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स्व-अस्तित्व की रक्षा

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :133
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5380
आईएसबीएन :000

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हिन्दू समाज की विद्यमानता पर आधारित उपन्यास...

Sva Astitva Ki Raksha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

हिन्दू सामाज के अस्तित्व अर्थात् उसकी विद्यमानता के स्थायित्व के विषय पर इस पुस्तक द्वारा लिखने का प्रयास किया जा रहा है।
सर्वप्रथम यही प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में कोई हिन्दू समाज विद्यमान भी है जिसकी रक्षा के विषय में इन पृष्ठों पर लिखने का यत्न किया जा रहा है ?
सन 1971 तक की जनगणना में तो भारत में हिन्दू समाज का उल्लेख पाया जाता है। किन्तु सन् 1981 की जनगणना में भारत में हिन्दू समाज की विद्यमानता का उल्लेख नहीं पाया गया है। तभी यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है। लगभग 46 करोड़ की संख्या का यह समाज कहाँ गया ? यही हमारी चिन्ता का विषय है और इसी सम्बन्ध में लिखने का प्रयास किया जा रहा है।
हमारी यह सुपुष्ट धारणा है कि जबसे भारत स्वतन्त्र हुआ है तब से आरम्भ कर अद्यपर्यन्त इस भारतवर्ष में अन्य समुदायों के अनुपात में हिन्दू समुदाय का निरन्तर ह्यास होता जा रहा है। तो इतना बड़ा जन-समुदाय केवल दस वर्ष में ही इस देश में विलुप्त हो गया है, यह बात गले नहीं उतर पा रही है। तब हम यही अनुमान लगा सकते हैं कि इतना बड़ा हिन्दू समाज विलुप्त हुआ है किन्तु सरकारी कागजों पर से उनका अस्तित्व मिटाने का दुष्प्रयत्न किया गया है।
परन्तु क्यों ? पुनः एक प्रश्न उत्पन्न होता है।

इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जनसाधारण विज्ञाप्ति में अन्य समुदायों के नामों का भी तो उल्लेख नहीं है। किन्तु यह कथन किसी प्रकार भी समाधान-कारक नहीं है। यह तो लगभग वैसा ही है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी आयु की गणना करना बन्द कर दे। यदि प्रतिवर्ष किसी की आयु का उल्लेख किया जाता है तो इसके मन में यह विचार उत्पन्न होने लगता है कि वह वर्षानुवर्ष मृत्यु के निकट पहुँचता जा रहा है।

व्यक्ति और जाति में अन्तर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति दिनानुदिन मृत्यु की ओर गतिमान है। किन्तु व्यक्ति की भाँति जाति दिनानुदिन अवगति की ओर अग्रसर नहीं रह सकती, यदि उसके घटक सावधान रहें। उसका मुख तो इसी कलेवर में अवगति से प्रगति की ओर मोड़ा जा सकता है।

अन्य जातियों की बात हम नहीं कर रहे किन्तु हिन्दू जाति के संबंध में हम जानते हैं कि इसमें इतनी क्षमता है कि वह जरायुष्य प्राप्त जाति को पुनः युवा बना सकती है। अपनी इस क्षमता का प्रमाण हिन्दू जाति ने एक नहीं, अनेक बार प्रस्तुत किया है।

अतएव विगत 1971 से 1981 के दशक मे हिन्दू समाज की स्थिति कैसी रही, यह जानने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है।

हिन्दू समाज पर घोर विपदा का एक समय सन् 1947 में आया था। उस समय इस देश में विदेशी शक्ति उपस्थित थी और उसी कारण तत्कालीन परिस्थिति उत्पन्न भी हुई थी। किन्तु उसके बाद तो समझा जाने लगा था कि स्थिति अब अपने वश में है। किन्तु देश में हिन्दू समाज की अवस्था और अन्य समाज के घटकों की संख्या के अनुपात में हिन्दू समाज के घटकों संख्या पर जब दृष्टि जाती है तो उससे मन में संशय उत्पन्न होने लगता है। और अब सन 1981 की जनगणना के अनन्तर तो वह संशय सुदृढ़ होता जा रहा है।

सन् 1950 में जब से इस देश पर नया संविधान लागू हुआ है, तब से आरम्भ कर आज तक इस देश में कितनी बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए हैं, उनकी गणना सम्भव नहीं हैं। किन्तु वे बड़े-बड़े दंगे, जिनके विषय में सरकार को जाँच आयोगों का गठन करना पड़ा है, उनकी संख्या भी किसी प्रकार कम नहीं है। जाँच आयोग गठित किये गये, यह तो ज्ञात है। किन्तु उन आयोगों के प्रतिवेदन कहाँ है ? दंगे क्यों हुए, किसने आरम्भ किये, और उनमें दोषी पाये गये व्यक्तियों अथवा समूहों को क्या दण्ड दिया गया ? यह सब अज्ञात ही है।

हाँ, लगभग दो वर्ष पूर्व रामननवी के अवसर पर बिहार के जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था। उसके लिए जाँच आयोग का गठन किया गया था और उसकी रिपोर्ट भी प्रकाशित की गई थी। उसमें एक हिन्दू नेता को दोषी पाया गया था। किन्तु उसपर भी किसी प्रकार का अभियोग चलाया गया अथवा नहीं, यह सन्देहास्पद है। जहाँ तक हम समझते हैं कि उसपर कोई अभियोग नहीं चलाया गया। उसका कारण यही माना जा सकता है कि सम्भवतया न्यायालय में अभियोग के जाने पर अभियुक्त की दोषी सिद्ध करना कठिन हो जायेगा।

किन्तु पूर्वकाल में जमशेदपुर की अपेक्षा अधिक विस्फोटक, मारक एवं घातक दंगे हुए थे और उनके लिए जाँच आयोग भी कठिन किये गये थे, उनकी रिपोर्ट प्रकाशित क्यों नहीं हो गयी ? कदाचित् इसलिए तो प्रकाशित नहीं की गईं कि आयोग ने उसमें हिन्दू से किसी इतर समाज के व्यक्ति अथवा समाज को दोषी सिद्ध किया है ?
इस प्रकार देश की स्थिति न केवल असन्तोषजनक ही है, अपितु यह बहुत ही भंयकर परिणाम उत्पन्न करने वाली भी है। यही कारण है कि हम हिन्दू समाज की स्थिति पर चिन्ता अनुभव करने लगे हैं।

इसी समस्या पर कुछ विचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। हम जिसे हिन्दू समाज समझते हैं उस समाज के लक्षण क्या हैं ? उस पर किसी प्रकार का भय है अथवा कि नहीं ? यदि है तो उसके निवारण का उपाय क्या है ? यही इस पुस्तक का विषय है।

समस्त विश्व और स्वयं अपने देश भारतवर्ष में वर्तमान में हिन्दू समाज की स्थिति का वर्णन कर कि वह कितनी भयानक है, यही इस पुस्तक द्वारा व्यक्त करने का यत्न किया गया है। तदनन्तर अपने विचारानुसार उस भय के निवारण का उपाय बताया गया है।
प्रस्तुत विषय पर हम हिन्दू समाज के कर्णधारों, नायकों, विद्वानों आदि-आदि का ध्यान आकर्षित करके उनमें इस विषय पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने और उसमें निराकरण के लिए कोई कार्य प्रारम्भ की भी अभिलाषा रखते हैं।
इसी उद्देश्य से हमारा यह प्रयास है।


दिनांक 1-8-1683
18/ 28, पंजाबी बाग,
नयी दिल्ली-110026

-गुरुदत्त

प्रथम खण्ड
प्रथम परिच्छेद
: 1 :


देश का स्वामित्व


यह घर राम का है। इस घर में राम रहता है। इस घर में कुछ लोग आये हुए हैं।
ये तीनों वाक्य समानार्थक नहीं हैं।
प्रथम वाक्य में घर के स्वामित्व के विषय में कहा गया है। दूसरे वाक्य में तो केवल यह कहा गया है कि उस में राम निवास है। उस घर में वह किस अधिकार से निवास करता है, यह स्पष्ट नहीं है। वह किरायेदार हो सकता है, वह घुसपैठिया भी हो सकता है जो अनाधिकृत रूप में वहाँ निवास करता हो। यह भी समझा जा सकता है कि वह थोड़े उस समय के लिए वहाँ आकर रहने लगा हो और अपना कार्य सिद्ध हो जाने पर वहाँ से चला जाएगा।

तीसरे वाक्य में केवल यह संकेत है कि उस घर में कुछ लोग आये हैं। वे उस घर में स्थायी रूप से रहने वाले नहीं है। वे जिस प्रयोजन से आये हैं वह प्रयोजन सिद्ध करने के उपरान्त वे वहाँ से चल देंगे। जिस घर में वे आये हैं, वह घर भी किसी के स्थाई रूप से रहने का है अथवा कि कोई धर्मशाला है, यह भी कुछ स्पष्ट नहीं हैं।

आज भारत के असम राज्य की भी कुछ इस प्रकार की दशा हो रही है। जिस समय से पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं। (अर्थात मार्च, 1983) उस समय इस प्रदेश में विधान सभा के निर्वाचन सम्पन्न हुए हैं। वहाँ की कुछ संस्थायें, जो असम प्रदेश के स्थायी और प्राचीनकाल से विवास करने वालों का प्रतिनिधत्व करती हैं, इस समय निर्वाचनों के विरुद्ध हैं। वे चाहते थे कि निर्वाचनों से पूर्व यह निश्चय कर लिया जाए कि इन निर्वाचनों में कौन मतदान का वास्तविक अधिकारी है। उनका कहना था कि देश के संविधान के अनुरूप वर्तमान में वहाँ बसने वाले अधिकारी अनेक लोग मतदान के अधिकारी नहीं है। ऐसे अनधिकारियों की संख्या लाखों में है। उन संस्थाओं का कहना था कि जब तक इसका निर्णय न हो जाए तब तक न तो विद्यान सभा के निर्वाचन कराये जायें और न ही लोक सभा अथवा राज्य सभा के। ऐसी स्थिति में यह कार्य अनुचित होगा।

सन् 1969 के भारत-पाक युद्ध के उपरान्त बहुत बड़ी संख्या में देश से बाहर से, विशेषतया बँगला देश से लोगों ने घुसपैठ की है। असम में ऐसे घुसपैठियों की संख्या लक्षाधिक है। निर्वाचन का विरोध करने वाली असम प्रदेश की संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना था। ऐसे लोगों को मतदान का अधिकार नहीं होना चाहिए।

विभिन्न संस्थाओं के विभिन्न प्रतिनिधि चार वर्ष तक भारत सरकार से इस विषय पर आग्रह करते रहे। सरकार और जनता के प्रतिनिधियों में वार्तालाप के अनेक दौर चले। जैसा कि समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचारों से विदित होता रहा है। तदनुसार इस वार्तालाप में सरकार और जन प्रतिनिधियों ने यह तो मान ही लिया था कि 1978 में जो मतदाता सूची तैयार की गयी है वह ठीक नहीं है। उस मतदाता सूची में उन लोगों की संख्या अत्यधिक है जो घुसपैठिये होने से इस देश और प्रदेश के नागरिक नहीं है। तब यह विवाद उठा कि उनकी संख्या कितनी है और उनको किस प्रकार पहचाना जाये। एक समस्या यह भी उठी कि असम में तो स्वराज्य-प्राप्ति से पूर्व भी, लोग आकर बसते रहे हैं। अतः यह निश्चय कर पाना कठिन है कि कौन वास्तव में असम मूल का है और कौन असम मूल का नहीं है, अथवा कौन का आदिवासी है और कौन आकर बसने वाला है।

इस सब विवाद को देखते हुए एक बात तो स्पष्ट हो गयी थी कि वहाँ कुछ ऐसी स्थिति अवश्य है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वहाँ कुछ लोग ऐसे बसाए गए हैं जो मूलतया वहाँ के निवासी नहीं हैं। समस्या यह थी कि उनकी पहचान किस प्रकार की जाए और फिर उनको वहाँ से किस प्रकार निकाला जाए।

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