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आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5363
आईएसबीएन :000

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जीवन के दो पहलुओं आशा और निराशा पर आधारित यह रोचक उपन्यास

Aasha Nirasha a hindi book by Gurudutt - आशा निराशा - गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद

‘‘माता जी ! पिताजी क्या काम करते हैं?’’
एक सात-आठ वर्ष का बालक अपनी मां से पूछ रहा था। मां जानती तो थी कि उसका पति क्या काम करता है, परन्तु हिन्दुस्तान की अवस्था का विचार कर वह अपने पुत्र को बताना नहीं चाहती थी कि उसका पिता उस सरकारी मशीन का एक पुर्जा है, जो देश को विदेशी हितों पर निछावर कर रही है। अतः उसने कह दिया, ‘‘मैं नहीं जानती। यह तुम उनसे ही पूछना।’’

मां की अनभिज्ञता पर लड़के ने बताया, ‘‘मां ! मैं जानता हूँ। एक बड़ा सा मकान है। उसमें सैकड़ों लोग काम करते हैं। सब के मुखों पर पट्टी बंधी हुई रहती है। उनकी आंखें देखती तो हैं, परन्तु सब रंगदार चश्मा पहने हैं।
‘‘उस मकान के एक सजे हुए कमरे में एक बहुत सुन्दर स्वस्थ और सबल स्त्री एक कुर्सी पर बैठी है। कमरा मूल्यवान वस्तुओं से सजा हुआ है, परन्तु वह स्त्री, जो उस कमरे में मलिका की भांति विराजमान है, फटे-पुराने वस्त्रों में है। उसकी साड़ी पर पैबन्द लगे हैं। उस स्त्री के पीछे एक गोरा सैनिक हाथ में पिस्तौल लिए खड़ा है। स्त्री के हाथ-पाँवों में कड़ियाँ और बेड़ियाँ हैं। वह उस कुर्सी से लोहे की जंजीरों से बंधी हुई है।
‘‘पिताजी उस मकान बैठे चिट्ठियाँ लिखते हैं। मैं वहां गया था, और मैंने पिताजी से पूछा था, ‘‘पिताजी ! आप यहाँ क्या करते हैं ?

‘‘उन्होंने बताया था, चिट्ठियाँ लिखता हूँ।
‘‘मैंने पूछा था, चिट्ठियाँ लिखने से क्या होता है ?
‘‘उन्होंने कहा था, इससे धन मिलता है जिससे तुम खाते-पहनते और सैर-सपाटे करते हो।
‘‘मैंने पिताजी से पूछा, और वह औरत कौन है जो बगल के कमरे में बैठी है ?
‘‘इस पर पिताजी ने मुख पर अंगुली रख कान में कुछ फुसफुसा दिया। मुझे कुछ ऐसा समझ में आया कि उस स्त्री का नाम राज्यलक्ष्मी है। वह हम सबको देती है, परन्तु उसके अपने लिए कुछ नहीं है।’’
‘‘तेज !’’ बालक का नाम तेजकृष्ण था। माँ ने लड़के को सम्बोधन कर कहा,‘‘यह सब तुम कहाँ से सुन आये हो ?’’
‘‘मां ! सुना नहीं, रात सोये-सोये देखा है।’’

‘‘ओह....तो तुम स्वप्न देखते रहे हो। तेज ! रात को मुँह-हाथ धोकर सोया करो। स्वप्न देखना ठीक नहीं। इससे मस्तिष्क खराब हो जाता है और फिर पढ़ाई लिखाई नहीं हो सकेगी।’’
तेज की माँ यशोदा यह बता रही थी कि टेलीफोन की घंटी बजी। वह लपक कर उठी और टेलीफोन सुनने लगी।
तेजकृष्ण अभी-अभी स्कूल से लौटा था और पिछली रात देखे स्वप्न का अर्थ पूछने वाला था। परंतु मां ने डांट दिया। वह अभी और डांटने वाली थी कि टेलीफोन की घण्टी बज उठी।
तेजकृष्ण की एक छोटी बहन थी। नाम था शकुन्तला। वह अभी स्कूल नहीं जाती थी, परन्तु माता और भाई में हो रहा वार्तालाप सुन रही थी और अपनी बाल बुद्धि से समझने का यत्न कर रही थी। जब माँ टेलीफोन सुनने गई तो बच्चे भी माँ के समीप जा खड़े हुए।

माँ दो-तीन मिनट तक टेलीफोन सुनती रही। सुनकर उसने चोंगा रखा और बच्चों से कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी चार बजे हवाई जहाज से लंदन जा रहे हैं। उनका टेलीफोन था कि उनका सूटकेस तैयार कर दिया जाये। वह अभी सूटकेस लेने आ रहे हैं।
इसके उपरान्त दो घण्टे भर मकान में उथल-पुथल मची रही। तेज की माँ यशोदा ने ‘वार्ड रोब’ से कमीजें, पतलूनें, कोट, नेक्टाई, कालर, हजामत इत्यादि का सामान निकाल सूटकेस में ढंग से रखना आरम्भ कर दिया।
यशोदा सामान तैयार ही करके हटी थी कि बच्चों का पिता करोड़ी मल टैक्सी में आ पहुँचा और पूँछने लगा, ‘‘तो मेरा सूटकेस तैयार है ?’’
‘‘अपने विचार से तो तैयार किया है। भूल भी हो सकती है।’’
‘‘देखो रानी ! मैं अभी तीन महीने के लिए जा रहा हूँ। वहाँ जाकर पत्र लिखूँगा।’’
करोड़ीमल ने दो सहस्त्र रुपए का चैक काटकर पत्नी को दिया और कहा, ‘‘बैंक में अपने खाते में जमा करा लेना। शेष वहाँ से भेजूँगा।’’

बस इतना ही समय था। पिता ने पुत्र और लड़की के सिर पर हाथ रख प्यार दिया और सीढ़ियों से नीचे उतर गया।
सन् 1949 में हिन्दुस्तान के गैर-सरकारी समाचार-पत्रों में ब्रिटिश सरकार के जर्मनी से पराजित होने की चर्चा थी और उस चर्चा में देश की दुर्व्यवस्था तथा अंग्रेज़ का हिन्दुस्तानी नागरिकों से दुर्व्यवहार तेज की बाल-बुद्धि पर गम्भीर प्रभाव उत्पन्न कर रहा था और वह कुछ ऐसे ही स्वप्न देखने लगा था।


:2:



उक्त घटना सन् 1941 की थी और अब सन् 1962 आ गया था। तेजकृष्ण अब छब्बीस वर्ष का युवक था। वह एम.ए. ऑक्सन के बाद जर्नलिज्म का ‘डिप्लोमा’ प्राप्त कर ‘टाइम्स लन्दन’ के सम्वाददाता का काम कर रहा था। उसे हिन्दुस्तान के समाचारों की रिपोर्टिंग पर नियुक्त किया गया था।
तेजकृष्ण का पिता अब सरकारी सेवा-कार्य से अवकाश प्राप्त कर पैंशन लेता हुआ लन्दन के बाहरी क्षेत्र में एक ‘कॉटेज’ बना कर रहता था। वह सरकारी सेवा में। और अब सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त अवस्था में श्री के.एम. बागड़िया के नाम से विख्यात था। उनका पुत्र था तेजकृष्ण बागड़िया।
तेजकृष्ण लन्दन और दिल्ली के चक्कर लगाता रहता था। वह एक अच्छा-खासा वेतन पाता था, परन्तु वह इतने खुले हाथ से खर्च करता था कि वह अपने पिता से कुछ लेकर ही अपना जीवन चला सकता था।
मिस्टर तेजकृष्ण बागड़िया पहला व्यक्ति था जिसने ‘आक्साईचिन’ में चीनियों के सड़क बना लेने का सामाचार दिया था। यह समाचार उसके अपने पत्र ने प्रकाशित करने से इन्कार कर दिया था। ‘लन्दन टाइम्स’ अपने आपको सरकारी पत्र समझता था। इस कारण इस प्रकार की बात प्रकाशित करने से, जिससे की तृतीय विश्व युद्ध के आरम्भ होने की सम्भावना थी, वह संकोच अनुभव करता था।

तेज ने वही समाचार ‘मानचेस्टर गार्डियन’ में दिया तो प्रकाशित हो गया और चीन तथा भारत में तनातनी आरम्भ हो गई।
समाचार प्रकाशित हुआ तो जैसी आशा की जाती थी कि रूस और चीन में ठन जाएगी, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसके विपरीत भारत ने चीन के साथ सीमावर्ती विवादों के विषय में एक श्वेत पत्रक प्रकाशित कर दिया।
भारतीय जनता को शान्त करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने संसद में जो वक्तव्य दिया था, वह भूमण्डल के राजनीतिक क्षेत्रों में हंसी का विषय बन गया था। तेजकृष्ण को इस वक्तव्य की प्रतिक्रिया, पड़ोसी देशों में और भारत में क्या हुई है, इसका समाचार एकत्रित करने के लिए कहा गया तो वह लन्दन से दिल्ली को चल पड़ा।
हवाई जहाज में, जिसमें वह लन्दन से आ रहा था, उसके साथ की सीट पर एक हिन्दुस्तानी लड़की बैठी हुई थी। हवाई जहाज लन्दन से मालटा, काहिरा, काहिरा से बम्बई तथा बम्बई से दिल्ली पहुँचने वाला था। दो दिन की यात्रा थी। इस लम्बी यात्रा पर साथ की सीट पर बैठे यात्री से वार्तालाप होना स्वाभाविक ही था। बात लड़की ने ही आरम्भ की। उसने पूछा, ‘‘आप कहाँ तक जा रहे हैं ?’’

‘‘दिल्ली तक। इस बी.ओ.ए.सी. प्लेन का वही अन्तिम पड़ाव है।’’
‘‘तब तो ठीक है। आप दिल्ली में काम करते हैं अथवा लन्दन में ?’’
‘‘दोनों स्थानों पर और वर्ष में पांच-छः बार आना-जाना पड़ता है। क्या मैं आपका परिचय प्राप्त कर सकता हूँ ?’’
‘‘जब हम दो दिन की यात्रा पर इस प्रकार साथ-साथ बिठा दिए गए हैं तो परिचय तो होगा ही। मैं ऑक्सफोर्ड में इण्डोलौजी पर शोध कार्य कर रही हूँ। मां चण्डीगढ़ में रहती है। समाचार आया है कि वह बीमार है। अतः उनकी खबर लेने जा रही हूँ।’’
विवश तेज को भी अपना परिचय देना पड़ा। उसने कहा, ‘‘मैं ‘लन्दन टाइम्स’ का भारत तथा भारत के पड़ोसी देशों में सम्वाददाता हूँ। मेरा जन्म बम्बई में हुआ था। पिता पहले बम्बई सरकार के सेक्रेटरी थे और पीछे सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडियन के कार्यालय में सुपरिण्टेण्डेण्ट हो गए थे। आजकल वह अवकाश प्राप्त कर लन्दन के समीप ‘ऐसैक्स’ में एक कॉटेज बनाकर रहते हैं।’’
‘‘अर्थात् आप बहुत धनी व्यक्ति के सुपुत्र हैं ?’’
‘‘हाँ ! मेरे पिता नाम के और काम के भी धनी हैं।’’
‘‘क्या मतलब ? मैं समझी नहीं।’
‘‘उनका नाम है श्री के.एम. बागड़िया अर्थात् करोड़ीमल बागड़िया और सरकारी सेवा से अवकाश पाने के उपरान्त वह अब भारत से आयात-निर्यात का व्यापार करते हैं। उनकी ईस्टर्न इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट एजेंसी है और पत्र लिख-लिखकर ही लाखों पैदा कर लेते हैं।’’

इतना कहते-कहते तेज की हँसी निकल गई। लड़की अपने समीप बैठे युवक के इस प्रकार हँसने पर उसका मुख देखती रह गई।
तेजकृष्ण ने कहा, ‘‘मुझे पत्र लिखकर धन कमाने की अपनी बात से बचपन की एक घटना स्मरण आ गई है।’’ इस पर तेजकृष्ण ने तब से बीस वर्ष पूर्व की, पिता के बम्बई से लन्दन सेवा के स्थानान्तर होने के समय बताई बात बता दी।
समीप बैठी लड़की पांच वर्ष के बालक के स्वप्न की बात सुनकर गम्भीर हो गई। जब तेजकृष्ण स्वप्न की पूर्व कथा सुना चुका तो लड़की ने पूछ लिया, ‘‘परन्तु अब तो आप अपने पिता को पत्र लिखकर धनो-पार्जन करने की बात समझ गये होंगे ?’’
‘‘हाँ ! आज आधे भूमण्डल के लोग इसे ‘मिडिल मैन्ज’ शोषण करना कहते हैं।
‘‘और आप भी यही समझते हैं ?’’

‘‘मैं भूमण्डल के दूसरे आधे लोगों में से हूँ।’’
‘‘बहूत खूब ! मैं तो कहने वाली थी कि आप अपने विषय में भी वैसे ही हीन विचार रखते हैं जैसे आधी दुनिया के लोग आपके पिता जैसों के विषय में कहते हैं।’’
‘‘जी नहीं ! अब तो मैं पत्र लिखने की एक महान् उपकारी कार्य मानने वालों में हूं। मैंने एक पत्र एक समाचार-पत्र में प्रकाशित करवाया है और मैं समझता हूँ कि उस पत्र ने एक मिलियन एन.आई.टी. की शक्ति का काम किया है। इस पत्र रूपी बम ने संसार के एक महान् डिक्टेटर का सिंहासन हिला दिया है।’’
‘‘तब तो आप एक महापुरुष हैं।’’

‘‘इसमें महानता कुछ भी नहीं। मेरे उस पत्र ने पैंतालीस करोड़ मानवों के भाग्य का, इस प्रकार किया जा रहा निर्णय बदल कर उनको अन्धकूप में गिरते-गिरते बचा लिया है। यह कार्य मैं करोड़ों रुपये मूल्य का समझता हूं।’’
‘मुझे राजनीति में रुचि नहीं। इस कारण मैं आपकी ‘लैटिन’ और ‘ग्रीक’ भाषा समझ नहीं सकी।’’
‘‘परन्तु आप भारतीय तो हैं।’’
‘‘हां ! मैं ऐसा अनुभव करती हूं। इस पर भी राजनीतिज्ञों के विचार के अतिरिक्त भी कुछ क्षेत्र हैं जिनमें भारतीयता अनुभव की जा सकती है। मेरा क्षेत्र है भारत की प्राचीन प्रभुता। मैं इसके विश्लेषण में भी भारतीयता का अनुभव करती हूं। इससे मुझे भारत में जन्म लेने पर गौरव अनुभव होता है और उस गौरव के कारण मैं अपनी जन्मभूमि से प्रेम अनुभव करती हूं।’’
‘‘मैं इसको थोथी भावना मानता हूं। मैं भारत की वर्तमान और भविष्य की प्रगति पर गौरव अनुभव करता हूं।’’
लड़की ने वर्तमान और भविष्य की बात पर वार्तालाप करना ठीक नहीं समझा। उसने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘आपने जो स्वप्न देखा था, उसका अर्थ तो आप समझ गये होंगे।’’
‘‘हां ! अब तो मैं उस स्वप्न के विषय में अपने पिताजी से भी बात कर चुका हूं और उन्होंने उसका अपने विचार से अर्थ भी समझा दिया है।’’

‘‘और अब आप भारत की राज्यलक्ष्मी को बेड़ियों तथा हथकड़ियों से विनिर्मुक्त समझते हैं क्या ?’’
‘‘वे श्रृंखलायें तो टूट गई हैं। परन्तु उस गौरवर्णीय सैनिक के स्थान पर एक हिंदुस्तानी तानाशाह उस पर शासन जमा रहा था। मैं समझता हूं कि मैंने एक ही बम से उसके सिंहासन को हिला दिया है। वह अब लड़खड़ा रहा है। उसका शासन अब कुछ अधिक काल तक नहीं रह सकता।’’
‘‘किसके विषय में आप कह रहे हैं ?’’
‘‘मैं भारत के प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू के विषय में कह रहा हूं।’’
‘‘तो वह तानाशाह हैं ?’’
‘‘हाँ।’’

‘‘परन्तु वह तो अपने को प्रजातन्त्रवादी जिसे अंग्रेजी में ‘डिमोक्रैट’ कहते हैं, घोषित करता है।’’
‘‘डिमोक्रैट एक भ्रममूलक शब्द है। इसका प्रयोग सब तानाशाह अपने-अपने अर्थों में करते हैं। डिमोक्रैसी का एक सार होता है। जब डिमोक्रैसी में वह सार न रहे तो उसे तानाशाही कहा जाता है।
‘‘रूस में लेनिन का राज्य भी डिमोक्रैसी कहलाता था। स्टालिन अपने को डिमोक्रैट ही कहता था। चीन में भी शासन डिमोक्रैसी कहलाता है। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस में भी डिमोक्रैसी है।
‘‘डिमोक्रैसी एक निरर्थक शब्द हो जाता है, यदि उसमें वह सार न रहे।’’
‘‘क्या सार है प्रजातन्त्र का ?’’
‘वह है विचार स्वतन्त्रता। नेहरू मन से इसे पसन्द नहीं करते। उसने संसद, मन्त्रिमण्डल और राज्य विधान सभाएँ बनाई हुई हैं, परन्तु वह अपनी इच्छा के विपरीत, अपने परम से परम सम्मानित, आयु में बड़े और प्रिय मन्त्री को भी धक्के दे-देकर राज्यतन्त्र से बाहर निकाल सकता है।’’

‘‘मैं यद्यपि राजनीति में रुचि नहीं रखती, परन्तु मैं समाचारपत्र तो पढ़ती रहती हूं। प्रजातन्त्र शासन का अर्थ जो मैं समझी हूँ, वह है जनता की सम्मति से शासन चलना और जनता की सम्मति से भारत में शासन चल रहा है।’’
‘‘नहीं देवी जी ! प्रजा की सम्मति तो उस स्वतन्त्रता का एक अंग है जिसे मैंने अभी प्रजातन्त्र का सार बताया है। जब किसी प्रकार से बल-छल अथवा प्रलोभनों से प्रजा की सम्मति अपने अनुकूल की जाये तो वह प्रजा की स्वतन्त्र सम्मति नहीं होती और जहां यह नित्य होता हो, वह प्रजातन्त्र नहीं कहा जा सकता।
‘‘भारत में पण्डित नेहरू के समर्थन के लिए बल, छल और प्रलोभन, तीनों का प्रयोग किया जा रहा है। पण्डित जी धमकियां देना भी क्षम्य मानते हैं।’’
‘‘क्या धमकियां देते हैं ?’’

‘‘पहले तो जनता के मन में यह भ्रम निर्माण किया है कि वह ही एकमात्र नेता हैं जो देश में ऐक्य रखने की सामर्थ्य रखते हैं। इस भ्रम के आश्रय जब भी वह किसी को अपने विचार के विपरीत कार्य करते देखते हैं, वह अपने पद से त्याग-पत्र दे देने की धमकी दे देते हैं। अज्ञानी जनता डर जाती है और भले, बुद्धिमान और ईमानदार लोग जो पण्डित नेहरू से सैकड़ों गुणा अधिक योग्य और बुद्धिमान हैं, वे मौन हो जाते हैं और देश के सब गुण्डे, शोदे, अवसरवादी और पद-लोलुप नेहरू जी की मूर्खता का समर्थन करने लग जाते हैं।
‘‘यही सब तानाशाह करते हैं। तानाशाही का सार है जनता में भ्रम उत्पन्न कर देना कि उसके बिना देश टूक-टूक हो जायेगा, देश में बेईमान, देशद्रोही और लोभी-लालची भरे हुए हैं और यदि उस तानाशाह को परेशान किया गया तो देश में विप्लव खड़ा हो जायेगा। यही, बिना अपवाद के सब तानाशाही देशों में किया जा रहा है और यही भारत में हो रहा है।’’
‘‘और पाकिस्तान में क्या हो रहा है ?’’

‘‘वहां भी यही कुछ हो रहा है। वहां इस्लाम खतरे में है, का भूत खड़ा किया जा रहा है। यह उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो कभी नमाज भी नहीं पढ़ते और जिन्होंने कभी परमात्मा अथवा हजरत मुहम्मह को स्मरण भी नहीं किया। यही आज भारत में नेहरू राज्य कर रहा है। देश-भक्ति, गरीबों की परवरिश, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य इत्यादि नारे लगाकर लोगों में यह भ्रम उत्पन्न कर दिया है कि बिना नेहरू के इस समय देश में एक भी व्यक्ति नहीं जो ऐसा कर सके और जब कोई भला मनुष्य यह बताने का यत्न करता है कि नेहरू न तो देशभक्त है और न वह रूस और चीन की सत्ता देश में चाहता है, न ही हिन्दू-मुसलमान ऐक्य में सहायक है, कारण यह कि दोनों समुदायों में एकमयता होने में वह बाधक है। मुसलमान की पृथकता बनाये रखने का वह समर्थन करता है जो मुसलमानों की अनन्त काल तक पृथकता के वकील हैं।
‘‘और फिर अपने विरोधियों की हत्या करने में यह सदा यत्नशील रहा है। इसने गांधी जी की हत्या करायी....।’’
‘‘अरे....रे.....रे।’’ अनायास ही लड़की के मुख से निकल गया, ‘‘आप मुझे मूर्ख समझते हैं अथवा आप स्वयं मूर्ख हैं। जिस बात को सब दुनिया जानती है, आप उसको झुठला रहे हैं।’’

तेजकृष्ण मुस्कराता हुआ लड़की के कथन को सुनता रहा। जब वह कह चुकी तो बोला, ‘‘आई बेग योअर पार्डन मैडम।1 मैं समझता हूं कि हमने ऐसे विषय पर वार्तालाप करना आरम्भ कर दिया है जिस पर हमारा मतभेद है। यह मेरी भूल थी।
‘‘अच्छा क्षमा करें। आपने मेरा परिचय तो प्राप्त कर लिया और वह परिचय देते हुए मैंने अपने उस स्वरूप का वर्णन करना आरम्भ कर दिया था जो आपकी दृष्टि में स्वरूपवान नहीं। परन्तु यदि मैं आपका परिचय प्राप्त करना चाहूं तो क्या कुछ अनुचित होगा ? आपकी माता जी चण्डीगढ़ में कहां रहती हैं ?’’

‘‘ऐसा प्रतीत होता था कि लड़की भी राजनीति पर वार्तालाप करती हुई ऐसे विषय को छेड़ बैठी अनुभव करती थी जिस पर यदि वार्तालाप कुछ देर और चलता रहता तो वे शीघ्र ही लड़ पड़ते और शेष यात्रा भर वे परस्पर एक-दूसरे का मुख देखना भी पसन्द न करते। कदाचित् आवश्यक हो जाता कि वह एयर होस्टेस से कह कर अपनी सीट बदलवाने का यत्न करती। इस कारण बातों का विषय बदलता देख उसे सुख अनुभव हुआ और उसने तुरन्त राजनीति छोड़ निजी परिचय देना आरम्भ कर दिया। उसने कहा, ‘‘मेरा नाम मैत्रेयी सारस्वत है। मुझे भारत सरकार से पाँच सौ पौण्ड वार्षिक की छात्र-वृत्ति मिल रही है और मैं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों का अर्थ’ विषय पर शोध कर रही हूं। मेरा कार्य लगभग समाप्त है और मैं अपना ‘थीसेज’ (शोध-प्रबन्ध) लिख चुकी हूं। कल माता जी का केबल’ मिला था और मैं आज दिल्ली के लिये चल पड़ी हूँ।


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