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ए क्लास का कैदी

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5316
आईएसबीएन :81-88435-27-9

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श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...

A Class Ka Kaidi A Hindi Book by - Chandrakiran Saunrexa- ए क्लास का कैदी- चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दुःख पाने पर व्यक्ति रोता है चीखता है और इस प्रकार अपनी पीड़ा दूसरों को बताकर उनकी सहानुभूति पाता है। सुखी होता है तो नाचता, गाता, खुशी मनाता है। उन क्षणों को स्थायी बना देने वाले पल ही कला को जन्म देते हैं। मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला और साहित्य सबका जन्म इसी प्रकार हुआ है।

बचपन में आस-पड़ोस के दुःखी जनों की पीड़ा मुझे पीड़ित कर देती थी। सोचती थी अपनी बात लिख कर बताऊँ जो पत्र पत्रिकाओं में छपे और पाठकगण भी मेरी तरह सोचें तो इन कष्टों और विषमताओं का परिहार हो सके। कदाचित् इसी संवेदना ने मुझे साहित्यकार बना दिया। उसी पुराने वर्तमान के कड़वे सच को इन कहानियों के माध्यम से मैंने साहित्य में संजोने का प्रयास किया है।
आज की पीढ़ी इन्हें पढ़कर अपने वर्तमान को स्वस्थ और सुखी बनाने का प्रयत्न करे और साहित्यिक रस भी पावे, इसी सद्भावना के साथ...

चन्द्रकिरण सौनेरेक्सा



19 अक्टूबर सन् 1920 को पेशावर छावनी नौशहरा में जन्मी चन्द्रकिरण की शिक्षा मेरठ में हुई। हिन्दी साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण करने के साथ-साथ स्वाध्याय द्वारा अंग्रेजी, उर्दू, बाँग्ला, गुजराती एवं गुरुमुखी आदि भाषाएँ सीखीं। सन् 1940 में नवोदित लेखक, पत्रकार कान्तिचन्द्र सौनरेक्सा से विवाह हुआ।

प्रथम कहानी सन् 1931 में प्रकाशित हुई। सन् 1946 में सेक्सरिया पुरस्कार प्राप्त कहानी संग्रह ‘आदमखोर’ को लंदन विश्वविद्यालय के ‘द इन्सटिट्यूट ऑफ ओरियण्टल स्टडीज’ पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। सन् 1956-79 तक आकाशवाणी लखनऊ में लेखन कार्य करते हुए अनेक नाटकों, कहानियों वार्ताओं व बाल-साहित्य का सृजन व प्रसारण किया।
तीन-सौ से अधिक कहानियाँ। चार उपन्यास-‘चन्द्रन चाँदनी’, ‘वंचिता’, ‘और दिया जलता रहा, ‘कहीं से कहीं नहीं’। ‘छाया’ व ‘ज्योत्सना’ उपनाम से रचित कविताएँ। नुक्कड़ नाटक। रूसी में अनुदित कहानी संग्रह ‘द्येन रोज’ द्येन्या; दूरदर्शन पर प्रदर्शित फिल्म ‘गुमराह’ में समाहित है चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का लेखन।
सन् 1986 में ‘सारस्वत सम्मान’, सन् 1988 में ‘सुभद्रा कुमारी चौहान पदक’ तथा स्त्री सशक्तिकरण वर्ष सन् 2001 में ‘सर्वश्रेष्ठ हिन्दी लेखिका’ की उपाधि से दिल्ली हिन्दी अकादमी द्वारा अलंकृत।


न खुदा ही मिले, न बिसाले सनम


हॉर्स माने हाथी ! प्रोफेसर तड़प उठे। किंग रीडर को एक झटके में द्वार के बाहर फेंकते हुए उन्होंने चीखकर कहा-‘‘राधा।’’
और राधा की सिट्टी गुम। घबराहट में उसके हाथ से दवात भी छूट पड़ी। सारी स्याही उसकी साड़ी पर बहती हुई फर्श पर बिखर पड़ी। वह पीपल के पत्ते की भाँति काँप गई।
‘‘यही सीखा है तुमने इन प्रन्द्रह दिनों में ! तब तो तुम बहुत जल्द अंग्रेजी पढ़ जाओगी। न जाने ईश्वर ने दुनिया भर का कूड़ा-कचरा तुम्हारे ही मस्तक में भर दिया था, और फिर खूब सहेज-सँवारकर मेरे लिए ही तुम्हें कुमारी रख छोड़ा था। क्रोधातिरेक से उनके गले से और शब्द न निकल सके।
राधा का मन रो उठा। दुनिया भर का कूड़ा-कचरा। ओ ! कुछ कहने को उसके होंठ फड़क उठे। कुछ भी कोई कड़ी-सी बात, तड़पा देने वाला व्यंग्य। परन्तु गले से आवाज न निकली। तीन मास से वह रात-दिन की यह अवहेलना, यह तिरस्कार सह रही है; फिर भी प्रोफेसर को उत्तर देने का साहस उसका हृदय अपनी स्वाभाविक दुर्बलता के कारण अभी तक बटोर नहीं पाया था। हारकर उसका आहत बेबस अभिमान आँसुओं के रूप में आँखों में उबल उठा। वह रो पड़ी।

नीली स्याही से पुती, बिखरे बालों वाली, साधारण शिक्षिता गेहुएँ रंग की सरल युवती राधा के गालों पर बहती आँसुओं की वे धारायें प्रोफेसर के विरक्तिमय क्रोध में घृताहुति का काम कर गई।
मुँह फेरकर खूँटी से कोट उतारते हुए उन्होंने बड़ी बहन शारदा को लक्ष्य करके कहा-‘‘मैंने कहा था जीजी से कि बुड्ढे तोते कहीं राम-राम रटते हैं। पहले तो आँखें बन्द करके मेरे गले यह ढोल बाँध दिया, और अब कमर कसके उसे सरस्वती बनाने की तैयारी की है। पन्द्रह दिनों में कितनी भारी इंगलिश पढ़ ली है...वाह, हॉर्स माने हाथी।
राधा ने इस बार उत्तर दे ही तो दिया साहस बटोरकर। मसलने पर तो चींटी भी काट लेती है। बोली-‘‘पन्द्रह दिनों का नाम तो गिना दिया, यह भी तो देख लेते कि पढ़ने को कितनी देर का समय मिलता है। लल्ला की तबीयत होती है, कभी बताते हैं, नहीं तो नहीं। फिर मुझे घर के और काम नहीं हैं क्या...’’
‘‘किसने कहा था कि तुम से कि यह तोता पालो !’’ प्रोफेसर ने बूट के फीते बाँधते हुए रूखे स्वर में कहा-‘‘मैंने तो पहले ही दिन समझ लिया था कि मेरा जीवन नष्ट हो चुका है। मेरी आशा-आकाँक्षाएँ, मेरा सुख-दुखमय भावुक संसार सभी इस हिन्दू समाज की राक्षसी भूख ने समेट लिया है। जैसे-जैसे दिन काटने हैं सो तो कट ही रहे हैं...’’ भुनभुनाते हुए प्रोफेसर खट-खट करते सीढ़ियाँ उतर गए।
राधा एकटक ताकती रही...छलछलाएँ नेत्रों से।

उसी सन्ध्या को कवि प्रोफेसर ने भरे गले में, आँखों में तरलता का समुद्र उमड़ाकर, स्वर में करुणा भरी आर्द्रता लाकर, अपनी थर्ड ईयर की छात्रा मिस दीप्ति से कहा-‘‘मिस मुखर्जी क्या बताऊँ कि मेरी कविता क्यों इतनी दुखपूर्ण होती है। मेरी रचनाएँ क्यों निराशा, के सागर में डुबकियाँ खाती हैं। न पूछिए इस रहस्य को। मूक ही रहने दो मेरी आत्मा के इस रुदन को। इसी तरह रोती-तड़पती मेरी यह लेखनी एक दिन मुझे अभागे के साथ ही काल के अन्तराल में विलीन हो जाएगी।’’
दीप्ति सुनती रही, मन्त्रमुग्ध सी। अपने इस कवि प्रोफेसर की भावुक गाथा। उन्हें रुकते देख उसने शीघ्रता से कहा-‘‘कहिए, प्रोफेसर साहब, रुकिए मत। कह डालने से व्यथा बहुत हल्की हो जाती है।’’
‘‘हल्की ?’’

प्रोफेसर ने एक आह खींचकर उत्तर दिया-‘‘मेरी व्यथा तो ऐसी नहीं, मिस दीप्ति जो कहने के हल्की हो जाए। वह तो पत्थर-सी निर्मम, धधकती भट्टी-जैसी ज्वालामयी और विधाता की भाग्यरेखा-सी ही अमिट है, मेरे जीवन में। उफ़ कैसे-कैसे अरमान राख हो गए मेरे।’’ सतृष्ण दृष्टि से दीप्ति के खुले सिर की बिखरी वेणी को निहारते हुए प्रोफेसर ने एक लम्बी साँस खींची। प्रोफेसर की प्यास..अतृप्ति...कुछ भी तो दीप्ति से छिपी नहीं थी। मिस्टर बड़ौत की यह मूक वेदना उसके सामने ही आकर क्यों साकार हो उठती है, इसे वह समझती है खूब अच्छी तरह, किन्तु यह तो बड़ी कॉमन बात हो उठी है दीप्ति के जीवन में। कॉलेज के इन तीन-चार वर्षों में वह जाने कितने सतृष्ण नेत्र, उत्कण्ठित हृदय और आमन्त्रित बाहु देख चुकी है। दो एक बार इन भूखी आँखी की माँग से वह डोल भी चुकी है। परन्तु उन भूखी आँखों की वह सर्वग्रासी भूख, जब उसने देख लिया था कि एक को खाकर-पाकर सन्तुष्ट नहीं हो जाती, तब से यह सब-अतृप्ति का स्वाँग, रोमाँस का अभिनय उसके लिए बहुत ही हल्का-उपहास की छाया-सा ही हो उठा है। फिर भी अपने इन नए प्रोफेसर से उसे बहुत सहानुभूति है। इनकी रचनाएँ उसने पहले भी पढ़ी थीं, अब से कई वर्ष पूर्व ही। तभी से एक ऊँची धारणा उसकी इनके प्रति थी। फिर अब जब से उसे यह ज्ञात हुआ कि घर वालों के दबाव और जाति की संकीर्णता के कारण प्रोफेसर को उनके मन-लायक पत्नी नहीं मिली है, तब से वह कुछ अधिक दयार्द्र हो उठी थी उसके प्रति। विशेष शिष्टाचार....आदर-सत्कार, यह तो बीसवीं सदी के कलई किए जीवन की सबसे बड़ी देन है ही, जिसे उसके बंगलापन के भावुक सौन्दर्यमय रहन-सहन ने और भी आकर्षक कर दिया था।

प्रोफेसर की चुप्पी से कमरे की नीरवता जब बड़ चली तो दीप्ति ने उसे तोड़ते हुए कहा-‘‘मैं आपकी व्यथा को समझती हूँ, मिस्टर ज्योति। किसी भी ओर से राधारानी आपके योग्य संगिनी नहीं ठहरतीं। न शिक्षा, न सभ्यता और न भावुकता। परन्तु अब क्या हो सकता है ! जो बात मिटाई नहीं जा सकती, उसके लिए जीवन के शेष अंश को भी विषमय क्यों बनाना ? कोशिश करिए तो मेरा ख़्याल है वे वर्ष दो वर्ष में यथेष्ट सुसंस्कृत हो जाएँगी।’’
‘‘सुसंस्कृत ! एक उपेक्षामयी मुस्कराहट होंठों पर बिखेरकर प्रोफेसर
बोले-‘‘परन्तु दो वर्ष तक ट्रेनिंग देने के लिए साहस और धेर्य कहाँ से लाऊँ, मिस दीप्ति !’’ जिसके पास उठने-बैठने से, जिससे बात करने से मुझे खीज चढ़ती है, जिसके किसी कार्य में भी कला...संस्कृति की छाया का स्पर्श भी नहीं है, उसे दो वर्ष तक सभ्यता का क-ख-ग- पढ़ाने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ ! वह भावुकता और छवि जो कवि के जीवन को स्पन्दित कर देती है, उसे छू तक नहीं गई...

दीप्ति की सलाइयाँ चलाती हुई उंगलियाँ और कानों के डोलते हुए इयरिंगों में फँसकर प्रोफेसर की वाणी मूक हो गई। विवाह से पहले, कल्पना जगत की अपनी अपरूप प्रेयसी की रचना में ही प्रोफेसर इतने मग्न रहते थे कि आस-पास की सजीव नारी मूर्तियाँ एक चलती-फिरती पुतली से अधिक उन्हें जँचती न थीं, जिनसे केवल जी बहलाया जा सकता था, और यह खिलवाड़ की सामग्री उन्हें आस-पास ही मिल भी जाती थी, जिनसे मानसिक क्रीड़ा-भूमि पर ही खेलकर वे सन्तुष्ट हो जाते थे। किन्तु उनकी उस कल्पनिक स्वर्ग-रूपसी प्रेयसी की परिणति जब राधा जैसी विशेषता-रहित साधारण युवती में हो गई, तब से विश्व की प्रत्येक युवती जो जरा भी राधा से अधिक आकर्षक होती, उन्हें स्पृहणीय जान पड़ती थी। पहले जब तक वे सोचते थे कि हाथ बढ़ाने पर मैं इस वाटिका के किसी भी पुष्प को तोड़ कर अपने अंक में ले सकता हूँ तब एक उपेक्षा-सी थी उनके प्रति। लेकिन जब अनायास ही उनके हाथों में पलाश का फूल वह राधा थमा दिया गया तो उनकी अतृप्त आत्मा जो सदाचार के ऊपरी ढोंग से अठखेलियाँ कर रही थी, अपनी प्रलयकारी क्षुधा लेकर इस विश्व में विचरने लगी, फिर दीप्ति-सी चंचल, हँसोड़ स्वतन्त्र विचारों-सी सुघड़ प्रतिमूर्ति सी युवती के लिए मचल उठना तो स्वभाविक से भी अधिक सरल था।

घड़ी ने किया टन-टन। दीप्ति ने सलाइयाँ रोककर एक अंगडाई ली फिर कहा-‘‘नौ बज गए, प्रोफेसर साहब ! मिसेज बड़ौत प्रतीक्षा कर रही होंगी आपकी, साथ ही मन ही मन पानी पी-पीकर मुझे कोस भी रही होंगी....’’कहते-कहते दीप्ति हँस उठी अपनी उजली दन्त पंक्तियों से प्रोफेसर के मन पर बिजलियाँ गिराकर उसने कहा-‘‘परन्तु भोजन तो वहीं करना होगा आप को।’’
‘‘उफ़ !’’ प्रोफेसर ने कहा-‘‘यह भी कितनी मुसीबत है, मिस दीप्ति। चाहे रात के बारह बजे घर पहुँचूँ, परन्तु वे महारानी घड़ी के पेन्डुलम की तरह कमरे में चक्कर लगाती मिलती हैं। आधी रात तक भी उनका धन्धा नहीं निबटता फिर आधा घण्टे तक देर से आने के लिए स्पीच सुननी होगी उनकी और उसके अन्त में शुरू होगी सिरदर्द की शिकायत; मानो एक कवि के जीवन में एक देहाती युवती के सुख-दुख से अधिक किसी वस्तु का अस्तित्व ही न हो।’’ फिर कुछ रुककर जेब से एक कागज निकलाते हुए कहा-‘‘सुनोगी मेरी नई रचना, दोपहर ही लिखी है।’’
‘‘सुनाइए, सुनाइए।’’ दीप्ति ने उत्कण्ठा से उत्तर दिया।
और प्रोफेसर ने खाँसकर गला साफ करते हुए नाक के स्वर में पढ़ना शुरू किया-‘‘मैं विषाद की चिर रेखा, मैं मूर्तिमान अभिशाप...।’’

शारदा की आँख खुल गईं। वह बहुत हल्की नींद सोती है। एक प्रकार से नींद न आने की ही बीमारी है उसे। जब लगातार सिसकियों की आवाज कानों में पड़ी तब लिहाफ से मुँह निकालकर देखा-राधा दीवार के सहारे पाटी पर सिर टिकाए सिसकियाँ ले रही थी। करुणा से दुख के साथ ही खीज से उसका मन भर उठा। कृत्रिम क्रोध से बोली-‘‘बहू, सो क्यों नहीं जाती, क्या आधी रात को रोना फैलाया है ?’’
राधा ने घबराकर आँखें पोंछ ली फिर सिर नीचा करके कहा-‘‘रोती तो नहीं, बीबी। और हल्के पावों से वह अपनी चारपाई पर आ लेटी।

‘‘सो जा !’’ ननद ने विषादपूर्ण स्वर में कहा-‘‘कब तक जागेगी, ग्यारह तो बजने आ गए। जानती तो है तू, वह दीपो के यहाँ गया है, जल्दी नहीं लौटेगा।’’ फिर सिर धीमा करके शारदा बड़बड़ाई-‘‘जाने क्या जादू कर दिया है हरामजादी ने, ऐसी कोई सुन्दर भी नहीं है, जिसके पीछे यूँ दीवाना हो रहा है। मर्दों की जात है। कुत्ते-सी होती है, बिना दो घर की जूठी हाँडी चाटे चैन नहीं पड़ता।’’
और ननद की सहानुभूति पाकर बहू का दुख-स्रोत भी उमड़ आया। कड़वे स्वर में बोली-‘‘मैं कहती हूँ, बीबी जी ! बड़े कवि की दुम बने हैं। मानवता के प्रतिनिधि, करुणा के अवतार, जो अपनी नारी के दुःख-सुख, व्यथा-पीर को नहीं समझता वह विश्व के दुख-सुख पर लेखनी कैसे चलाता है। जो हाड़-माँस की बनी जीती-जागती स्त्री को पत्थर के ढेले से अधिक नहीं समझता वह देश के कण-कण में अपने प्राणों का स्पन्दन कैसे देखता है। माना, मैं कविता करना नहीं जानती, गिटपिट करके उनके मित्रों से अंग्रेजी नहीं बोल सकती, सुन्दर भी नहीं हूँ, फिर भी हूँ मनुष्य ही। मामूली पढ़ना-लिखना भी जानती ही हूँ-घर-गृहस्थी सम्हालना आता ही है।...और प्रेम के वश तो पशु भी हो जाते हैं। उनका थोड़ा-सा प्यार...जरा-सा उत्साहवर्धन मुझ में प्राण डाल सकता था...परन्तु वे तो कवि हैं। मेरी प्राणमयी सेवा का उनके आगे क्या मूल्य। उन्हें तो चाहिए तड़पने-बिलखने वाली, चलते हुए सौ बल खाने वाली, चंचल मृगनैनी...’’

बाहर से कुण्डी खटखटाने की आवाज आई। राधा अपने उमड़ते उच्छ्वास को होंठों से दबाती हुई द्वार खोलने चली।
सहन की लाइट जला कर राधा ने कुण्डी खोली, प्रोफेसर थे। राधा को देखकर उनके माथे पर हल्का-सा बल आ गया। सिल्क की साड़ी में सुधरता से लिपटी हुई, खुले केशों में लाल रिबिन लगाए, नेल पॉलिस से लाल सुर्ख नाखूनों वाली उंगलियों द्वारा जल्दी-जल्दी सलाइयाँ चलाती हुई दीप्ति के स्थान पर, रूखे बालों में मोटी-सी सिन्दूर रेखावाली, भर्रायी आँखों के, सूखे से राधा के मुख को देखकर वे आकाश से उड़ते-उड़ते एक झटके में धरती पर आ रहे।
चुपचाप कमरे में जाकर कोट उतारा, बूट उतारे और पलंग की ओर बढ़े ही थे कि राधा-‘‘खाना परोसूँ ?’’
‘‘नहीं, खा आया हूँ।’’
‘‘जिस दिन न खाना हो, पहले कह क्यों नहीं दिया करते।’’ राधा ने भुनभुनाकर कहा-‘‘आधी रात तक चूल्हा लिए बैठे रहो...’’

प्रोफेसर ने चढ़े स्वर में उत्तर दिया-‘‘सभ्यता की मोटी रूपरेखा भी जिसे ज्ञात नहीं उसे क्या कहूँ ! कोई भला आदमी भोजन के समय आग्रह करने लगे तो उसे कैसे ना की जाए। वहाँ खाने के विचार से तो गया ही न था।’’
वह भला आदमी कौन सा है, इसे राधा जानती थी। भले आदमी के आग्रह का मूल्य है और आधी रात तक मेरे चूल्हा लिए बैठे रहने का नहीं...उसने मन में सोचा।
फिर पति-पत्नी एक-दूसरे से मुँह फेरकर सो रहे।
और मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।

साल से ऊपर निकल गया। राधा ने अपनी जान-कड़ी से कड़ी चेष्टा करके सभ्यता का पाठ पढ़ा। जी-तोड़ परिश्रम करके इस बीच में कामचलाऊ अंग्रेजी भी सीखी। परन्तु दीप्ति की चकाचौंध से अन्धे प्रोफेसर के मन राधा न चढ़ी, सो उस उपेक्षिता राधा का मन भी कठिन हो चला है, स्वामी की ओर से। कहाँ तक सहे, कितना सहे। सहने की भी कोई हद होती है। ऐसे कौन से रूप के मन्जर हैं जो मेरी सूरत नहीं भाती। कौन-से सिंहासन पर बैठा दिया है, मुझे, जो हर घड़ी मुँह चढ़ाए रहते हैं। धीरे-धीरे वह भी रूखी होती जा रही है। उसके मन की आर्द्रता भी सूख चली है, जो तीखापन बनकर अब प्रोफेसर को चुभने भी लगी है और प्रोफेसर अब धीरे-धीरे अपने काल्पनिक दुःख में राधा के इस स्वभाव को मिलाकर एकदम ही करुण नायकों के सिरताज बन गए हैं। अपने दुःख में वे डूब-उतरा रहे हैं। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा-राधा अब उन से चिढ़ी क्यों रहती है। वे तो अपनी ही आशा-निराशा को लेकर एकांगी बनाते, कविता रचते और उन्हें सबसे पहले दीप्ति को सुनाकर-उसके मुख की एक हसरतभरी आह सुनकर धन्य हो जाते। उस आह के लिए ही मानो अब वे कवि रह गए थे। साधन ही साध्य हो गया था।

और दीप्ति, उसे प्रोफेसर से सहानुमति थी। इसी से उसे उन पर दया आती है, उसकी वही दया और खुलापन, उन आँखों में कल्पना का चश्मा चढ़ाए प्रोफेसर को पतंग की डोरी भाँति नचाती रहती थी।
वे दीप्ति को समझते थे क्या ?

हाँफते-हाँफते प्रोफेसर सीढ़ियाँ चढ़े, और फिर लम्बी साँसें छोड़ते हुए सोफे पर विराज गए।
‘‘मिस्टर बड़ौत ! दीप्ति ने उन्हें इतना उत्तेजित देखकर जल्दी से पूछा। केशों में कंघी करना भी वह भूल गई। !
‘उफ़ !’’ एक गहरी साँस खींचते हुए प्रोफेसर ने कहा-‘‘दीप्ति ! आज मुक्त हो आया हूँ। स्वच्छन्द...वही वर्षभर पहले का ज्योति। जानती हो कैसे ? आज झगड़ा निबटा आया। एक साल से जिस नरक यातना को भोगते-भोगते प्राण अकुला उठे थे उससे आज मुक्ति पा गया हूँ। दीप्ति आज मैं सुखी हूँ। अपनी मानसी प्रेयसी की-जिसने वर्ष भर से मन-प्राणों को अपनी सुरभि की मादकता से अचेतन कर दिया था-अब जी भरकर अर्घ्य चढ़ाऊँगा...प्राणों के अप्रतिम स्तर के निगूढ़तम प्रेम की धारा...’’

‘‘मिस्टर बड़ौत !’’ दीप्ति प्रोफेसर के इस मुखस्थ रचना-प्रलाप से घबरा गई।
‘‘कहिए, हुआ क्या ? राधारानी से झड़प हो गई होगी..लेकिन वे बेचारी तो अब स्वयं ही आप से डरकर दूर-दूर रहती हैं, फिर झगड़े की नौबत कैसे आ गई ?’’
‘‘झगड़ा...’’ प्रोफेसर कल्पना के लोक से पृथ्वी पर आ रहे। पूरे नेत्र खोलकर उन्होंने एक बार दीप्ति के स्वस्थ उभरे यौवन पर सतृष्ण दृष्टि डालते हुए कहा-‘‘दीपो, आज मैंने उससे सम्बंध –विच्छेद कर लिया। अब से वह मेरी कोई नहीं और मैं...’’
गजब ! दीप्ति का सिर चकरा गया। राधा का करुण सूखा निष्प्रेम मुख उसकी आँखों में फिर गया। अब क्या होगा बेचारी का ?

‘‘यह तो सरासर अन्याय है, मिस्टर बड़ौत आखिर कुछ तो बेचारी का ख्याल करते।’’
‘‘क्या ख़्याल रखता, दीप्ति। मैंने कोई अन्याय नहीं किया। मैं उस अशिक्षित गँवारिन के उपेदश और हस्तक्षेप नहीं सह सकता। वह मुझे पर अधिकार जमाना चाहती थी। मेरी प्रतिभा का मूल्य वह क्या जानती थी परन्तु यदि सौभाग्य से कोई ऐसा प्राणी मुझे मिल गया था। तो उसे भी वह फूटी आँखों देख न सकती थी। मैंने आज उसे आखिरी बार कह दिया-तुम मेरी कोई नहीं। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ, मेरा पीछा छोड़ो। मैं तुम से प्रेम नहीं करता। एक बार हजार बार..और आज वो चली गई..सदा को यहाँ से।’’
‘कहाँ गई ?’’ दीप्ति के मुख से निकला।

‘‘मुझे नहीं मालूम। मैं नहीं जानता। टिकट तो दिल्ली तक लिया था जाएगी कहाँ..भाई के। मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक।’’
दीप्ति स्तब्ध रह गई प्रोफेसर की इस क्षुद्रता पर आज उनका वह रूप, जो सभ्यता के आवरण से ढका रहता था, नंगा होकर नाच रहा था। इतना ही मूल्य है इसकी दृष्टि से नारी का ? अशिक्षिता होने से क्या नारी नारी नहीं रहती। फिर राधा तो अशिक्षित भी नहीं थी। कवि, प्रोफेसर डॉक्टर...कुली और मजदूर...नारी का मूल्य सबकी दृष्टि में एक ही है।
‘‘दीप्ति !’’ क्या सोचने लगीं ? चलो, क्लब चलें-‘‘ प्रोफेसर ने निकट भविष्य का एक सुनहरा संसार रचते हुए मादक स्वर में कहा-‘‘चलो न, दीपो रानी !’’ और दीप्ति की मुद्रा टेढ़ी हो गई। ‘‘मिस्टर बड़ौत ! तबीयत अच्छी नहीं आज मेरी। थोड़ा आराम चाहती हूँ। आज मुआफ करें।’’
‘‘क्या सिर में दर्द है ? लाओ, अभी बाम लाता हूँ।’’

‘‘जी नहीं ! धन्यवाद इस कृपा के लिए, थोड़ा सो लेने से सब ठीक हो जाएगा। अच्छा, नमस्ते।’’ खालिस नपे तुले शिष्टाचार के शब्दों में कहकर दीप्ति कन्धा उचकाकर ऊपर चली गई।
दीप्ति ने विवाह कर लिया। प्रोफेसर बड़ौत से नहीं, पटेशनाथ भट्टाचार्य से। निमन्त्रण आया था प्रोफेसर को भी। परन्तु गए नहीं वह कौन मुँह लेकर अपने अरमानों की चिता देखने जाते।
फिर स्वामी के साथ कलकत्ता जाते समय दीप्ति अपने प्रोफेसर साहब की मिजाजपुर्सी कर गई थी।
प्रोफेसर साहब ने कॉलेज से छुट्टी ले ली तीन महीने की। बीमार-से रहते थे। एक उदासी, क्लान्ति-सी छाई रहती थी हरदम। होश भी ठिकाने आ गए थे, अपने इस रोमांस के परिणाम पर। अब साहस नहीं होता कि फिर किसी शमा के परवाने बनें, इन उड़ती तितलियों से उन्हें घृणा भी हो गई थी..भय तो लगता ही था।

सूने घर में चुपचाप पड़े रहते। बहन रूठकर ससुराल चली गई थी, राधा को निकालने के तीसरे ही दिन। नौकर के सिवाय उनके पास कोई न था। अपनों के अभाव में अब उन्हीं को अशिक्षित गँवारिनों का मूल्य, प्रोफेसर को ज्ञात हो चला था।
बहन को बुलाया था। उसने बीमार होने का बहाना लिख भेजा।
अब सूने-से जीवन में जहाँ प्रोफेसर को चौबीसों घण्टे लिखने की छुट्टी थी, अब एक पंक्ति भी न खिंचती थी। जिसने उनके जीवन को मरु कर दिया था उसे उन्होंने स्वयं अपने से दूर कर लिया था। जिसके बिना वह अपने जीवन को शून्य समझने लगे थे वह स्वयं ही उन्हें छोड़ गई।
बुखार चढ़ा था प्रोफेसर को। मधुआ रातों जगते तंग आ गया था। डरते-डरते उसने कहा-‘‘बाबू जी, जब से बहू जी को निकाला, एक न एक मुसीबत आई रहती है। पहले माँ जी मरीं, फिर बीबी जी चली गईं। अब आप रोगी रहते हैं। वे तो लच्छमीं थी घर की।’’ फिर आँखें पोंछता बाहर चला गया।
प्रोफेसर चुप रहे।

और दो दिन बाद मधुआ ने कहा-‘‘बाबू जी, बहू जी को मनाय लाऊँ, हमारे जान तो।’’
प्रोफेसर मुस्कराए। फिर कहा-‘‘उन्हें तो छोड़ दिया, मधुआ। सात महीनों से खबर भी नहीं ली कहाँ हैं।’’
‘‘होगी कहाँ, बाबू जी ! अपने घर होंगी। न हो एक बार मैं देख आऊँ।’’
प्रोफेसर सोच में पड़ गए, क्या कहें। फिर ठहरकर कहा-‘‘अच्छा, हो आ।’’
उसी रात मधुआ दिल्ली चला गया।
चौथे दिन लौटा तो मुँह धुआँ हो रहा था। गुमसुम-सा आकर खड़ा हो गया।
‘‘हो आया।’’

‘‘जी ।’’
‘‘क्या उत्तर दिया ?’’ प्रोफेसर ने पूछा। मधुआ ने धीरे-धीरे एक गुलाबी लिफाफा जेब से निकालकर सामने कर दिया-‘‘बहू जी ने दिया है।’’
निमन्त्रण पत्र था विवाह का। ऊपर राधा ने घसीट में लिखा था-‘‘कल विवाह है मेरा ! कृपया सपरिवार दर्शन दीजिए।’’
वह ‘कल’ कल बीत चुकी थी।
प्रोफेसर ने लिहाफ में सिर दे लिया।




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