपना रुपया छोड़ देगा या सूद न लेगा।’’
‘‘अरे, वह तो चल दिया !’’ मसूद ने अशरफ से कहा—‘‘इन ताँगे वालों को तो काले पानी भिजवा दें, बस।’’
‘‘यार पाकिस्तान हो जाए, तो काफिरों के साथ इनकी अक्ल भी ठिकाने लगाई जाए।’’

‘‘अरे, डेढ़ लेगा ?’’ मसूद ने पुकारा—‘‘अच्छा पौने दो ले लो ! चल, उठा सामान।’’ फज्जा को इन पर गुस्सा तो बहुत था, उसने काले पानी वाला फिकरा सुन लिया था। परन्तु पाकिस्तान क्या है, यह वह नहीं समझा। कांग्रेस के राज में सुराज होने की बात तो सुनी थी। खद्दर पहनने वाले कांग्रेसियों को इज्जत भी उसके दिल में बहुत थी। क्योंकि थोड़े दिनों को सही, जब उन्हें हुकूमत मिली थी, तो पुलिसवालों की दुरुस्ती हो गई थी। उन दिनों फज्जा ने किसी लाल पगड़ी वाले को एक पैसा भी रिश्वत का नहीं दिया था और सुना था कि पूरा सुराज होने पर सब के दुख दूर हो जाएँगे। अदालत और वकील मिट जाएँगे। पंचायत से ही सब मामले तय हो जाया करेंगे....पर यह पाकिस्तान क्या है ? वह गाँव से शहर में आया है। वहाँ नई-नई बातें बहुत कम सुनने को मिलती हैं, जहाँ सवारियाँ भी बस ज्यादातर व्यापार, गल्ले और कपड़े की निगरानी, लड़ाई के हालचाल, हिटलर की मौत और हिटलर के जादू से गायब हो जाने की बातें करते थे। उसने सोचकर कहा—‘‘अच्छा, बैठिए साब ! और उसने बैठ जाने पर ताँगा हाँककर सकुचाते हुए पूछा—‘‘साब यह पाकिस्तान कौन शहर है ?’’

वे चारों हँस पड़े। अचकन के बटन ठीक से लगाते हुए अशरफ ने कहा—‘‘तुम क्या शिकारपुर के रहने वाले हो—यार। पाकिस्तान हम दीनदारों की जन्नत होगी, जन्नत—जहाँ बस हम ही होंगे और हमारी हुकूमत होगी।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘भई अभी ये तै नहीं हुआ है। शायद पंजाब, सिन्ध, बंगाल वगैरह में....’’
‘‘वहाँ के हिन्दू कहाँ जाएँगे ?’’ फज्जा ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘जहन्नुम में। रहेंगे तो वहीं, लेकिन फिर वे हम पर हुक्मरानी न कर सकेंगे, अपने करीने से बैठे रहेंगे, या अपने हिन्दुस्तान का रास्ता पकड़ेंगे।’’

और फज्जा सोचने लगा—‘यह तो बड़ी मुसीबत होगी। मैं खाली कमाने के लिए दिल्ली आया हूँ, सदा के लिए वतन छोड़ने की बात तो दूर है। तब भी आते वक्त दिल छोटा होने लगता था। रोज ही अपनी गली, मोहल्ला, भाई-बन्द याद आते रहते हैं। फिर पाकिस्तान के हिन्दुओं को अपना वतन हमेशा के लिए छोड़ना कितना बुरा लगेगा और हिन्दुस्तान के मुसलमान ही पाकिस्तान में क्यों जाने लगे। उनके लिए वह परदेश बराबर।’
‘‘आपका मतलब सुराज से है।’’ उसने कुछ देर में कहा—‘‘कांग्रेस वाले भी तो कहते हैं कि सुराज में सबकी तकलीफें दूर हो जावेंगी।’’

‘‘लानत कांग्रेस पर ! वह तो खालिस हिन्दुओं की जमाअत है।’’
‘‘नहीं, साब,’’ फज्जा ने घोड़े को चाबुक मारी—ओ ! तोरी तो माँ मर जाए। कांग्रेस में हमारे शहर के मियाँ सलाउद्दीन, जनाब कुदुस खाँ भी तो हैं। हमारे ही मुहल्ले का महमूद भी...’’
‘‘वे लोग असली मुसलमान नहीं हैं, जो पैसे के लिए अपने हममज़हबों का साथ न दें।’’
‘‘यार, लेक्चर बंद कर।’’ मसूद ने असरफ को टोका—‘‘क्या तोता पढ़ा रहा है ? मियाँ ताँगे वाले, तुम्हारा घोड़ा तो एकदम मरियल टट्टू है। जरा इससे कहो कि जल्दी चले।’’

और फज्जा ने घोड़े के एक चाबुक रसीद किया। उसकी माँ के साथ निकट का संबंध स्थापित करते हुए मुड़कर मसूद ने कहा—‘‘खाँ साब, हम तोते हैं तो आप भी ईरान के बुलबुल नहीं हैं। बिना पाकिस्तान के, आप अपने मजदूर दीनी भाई को तोता कहते हैं। पाकिस्तान मिल गया तो भूनकर खा जाएँगे। अल्लाह न करे, पाकिस्तान बने। इससे तो कांग्रेस का सुराज अच्छा....।’
‘‘अबे, जबान सम्हाल ! बड़-बड़ किए जा रहा है।’’ मसूद ने तेज पड़कर कहा—‘‘तुम जैसे इन अहम मसलों को क्या समझो...’’

बात बढ़ जाती, पर करौल बाग आ गया था।
‘‘रोक ! रोक !’’ कहकर अशरफ कूद पड़ा, उसने मसूद को भी हाथ खींचकर उतार लिया। दोनों साथी भी उतर आए। सादिक ने फज्जा को रुपया थमा दिया और वह बड़बड़ाता हुआ ताँगा मोड़कर चला।
चौराहे के एक किनारे ताँगा रोककर सवारी के इन्तजार में बैठा फज्जा फिर सोचने लगा—‘वाकई में पाकिस्तान अगर दीनी भाइयों के लिए फायदेमन्द हो तो बन ही जाए ! दीन से बढ़कर क्या है’...कि ‘ओ भाई ताँगे वाले’ की पुकार सुनकर उसने पलक उठाकर देखा, दो खद्दरपोश खड़े थे। एक लम्बा पतला गोरा-सा उभरे गालों वाला युवक था, आँखों पर चश्मा चढ़ाए, बगल में अखबार दबाए थे। दूसरा चढ़ी उम्र का ठिगना मजबूत आदमी था। दोनों पायजामा, कुरता और सदरी पहने थे।
‘‘दरियागंज का क्या लोगे ?’’

‘‘हाँ भाई, जरा ईमानदारी से बतलाना,’’ लम्बे युवक ने जल्दी से कहा—‘‘हम भी तुम्हारी तरह मजदूर हैं।’’
‘‘मजदूर आदमी।’’ फज्जा ने जरा गौर से उन्हें देखा। कुरते-पायजामे में भी वे बाबू से मालूम पड़ते थे, फिर भी उनके कहने के ढंग ने उसे नरम कर दिया।
‘‘बारह आने होंगे।’’
और बिना कुछ कहे वे दोनों ताँगे में आ बैठे।

‘‘जरा जल्दी करना,’’ लम्बे युवक ने फज्जे से कहकर फिर से अपनी साथी से कहा—‘‘मैं कह रहा था कि कांग्रेस हमें रखे या न रखे, हमें लोगों के आत्मनिर्णय और पाकिस्तान को मानना होगा। रूस में भी पहले प्रत्येक प्रान्त की स्वतन्त्रता मान ली गई, फिर वे स्वेच्छा से संघ शासन में सम्मिलित हुए। पाकिस्तान की माँग स्वीकार करके ही कांग्रेस मुसलमानों को साथ रख सकती है।’’
‘‘मतलब यह है कि तुम कांग्रेस को हिंदुओं की संस्था समझते हो। एक तरह वह झूठ नहीं है। थोड़े से राष्ट्रवादी मुसलमान ही तो उनके साथ हैं। फिर जब लीग मुसलमानों के बहुमतों की प्रतिनिधि है, तब उससे समझौता करके ही सरकार को झुकाया जा सकता है। अगर लीग साथ है तो...’’

फज्जे ने टोक ही दिया—‘‘बाबूजी ! क्या मुसलमान अब कांग्रेसी नहीं हो सकते ?’’
‘‘नहीं भई, कांग्रेसी तो बन सकते हैं, पर अगर बहुत से लोग साथ न रहना चाहें तो ? घर में चार भाई हैं एक अलहदा होकर ही राजी है तो उसे सीधी तरह अलहदा होने दें। तीन को तो यह अधिकार नहीं है कि उसका गला घोंट दें।’’
‘‘बात तो ठीक है, बाबू जी !’’ फज्जे ने समझने की चेष्टा करते हुए कहा—‘‘भटकने दें साले को !’’ पर वह नहीं सोच पा रहा कि कौन अलग होना चाहता है और मुसलमान अलग होकर जाएँगे कहाँ। उसने तो देखा है कि उसके ही मुहल्ले में पुश्तों से हिन्दू-मुसलमानों के घर-मकान बराबर-बराबर बने हैं। यूँ तो खुदा ने उन्हें अलहदा-अलहदा बनाया ही है। रोटी का साथ न बेटी का रिश्ता, फिर भी मुहल्ले के हिन्दू-मुसलमान दुख-मुसीबत में एक-दूसरे के मददगार होते हैं। ‘‘हटना..बचो लाला जी !’’ उसने पुकार मचाई, हौज काजी के फव्वारे पर ताँगा आ गया था।

‘‘चल मरदुए।’’ घोड़े पर हन्टर पड़ा और वह चिपके बालों वाला कहता रहा—‘‘हम लोग जबर्दस्ती का अखण्ड हिन्दुस्तान बनाने पर तुले हैं, वैसे हम अपने भाइयों की अछूतों से ज्यादा कदर नहीं करते। अभी परसों जनरल मार्केट का हबीब कह रहा था कि हिन्दू हमें कुत्ते से बदतर समझते हैं, हमारे हाथ का छुआ तक नहीं खाते। ऐसों को हम अपना भाई कैसे समझें....’’
और ठिगने आदमी ने फज्जा का कन्धा छूकर कहा—‘‘आ गए, बस यहीं पर रोक लो।’’
पैसे देकर वे लोग चले गए। फज्जा ने सोचा-वाकई हमारा हिन्दुओं से मेल कैसे हो। हमारे हाथ का छुआ तक नहीं खाते। उसे आज मालूम हुआ कि हिन्दुओं के साथ तो रहा ही नहीं जा सकता परन्तु फिर रहें कहाँ ? अच्छा पाकिस्तान बन जाए तो......

‘‘ऐ ताँगेवाले ! भई जरा जल्दी, पार्क ले चलो’’, और तीन-चार बिल्लेवाले खद्दरधारी ताँगे में लद गए।
फज्जा देखते ही समझ गया कि कांग्रेसी हैं। कांग्रेस के लिए उसके दिल में बहुत इज्जत है। पाकिस्तान बहुत बढ़िया चीज है, पर स्वराज्य भी कुछ बुरा न रहता, आखिर यह सब हैं तो देशी आदमी.....। बिना रेट तय किए ही उसने घोड़ा मोड़ लिया। यह गैर मुल्क के लोग चले जावें, फिर बनता रहेगा पाकिस्तान। पहले यह गुलामी तो छूटे फज्जा सोचने लगा।
उसने घोड़े को थपथपाया—चल, बेटा। फिर मुड़कर बोला—‘‘साब, आप कांग्रेसी दिखते हैं। यह पाकिस्तान का क्या किस्सा है....अगर थोड़े मुसलमान झगड़ा करते हैं तो कांग्रेस उनकी बात का....’’
वे खद्दरपोश महोदय उछल पड़े। दोनों हाथों में मुट्ठियाँ बन्द किए एक बोला—‘‘हम ऐसे मुसलमानों का सिर तोड़ देंगे। वे लोग अपने मतलब के लिए अखण्ड भारत को नष्ट कर देना चाहते हैं। काँग्रेस से गद्दारी कर रहे हैं। जरा स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाए, फिर एक-एक को समझेंगे। इन गद्दारों को फाँसी पर न लटका दिया तो नाम.....’’


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