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दीवान ए भारत

सतपाल सिंह चौहान

प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5352
आईएसबीएन :81-7650-241-3

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एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देती गजलें...

Divan-E-Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लाइफ स्कैच

श्री सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ द्वारा रचित ग़ज़ल संग्रह ‘दीवान-ए-भारत’ आपके हाथों में है। चौहान साहब कृतज्ञ, गुणग्राही, विनम्र, संघर्षशील एवं बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। आप एक सफल पिता, कुशल अधिकारी, अच्छे अधिवक्ता, जिम्मेदार नागरिक एवं संवेदनशील साहित्यकार हैं। साहित्य जगत में ऐसा सुन्दर संतुलन कम ही देखने को मिलता है ये तो ईश्वर की कृपा, पूर्वजों के पुण्य एवं सन्तों के आशीर्वाद से ही संभव है।

आपने समाज में आ रहे भारी बदलाव और बिखराव को सजग आँखों से न सिर्फ देखा है, वरन् उस पर गहन चिन्तन भी किया है। आप शांति, अहिंसा, आपसी भाईचारे के हामी है। आप शोषण, हिंसा और अत्याचार के विरुद्ध अपनी क़लम उठाते हैं। आप मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में अपने स्तर पर प्रयासरत हैं। आप अपनी संस्कृति, अपने समाज और देश की गौरवमयी गाथा को नई नस्लों को सुनाना चाहते हैं। ये ग़ज़ल संग्रह, ग़ज़ल की समृद्ध परम्परा के आलोक में लिखा गया है। इसमें एक ऐसा रचना संसार है जो हमें संवदेना के स्तर पर अभिभूत करता है तथा बेहतर इन्सान बनने की प्रेरणा भी प्रदान करता हैं। कमाल ये भी है कि चौहान साहब के कलाम में उस्ताद दाग देहलवी का रंग भी है, उनके मज़ाक, उनकी जुबान और उनके चुलबुलेपन के साथ।

‘दीवाने-ए-भारत’ हर लाईब्रेरी में हो ताकि ग़ज़ल के चाहने वाले इससे हमेशा लाभांवित होते रहें। विशेषकर ‘नागरी लिपि’ में इसका प्रकाशन एक मील का पत्थर साबित होगा।

पारस नाथ बुलचंदानी
एडवोकेट

 मेरे हमदम में जहाँ से, कुछ अगल सी बात है।
 यूँ किसी की राह में, आँखें बिछा सकता है कौन।।

साथ पाकर आपका, सब मंजिलें तय हो गईं।
चलते चलते मंजिलें, आगे बढ़ा सकता है कौन


मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि श्री सतपाल सिंह चौहान तीन सार्थक साहित्यिक पुस्तकों और दो स्तरीय कानूनी पुस्तकों के पश्चात् अब ग़ज़ल की दुनिया में ‘दीवान-ए-भारत’ पेश करने जा रहें हैं। पिछली पुस्तकों की प्रतिक्रियाएँ बहुत अच्छी रही हैं जिन्होंने मुझें भी आनन्दित किया। दीवान-ए-भारत की ग़ज़लें मफहूम व उरूज़ के ऐतबार से भी आला दर्जे की हैं। यह भी अभूतपूर्व लगता है कि श्री चौहान अनेक भाषाओं एवम् इतनी विधाओं में साहित्य रचना कर रहें है।
मुझे लेखक पर फक्र है कि वह सुप्रीम कोर्ट में सफल अधिवक्ता होते हुए कनूनी एवम् सहित्य लेखन के लिए समय निकाल लेते हैं। इनके साहित्य में इनकी इन्सानियत और संस्कार साफ झलकते हैं।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !

सुरजीत सिंह बरनाला

क़लम का सफ़र

जीवन यात्रा यदि किसी की काव्यमय हो जाए तो कैसी होगी ? मेरा ख़्याल है वैसी ही, जैसी की ज़िन्दगी मिली है, जैसा समाज मिला है, जैसे हालात मिले हैं। क़लम ज़िन्दगी के साथ सफर करती रहती है, जो दिल पे गुज़रती है, रिकार्ड होता ही रहता है। क़िस्मत अच्छी हो तो यह कविता बनकर मंजर-ए-आम पर आ जाती है और रसिकों के दिल में जगह पा लेती है। कोई क्यों लिखता है ? कैसे लिखता है ? किसके लिए लिखता है ? ये वो ज़रूरी सवाल हैं जिनका हर रचनाकार को सामना करना पड़ता है।

मुझे विरासत में तो वो पूर्वज मिले जिनकी सत्ता में भागीदारी थी। पिता पंजाब में ज़िलाधीश थे, माँ एक कुलीन परिवार से आई थी। किन्तु मेरा सौभाग्य नौ वर्ष की आयु में गड़बड़ाया जब पिता का असामयिक निधन हो गया। शिक्षा संघर्ष और कठिनाई के मध्य हुई, किन्तु मां के आशीर्वाद और आदर्श हमेशा हालात की आंधियों से लड़ने की ताक़त भी देते रहे।
देश की आज़ादी की लड़ाई का रुख धीरे-धीरे जीतने की तरफ था। होश आया तो कानों में आज़ादी के आंदोलन के नारे पड़े। नेहरू, पटेल, महात्मा गाँधी, मौलाना आज़ाद और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसों का नेतृत्व देश को दिशा दे रहा था। एक तरफ अंग्रेजों की गुलामी थी, तो दूसरी तरफ सांमती शोषण और अशिक्षा और ग़रीबी की मार झेलता परिवेश। संघर्ष ने शोषण के विरुद्ध संवेदना पैदा की, जो धीरे-धीरे मेरी क़लम और किरदार का हिस्सा बन गई। मेरे लिए इन्सानी कद्रें, तहज़ीब और आपसी मौहब्बत ईमान बन गए।

सरकारी नौकरी में आया तो दायित्व का दायरा बढ़ा। परिवार के पालन-पोषण के साथ क़ानून के क्षेत्र में विशेष दिलचस्पी बनी और सुप्रीम कोर्ट में स्टेट के विशेष केसों में अह्म कानूनी जिम्मेदारी निभायी। लेखन भी धीरे-धीरे चल पड़ा। सेवानिवृत्त होकर वक़ालक का ही पेशा इख़्तियार किया। सुप्रीम कोर्ट बार में पहुँच गया। 1983 में जस्टिस सरकारिया के सम्पर्क में आया। मानवता के शिखर पर बैठे उस दोस्त ने मेरी कविताओं, कानूनी कार्य तथा सामाजिक, धार्मिक सोच को सराहा तथा मेरा मार्गदर्शन किया। इससे मेरा हौसला बढ़ा।

बचपन से ही आज़ादी की लड़ाई में संघर्षरत, धर्म और इन्सानियत का सही अर्थ समझने तथा चीफ मिनिस्टर रहते अपने हमलावर को क्षमादान देने वाले कवि, कलाकार, वरिष्ठ, वकील, वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और अब गवर्नर माननीय स. सुरजीत सिंह बरनाला से हमारे पारिवारिक संबंध रहे हैं। उन्होंने हमेशा मुझे बड़े भाई की भांति प्रोत्साहन दिया तथा मेरी पुस्तकों (भारत दोहावली प्रथम एवम् द्वितीय) पर भी अपनी प्रस्तवना लिखकर आशीर्वाद प्रदान किया।
अब तक मेरी तीन साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है:-
1.    1993 में सांसे कुछ बाकी हैं डॉ. विद्यानिवास द्वारा विमोचित।
2.    2000 में भारत दोहावली (प्रथम संस्करण) जस्टिस आर.एस. सरकारिया द्वारा विमोचित जिसका 2005 में दूसरा संस्करण स्टार पब्लिकेशन प्रा. लि. नई दिल्ली द्वारा निकाला गया।
3.    2005 भारत दोहावली (द्वितीय), स्टार पब्लिकेशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित।
दो कानूनी पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।
1. 1995 Sales Laws in Haryana-Edited
2. 2002 Chauhan’s Citator of Supreme Court Sales Tax Cases
जस्टिस जे.बी. पटनायक द्वारा विमोचित।
3.     तीसरी कानूनी पुस्तक जल्द प्रकाशित हो रही है।
इसके अतिरिक्त भी मेरी नई पांडुलिपियां प्रकाशन हेतु तैयार हैं, जिन्हें मैं यथा समय प्रकाशित करता रहूंगा।
 
मेरे क़लम के सफ़र में मेरे परिवार जनों का मुझे पूरा सहयोग मिला। धर्मपत्नी राज रानी चौहान, पुत्र पुष्पेन्द्र सिंह चौहान (H.C.S.), पुत्री मंजू भारती (लेक्चरार एवं कवियत्री) तथा पुत्र Er. Ravinder Singh Chauhan, बिना इनके सहयोग और देखरेख के मैं इस मिशन को कभी न पूरा कर पाता।
इस सफ़र में मेरा कई मित्रों और साहित्यकारों ने भी साथ दिया जिनमें कुछ का उल्लेख मैं प्रेम और सम्मानपूर्वक कर रहा हूँ।
मेरा सम्पर्क हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, गुड़गाँव से हुआ। मैंने एक अर्थशास्त्री डा. धनीराम अग्रवाल, एक गणितज्ञ श्री मदनलाल साहनी और उनके साथियों को अच्छी रचनाओं और साहित्य की प्रेरणा द्वारा मां सरस्वती की सेवा में संलग्न देखा। उसके बाद हिन्दी, ऊर्दू और पंजाबी के जाने माने इदारों से बतौर सरप्रस्त या अध्यक्ष जुड़कर दीवान सजाने का मौक़ा मिला।

फरीदाबाद में साहित्य के क्षेत्र में मेरा सम्पर्क सबसे पहले आचार्य बलदेव राज शांत, बलराम तौमर, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ तथा जनाब ओमप्रकाश लागर से हुआ। फिर बहुत सी संस्थाओं से जुड़ता चला गया और अनेकों अच्छे कवि-कवित्रियाँ एवम् शायर सम्पर्क में आये, जिनकी संख्या फरीदाबाद जैसी नगरी में बहुत है। परन्तु दिल में सबका सहयोग दर्ज है।
मैं अनीस अहमद खान ‘अनीस’ के शास्त्रज्ञान, शायरी एवमं कविता के स्तर से प्रभावित हुए बिना न रह सका। मेरा इनसे और राष्ट्र गौरव ग़ज़लकार एवम् कवि दिनेश रघुवंशी तथा जनाब नाशाद औरंगाबादी से ग़ज़लों की सिन्फ़ और शिल्प पर सार्थक मशिवरा होता रहता।

वरिष्ठ शायर जनाब पारस नाथ बुलचन्दानी ने ऐन वक्त पर दीवान को मौजूदा शक्ल देने के लिए अह्म किरदार निभाया। मेरे लिए उन्होंने जो चुनीन्दा मफ़हूम में तसव्वुफ़ को तरजीह दी। उसी की रौशनी में निष्ठा से की गई इसलाह-ओ-तसहीह ने दीवान को निखारा, संवारा और एक ख़ास रंग अता किया। मैं उसके लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूँ।
कई साहित्यिक संस्थाओं के साथ सक्रिय रहने के कारण रचनात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहा। मैंने कई विधाओं में लिखा है। हिन्दी, ऊर्दू, पंजाबी, हरियाणावी आदि भाषाओं में लिखा है। ग़ज़लों का संग्रह ‘दीवान-ए-भारत’ आपके सामने हैं। मैं जानता हूँ शे’र कहना कोई आसान काम नहीं है। बिना रिवायत को समझे कुछ भी कह देना जायज़ नहीं होता। रिवायत का एहतराम लाज़िम है। ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर मैं कामना करता हूं कि हमारा देश, समाज एवं नई नस्लें और तरक़्क़ी करें तथा हम सब एकजुट होकर प्रस्तुत चुनौतियों का सामना करें।
यदि कोई सुझाव हो तो अवश्य दीजियेगा ताकि आईंदा संग्रह को बेहतर बनाया जा सके।
धन्यवाद।

सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’

पेशरफ़्त


शेर के मानी जानना और इन्किशाफ़ करवाना है। पेशे से सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील श्री सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के शेर और उनका कलाम मैंने बहुत पढ़ा और उनकी जुबानी सुना है। श्री ‘भारत’ ‘लिटरेचर फ़ॉर लाईफ’ के क़ाइल हैं न कि ‘लिटरेचर फ़ॉर लिटरेचर’ के। उनकी शायरी में ऑब्जैक्टीविटी और शेर के मानी, जैसे कि मैंने ऊपर बताया, की सही तरजुमानी है।

‘‘तज्रिबात इसमें ज़िन्दगी के हैं।
वरना भारत की शायरी क्या है।।’’


मैं श्री भारत को इतने अच्छे दीवान पर मुबारकबाद देता हूँ। और सभी लोगों को मशविरा देता हूँ कि इनके  इस दीवान को, जो तीन तरीके़ किताब हासिल करने के बताये गये हैं, अर्थात बैग, बॉरो ऑर स्टील, के ज़रिया ज़रूर हासिल करें।

अनीस अहमद ख़ान ‘अनीस’
एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

प्रस्तावना

जो जिससे मिला सीखा हमने
आज एक और ग़ज़ल संग्रह नागरी लिपि में प्रकाशन के लिए तैयार है। इसे कहां तो जोड़ा जाए-दुष्यंत कुमार और उसके बाद की ग़ज़लों से या फिर ग़ज़ल की उस क्लासीकल परम्परा जिसे मीर, ग़ालिब, दाग़ जैसे महाकवियों ने अपने क़लम के जादू से मालामाल किया ? आख़िर हिन्दी ग़ज़ल की यह तथाकथित समानांतर परम्परा आई कहां से ? अगर शोरी भोपाली, दुष्यंत से पूछे कि क्या तूने इस दूसरी रिवायत को शुरू किया, तो सोचता हूँ कि दुष्यंत का जवाब होता-‘नहीं उस्ताद। मैं ये गुस्ताख़ी कैसे कर सकता हूँ, मैंने जो कुछ सीखा इसी उर्दू की समृद्ध परम्परा से सीखा और तरबीयत पाई आपके क़दमों में।

 चाहे स्थापात्य कला हो, संगीत हो, विज्ञान हो, गणित हो, वहाँ तो कोई दूसरी परम्परा नहीं दिखाई देती। जहां तक कला और ज्ञान विकसित हो गया, वहां से आगे बात बढ़ाई जाती है। सूचना प्रौद्योगिकी ने तो संसार को इस मामले में इलैक्ट्रोनिक कवरेज में बदल दिया है। ग़ज़ल निसंदेह अन्य भाषाओं में भी लिखी जा रही है। मुझे नहीं मालूम कि वहाँ भी कोई दूसरी परम्परा विकसित हो रही है।

पर हिन्दी और ऊर्दू में लिपि का अंतर हटा दिया जाए तो ये दोनों भाषाए हमारी गंगा-जमनी तहज़ीब की बेहतरीन मिशाल होंगी। दुष्यंत ने ‘साए में धूप’ की भूमिका में भाषा को लेकर ऊर्दू वालों की तंगदिली पर टिप्पणी की। मैं भी ग़ज़ल का आदमी हूँ, दुष्यंत की तक़लीफ़ को मुझे भी लगातार झेलना पड़ा है। हर विधा का अपना शिल्प, कथ्य और तेवर है। ऊर्दू की ख़ुशकिस्मती यह रही है कि उसे संसार के उत्कृष्ठ शायर अपने हिस्से में मिले। इसलिए ग़ज़ल की परम्परा ऐसी ऊंचाईयों पर पहुँची-जहां नज़र डालकर भी एक संवेदनशील व्यक्ति मदहोश हो जाता है। हिन्दी वालों को भी प्रेरणा मिली। उन्होंने इस विधा में कोशिश शुरू कर दी है। लेकिन शिल्प छंद और उच्चारण पर उर्दू वालों ने नाक भौंहें सुकेड़नी शुरू कर दी। काव्य पर अलबत्ता जियादा बोलने का साहस नहीं हुआ क्योंकि देश में शिक्षा की स्थिति क्या है, इससे सभी परिचित हैं। ऊर्दू वालों को ऊर्दू मां की घुट्टी में मिलती है और हिन्दी स्कूल में हिन्दी वालों को उर्दू माहौल से मिलती है, उनकी बेपनाह मौहब्बत और ज़ज्बे से हासिल होती है। इस बात का एहतराम आज पूरी तरह से नहीं हो पाया। तख़्ती करते ये शरीफ लोग, ये भी भूल जाते हैं कि ग़ज़ल शमः पर कुर्बान होते ये परवाने, सांझी विरासत को और मजबूत करते चले जायेंगे। ग़ज़ल के लिए उसकी बेपनाह मौहब्बत क़यामत तक रही। उस फैसले के दिन युवा ग़ालिब  को सलाम करके कहेगा-‘‘हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे।’’ और दाग़ मुस्कराकर सलाम लेंगे और फिर हमारा वली कहेगा-‘‘आ जाओ-मैं तुम्हें अपनी उम्मत में क़बूल करता हूँ।’’ भला मुझसे भी बढ़कर कोई गुनहगार है। तख़्तियां गले में टांगे चंद अदीब यह सब देखकर सकते में आ सकते हैं। क्या मौहब्बत से भी बड़ा कोई ज़ज़्बा है। जो चीज जोड़ती है उसे तोड़ने की कोशिश ही क्यों की जाये। जहां तक उच्चारण का प्रश्न है ऊर्दू वाले बाक़ायदा हिन्दी पढ़कर भी प्रायः हिन्दी का उच्चारण ठीक नहीं कर पाते क्योंकि उच्चारण का लगभग निर्णय बचपन मे ही हो जाता है।

जहां तक शिल्प और छंद की बात है, हिन्दी ग़ज़ल अपनी क्लासीकल परम्परा के निकट भी नहीं है। इसके लिए उसे भरपूर परिश्रम, प्यार और हिम्मत चाहिए। हिन्दी ग़ज़लकारों को किसी प्रतिक्रियावादी साहित्यिक आंदोलन को पलटने की जगह, आपसी संवाद और ग़ज़ल की समृद्ध परम्परा से लोक में आगे बढ़ते चला जाना चाहिए। हमें हीन भावना से ग्रस्त होने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारा इरादा नेक है और हमारा प्रेम अटूट है।

ग़ज़ल तो महाकवि निराला और रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने भी लिखी-फिर हिन्दी ग़ज़ल को दुष्यंत कुमार के बाद ही क्यों जोड़ा जा रहा है ? लिपि का अंतर भी प्रकाश पंडित सरीखे विद्वानों ने दूर कर दिया। अब तो सब कुछ ‘नागरी’ में उपलब्ध है। ये तथाकथित दूसरी परम्परागत ग़ज़लकारों के मन की उपज है जो इस विद्या की अनिवार्य शर्तों को सीखे बिना साहित्य में स्थापित होना चाहते हैं। आज हिन्दी ग़ज़ल के पास कोई महान शायर नहीं है तो दूसरी तरफ ऊर्दू के पास कोई महान गीतकार नहीं है। कहीं गीतनुमा ग़ज़ल लिखी जा रही है तो कहीं नज़्जनुमा गीत। मैं निदा फाज़ली साहब से बहुत उम्मीद रखता हूँ-सोचता हूं क्या निदा भाई-उर्दू को कभी कोई ऐसा गीत दे सकेंगे जो हिन्दी के किसी बड़े छायावादी कवि के स्तर का हो ? इन प्रश्नों पर साहित्य में बहस होनी चाहिए। पलायन किसी परम्परा का पोषक नहीं हो सकता।
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह को भी इसी गुंजाइश और आज़माइश की रौशनी में ही देखा जाना चाहिए। श्री सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ द्वार रचित ग़ज़ल संग्रह ‘दीवान-ए-भारत’ आपके हाथों में है। चौहान साहब गुड़ग्राही, विनम्र, कृतज्ञ संघर्षशील एंव बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। आप एक सफल पिता, कुशल अधिकारी, अच्छे अधिवक्ता, जिम्मेदार नागरिक एवं संवेदनशील सहित्यकार हैं। साहित्य जगत में ऐसा   सुंदर संतुलन कम ही देखने को मिलता है। ये तो ईश्वर की कृपा, पूर्वजों के पुण्य एवं सन्तों के आशीर्वाद से ही संभव है।

आपने समाज में आ रहे भारी बदलाव और बिखराव को सजग आखों से न सिर्फ देखा है वरन् उस पर गहन अध्ययन भी किया है। आप शांति, अहिंसा और आपसी भाईचारे के हामी हैं। आप शोषण, हिंसा और अत्याचार के विरुद्ध अपनी क़लम उठाते हैं। आप मानवीय मुल्यों की रक्षा करने में अपने स्तर प्रयासरत हैं। आप अपनी संस्कृति, अपने देश की गौरवमयी गाथा, नई नस्लों को सुनाना चाहते हैं।
‘दीवान-ए-भारत’ ग़ज़ल की समृद्ध परम्परा के आलोक में लिखा गया है। इसमें एक ऐसा रचना संसार है जो हमें संवेदना के स्तर पर अभीभूत करता है तथा बेहतर इन्सान बनने की प्रेरणा भी प्रदान करता है। दिल रसा बात ये भी है कि आपके क़लाम में उस्ताद दाग देलहवी का रंग भी है, उनके मज़ाक उनकी ज़बान और उनके चुलबुलेपन के साथ।
मेरी कामना है कि यह ग़ज़ल संग्रह स्कूलों और लाईब्रेरियों में हो, ताकि ग़ज़ल के चाहने वाले इससे हमेशा लाभांवित होते रहें। विशेषकर ‘नागरी लिपी’ में इस संग्रह का प्रकाशन मील का पत्थर साबित होगा।
थोड़ी सी बात कलाम पर भी कर ली जाए। लगभग सात दशक को जागती आँखों से देखकर शायर को  अहसास हो जाता कि ज्ञान का उदय वैराग्य से ही होता हैः-

मंज़िलें नज़दीक जब आने लगीं।
दिल से सारी हसरतें जाने लगीं।।

किस ख़ूबसूरती और रिवायत के साथ ये रात की तड़प और जागने का मंजर सामने हैं:-

मेरी तन्हाई ने पूछा, मुंतज़िर सी नींद से।
करवटें क्या लिख रही हैं, जिस्म और बिस्तर के बीच।।

शरणागति की बात को कितने कम लफज़ों में बांधा है:-

तेरा दामन थामा है
 दुनिया से क्या डरना है।।

सीखने से आपको गुरेज़ नहीं; इसलिए पूरी ईमानदारी से कह उठते हैं:

हर किसी से कुछ न कुछ सीखा हूं मैं।
इसलिए थोड़ा बहुत अच्छा हूँ मैं।।

ये देखिए इनकी नज़ाकत और चुलबुलापन, उत्साह दाग़ क्यों न खु़श हो:-

उनसे रूठे तो कोई क्या रूठे।
जिनकी आवाज़ नग़मगी सी है।।

एक और शेर इसी रंग में :-

दिल के मालिक, गुलाम हैं दिल के।
कैसे उल्टे ये काम हैं दिल के।।

शायर ज़िन्दगी और समाज में फैले फ़रेब से खूब वाक़िफ़ है:-

चेहरा हो दिल का आईना।
ऐसा अक्सर कम होता है।।

बदलाव  और बिखराव ने मानवीय मूल्यों का पतन कर दिया। चारों तरफ एक तरह की बेचैनी और बदहवासी है, शायर चाहता है कि नई हवा के झोंके इसी माहौल में आयें:-

इस घुटन में और बढ़ती भीड़ में।
सांस लेने को हवा ईजाद कर।।

इस शेर में आपसी भाईचारे और सह अस्तित्व की याद है:-

जात मज़हब का कोई नाता नहीं हैं
हर बशर मुझको तो मेरा सा लगे है।।

शिकायत करने का अंदाज देखिए:

               उनकी ख़फ़गी का अंदाज़ तो देखिए।
                यूं मुख़ातिब हैं गोया ख़फा ही नहीं।।

रूमानियत पूरी रिवायत के साथ नुमांयां है:-

वास्ता ज़िन्दगी का दे के मुझे।
                     मुझसे दामन छुड़ा गया कोई।।

किस खूबसूरती से इन्सान की जुर्रत की पैरवी की है:-

मेरी वहशत का है असर वरना।
                     ये निगाहे-करम कहाँ होती।।

फ़िरक़ापरस्तों को सायर यहां मशविरा दे रहे हैं:

बन्दगी आदमी की फ़ितरत है।
                        वरना मज़हब ने, क्या कमी की है।।

चेहरों पर चेहरे ही चारों तरफ दिखाई पड़ रहे हैं :-

जो बाहर से लगा अच्छा बहुत था।
                  यकीनन दिल से वो मैला बहुत था।।
 

फिर वही रंग, फिर वही आशिक़ीः-

हर तरफ महौल था इसरार का।
               और तबस्सुम उस तरफ इन्कार का।।

इन्सान का गिरता चरित्र ही समाज को तोड़ता चला जा रहा है जबकि ईश्वर ने मनुष्य को विवेक दिया कि वो बेहरत तरीके़ से जी सके:

    अज़मत-ए-इसां को जिस ख़ालिक ने दोबारा किया।
    उसको खुद इन्सान के आमाल ने रुसवा किया।

अंत में बुजुर्ग शायर ये नसीहत नई नस्लों को प्रदान कर रहे  हैं:

            ख़्वाब आकाश के, आँखों से सजाए रखिए।
            पांव धरती पे मगर, अपने जमाए रखिए।।

अंत में इतना और कहना चाहूंगा कि कलाम में अभी अधिक सौंदर्य बोध, नए तथ्य, बेहतर शिल्प और दर्शन की जरूरत हैं। सपाटबयानी और रूमानियत से जहां तक हो सके बचें। ये ग़ज़ल संग्रह पहली परम्परा में है और हमेशा इसी परम्परा में याद किया जायेगा।

पारसनाथ बुलचंदानी ‘गुरुप्रसाद’
मकान नं. 1377, सैक्टर-8
फरीदाबाद, (हरियाणा)-121006
 

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