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एक और नीलम

नरेन्द्र राजगुरु

प्रकाशक : हिन्दी बुक सेन्टर प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5353
आईएसबीएन :81-7650-041-0

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एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Ek Aur Neelam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरे पाठकों से

मैं कोई बड़ा लेखक नहीं हूँ बस केवल एक साधारण-सा पत्रकार हूँ। विज्ञापनों की दुनिया से भी मेरा अच्छा परिचय रहा है। कहानियाँ लिखी नहीं जातीं वे तो बस बन जाती हैं। मैंने तो केवल अपनी कलम का सहारा दिया है, उन्हें।
मुझे लेखक बनाने में मेरी बीमार पत्नी और दर-दर की ठोकरें खाती भूख और गरीबी का काफी सहयोग रहा है। जन्म तो एक अच्छे घराने में हुआ, पर बचपन में ही माँ-बाप का साया सर से उठ गया और मैं भटक गया, शहर की अँधेरी गलियों में, भूख और प्यास का यह दर्द मैंने कई बार सहा है। लेकिन भूख और गरीबी ने मेरे तन में छिपी-सोई आत्मा को नहीं बिकने दिया। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का कार्य भी किया।

प्रकाशन के दायरे में एक पत्रिका और एक सायंकालीन पत्र भी प्रकाशित कर अपनी एक नई पहचान बनाई। पर आज के भौतिकवादी युग में ऐसी पहचानों के दायरे की लंबाई सीमित रहती है। रास्तों पर रास्ते बदले पर मेरे अंदर बैठी एक कुँआरी आत्मा जिसने कभी सहयोग की कामना नहीं की और इसलिए फिर एक बार ‘बड़ों’ की दुनिया से बेदखल कर दिया गया। तब मेरी बीमार पत्नी ने सुबकते हुए कहा ‘‘कंथा क्यों भटकंता !’ और मैं बैठ गया एक बड़ी प्रकाशन संस्था की लाल कुर्सी पर। परिचय बढ़ा और पैसा भी हाथ लगा, लेकिन मेरे मन में बढ़ती भूखी आत्मा ने जो कफन बाँध रखा था, उसे नहीं उतार सका और धीरे-धीरे लेखन की ओर मेरा मन बढ़ता चला गया। बाधाएँ और रुकावटें आईं, कहानियाँ लिखी, छपीं और कुछ अनछपी लौट भी आईं। फिर भी मेरे लेखन-कार्य का अपने लोगों ने पत्र-पत्रिकाओं ने अच्छा स्वागत किया। लेकिन कुंठा से पीड़ित चाहने वालों के कोप का भाजन कर एक बार फिर बन गया था, लेकिन फिर भी हार नहीं मानी।

एक, जिसे मैं मित्र नहीं एक बड़ी हस्ती कहूँ तो उत्तम होगा। उनके सान्निध्य में बचपन से जवानी तक गुजर-बसर होता रहा और एक दिन वे अकस्मात मेरे प्यार भरे मन को खाली कर गये। तब से आज तक मेरा लेखक मन रोता रहा है। और रोते मन को मेटने के लिए ही मैंने यह कथा लिखी है, जिसे सत्यता के दामन में छुपा अपने अधूरे प्यार को आपके सामने आज स्वीकार कर रहा हूँ।
मेरी अभिव्यक्ति अगर मेरे पाठकों को पसंद आये तो कृपया दाद मत देना, बदले में इसकी एक और प्रति खरीद लेना। अगर पसन्द न आये तो गलियां भी मत देना, क्योंकि उन्हें सहने की क्षमता अब शेष नहीं रह गई है। मेरा अब तक एक कहानी संग्रह और एक ग़ज़लों का संकलन प्रकाशित हो चुका है और पाठकों से उनकी दूसरी आवृत्ति प्रकाशित करने की माँग आ चुकी है। वह सब मेरे लेखक नाम ‘नरेन्द्र राजगुरु के नाम से ही प्रकाशित हुए हैं।
नरेन्द्र राजगुरु

प्रस्तावना

‘‘एक और नीलम’’ के लेखक नरेन्द्र राजगुरु को मैं पिछले 25 वर्षों से जानता हूँ और यह व्यक्ति विभिन्न प्रतिभाओं का धनी रहा है। इनकी एक प्रतिभा से मैं भलीभाँति परिचित हूँ और वह है-पत्र- पत्रिकाओं में विज्ञापन जुटाने की महारत। बंबई की दुनिया का यह चहेता सपूत रहा है। उस खूबसूरत दुनिया से वह कब लेखकों की दुनिया में आ गया, मुझे तो क्या हमारे बहुत से साथियों को पता ही नहीं चला। श्री राजगुरु की लेखन-प्रतिभा का यह पहला प्रसून है, जो मुझे पढ़ने को मिला है। अपना समय निकाल कर मैंने उसे पढ़ा और तब पता चला कि राजगुरुजी का विज्ञापन वाला दबदबा यहाँ लिखने में भी मुखरित हो उठा है। ‘एक और नीलम’ बालक से बृद्ध होने तक की सरल कहानी मात्र है।

इस कहानी का मुख्य पात्र जीवन की जितनी ही विसंगतियों से जूझता हुआ, बार-बार की ठोकरे खाता हुआ समाज में अपना स्थान बनाने में जुट गया। उसके आस-पास के सामाजिक लोगों ने उसे पहचाना भी और एक अहम स्थान देने की योजना भी बनाई, लेकिन विभिन्नताओं के गहरे अंतराल में वह कहाँ खो गई उसे ढूँढ़ने का प्रयास इस लेखक ने स्वयं भी नहीं किया और ‘एक और नीलम’’ को जन्म देकर कागज के पन्नों पर उतारकर वह स्वयं विज्ञापन का दुनिया से दूर कहाँ खो गया कुछ कहा नहीं जा सकता। यह एक घरेलू और बड़ी कहानी है, इसके सारे पात्र घूम-फिरकर एक बार फिर नीलम के इर्द-गिर्द आ जाते हैं और यूँ ही यह कहनी चलती जाती है। दुनियादारी और मानव-जीवन की तीनों अवस्थाओं का सही और सटीक चित्रण किया गया है, जिसे पाठक आत्सात् कर सकें, उस पर मुझे शंका है, पर लेखक ने यथार्थ से परे की कोई कल्पना नहीं की है। धरातल से उत्पन्न वह लेखक अपनी असलियत से कभी दुखी नहीं हुआ। उसके सामने जो आया, उसे स्वीकारता गया और लेखक की स्वीकारोक्ति का एक प्रतिबिंब है। राजगुरुजी ने कई कहानियाँ लिखी हैं। उन कहानियों के पाठक कौन थे या हैं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन राजगुरुजी की एक कहानी ‘‘विश्वकर्मा के आंसू’’ का तीन-चार भाषाओं में रूपान्तरण हुआ है, तो क्या विज्ञापन से जुड़े एक लेखक के लिए यह कम सम्मान की बात होगी।

हाँ, एक बात और—राजगुरुजी डॉ. सत्येन्द्र डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. महावीर अधिकारी रतनलाल जोशी, कमलेश्वर और डॉ. नंदन के काफी नजदीक रहे हैं। शायद ‘‘एक और नीलम’’ उनमें से किसी एक की प्रेरणा का प्रतिफल हो। हाँ, मैंने राजगुरुजी को लेखक के रुप में कभी नहीं जाना और अब यह लंबी कहानी पढ़कर मुझे ऐसा लगने लगा है कि इस कथानक से एक नये लेखक का जन्म हुआ है- मेरा विश्वास उस ओर दृढ़तर होता जा रहा है। ठीक और उचित कथानक का चयन किया है, सारा उपन्यास एक पात्र के आस-पास घूमता हुआ, उनका एक प्रयास जटिलता से सरलता की ओर बढ़ता नजर आया। भाषा का नियंत्रण तो रखा है, पर कहीं-कहीं लेखक विज्ञापन की दुनिया की रंगीनियों से बचने की कोशिशों के बाद भी नहीं बच सका। हाँ, सच्चाई से परे इस कहानी में अन्यथा कुछ नहीं है।
साथी होने के नाते मैं तो राजगुरुजी को साधुवाद ही दे सकता हूँ। शेष कार्य मैं पाठकों पर छोड़ देता हूँ।

एक और नीलम

मैं एक ऐसे बच्चे की संक्षिप्त आत्मकथा आप तक पहुँचाना चाहता हूँ, जो अपने बाल्यकाल से आपके मुहल्ले में ही रहता था और बरसों बाद आज उसके बुढ़ापे की दहलीज़ भी आपके पास ही है। किसी कोने के मकान में वह आज भी रहता है। साठ साल के उस लम्बे अंतराल में वह कई बार आपसे कहीं दूर भी रहने चला गया था, लेकिन वह अपनी माटी से अलग नहीं हुआ, माटी ने ही आपसे उसकी पहचान को अलग नहीं होने दिया, यानि कि आप आज भी उसे जानते हैं, और आगे भी जानते रहेंगे।

आठ साल की आयु में ही वह अपनी माँ को खो बैठा। मध्यम वर्ग के परिवार में उस बालक का स्थान पाँचवाँ था। दो बड़े भाई व दो बहनें और एक छोटा भाई, जिसकी आँख खुली तो वह माँ के आँचल से दूर हो गया। माँ की जुदाई में साल-छः माह यूँ ही आँसू आँखों में ओझल नहीं हुए कि रसिक बापूजी ने दूसरी शादी तो नहीं कि, शादी जैसा ही कुछ कर लिया। उस घटना का आघात चारों बड़ों को कम हुआ, लेकिन पाँचवे को अधिक हुआ, कारण वह अपनी माँ के काफी करीब था...तो सहूलियत के लिए उस बालक का नाम ‘‘नीलम’’ ही रख लेते हैं। थोड़े दिनों बाद ही नीलम के दोनों बड़े भाई अपने मामा के पास गुजरात में व्यापार करने चले गये थे। बड़ी बहन की शादी एक किसान जमींदार के साथ कर दी गयी।
नीलम की बुआ किसी महरानी की सहेली होते हुए वह उसी के पास नौकरी करती थी। उन्हीं के महलों की चारदीवारी में नीलम के बापूजी की उस रजवाड़े में प्रतिष्ठा बन गयी थी और ऐसे प्रतिष्ठावान लोगों की छोटी-मोटी भूलें, किसी की गिनती में नहीं आती थीं। अगर बापूजी की उस भूल का असर पड़ा तो केवल नीलम पर ही; क्योंकि बचपन से ही वह बड़ा संवेदनशील बलक था। बाल संवेदना के धागे इतने कमजोर थे कि नीलम अपनी माँ की छवि उड़ते पक्षियों में देखने लगा। कोई एकाध पक्षी उसके पास आकर बैठ जाता तो नीलम बाल विह्वल मन से उससे अपनी माँ की बातें करते-करते विडम्बनाओं में खो जाता और रूँआसा बोलता-‘‘कहीं तुमने मेरी माँ को देखा है, वह कहाँ है, कैसी है ?’’

नीलम की वह हालत उसके बापूजी से नहीं देखी गई और उसे अपनी बहन यानि की नीलम को उसकी बुआ के पास एक बड़े शहर में पढ़ने के लिए भेज दिया। बुआ का बहुत बड़ा घर था, उसमें वह अकेली रहती थी। घर की विपरीत परिस्थितियों के कारण उन्होंने विवाह नहीं किया था या हुआ नहीं, वह नीलम की जानकारी से बाहर की बात थी। बुआ रात-दिन महारानी के साथ रहने से बालक नीलम की निगरानी में बाधा पड़ने लगी और चार-छः महीने के अंदर ही उसे वहीं बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवा दिया। बोर्डिंग के जीवन से नीलम असंतुष्ट रहता था फिर भी दो साल निकाल दिये उसने। एक दिन अचानक बोर्डर के पास खबर आई कि नीलम की बुआ का स्वर्गवास हो गया है और उस कारण उसे बोर्डिग से वापस बुआ के घर आना पड़ा। बुआ ने बड़ा-सा घर नीलम के बापूजी के नाम कर दिया था। क्रियाकर्म व धार्मिक रस्मों के बाद नीलम के बापूजी भी अपनी छोटी बेटी व सबसे छोटे बेटे को लेकर यहीं हवेलीनुमा मकान में आकर बस गये। रजवाड़ों में रहने के कारण बापूजी की आदतें भी उन जैसी हो गई थीं, वह कोई काम नहीं करते थे, बस यूँ ही अपनी हमउम्र के लोगों के साथ बैठ हथापाइयाँ ही किया करते थे। अपनी पुश्तैनी जमींदारी से भी बड़ी जायदाद बुआ छोड़ गयी थी, उसकी देखभाल व साज-सँवार के बाद बापूजी को पढ़ते बच्चों की देखरेख के लिए समय नहीं मिलता था। शहर में रहते तीनों बच्चों में से नीलम से बड़ी बहन व छोटे भाई ने पढ़ने में ढील बरतनी आरम्भ कर दी और एक दिन उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।

बापूजी की खर्चीली आदतों के कारण घर पर कर्ज का बोझ बड़ता गया, जमींदारी धीरे-धीरे बिकने लगी। ऐसी स्थिति में नीलम के पढ़ने का खर्च, स्कूल की यूनीफॉर्म, पुस्तकों की खरीद का शिकंजा ढीला पड़ने लगा। नौकर-नौकरानियों की चार की गिनती भी एक पर आकर रुक गयी। फिर भी खाने की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अन्य खर्चों पर सख्त पाबन्दी लग गयी। ऐसी हालत में नीलम का पढ़ना कठिन-सा होने लगा था। पुस्तकों का खर्च, तब एकाएक रुक-सा गया था। एक साफ-सुथरे बुद्धिमान् बालक नीलम के सामने एक नई विकट समस्या आ खड़ी हुई, जिसके लिए वह आयु के उस मोड़ पर तैयार नहीं था। स्कूल का पढ़ना वह छोड़ना नहीं चाहता था अपने बापूजी से भी झिड़कियाँ खाने की अब उसमें हिम्मत नहीं रह गई थी। केवल माँ की मीठी यादें ही उसे यथावत् विसंगति भरे संसार में खड़े रहने की शक्ति प्रदान कर रही थीं। माँ कहा करती थी-‘‘मेरा नीलू ही पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा।’’

नीलम के मानस पटल पर माँ की वह बात आज उभरकर सामने आई। भरी पूरी जमींदारी के समय उसे किसी चीज की कमी नहीं खलती थी। शायद यही कारण रहा होगा नीलम के बाल मन पर, जिसके कारण वह मन से पढ़कर अपने इलाके का प्रथम स्नातक भी बन गया, ऐसे सपने व कल्पना से उसके कदमों को नई राह मिली और वह पढ़ता गया।
प्रथम विश्वयुद्ध की घोषणा हो गई। अंग्रेजों का जमाना था, कितने ही प्रकार के नये-नये कार्यों की योजनाएँ बन गयीं। लोगों ने पैसा कमाने के लिए कितने ही कामों का ठेका ले लिया और शहर में काम करने वालों की तलाश होने लगी। तभी शहर में एक ‘‘वारफेट’’ यानि की युद्ध का मेला लगा था। उस मेले का आयोजन अंग्रेजों ने किया था, जिसमें बच्चों के लुभाने के कई सरंजाम विलायत से लाए गये थे। शाक-सब्जियों-की भी एक दुकान लगी थी, जिसमें विलायत से आई नयी-नयी सब्जियों-फल-फूल आदि सजाये गये थे। ‘‘वारफेट’’ को देखने को इतनी बड़ी भीड़ बढ़ गयी थी कि उसे देखने के लिए जनता को घंटों की नहीं, वरन् दिनों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

ऐसी हालत को नजर रखते हुए अंग्रेज अफसर ने ‘‘वारफेट’’ को एक दिन स्कूली बच्चों के लिए सुरक्षित रखा था। सभी बच्चों को उसे एक दिन के लिए ‘‘वारफेट’’ देखने का मैका मिल गया, जहाँ आम लोगों की भीड़ से परे, शहर के विभिन्न स्कूलों के बच्चे, अपनी स्कूली यूनीफॉर्म पहने ‘‘वारफेट’’ देखने आने लगे। तब देश गुलाम हो चुका था और गुलाम बच्चे सजधज कर अपनी स्कूली यूनीफॉर्मों को साफ धोकर, उज्ज्वल बनाकर कलफ और इस्त्री का शायद पहली बार प्रयोग कर अपनी स्कूल की योजनाबद्घ पंक्तियों में एक-एक कर आने लगे।

गुलाबी साफा, सफेद पैंट तथा सफेद बूट (कपड़ों) के साथ सफेद मोजों को पहने उस स्कूल के बच्चे ऐसे लग रहे थे मानो गुलाबी चोंच वाले श्वेत पक्षी ‘‘पेलीकन’’ की कतार-सी खड़ी हुई है। अंग्रेज अफसरों व विलायत से आये ‘‘फेट’’ के कर्मचारी की नजर एक बारगी रुक-सी गयी और देखने लगे ‘‘पेलिकन’’ रूपी बच्चों की धवल कतार को। स्कूल के करीब बच्चों के इस झुण्ड ने ‘‘वारफेट’’ में एक नया जीवन, नयी लहर-सी दौड़ा दी थी। अन्य स्कूली बच्चे यह भूल गये कि यह एक ‘‘वारफेट’’ है या, मात्र पक्षियों का एक समूह ही वहाँ उमड़ पड़ा हो मानो। भूल गये लोग ‘‘वारफेट’’ की विलायती चीजें को और एकटक देखने लगे पेलिकन के झुण्ड को। इतने में ‘‘वारफेट के व्यवस्थापक एक अंग्रेज ने स्कूल के अध्यापक से पूछा-‘‘यह कौन-से स्कूल के बच्चे हैं, बड़े सलीके से आये हैं और चलते भी बड़े अभिमान से हैं।’’ अध्यापक ने अंग्रेजों से बोलने का हौंसला कर ही लिया और उस अंग्रेज को अपने स्कूल के बारे में बताने लगा।

वह स्कूल उच्च श्रेणी के क्षत्रियों के बच्चों का एकमात्र स्कूल है और ये बच्चे उसी स्कूल के छात्र हैं गुलाबी रंग क्षत्रियों की एक विशेष चाहत है, उसी वजह से उन बच्चों के सिर का मौर (साफा) गुलाबी है। उन बच्चों को आरम्भ से ही एक अच्छे संचालन में रखा जाता है, ताकि आगे चलकर ये अपने देश की सही सेवा कर सकें, यही उन्हें सिखाया जाता है। अध्यापक ने अपनी बात पूरी की। अध्यापक की बात का असर अंग्रेज अफसर पर ऐसा गहरा पड़ा कि वह दूसरे दिन ही उस स्कूल के निरीणक्ष के लिए वहाँ जा धमका। तब से उस स्कूल को अंग्रेज सरकार ने एक विशिष्ट स्थान दे दिया था और उसके लिए एक विशेष अनुदान की घोषणा भी कर दी थी। तो यह वही स्कूल था, जहाँ नीलम अपने स्कूली जीवन की चौथी सीढ़ी पर आ चुका था।
‘‘वारफेट’’ की सैर खत्म हुई और सभी बच्चे लौट
आये अपने-अपने घरों को और कुछ बच्चे अपने हॉस्टल के कमरों की ओर।
स्कूली कपड़ों की धुलाई का काम नौकरानी ने नहीं किया, बड़ी बहन ने भी मना कर दिया, साबुन नहीं है का बहाना करते हुए। नीलम के बाल-मन पर यह बात हथौड़े की चोट की तरह पड़ी। साबुन नहीं तो कपड़े कैसे धुलेंगे और कपड़े नहीं धुलेंगे तो कल स्कूल क्या पहनकर जायेगा। उस विचार ने नीलम को मजबूर कर दिया और अपनी बुआ की पुरानी ओढ़नी जो चांदी की जरी से लैस थी, उसकी जरी निकाल कर बेंच आया और ले आया साबुन की दो टिकिया। नीलम के उस कार्य की शिकायत बहन ने बापूजी से की और जमींदारी, घर की बड़ी-बड़ी चीजें बेंच कर मौज करने वाले बाबूजी ने नीलम की खूब पिटाई की और उसे चोर उचक्के की संजा दे दी। आहत मन नीलम अपने आँसुओं को रोक नहीं सका और दिन भर रोया रात रोते-रोते कब आँख लग गई कि सवेरे स्कूल जाने का समय भी निकल गया। उस दिन वह स्कूल नहीं गया। अगले दो दिन भी वह और स्कूल नहीं जा सका। तीसरे दिन उसके स्कूल का सहपाठी उसे ढूँढ़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा नीलम के घर पर। आहत नीलम की आँखों में फिर आँसुओं ने अड्डा जमा लिया। वह साथी समझ गया कि माजरा क्या है और ले गया वह सहपाठी नीलम को अपने साथ अपने घर।

वह घर क्या था एक विशाल महल था। करीब एक एकड़ जमीन पर बसा वह महल अनगिनत कमरे, चार-पाँच घोड़े, दो मोटरकारें, एक फटफटिया और नौकर-चाकरों के लिए साइकिलों की कतार। स्प्रिंगदार पलंग, बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ, टेबल, सोफा, कमरों की छत पर लटकते इटालियन कांच के चमकते झूमर। नीलम के लिए वह नजारा एक अजीब-सा था। नीलम के मन में एक बात बिजली की तरह कौंधी-‘‘क्या मेरा यह सहपाठी मेरा मित्र बन सकता है ?’’ नीलम की उस कल्पना को झकझोरते हुए उस सहपाठी ने कहा-‘‘आ नीलम कुछ खा लें।’’ नीलम ठहरा ब्राह्मण, क्षत्रिय के यहाँ वह कैसे खा सकता है, वे लोग कहीं उसे क्षत्रिय खाद्य तो नहीं खिला दें। यह विचार उसे घेरे हुए वह सहपाठी के पीछे-पीछे चलता गया। सामने एक विशाल कमरा था, खाने की एक बड़ी टेबल थी, जिसे सहपाठी ने ‘डाइनिंग टेबल’ कहा और कुशन वाली कुर्सी पर बैठने को कहकर सहपाठी रसोई घर की ओर चल दिया। रसोई से एक महाराज चाँदी की चमकती थाली में चपाती, खीर सब्जियों की चार कटोरियों के साथ आया और उसे नीलम के सामने रख दी। उस थाली को लेकर आये महाराज के पीछे-पीछे आये उस सहपाठी ने कहा-‘‘मैं जनता हूँ नीलम तुम ब्राह्मण हो इसलिए यह ब्राह्मणी खाना ही बनवाया है, तुम्हारे लिए, तुम निःसंकोच खाओ।’’ खाना खाने के बाद घर पर छोड़ आने का आग्रह किया उस सहपाठी ने, लेकिन नीलम नमस्कार करता हुआ अकेला ही लौट चला अपने घर की ओर, जो पुरानी हवेली का एक विदूह रूप मात्र ही रह गया था अब।

रास्ते भर नीलम यही सोचता रहा कि इस दुनिया में ऐसे भी लोग हैं, जो इतने बड़े महलों में रहते हैं, उनके खाने की बात कितनी निराली। अपनी बुआ के साथ नीलम एक बार उस महारानी के महल में भी गया था, जहाँ बुआ काम करती थी, महारानी की सहेली बनकर। तब अविकसित बुद्धि के पटल पर उस विशाल महल की छाप नहीं पड़ पई थी। चाहे वह अपने उस सहपाठी के महल से कितना ही बड़ा एवं विशाल महल था। घर आने पर नौकरानी व बहन ने खाने को भी नहीं पूछा, तो नीलम चुपचाप अपने कमरे में चला गया और सो गया। बाबूजी की घर में आमदरफ्त काफी कम हुआ करती थी, खाने, नहाने, निबटने या कभी-कभी सोने को आ जाया करते थे।

नीलम को करीब दो माह तक बुआ के वस्त्रों से चाँदी की जरी निकालकर बेचते हो गये और उसी से नीलम की स्कूल व किताबों का व कपडों की धुलाई का खर्च निकलता गया। एक दिन बापूजी के पास वह दुकानदार आकर यह कह गया कि आपकी हवेली से जरी काफी मात्रा में उसके पास बिकने आ चुकी थी, क्या यह बात आपको मालूम है ? दुकानदार की बात सुनकर बाबूजी ने आव देखा न ताव, बस बरस पड़े नीलम पर और हो गई जूतों और घूसों की बरसात। कहतें हैं, मार के आगे भूत भी भाग जाता है, तो नीलम तो बेचारा एक बालक ही ठहरा भाग गया घर से। तीन रात और दिन जनता बाग में उसने भूखे ही बिताई। बाग में बंदी जानवरों और पक्षियों से अपने मन की बात कहते-कहते उसे वहीं नीद लग जाती थी। बाग का चौकीदार नीलम को दो दिन में ही समझ गया और तीसरे दिन अपने पास से बाजरी की दो रोटी और मिर्ची की चटनी लेकर आया। नीलम ने वह रोटी खाई और बाग के बंदी मित्रों से बातें करने में वह भूल ही गया कि उसे स्कूल भी जाना है, पढ़ना है, माँ के सपनों को साकार करना है।

तीन दिनों के मैले कपड़ों को धोने के लिए वह चौकीदार की कोठरी के पास गया, जहाँ पानी का नल था। घर से निकलते वक़्त वह अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था। पहने कपड़े उतार कर वह अपने कपडों को कैसे धोये, इस दुविधा में वह नल से टपकती बूँदों की ओर देखता रहा। चौकीदार नीलम की इस दुविधा को समझ गया और कोठरी से एक अंगोछा उसे लाकर दिया। नीलम ने चौकीदार की मदद से कपड़े धोये, सुखाये और पहन कर जाने लगा। चौकदार की आँखों में आँसू आ गये, भीगी पलकों में ही चौकीदार ने कहा-‘‘नीलम कभी हिम्मत नहीं हारना, यह जीवन तो एक संग्राम है इससे लड़ते रहना ही जीवन है, जो हार गया वो गया काम से।’’ और नीलम के हाथ में दो रुपये का कलदार थमा दिया उस चौकीदार ने। चालीस वर्ष की आयु का चौकीदार लच्छीराम दो वर्ष पूर्व ही अकेला हो गया था। नीलम की आयु का एक लड़का था उसका, वह बड़ी माता (चेचक) की बीमारी को बलि चढ़ गया और लच्छीराम की पत्नी किसी मनचले के साथ भाग गई। पिछले बारह वर्षों से लच्छीराम अपनी पत्नी के लौट आने की प्रतीक्षा में बूढ़ा होता चला गया, लेकिन वह आज तक नहीं आई। लच्छीराम की कोठरी आज भी सूनी है।

अब शायद ही उसमें किसी की आवज गुंजन कर पायेगी। जाते-जाते लच्छीराम ने नीलम को कहा ‘‘अरे ओ नीलू, कोई काम पड़े तो बिना किसी झिझक के मेरे पास चले आया करना, मैं तुम्हें सदा अपनी कोठरी में रहने की तैयारी रखूँगा।’’ इतने में दूर के पिंजरे में बंद दो बंदरों की-नोक-झोक के कारण लच्छीराम उस ओर दौड़ता चला गया और नीलम अनमने मन से अपने घर की ओर चलने लगा। घर पहुँचने पर पता चला कि बहन, छोटा भाई व बापूजी बुआ की बरसी मनाने गाँव चले गये हैं और साथ नौकरानी को भी ले गये हैं। घर की चाबी यानि कि नीलम के कमरे की चाबी पास में ही छोड़ गये थे। नीलम की कमरे के अंदर जाने की इच्छा न होते हुए भी वह अंदर गया।

कमरे में जाकर देखता है कि वहाँ कि सारी चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं, बिना धोये कपड़े यूं ही धूल चाट रहे थे और बिछी खाट खड़ी थी तथा बिस्तर गोल किया हुआ कमरे के एक कोने में पड़ा था। उस विशाल खंडहरनुमा हवेली के एक कमरे में नीलम घुटन महसूस करने लग रहा था, त्योंही उसकी मां की आवाज, मानो कमरे में गूँज उठी-‘‘अरे ओ नीलू, घबराता क्यों है, मैं हूँ न तेरे पास। जा बाहर देख तेरा सहपाठी तुझे बुला रहा है।’’ आँसू की लड़ियों के साथ वह कमरे से बाहर गया, तो कुंवर जी यानि उसका वही सहपाठी सामने खड़ा, मन-ही-मन में पूछ रहा था कि नीलम क्या अपने मित्र को भूल गया। मेरा घर तुम्हारा नहीं, जो तू यूँ मारा-मारा जनता बाग में भटकता रहा। यह तो अच्छा हुआ, उस लच्छीराम का, जिसने सारी बातें कल आकर मुझे बता दी।

लच्छीराम का छोटा भाई मेरे पास ही रहता है। वह घोड़ों की देखभाल करता है। नीलम की आँख का आँसू पोछते हुए वह उसकी किताबें, कपड़े और उपयोगी सामान समेटकर ले चला वह उसे, अपनी रौनक भरी हवेली में। वहाँ एक साफ सुथरे कमरे में उसके रहने की व्यवस्था कर दी गयी।
कुँवरजी के बड़े भाई मोहन सिंह ने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली थी और अब आगे पढ़ने की इच्छा नहीं थी। उन्हें खाने-पीने व शिकार का बड़ा शौक था। पिताजी राजा वीर सिंह विशाल जागीर की आमदनी के नशे में धुत दिन भर शराब में ही लीन रहते थे। महल की कोई भी नौकरानी, उन राजा साहब की हवस का शिकार न हुई हो ऐसा नहीं था। सुबह उठने से रात सोने तक पीना ही राजा साहब का एकमात्र काम था। कुँवरजी की माताजी किसी बड़े राजघराने की बेटी थीं।

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