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स्वाधीनता के पथ पर

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :301
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5336
आईएसबीएन :0000

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राजनीति पर आधारित उपन्यास...

Swadheenta ke Path Per

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कलक्टर की हत्या

टन......टन......टन........टन........। मन्दिर का घण्टा बज रहा था। देवता की आरती समाप्त हो चुकी थी। लोग चरणामृत पान कर अपने-अपने घर जा रहे थे। श्रद्धा, भक्ति, नमृता और उत्साह में लोग आगे बढ़कर, दोनों हाथ जोड़, मस्तक नवा, देवता को नमस्कार करते और हाथ की अंजुली बना चरणामृत के लिए हाथ पसारते थे। पुजारी रंगे सिर, बड़ी चोटी को गाँठ दिये, केवल रामनामी ओढ़नी ओढे़, देवता के चरणों के निकट चौकी पर बैठा अरघे से चरणामृत बाँट रहा था।

पुजारी जब चरणामृत देता था तो आँखें नीची किये रखता था। उसकी दृष्टि अधिक-से-अधिक लोगों के हाथों पर ही जाती थी। धीरे-धीरे सब लोग चले गये। पुजारी यद्यपि लोगों को देख नहीं रहा था, पर अनुभव कर रहा था कि उसका काम समाप्त हो रहा है। अकस्मात् उनकी दृष्टि एक स्त्री के हाथों पर पड़ी। ये हाथ भी चरणामृत पाने के लिए ही आगे बढ़े थे। इन हाथों को देखते ही पुजारी के हाथ काँपने लगे। अरघा चरणामृत सहित उसके हाथ से याचक के हाथों में गिर गया।

पुजारी ने अरघे को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, परन्तु तब तक वे हाथ पुजारी की पहुँच से दूर हो चुके थे। पुजारी ने आँख उठाकर स्त्री को देखना चाहा, परन्तु स्त्री घूम गयी थी और पुजारी की ओर उसकी पीठ थी। वह चरणामृत पी रही थी। उसने चरणामृत पिया और अरघे को अपनी साड़ी के आँचल में छिपा लिया। इसके बाद पीछे की ओर देखे बिना वह मन्दिर से बाहर निकल गयी। पुजारी हाथ फैलाये, अवाक् मुख मन्दिर से बाहर जाती हुई स्त्री की पीठ देखता रह गया। ऐसा प्रतीत होता था कि वह अरघा माँगना चाहता है, परन्तु मुख से शब्द नहीं निकलता।
जब स्त्री आँखों से ओझल हो गई तो पुजारी की बुद्धि ठिकाने आई। उसे अपने हाथ फैलाने पर लज्जा प्रतीत हुई। उसने तुरन्त हाथ समेट लिये और मन्दिर में, चारों ओर देखकर, मन-ही-मन कहा, ‘ओह ! चलो किसी ने देखा नहीं।’

(2)

यह मन्दिर नगर के एक मोहल्ले के बीच में था। राय साहब सेठ कुंजबिहारी लाल ने अपनी वृद्धा माता के आग्रह पर श्री लक्ष्मीनारायण का यह मन्दिर बनवा कर नगर के एक प्रसिद्ध कथावाचक पं. श्यामाचरण को इसमें पुजारी नियुक्त कर दिया था। पं. श्यामाचरण अपने अकेले पुत्र मधुसूदन के साथ मन्दिर के पिछवाड़े वाले घर में रहता था। वह पुराने विचारों का रूढ़िवादी ब्राह्मण था। संसार की प्रगति से सर्वथा पृथक, सागर में द्वीप की भाँति, अपने विचारों पर दृढ़, संसार सागर की तरंगों की अवहेलना करता हुआ, अपने में लीन था। मधुसूदन पिता का लाड़ला पुत्र था। उसकी माँ का देहान्त उसी समय हो गया था, जब उसने इस संसार की वायु में पहला साँस खींचा था। तब से माता से भी अधिक स्नेह से पिता बालक का लालन-पालन करता आ रहा था। उसने बहुत कठिनाई से उसे पालकर बड़ा किया था, परन्तु इस परिश्रम में भी वह माँ के भाग का प्रेम, स्नेह और वात्सल्य भूला नहीं था। मधुसूदन को यह कभी अनुभव नहीं हुआ कि वह मातृ-विहीन है। उसके लिए श्यामाचरण माता, पिता और मित्र सब कुछ था।

मधुसूदन अति निर्मल बुद्धि का था। संस्कृत में शास्त्री, अंग्रेजी में बी.ए. हिन्दी में साहित्यरत्न, गायन-विद्या में आचार्य, चित्रकला में निपुण, तात्पर्य यह कि अनेक गुण-सम्पन्न था। चौबीस वर्ष की आयु में इन सब बातों में उच्च कोटि कि योग्यता प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं थी। यह उसकी प्रतिज्ञा-विशेष का ही परिणाम था कि एक छोटे-से मन्दिर के पुजारी का लड़का होकर भी वह इतनी योग्यता प्राप्त कर सका था।
मधुसूदन की शिक्षा का भार राय साहब ही उठा रहे थे। राय साहब मधुसूदन की प्रतिभा को समझ गये थे। जब वह बालक ही था तब से मधुसूदन ने उनके मन पर अपनी विशेषता की छाप लगा दी थी। वह आरम्भ से ही उसकी शिक्षा का प्रबंध कर रहे थे।

राय साहब की अपनी कोई सन्तान नहीं थी। नि:सन्तान मनुष्य प्राय: तोता, मैना, कुत्ता, बिल्ली वगैरह पालने में बहुत उत्साह दिखाते हैं, परन्तु राय साहब को यह पसन्द नहीं था। वह मधुसूदन के ही पालन और शिक्षा में अपने मन की रिक्तता को भरने का प्रयत्न करते थे।

श्यामाचरण जानता था कि राय साहब उसके पुत्र पर विशेष कृपादृष्टि रखते हैं, परन्तु इस कृपा की सीमा कितनी लम्बी-चौड़ी है इसका अनुमान वह नहीं लगा सकता था। इस सीमा के जानने का उसने कभी यत्न भी नहीं किया।
मधुसूदन अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने पर भी प्राचीन सभ्यता का कट्टर अनुयायी था। वह उसके संस्कृत साहित्य के पढ़ने और भारतवर्ष की विभूति, प्राचीन सभ्यता, को एक पुजारी की ऐनक से देखने का कारण नहीं था, प्रत्युत यूरोपीय सभ्यता को भारतीय न्याय और सांख्य के काँटे पर तोलने के कारण भी था। उसने शेक्सपियर, कीट्स और शैली पढ़े थे, परन्तु जब इनकी तुलना वह कालिदास और भवभूति तथा व्यास और पातञ्जलि से करता था तो उन्हें समुद्र के किनारे पर केवल कंकर बटोरते हुए पाता था।

कुछ दिन से पुजारी को ज्वर आ रहा था। वह स्वयं ठाकुरजी की पूजा करने मन्दिर में नहीं आ सका था। मन्दिर का काम आजकल मधुसूदन को करना होता था। प्रात: काल चार बजे उठना, मन्दिर को धो-पोंछकर साफ करना, स्नान इत्यादि कर, तिलक-छाप लगा, छ: बजे पूजा पर बैठना होता था। छ: बजे से लोगों का आना आरम्भ हो जाता था।
जब से मधुसूदन ने मन्दिर का काम आरम्भ किया था, पूजा तथा देव-दर्शन करने वालों की संख्या बढ़ रही थी। मधुसूदन ऊँचे, मीठे, संगीत भरे स्वर से पूजा के मन्त्र तथा श्लोक पढ़ता था। उसकी वाणी में माधुर्य, रस और प्रभाव था। मुख पर पूर्ण यौवन का तेज था। आँखों में ब्रह्मचर्य की मस्ती थी। देखने तथा सुनने वालों के हृदय गद्गद् हो जाते थे। देवमूर्ति की अपेक्षा पुजारी की यह सजीव मूर्ति कहीं अधिक आकर्षण का केन्द्र बन रही थी। पूजा करने वालों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से कहीं अधिक होती थी, परन्तु मधुसूदन की आँखें देवमूर्ति के चरणों पर गड़ी रहती थीं और उसे पता नहीं रहता था कि मन्दिर में कौन आया है और कौन नहीं आया।

उक्त घटना का दिन पूर्णिमा का दिन था। सत्यनारायण की कथा सुबह से ही आरम्भ होकर बारह बजे तक चलती रहती थी। मन्दिर में विशेष समारोह था। इसका कारण भी मधुसूदन ही था। पुजारी की बीमारी के कारण कथा भी उसे ही करनी थी। सदा से भिन्न, कथा में सरलता, मधुरता और रोचकता अधिक थी। दृष्टांत पर दृष्टांत दिये जा रहे थे, सूक्तियों की भरमार थी। बीच में एक-दो भजन भी हो गये थे। यद्यपि कथा सदा से लम्बी हो गयी थी, परन्तु किसी का जी नहीं उकताया, न ही कोई घबराया। समय से पूर्व अटकर नहीं गया। सब मूर्तिमान बने, मुग्ध मन से कथा की नवीन विवेचना सुनते रहे। भाषा की सरलता ने कथा के आशय को साधारण अपढ़ स्त्रियों पर भी स्पष्ट कर दिया था, मानो पलक की झपक में समय व्यतीत हो गया।

(3)

जब अरघा लेकर वह स्त्री चली गयी तो किसी के द्वारा न देखे जाने पर मधुसूदन भगवान् का धन्यवाद करता हुआ आसन से उठा। मन्दिर का किवाड़ बन्द कर वह घर पहुँचा। पिता की लगभग स्वस्थ अवस्था देखकर बोला, ‘‘पिता जी, आपका ज्वर तो उतरे कई दिन हो गये, अब आपको मन्दिर का काम सँभालना चाहिये।’’
श्यामाचरण कुछ खिन्न मन से बोला, ‘‘क्या इतने में ही घबरा गये ? आज पहली बार कथा तुमने की है, और जानते हो, लोग क्या कहते हैं ?’’
‘‘क्या कहते हैं ?’’

‘‘अभी गोपाल आया था। कहता था, तुम तो मनुष्य रूप में साक्षात् भगवान् प्रतीत होते हो। बेटा ! तुम जैसा योग्य पुत्र पाकर मेरा मन फूला नहीं समाता।’’
‘‘परन्तु, पिताजी, आपके बैठे में पुजारी के आसन पर बैठना नहीं चाहता।’’
आज मधुसूदन का मन भोजन में नहीं था। पिता ने एक-दो बार कुछ पूछा तो उसका उत्तर भी वह ठीक से नहीं दे सका। भोजनोपरान्त बाज़ार जाने के लिए तैयार हो गया। उस समय फिर पिता ने कुछ पूछा, परन्तु उसने टालमटोल कर दिया।
बाज़ार में सबसे पहला काम अरघा खरीदना था। पश्चात् वह सीधा राय साहब कुंजबिहारी के मकान पर जा पहुँचा। राय साहब घर पर नहीं थे। नौकर जानता था कि राय साहब मधुसूदन को बहुत मानते हैं। अतएव वहाँ पहुँचते ही राय साहब के नौकर ने बड़े आदर से उसे बैठाया। वह उनसे मिलने ही निकला था, अत: बैठक में डटकर जम गया।

मधुसूदन राय साहब के घर दोपहर के दो बजे पहुँचा था। राय साहब की प्रतीक्षा करते-करते सायंकाल के छ: बज गये, परन्तु वह नहीं आये। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था उसका निश्चय राय साहब से मिलने का और भी पक्का होता जाता था। नौकर ने एक दो-बार आकर पूछा भी, ‘पण्डितजी, जल पीजियेगा ?’, ‘पण्डितजी, बहुत आवश्यक काम है क्या ?’, ‘राय साहब एक घंटे तक आने के लिए कह गये थे’ इत्यादि।
मधुसूदन ने ‘हाँ’, ‘नहीं’, ‘ओह’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा।
नौकर बाजार में कुछ लेने गया। बैठक में अंधेरा हो चला था, परन्तु मधुसूदन को इसका ज्ञान नहीं था। वह अपने विचारों में मग्न था।

अकस्मात् किसी ने बैठक की बिजली जला दी। इस प्रकार प्रकाश हो जाने से मधुसूदन चौंक उठा। उसे समय का ज्ञान हो आया। अब उसने दृष्टि उठायी तो बिजली के बटन के पास एक स्त्री को खड़ी देखकर घबरा गया। स्त्री के मुख से ऐसा जान पड़ता था कि वहाँ किसी की उपस्थिति से अनभिज्ञ थी। प्रकाश होने पर मधुसूदन को एक कुर्सी पर विचारमग्न बैठ देख चौंक उठी। विस्मय में बोली, ‘‘आप.....’’, परन्तु शीघ्र ही अपने-आपको काबू में कर बोली, ‘‘कब आये ?’’
इतने में मधुसूदन ने भी स्त्री को पहचान लिया था। वह अपने-आपको सँभालकर बोला, ‘‘राय साहब से मिलने आया था। परन्तु तुम......क्या मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा ?’’

स्त्री बोली, ‘‘नहीं। यह स्वप्न नहीं है। आप ठीक ही देख रहे हैं। आपका विस्मित होना भी ठीक ही है। कल की देश-भक्तिनी, जाति-अभिमान से परिपूर्ण, देशद्रोहियों से घृणा करने वाली पूर्णिमा आज अमावस्या हो गई है। राय साहब देशद्रोही हैं न ? और मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए था। यही या और कुछ और ?’’
मधुसूदन बात काटकर बोल उठा, ‘‘पूर्णिमा ! पूर्णिमा ! नहीं, यह बात नहीं। मेरे अचम्भे का कारण तो यह था कि तुम्हारा राय साहब से कैसा संबंध है जो मुझे भी ज्ञात नहीं। क्योंकि राय साहब मेरे पुराने हितचिन्तकों में से हैं और मैं इनके प्राय: संबंधियों को जानता हूँ। यह जानते हुए भी कि तुम इस नगर में हो, तुम्हारे यहाँ मिलने की आशा नहीं थी ?’’
‘‘क्यों आशा नहीं थी ?’’

‘‘तुम्हारा इनसे परिचय है, मैं यह नहीं जानता था।’’
‘‘परिचय लेकर तो कोई पैदा होता नहीं। यह पैदा करने से ही होता है। बताइये, आप यहाँ किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ?’’
‘‘राय साहब की।’’
‘‘वह आज नहीं मिलेंगे। आपको मालूम नहीं कि आज कलक्टर के यहाँ दावत और नाच है और राय साहब उसी का प्रबंध कर रहे हैं।’’

मधुसूदन बोला, ‘‘ओह ! ज्ञात तो था किन्तु अनुमान था कि वह एक बार दावत से पहले अवश्य घर आयेंगे। किन्तु अब तो उनसे मिलने के लिए यहाँ ठहरना व्यर्थ है। अच्छा ! चलता हूँ । नमस्ते।’’
‘‘इतना कहकर मधुसूदन उठ खड़ा हुआ, परन्तु पूर्णिमा की आँखों की चमक और होंठों की मुस्कराहट से यह जानकर कि उसके मन में कुछ है, यह जानने के विचार से वह ठहर गया। पूर्णिमा हँस पड़ी और बोली, ‘‘क्या अपना अरघा नहीं माँगियेगा ?’’
‘‘बाजार से नया ले आया हूँ। मुझे क्या ज्ञात था कि तुम यहाँ विराज रही हो ? छ: आने व्यर्थ गये।’’
‘‘बहुत शोक है। परन्तु बतलाओ की देवता के सम्मुख पसारे हाथों में अगर कुछ मिल जाय तो क्या वह छोड़ देना चाहिए ?’’

‘‘नहीं ! परन्तु तुम तो देवता को मानतीं नहीं। आज मन्दिर में कैसे पहुँच गई थीं ?’’
पूर्णिमा ने लम्बी साँस ली और फिर कहा, ‘‘पत्थर के देवताओं के पुजारी भला सजीव देवताओं को क्या जानें ?’’
यह सुन मधुसूदन की आँखों में विशेष चमक पैदा हो गई। उसका मुख लाल हो गया और होंठ फड़कने लगे।
इस समय घड़ी ने सात बजाये। पूर्णिमा ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, ‘‘अब जाने का समय हो गया है। फिर दर्शन करूँगी।’’

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