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गजलें और शायरी >> आँखों भर आकाश

आँखों भर आकाश

निदा फाजली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5318
आईएसबीएन :81-7055-765-8

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निदा फाजली की सर्वश्रेष्ठ शेर-शायरी...

Aakho Bara Aakash a hindi book by Nida Fazli - आँखों भर आकाश - निदा फाजली

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
या
बहनें चिड़िया धूप की, दूर गगन में आएँ
हर आँगन मेहमान-सी, पकड़ो तो उड़ जाएँ।

ये निदा फ़ाज़ली हैं—उर्दू की जदीद शायरी का एक बहुत अहम् नाम जिनके ज़िक्र के बग़ैर उर्दू की नई शायरी का कोई तज़किरा अधूरा होगा या कोई भी तनक़ीदी मज़मून एकतरफ़ा होकर अपना तवाजुन खो देगा। गज़ल की जान हो या ज़बान, सोच हो या शिल्प, छब-ढब हो, रख-रखाव हो या सारा रचनात्मक रचाव—अपने मिज़ाज़, तेवर और रूप में रचनाकार निदा फ़ाज़ली बिल्कुल अकेले ही दिखायी देते हैं। कुछ मायने में तो वे उर्दू के उन बिरले जदीद शायरों में से हैं जिन्होंने न सिर्फ़ विभाजन की तक़लीफ़ें देखीं और सही हैं बल्कि बहुत बेलाग ढंग से उसे वो ज़बान दी है जो इससे पहले लगभग गूँगी थी। देश और परिवारों का बँटवारा, दंगे-फ़साद और सांप्रदायिक जुनून को जिस निस्संग और मानवीय धरातल से निदा फ़ाज़ली ने देखा, वह एक हस्सास शायर ही कर सकता था। यह पारदर्शी एहसास उनकी ग़ज़लों नज़्मों और गीतों में ही नहीं, दोहों तक में मिल जाएगा जिनमें वह अपने भारतीय होने की शिनाख़्त को खोने नहीं देते। मिसाल के लिए ऊपर के दो दोहों को ही ले लीजिए। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत से रची-बसी भारतीय कविताएँ हैं जिसकी जड़ें सिर्फ़ इसी ज़मीन में हैं। ख़ास कर दूसरे दोहे में बिल्कुल नई इमेज के ज़रिए जिस नाजुक एहसास को निदा फ़ाज़ली ने गिरफ्त में लिया उसकी शेरी कैफ़ियत एक हल्के से जर्ब के साथ हमें बेपनाह कर्ब से भर देती है और कोई भी अच्छी कविता सिर्फ यही करती है।

उर्दू की शायरी की सबसे बड़ी और पहली शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुड़ाकर अपने आसपास को देखा, अपने इर्द-गिर्द की आवाज़ें सुनीं और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जड़ों को फिर से जगह देकर मीर, मारीजी, अख्तरुल ईमान, जांनिसार अख्सर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोड़ा। उसने ग़ालिब का बेदार ज़हन, मीर की सादालौही और जांनिसार अख्तर की बेराहरवी ली और बिल्कुल अपनी आवाज़ में अपने ही वक़्त की इबारत लिखी—ऐसी इबारत, जिसमें आने वाले वक्तों की धमक तक सुनाई देती है। यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।

‘आँखों भर आकाश’ देवनागरी में आनेवाला निदा फ़ाज़ली का ऐसा संकलन है जिसमें उनकी अब तक की अधिकांश कविताएँ निरखी और परखी जा सकती हैं। इसमें पिछले पच्चीस बरसों की उसकी सोच-समझ और सरोकार का फैलाव है और अब तक आए तीन मजमूओं में से खुद लेखकीय चुनाव—इसीलिए एक अर्थ में यह निदा कि प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह भी कहा जा सकता है। इसमें ग़ज़लें भी हैं, नज़्में भी और कुछ गीत भी। शुरू का दौर भी है, बीच का भी और इधर का भी, लेकिन जो बात अव्वल से अब तक मुसलसिल बनी हुई है वह है कवि का एक के लिए एक बेलीस लगाव—कुछ लोगों को यह सिनिसिज़्म की हदों को छूनेवाला भी लग सकता है लेकिन शायद यह हर एक आधुनिक रचनाकार की मजबूरी है कि वह माँ-बाप, भाई, बहन, परिवार, स्त्री प्रेम, समाज और देश, किसी को भी जस-का-तस स्वीकार नहीं करता। वह उन्हें सन्देह के कठघरे में धकेलकर सवाल करता है—ऐसे कि पहले वह सवाल पलट कर एक-एक कर खुद उसका गिरेबान पकड़ ले और फिर अन्ततः समाज का होकर रह जाए। यही वह सच है जिसे अपने समय का हर सही रचनाकार अपने अनुभव की रोशनी में ही देखना और परखना चाहता है जैसा कि खुद निदा फ़ाज़ली का ही एक दोहा है :

वो सूफ़ी का क़ौल हो या पण्डित का ज्ञान,
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान

शानी

यह बात तो गलत है


कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो गलत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो गलत है

वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफर का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रौशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो गलत है

है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादिसा है मेरा भी तजरुबा हो
यह बात तो गलत है

दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकिआ हो
यह बात तो ग़लत है

वे युग है कारोबरी, हर शय है इशतहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो गलत है

जब भी दिल ने दिल को सदा दी


जब भी दिल ने दिल को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी...

मिट्टी तेरी, पानी तेरा
जैसी चाही शक्ल बना दी

छोटा लगता था अफ्साना
मैंने तेरी बात बढ़ा दी

सोचने बैठे जब भी उसको


सोचने बैठे जब भी उसको
अपनी ही तस्वीर बना दी

ढूँढ़ के तुझ में, तुझको हमने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी

ऐसा नहीं होता


जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता

हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में
सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता

कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता

सिखा देती है चलना


सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता

कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो
हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता

मौत की नहर


प्यार, नफ़रत, दया, वफ़ा एहसान
क़ौम, भाषा, वतन, धरम, ईमान
उम्र गोया...
चट्टान है कोई
जिस पर इन्सान कोहकन1 की तरह
मौत की नहर....
खोदने के लिए,
सैकड़ों तेशे2
आज़माता है
हाथ-पाँव चलाये जाता है

1. फरहाद (पहाड़ तोड़ने वाला) 2. पत्थर तोड़ने का औजार

देखा गया हूँ


देखा गया हूँ मैं कभी सोचा गया हूँ मैं
अपनी नज़र में आप तमाशा रहा हूँ मैं

मुझसे मुझे निकाल के पत्थर बना दिया
जब मैं नहीं रहा हूँ तो पूजा गया हूँ मैं

मैं मौसमों के जाल में जकड़ा हुआ दरख़्त
उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं

ऊपर के चेहरे-मोहरे से धोखा न खाइए
मेरी तलाश कीजिए, गुम हो गया हूँ मैं

बूढ़ा मलबा


हर माँ
अपनी कोख से
अपने शौहर को जन्मा करती है
मैं भी अब
अपने कन्धों से
बूढ़े मलवे को ढो-ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कुँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा।

बैसाखियाँ
(एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर देखकर)


आओ हम-तुम
इस सुलगती खामुशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी1 में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गढ़े में छोड़ जाएँ

कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !

1. अँधेरा।

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी


बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुन्हेरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की

रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।

खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था

मन बैराग


मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है

औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है

जब-जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनियादारी है

ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल परी न फूल गली
यह मत पूछो, वह अच्छा है या अच्छी नादारी1

जो चेहरा देखा वह तोड़ा, नगर-नगर वीरान किए
पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेज़ारी है।

1. गरीबी।

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