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जो नहीं लौटे

नरोत्तम पाण्डे

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5361
आईएसबीएन :81-7721-012-2

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अंचल के जीवन, सामाजिक और तत्कालीन मूल्यों को अभिव्यंजित किया गया है...

jo nahi laute

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


अभिव्यक्ति


माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। वस्तुतः इनसे वियोग सबके लिए दुःखदायी रहा है, चाहे वह उन्नीसवीं सदी का निपट गँवार, बझाकर भेजा गया, अनपढ़ पतिराम हो या आधुनिक बुद्धिजीवी, जिन्होंने स्वेच्छा से देश-त्याग किया हो।

पतिराम एक व्यक्ति नहीं, एक वर्ग है, जो बेहतरी की खोज में शोषण, उत्पीड़न का शिकार होता है, जो तत्कालीन युग-सत्य था।

पुस्तक में उस अंचल के जीवन, सामाजिकता और तत्कालीन मूल्यों को अभिव्यंजित करने की कोशिश की गई है, जहाँ से अधिकांश बँधुआ मजदूर, अनजाने में ही दुनिया की विभिन्न कर्म-भूमियों में दूसरों की आर्थिक समृद्धि के लिए नियति हुए थे। कुछ लौट आए, ज्यादा वहीं हैं, जो नहीं लौटे।
तथास्तु


लंदन
अक्षय तृतीया
26 अप्रैल, 2001 -नरोत्तम पांडेय


परिभूमि


सबकुछ इतना अचानक और जल्दी में हुआ कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला; जगह की सफाई और आगंतुकों का स्वागत-सत्कार तो अलग रहा। छर्-छर् धूल उड़ाती कारों और जीपों का काफिला काली स्थान पर रुका। एक-एक कर कई धूल भरे चेहरे गाड़ियों से उतरे। बैलगाड़ी और ट्रैक्टरों ने कच्चे रास्ते में धूल उखाड़ दी थी। आस-पास के बच्चे तथा अति उत्सुक लोग, जिन्हें कोई दूसरा काम नहीं होता, भीड़ लगाने लगे।
साहबी पोशाकवाले एक व्यक्ति ने कुछ कागज फैलाए-हाँ, पोखरे का पूर्वी किनारा, टीले पर काली स्थान-उससे पूरब नीम, बरगद और पीपल के पेड़-एक बड़ा गड्ढा-बस, सबकुछ वैसा ही जैसा उस कागज में लिखा था। हाँ, इस टीले के आस-पास कोई मकान नहीं था। ध्यान से देखने पर ऐसा लगता था, कुछ वर्षों पूर्व उस जगह पर अवश्य कोई मकान रहा होगा। पुरानी दीवार के ऊँचे-नीचे ध्वंसावशेष, टूटे खपरैल, उठी जमीन स्पष्ट संकेत दे रहे थे-कभी किसी की अवश्य यहाँ बासगीत रही होगी।

कागज निकालनेवाले व्यक्ति की आँखों में हर्ष और कामयाबी साफ झलकने लगी थी। बगलवाले व्यक्ति से बोला, ‘डी.एम. साहब, सहयोग के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंततः आपने हमारे पुरखों का बेख ढूँढ़ ही दिया। सबकुछ ठीक वैसा ही है जैसा उन्होंने लिखा है। साधारण परिवर्तन तो समय की चाल है।’ और भावावेश में उस धूल भरी धरती पर लोट-सा गया। वहाँ की धूल उठाकर बार-बार मस्तक पर लगाने लगा-‘यही है वह धरती जहाँ हमारे पुरखे पैदा हुए थे, पले और बढ़े थे, जिंदगी की धूप-छाँव देखी थीं। इस मिट्टी में खेले थे, इसके हवा-पानी में जीए थे। समय के थपेड़ों ने कहाँ-से-कहाँ क्या कर दिया; पर हमारा नाता इस धरती से अटूट है, अनन्य है और अब इतिहास है।’

उसने एक बड़ा सा मिट्टी का ढेला पुराने दीवार से निकाला। प्लास्टिक के बैग में रखा। ‘इसे मैं साथ ले जाऊँगा। चंदन है। सभी माथे पर लगाएँगे। यह पूजा है, यह पूज्य है। हमारे जैसे कितने भाग्यशाली हैं, जो अपने मूल को ढूँढ़ पाएँ हैं, अपनी मिट्टी का चंदन मस्तक में लगा सके हैं।’ उसने फिर-फिर इस धरती को प्रणाम किया। निरीक्षण की मुद्रा में पुनः-पुनः सारे परिवेश को देखा। काली स्थान में जाकर देवी को माथा झुकाया। काली स्थान के टीले से रेलवे लाइन दीख पड़ी।
‘क्या रेलवे लाइन इतनी नजदीक है ?’ उस व्यक्ति ने पूछा।
‘हाँ, हमारे गाँव से रेलवे लाइन बहुत नजदीक है।’ भीड़ से आवाज आई। दर्शक लोग काली स्थान के टीले पर चढ़ आए थे।
‘तभी तो गाँववालों को गाँव से इतनी दूर फेंक दिया।’ उस व्यक्ति ने कहा। उसके चेहरे पर उदासी भरे सन्नाटे की एक लहर आई और चली गई।

ये थे मॉरीशस के मंत्री पदारथ रामदयाल। बरसों से अपने पुरखों की जन्मभूमि का पता लगवा रहे थे। अब कामयाब हुए थे और अपनी पैतृकभूमि देखने यहाँ आए थे। पोखरे के दूसरे छोर से मुखिया ने बिना किसी पूर्व सूचना के कई गाड़ियाँ खड़ी देखीं। लोगों की भीड़ देखी। तत्काल पहुँचे। तब तक वे लोग गाड़ी में बैठने लगे थे। मुखिया को देखते ही स्थानीय विकास अधिकारी रुक गए।
‘क्या मामला है ? कल आपसे बातें हुई; आपने कोई प्रोग्राम नहीं बताया ?’ नमस्ते करने के बाद मुखिया ने पूछा।
‘बताता कैसे ? रात दस बजे थाने में वायरलेस आया। ये मॉरीशस के मंत्रीजी हैं। डी.एम. साहब के साथ अपने पूर्वजों की जन्मभूमि देखने आए हैं।’ विकास अधिकारी ने बताया और अभी बोलने ही वाले थे कि मुखिया झटाक से डी.एम. साहब के पास पहुँचे।

‘श्रीमन्, हम लोगों को खबर होती तो हम लोग मंत्रीजी के स्वागत की अनुकूल व्यवस्था करते। हमें तो कुछ पता ही नहीं चला कि आप लोग आने वाले हैं। यह तो बहुत खुशी की बात हुई कि हमारे गाँव के किसी व्यक्ति का वारिस मॉरीशस में मंत्री हुआ है और कोई स्वागत तो नहीं हो पाया, गरमी का दिन है, थोड़ा जल-पानी हो जाए, तभी आप लोग जाएँ।’ मुखिया ने एक ही स्वर में कह डाला।
डी.एम. साहब वे बहुत ना-नू किया, पर मंत्रीजी की रोख देखकर मान गए। आने के पहले ही मुखिया ने अपने घरावालों को शरबत-पानी लेकर आने को कह रखा था। उसी समय वे भी लिये-दिए पहुँचे। इस थोड़ी सी मेजबानी से मंत्रीजी का दिल गद्गद हो गया। मन-ही-मन गुनगुनाने लगे-


‘मेहमान हमारा होता है,
वह जान से प्यारा होता है।’


धन्य है हमारे पुरखों की भूमि !
एक-एक कर लोग गाड़ियों में बैठ गए। मुखिया बोले, ‘हुजूर, आपका तो यह इलाका ही है, पता नहीं मंत्रीजी लौटें, न लौटें। इनका जैसा स्वागत होना चाहिए था, नहीं हो सका।’ और एक माला मंत्रीजी के गले में डाल दी।
‘मैं स्वागत कराने नहीं, अपने पूर्वजों की धरती देखने आया था। मुझे आज बहुत खुशी है।’ अक्षय तृप्ति और धूल उड़ाती गाड़ियों का काफिला जिधर से आया था उधर ही लौटने लगा।

मंत्रीजी की गाड़ी में डी.एम. साहब थे। मंत्रीजी बोले, ‘आपका आभार किन शब्दों में व्यक्ति करूँ ? वर्षों से मैं इस जगह का पता लगाने के लिए परेशान था। कई रूट-फाइंडिंग एजेंसियों का सहारा लिया, कई लोगों से कॉण्टैक्ट किया, पर सब नाकामयाब। हमारे पूर्वज, जो यहाँ से मॉरीशस गए, उन सबके कागजातों में एक ही बात दर्ज थी, फ्रॉम पोर्ट ऑफ कैलकटा-सबके सब कलकत्ता बंदरगाह से गए थे। पर ज्यादा लोगों की जबान भोजपुरी थी। अपने टूटे-फूटे रूप में आज भी बरकरार है। ज्यादा लोग आरा से थे और वे इस मूल भूमि को भूले नहीं थे। हमारे दादा दो-एक बार यहाँ आए भी, पर लोगों की उनके प्रति उदासी और अस्पृश्य भावना से उन्हें बहुत चोट पहुँची। बाद में संपर्क बिलकुल टूट गया। घर में उन्हीं का लिखा यह विवरण था-गाँव का नाम और जगह का धुँधला वर्णन, जिससे हम लोग इसे ढूँढ़ पाए। जो लोग वर्षों पूर्व इस देश को छोड़ गए, उनके उत्तराधिकारी अपनी मूल भूमि को ढूँढ़ने के लिए लालायित हैं, बेचैन हैं। पर पूर्व पुरुषों ने कोई विवरण नहीं छोड़ा। जो छोड़ा भी, काल स्रोत में समाप्त हो गया। फिर भी हम लोग इस धरती के लिए अपने दिलों में आग लिए फिरते हैं। मैं आपका बहुत आभारी हूँ। आप कभी मॉरीशस आएँ। मुझे वहाँ आपको पाकर बहुत खुशी होगी। आप भी देखेंगे, तमाम मिश्रणों के बावजूद अभी भी वहाँ की संस्कृति में यहीं की अंतर्धारा बह रही है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।’

ड्राइवर मन-ही-मन मुसकरा रहा था। ‘आप मंत्री बने। आपके पूर्वजों की भूमि ढूँढ़ निकाली गई। वर्षों से आप तलाश में थे। औसत आदमी ऐसी खोजों में कहाँ सफल हो पाता ?’ उसने मन-ही-मन सोचा।
अब तक गाड़ी मुख्य सड़क के पास मोड़ पर पहुँच चुकी थी। बाईं ओर बस्ती थी, दाईं ओर पक्के रोड से जोड़नेवाला एप्रोच रोड। अगर गाड़ी दाहिने मुड़ जाती तो जिला मुख्यालय को जाती।
अचानक मंत्रीजी ने गाड़ी रुकवाई। बोले, ‘यदि हम यों ही लौट गए तो हमारी यात्रा सिर्फ सरकारी होकर रह जाएगी, क्यों न थोड़े समय के लिए हम लोग बस्ती में चलें। कुछ बड़े-बूढ़ों से मिलें। शायद कोई हमारे पुरखों के बारे में जाने-सुने होंगे। मैं भी गाँव देख लूँगा, लोगों से मिल लूँगा। आखिर लोग क्या सोचेंगे-आया भी, चला भी गया गाँव के किसी आदमी से बात भी नहीं की।’

और गाड़ी बस्ती की ओर चल पड़ी।
मॉरीशस के मंत्रीजी के आने और उन्हें इसी गाँव से संबंधित होने की बात पूरे पाँच हजार की बस्ती में जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। जगह-जगह लोग टोलियों में इस यात्री की चर्चा कर रहे थे। हमारा गाँव भी कमाल का है; विश्व विजयी है। मॉरीशस तक छा गया है। बहुत से लोग मॉरीशस का भूगोल जानने को बेचैन थे।
ज्योतिषीजी के दरवाजे पर बड़ी भीड़ थी। ज्योतिषीजी गाँव के वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध व्यक्ति थे। जीवन के अस्सी वसंत देख चुके थे। इस शताब्दी के शुरू में काशी जाकर आपने साहित्य, ज्योतिष और कर्मकांड का अध्ययन किया था। पता नहीं उन्हें इस जमाने की कोई डिग्री मिली थी या नहीं, किंतु ‘ज्योतिषीजी’ उनका सर्वनाम बन गया था। शास्त्र में उनकी पहुँच अकाट्य मानी जाने लगी थी। ज्योतिषीजी के बेटे की पढ़ाई को लेकर, ज्योतिषीजी बताते हैं, कई वर्षों तक घर में झगड़ा चलता रहा। इनके भाई पारंपरिक संस्कृत की पाठशाला में पढ़ाना चाहते थे। ज्योतिषीजी बनारस में नई शिक्षा का प्रकाश देख चुके थे। अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। आज उनकी कई पीढ़ियाँ ग्रेजुएट हो गई हैं।

भीड़ बढ़ती जा रही थी। सवाल पर सवाल हो रहे थे। लोग मंत्रीजी की बुनियाद जानने को लालयित हो उठे। ज्योतिषीजी बचा रहे थे, कुछ दिन पूर्व एक कर्मचारी उनके पास आया था। तरह-तरह का सवाल पूछा था। इन्हें क्या पता था, इस मंत्रीजी के लिए ही वह सारे गड़े मुरदे उखाड़ रहा था। किसी ने पूछा, ‘बाबा, सच में अपने गाँव के लोग वहाँ गए थे ?’

ज्योतिषीजी अभी उत्तर देने ही वाले थे कि अचानक गाड़ियों का काफिला सामनेवाले पाकड़ के पेड़ के पास रुका और मंत्रीजी के साथ लोग ज्योतिषीजी के पास पहुँचे। क्षण भर के लिए ज्योतिषीजी धबड़ा गए, कहाँ बैठाएँ ? पहले पता होता तो सारा इंतजाम कर लेता।

ज्योतिषीजी की घबड़ाहट देखकर मंत्रीजी बोले, ‘बाबा, कोई परेशान होने की बात नहीं है। हम आपके घर के आदमी हैं। मेरे दादा पतिराम कई बार यहाँ आए थे। उन्हीं के लिखे कागजातों से हम लोग यह जगह खोज पाए हैं। आज मैं इस जगह को देखने आया था, सोचा, आप लोगों से भी मिल लूँ। दर्शन का पुण्य लाभ कर लूँ, और कहते-कहते चौकी पर बैठने लगे।

ज्योतिषीजी ने क्षण भर के लिए उन्हें रोका, ‘बस, इसपर एक बिछावन डाल देने दीजिए।’ तब तक कोई आदमी चौकी पर तोशक-चादर डालने लगा था। मंत्रीजी अपने काफिले के साथ आराम से बैठे।
‘मैंने पतिराम को देखा था। जब मैं छोटा था, वह एक बार यहाँ आए थे। लोग बताते थे। पतिराम गिरमिटिया में मारीच देश चले गए थे। वहीं बस गए थे। एक-एक कर हमारे गाँव के तीन आदमी वहाँ गए। तो आगे-पीछे लौट आए; पर लोग कहते थे, वह वहीं शादी-ब्याह करके बस गए।’ ज्योतिषीजी ने बताया।
‘बस बाबा, मैं उन्हीं का पोता हूँ। यही सब जानने के लिए तो मैं आपके पास आया हूँ। तो आपने मेरे दादा को देखा था ?’ मंत्रीजी ने पूछा।

‘हाँ, ज्यादा याद तो नहीं है, पर इतना याद है कि जब लौटे थे, एक तहलका-सा मच गया था। कोई उनका अपना नहीं था, बहुत बन गए थे। लोग उनके आगे-पीछे घूमते थे। बड़े सहमिलू थे। सबसे मिलते, बातें करते। बताते थे, वहाँ उनका कारोबार बहुत ठीक था। वो तो कई लोगों को वहाँ ले जाना भी चाहते थे; पर कोई जाने को तैयार नहीं हुआ।’
‘बाबा, सब आपका आशीर्वाद है। जो लोग शुरू-शुरू में गए उन्हें या उनके बादवाले पुस्त को बहुत तकलीफ उठानी पड़ी, मुसीबतों से गुजरने पड़ा। धीरे-धीरे स्थिति बदली। अब तो सभी लोग खुशहाल हैं। जिंदगी के हर सफर में अपनी मंजिल तय कर चुके हैं।’ मंत्रीजी ने बताया।
‘अब तो आप लोग बहुत बदल चुके होंगे। आप लोगों की जबान, पहनावा, आचार-विचार सबकुछ बदल गया होगा ?’ उपस्थित भीड़ से किसी ने प्रश्न किया।

‘बहुत समय बीत गया। बहुत मिश्रण हुआ। बदलाव तो स्वाभाविक है। पर हम लोग ज्यादातर भोजपुरी बोल लेते हैं; आचार-विचार पहले वाला ही है। पहनावा जरूर बदल गया है। फिर भी समय-समय से हम लोग भारतीय वेशभूषा रखते हैं। गत पचास वर्षों में दुनिया ही बदल गई है। अगर हम बदले तो क्या बदले ! लगता है कुछ वर्षों में हिंदुस्तान की भी पहचान बदल जाएगी।’ मंत्रीजी ने उत्तर दिया।

‘आप लोगों के पूर्वज देश से इतनी दूर कैसे चले गए ? क्या आकर्षण था ? उस समय लोगों के पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वे विदेश यात्रा करें।’ उत्सुक भीड़ का दूसरा सवाल था।
‘जानेवालों में सभी स्वेच्छा से जानेवाले नहीं थे-बहुत कम थे। ज्यादा लोग भुला-फँसाकर ले जाए गए। क्यों, कैसे, इस बारे में बाबा आप लोगों को ज्यादा बताएँगे।’ मंत्रीजी ने कहा और जिज्ञासु मुद्रा में ज्योतिषीजी की ओर देखने लगे।
ज्योतिषीजी बोले, ‘अरे भाई, अपनी जन्मभूमि से अलग होने के दो ही कारण होते हैं-एक शौक, दूसरा लाचारी। इस समय इतनी दूर जाने का शौक किसको था ! सभी लोग गिरमिटिया में फँसा-फँसाकर ले जाए गए। उनमें से कुछ लौटे, ज्यादा वहीं बस गए। घर बसा लिया।’

‘ई गिरमिटिया क्या था, बाबा ?’
‘हमारे यहाँ के लोगों ने रिक्रूट को रंगरूट कर दिया, प्लैटून को पलटन; उसी तरह एग्रीमेंट को गिरमिट और गिरमिटिया बना दिया। उन दिनों मॉरीशस, फीजी, गुआना, ट्रिनिडाड, सूरीनाम जैसे देशों में जमीन की उठती और खेती करने के लिए मजदूरों की माँग हुई थी। इस काम में बड़े-बड़े कंट्रैक्टर लगे थे। उनके एजेंट गाँवों में, स्टेशनों पर लोगों को फँसाते थे। जानबूझकर इतनी दूर, घर-परिवार को छोड़कर कोई जाने के लिए तैयार कैसे होता ? फिर उन्हें बँधुआ मजदूर बनाकर कंट्रेक्टर के हवाले करते, जो उन्हें उन मुल्कों में भेज देता। एजेंटों को इसके लिए अच्छी रकम मिलती।
‘इस इलाके में बाढ़ और सूखा हर साल होता रहता था। अभी भी होता ही है। गंगाजी की ढाही लगती थी। गाँव-के-गाँव वीरान हो जाते थे। लोग रोजी और रोटी की तलाश में बाहर जाया करते थे। रेलगाड़ी के शुरू होने के बाद बंगाल खासकर कलकत्ता सूखा और बाढ़-पीड़ितों का शरणस्थल बनने लगा। विवश लोग पूरब को भागने लगे। कंट्रैक्टरों के एजेंट, जो जगह-जगह छाए रहते थे, यहाँ से कलकत्ता जाते-जाते उन्हें फँसा लेते और फिर ‘सागर-यात्री’ बना देते थे। लोग सीधे-सादे, अनपढ़ होते थे। गाँव से बाहर का कोई अनुभव नहीं होता था। बस, एजेंटों की बातों में आ जाते। यह तो कानून बनाकर रोका गया, नहीं तो कब का क्या हो गया होता !’ ज्योतिषीजी ने विस्तार से बताया।

‘‘बाबा ठीक बता रहे हैं। ज्यादा लोग इसी तरह गए। कुछ लोग अपना एग्रीमेंट समाप्त होने पर लौट आए। ज्यादा लोग वहीं शैटल कर गए।’ मंत्रीजी बोले और ज्योतिषीजी से आज्ञा चाही जाने की।
‘ऐसा कैसे हो सकता है कि आप इतनी दूर से आवें और बिना जलपान के लौट जाएँ ? जाकर क्या कहेंगे कि हमारे गाँववालों ने कोई कदर नहीं की। बिना जलपान कराए मैं नहीं जाने दूँगा।’ ज्योतिषीजी बोले।

उपस्थित लोगों ने सवालों का ताँता लगाए रखा। तब तक सबके जलपान के लिए गरम-गरम हलवा-पूड़ी आ चुकी थी। मंत्रीजी फिर वह फिल्मी गीत मन-ही-मन गुनगुनाने लगे थे।
जब मंत्रीजी जाने लगे, कई स्वर एक साथ फूट पड़े।
‘भूलिएगा मत, फिर आइएगा। यह आपका बेख है-अपना गाँव है।’ लोगों को उनके व्यक्ति से ज्यादा अपेक्षा उनके मंत्रित्व में हो गई थी। शायद इनकी कृपादृटि से गाँव की सड़क पक्की हो जाए-स्कूल की बड़ी इमारत बन जाए या फिर काली स्थान पर ही कोई अच्छा मंदिर बन जाए। लोगों की अपनी-अपनी धारणाएँ थीं।


एक


गाड़ी के स्टेशन में घुसते ही यात्रियों में उत्तेजना बढ़ गई। अपना सामान उठा लोग इधर-उधर मँडराने लगे। यात्रियों के अनुपात में गाड़ी में जगह काफी थी। अभी रेलगाड़ी का प्रचलन कुछ साल पहले ही हुआ था, लोग दूर-दराज की यात्रा में ही इसका लाभ उठाते थे। पाँच-दस कोस के यात्री पैदल ही चल लेते थे। शरीर मजबूत था, पैसे की भी कमी थी।
पतिराम अपनी छोटी सी गठरी लिये इधर-उधर भाग-दौड़ करता रहा। फिर एक डिब्बे में जा घुसा। चैन की साँस ली, सामान स्थिर किया और बैठ गया। इसी डिब्बे में दो-चार और लोग चढ़ आए थे। गाड़ी ने सीटी दी और पूर्वी दिगंत को चल पड़ी। प्रभात की वेला में पूर्वी क्षितिज से बालरवि की किरणें डिब्बे में घुस आई थीं। सुबह की ठंडी हवा यात्रियों को सहलाने लगी थी। चल पड़े थे सभी अपने गंतव्य की ओर।

डिब्बे में कुछ यात्री पहले से चले आ रहे थे। सभी आमने-सामने अगल-बगल के यात्रियों में साधारण सी बातें हुईं, सबने एक-दूसरे का गंतव्य पूछा, ‘किसी-किसी ने गाँव-घर की बातें कीं। थोड़े ही समय में सारा वार्त्तालाप खत्म हो गया। कोई-कोई बातुल व्यक्ति बोले जा रहे थे।


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