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संस्मरण >> भाव और भावना

भाव और भावना

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5374
आईएसबीएन :0000

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एक रोचक संस्मरण...

Bhaav Aur Bhavana a hindi book by Gurudutt - भाव और भावना - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गुरुदत्त जी ने एक बार किसी गोष्ठी में कहा था-मैंने प्रत्येक समस्या को अपने लिये एक चुनौती माना है। ‘भाव और भावना’ उनके ऐसे संस्मरणों का संग्रह है। जिनसे उनके जीवन को दिशा मिली है। समस्याओं का विश्वलेषण कर उनका समाधान उन्होंने ढूंढ़ा है और अपना मार्ग प्रशस्त किया है।

उनके जीवन में कई घटनाएं घटीं-कई तो सामान्य सी, महत्वहीन परन्तु उनसे भी उन्होंने शिक्षा ली है और सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र में तन-मन से तथा यथा संभव धन से कार्य किया है। जो भी दायित्व हाथ में लिया, उसे निष्पृह निष्काम भाव से निभाया है। और जब उन्होंने देखा कि पदों के लिये मोह, गुट्टबाजी तथा षड्यंत्र द्वारा छीना झपटी होती है तो उन्होंने बिना झिझक सब कुछ का ऐसे त्याग कर दिया जैसे कीचड़ में सने हाथ धो लिये जाते हैं।
जीवन के अन्त तक निष्काम भाव से कार्य करते रहे। लगभग 25 वर्षों के अथक परिश्रम से वेदों तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन कर उनमें वर्णित ज्ञान का आधार निचोड़ अपनी 25-30 रचनाओं में वे समाज को दे गये हैं बिना किसी प्रतिकार के। उनके प्रकाशन अधिकार बिना कुछ भी रायल्टी लिये जन-हितार्थ सौंप गये।
‘भाव और भावना’ अत्यन्त ही रोचक संग्रह है। संस्मरण प्रेरणाप्रद हैं !

प्रकाशकीय


हिन्दी जगत् के सुप्रसिद्ध विचारक एवं लेखक श्री गुरुदत्त न केवल उपन्यासकार के रूप में लोकप्रिय हैं प्रत्युत राजनीति एवं भारतीय वाङ्मय के टीकाकार के रूप में भी उनकी पर्याप्त ख्याति है। इन विषयों पर उनके लिखे साहित्य का परिचय हमारे पाठकों को समय-समय पर मिलता रहा है।
राजनीति में उनके विचारों की परिपक्वता उनकी राजनीति संबंधी पुस्तकों तथा-धर्म तथा समाजवाद, भारत : गांधी नेहरू की छाया में और उनके विभिन्न राजनीतिक उपन्यासों में भली-भाँति परिलक्षित होती है।
परन्तु इन सबकी पृष्ठभूमि क्या है ?

संस्मरणात्मक शैली में लिखी प्रस्तुत पुस्तक भाव और भावना में श्री गुरुदत्त ने बाल्यकाल से आरम्भ कर अब हाल तक की मुख्य-मुख्य राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख करते हुए उनका अपने पर प्रभाव तथा प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इन घटनाओं ने किस प्रकार उन्हें राजनीतिक शिक्षा दी है तथा किस प्रकार उनके जीवन को कर्मयोगी का जीवन बनाया है, इसका उल्लेख अत्यन्त रोचक शैली में इस पुस्तक में उनके संस्मरणों के रूप में हमें मिलता है।
पुस्तक उपन्यास से बढ़कर रोचक एवं शिक्षाप्रद है।

-अशोक कौशिक
सम्पादक

प्राक्कथन


वृद्धावस्था में यदि स्मृति ठीक कार्य करती रहे तो अपने जीवन-कार्य का अवलोकन लाभप्रद होता है। मेरा यह प्रयास भी उसी अवलोकन का एक अंग ही है।
इससे किसी दूसरे का कल्याण होगा अथवा नहीं, मैं नहीं कह सकता। परन्तु इन संस्मरणों के विषय सार्वजनिक होने से इन्हें लिखकर छपवा रहा हूँ, कदाचित् किसी को कोई विचारोत्पादक बात इनमें दिखाई दे जाए। इन संस्मरणों को मैंने यथासंभव राजनीति के क्षेत्र तक ही सीमित रखने का यत्न किया है।
तदपि यह पुस्तक राजनीति पर नहीं है। यह तो देश की बदलती परिस्थिति का मेरे विचारों पर पड़ने वाला प्रभाव है।
जब भी मित्रों को अपने अनुभव और उन अनुभवों पर अपने मन की प्रतिक्रिया बताता था तो वे इनको श्रृंखलाबद्ध लिख देने की सम्मति देते थे। इससे तथा अपने उपन्यासों के अनेक पाठकों की सम्मति से प्रेरित हो इस एक विषय पर अपने अनुभव और उन अनुभवों की प्रतिक्रिया लिख रहा हूँ।
अन्त में इतना अवश्य निवेदन कर देना चाहता हूँ कि किसी नेता के प्रति मेरे मन में दुर्भावना नहीं है। यहाँ केवल उनके सार्वजनिक कार्यों और विचारों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया लिखी है।
यदि किसी एक भी पाठक की इससे कुछ भी ज्ञानवृद्धि हुई हो तो मैं अपना यह प्रयास सफल समझूँगा। सबके कल्याण की इच्छा से –

जनवरी 1, 1978

-गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद


बहुत छोटी अवस्था की बात है। यह स्मरण नहीं कि उस समय कितनी वयस् थी। इतना स्मरण है कि मैं तब स्कूल अथवा ‘पाँधे’ से भी पढ़ने नहीं जाता था। उन दिनों मेरा मुख्य काम था खाना-पीना और खेलना।
भाई-दूज का दिन था। बहनें भाइयों को टीका लगाने आई थीं। हम तीन भाई थे और हमारी चार बहनें थीं। इन चारों में एक बाल विधवा थी। वह प्राय: पिताजी के घर पर ही रहती थी। कभी-कभार अपनी ससुराल जाया करती थी।
तीन बहनें ससुराल से मिठाई, फल, पुष्पमाला और पान लाईं थीं। विधवा बहन ने भी छुहारे और बतासे एक थाली में रखकर दूसरी बहनों के सामान के साथ अपनी थाली रख दी थी।
मकान के नीचे के कुएँ से स्नान कर और दिन वाले वस्त्र पहन मैं ऊपर आया था कि माँ ने मुझे नए धुले हुए वस्त्र देकर कहा-इन्हें पहन लो।
‘‘क्या है ?’’ मेरा प्रश्न था।

‘‘बहनें टीका लगाएँगी। आज धुले वस्त्र पहनने चाहिए।’’
हमारे मकान में ऊपर की मंजिल पर तीन कमरे और एक बरसाती थी। एक कमरे को बड़े भाई ने अपनी बैठक बनाया हुआ था और वह बरसाती में सोते थे। एक अन्य कमरा मँझले भाई के पास था। वह पिताजी के साथ दुकान पर काम करते थे, इस कारण उनके लिए पृथक बैठक की आवश्यकता नहीं समझी गई थी।
मैं मँझले भाई के कमरे में गया और वहाँ कपड़े बदलकर बड़े कमरे में आ गया। मेरे वहाँ पहुचते ही माताजी ने कहा, ‘‘जाओ दुकान पर और पिताजी से बहनों को देने के लिए पैसे ले आओ।’’
मैं दुकान पर गया। दुकान मकान के नीचे ही थी। हमारा मकान एक तरफ़ बाज़ार में पड़ता था, उधर ही दुकान थी। दूसरी तरफ ‘भूरिया’ की गली थी।

मकान की ऊपर की मंज़िल से नीचे आया और दुकान पर जाकर माताजी की बात पिताजी को कह दी। पिताजी ने चार-चार आने की चार कागज़ की पुड़िया बनाकर दे दीं और कहा, ‘‘यह चारों के लिए हैं।’’
मैं ऊपर आ दोनों भाइयों के बीच बैठ गया। बहनों ने केसर से टीका लगाया। ऊपर चावल लगा दिए। तदन्तर गले में फूलों की माला और मुख में एक-एक टुकड़ी मिठाई डाल दी। बड़े भाई ने बहनों को दो-दो रुपए दिए। छोटे भाई ने एक-एक रुपए दिया और मैंने तांबे के पैसों वाली एक-एक पुड़िया दी।
तदनन्तर मैं नीचे गली में खेलने चला गया। बाल्यकाल का मेरा एक मित्र था। नाम था चुन्नीलाल। वह भी माथे पर तिलक लगाए हुए गली में खड़ा था।

मैं आया तो दोनों खेलने लगे। मध्याह्न के समय भूख लगी तो दोनों अपने-अपने मकान की छत पर चले गए।
उस कमरे में जहाँ बैठ बहनों ने टीका लगाया था, वहीं बैठकर खाना खाया जाता था। मैं बैठा तो माँ ने चने की दाल और चावल की बनी खिचड़ी थैला में डाल दी। मैंने खाते हुए पूछा, ‘‘भाभी !’’ माताजी को हम ऐसे ही संबोधित किया करते थे। वह भी किसी की भाभी रही होंगी और अब पूर्ण परिवार में सबकी भाभी बन गई थीं।
‘‘वह मिठाई ?’’

‘‘वह तुम्हारी भौजाइयाँ ले गई हैं।’’
‘‘और मेरे हिस्से की ’’
माताजी चुप बैठी रहीं। समीप बैठी छोटी भौजाई ने पूछा, ‘‘बहनों को क्या दिया था ?’’
मैंने बताया, ‘‘चार-चार आने।’’
वह बोली, ‘‘चार-चार आने में इतनी ही मिलती है।’’
वास्तव में मुझे तो कुछ भी नहीं मिली थी। टीका करते समय बरफी का एक छोटा टुकड़ा मुख में दिया था बस ! मैंने कहा, ‘‘कुछ तो मिलनी थी।’’ इसका उत्तर भौजाई ने नहीं दिया। माँ तो पहले ही चुप थी। मैं भी चुप रहा, परन्तु मन में असन्तोष बना रहा।

भोजन कर चुका तो माँ ने दुकान पर भेज दिया और कहा, ‘‘पिताजी को भेज दो और स्वयं दुकान पर बैठना।’’
दुकान पर जाकर मैंने पिताजी को कहा, ‘‘मुझे मिठाई नहीं मिली।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘भौजाइयों ने ले ली है।’’
पिताजी ने कहा, ‘‘वे बड़ी हैं। इसलिए उन्होंने ले ली है।’’
मैं इस युक्ति को नहीं समझा। परन्तु अब समझने लगा हूँ। इसे समझने में अनुभवों की एक लम्बी प्रक्रिया में से गुजरना पड़ा है।
उस घटना को घटे लगभग अस्सी वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अब समझ में आ रहा है कि भूमण्डल में राजनीति के नाम पर यही कुछ हो रहा है।

इस लम्बे काल के विभिन्न अनुभवों को ही मैं राजनीति की शिक्षा मानता हूँ और इस घटना का अर्थ आज मस्तिष्क में स्पष्ट हुआ है। यही संस्मरणों की इस श्रृंखला में लिख रहा हूँ।
परिवार में बड़े का अर्थ तो यह है कि जो व्यक्ति कुछ वर्ष पहले इस संसार में आया। यही उस समय मैं समझा था। मैं कुछ वर्ष पीछे क्यों रह गया, यह समझ नहीं सका था। फिर भी यह समझा हूँ कि ‘वे बड़े थे, इसलिए ले गए’ यह संतोषजनक उत्तर नहीं था। आज भी यह संतोषजनक समझ में नहीं आता।
आज भी राजनीति में इस सफाई को ठीक नहीं माना जाता। परन्तु मुझे यह समझ में आ रहा है कि भौजाइयों का मिठाई ले जाना और मुझे केवल उतना ही देना जो उस समय मुख चोलने को मिली थी, ठीक ही था। दोनों भौजाइयों ने कितना-कितना भाग लिया था, यह मुझे पता नहीं चला। परन्तु मुझे मुख मीठा करने मात्र को मिला, यही पर्याप्त समझा गया था।

जो समझ में आया है, वह तो इस पूर्ण पुस्तक के उपसंहार में लिखूँगा, परन्तु उस उपसंहार तक कैसे पहुँचा हूँ, यह विचारणीय है।
मैं समाज में नेता नहीं माना जाता। न ही इस समय प्रचारक, उपदेशक, शिक्षक इत्यादि किसी प्रकार की उपाधि से युक्त हूँ।

फिर भी लिख रहा हूँ। इस वृद्धावस्था में उनको स्मरण करने में रस मिलता है। इनसे किसी को लाभ होगा अथवा नहीं, यह मेरी चिन्ता का विषय नहीं है।
ये संस्मरण बड़े-बड़े नेताओं, गुरुजनों अथवा अधिकारियों सम्पर्क के नहीं हैं वरन् बदलते काल में अपने मन और बुद्धि का विकास तथा देश की प्रगति अथवा विगति ही अपने मन पर उत्पन्न प्रतिक्रिया के हैं।
आद देश में व्यापक रूप में जो कुछ समझा जा रहा है वह अपनी समझ से कुछ विलक्षण है। मैं तो स्वयं को ठीक समझता ही हूँ परन्तु दूसरे जो भी समझें, उनका अधिकार है।


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