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जमाना बदल गया - भाग 4

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1981
पृष्ठ :520
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5395
आईएसबीएन :00

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

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jamana Badal Gaya-part-4

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

इस उपन्यास को समाप्त करते हुए मुझे केवल इतना निवेदन करना ही शेष रहता है कि पूर्ण सौर-जगत में केवल पृथ्वी पर प्राण-सृष्टि का होना ही अभी तक पता चला है। चांद के विषय में तो बहुत कुछ चित्रित भी कर लिया गया है। कदाचित् कुछ ही वर्षों में मनुष्य वहां घूम भी आयगा। यह बात भी निश्चित ही है कि मनुष्य को वहां अपनी प्रतिलिपि नहीं मिलेगी।
प्रश्न उपस्थित होता है कि पृथ्वी की यह विशेषता क्यों ? यहीं पर कोटि-कोटि प्रकार के जीव-जन्तु और फिर उनमें मनुष्य जो लाखों मीलों की छलांगें भरने लगा है, क्यों ? अन्य दृश्य-अदृश्य नक्षत्र-ग्रहों आदि पर यह क्यों नहीं ?

इसके साथ ही प्रश्न उपस्थित होता है कि अपने विचार से लाखों तथा अन्य अल्पज्ञों के विचार से सहस्रों वर्ष से भारतीय साहित्य, संस्कृति सभ्यता क्यों जीवित है ? दूसरे देशों में ऐसा क्यों नहीं हो सका ? जहां अन्य देशों में इतिहास की खोज वर्तमान से पीछे अन्धकार की ओर है, वहां भारत में खोज एक प्रकाशमान बिन्दु से वर्तमान के अन्धकार (अज्ञान) की ओर है। यह क्यों है ?
आज से लाखों वर्ष पूर्व ऋषि यह कह गये थे

न चित्स भ्रेयतो जनो न रषन्मनो यो अस्य घोरसाविवासात्
यज्ञैर्य इन्द्रदघते दुवांसि सयत्स राय ऋतया ऋतेजाः।।
(ऋग्वेद 7-20-6)

कोई ऐसा पुरुष अथवा जातिभ्रष्ट, घाटे में अथवा मरती नहीं, जो अपने मन्तव्य को, कष्ट एवं क्लेश सह कर भी पालन करती है, जो यज्ञों (लोक कल्याण) के द्वारा अपने पुरुषार्थ को परमात्मा में अर्पण करती है। ऐसा पुरुष अथवा ऐसी जाति सत्य की रक्षा करती है, धर्म पुत्रों को उत्पन्न करती है और धन-धान्य से सम्पन्न होती है।
सहस्रों वर्ष पूर्व ऋषि ने यह कहा था

ऊर्ध्वं बहुर्विरोभ्येष न च कश्चिच्छुणोति मे
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।

म. भा. स्व. 5-62

मैं दोनों हाथ उठा-उठाकर कह रहा हूं, धर्म का पालन करो। इससे मोक्ष तो मिलता ही है परन्तु अर्थ और काम भी प्राप्त होता है। इसपर भी मेरी बात कोई नहीं सुनता और इसका पालन नहीं करता।
लाखों और सहस्रों वर्ष पूर्व की कही बात भारत देश में आज भी कही जाती है। यह क्यों ? अन्य देशों में खण्डहर मौन पड़े हैं। यहां वे सजीव चैतन्य रूप पथ-प्रदर्शन के लिए पुकार-पुकार कह रहे हैं। यह क्यों है ?

इसका उत्तर जड़वादी अंट-संट देते हैं परंतु किसी को उससे संतोष हुआ है क्या ?
मूढ़ अभिमानी लोग यह कहते-फिरते हैं कि यह ‘एटम-एज’ है। परन्तु प्रश्न तो यह है कि क्या इससे भूमण्डल में अधिक शान्ति है ? क्या प्रतिमास क्रान्तियां, राजनीतिक हत्याएं, गोली वर्षा अथवा राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान का प्रदर्शन कम हो गया है ? क्या इस सम्पूर्ण तकनीकी उन्नति से मानव मन को शान्ति प्राप्त हो रही है ?

शान्ति, सुख, निश्चिन्तता और निर्भयता तो दिखाई देती नहीं। यह क्यों ? यदि यह कहूं कि मैं दोनों हाथ उठा-उठाकर कह रहा हूं कि धर्म का पालन करो, यही सुख, शान्ति और आनन्द का मार्ग है, अन्य सब गौण हैं; और यदि यह कहूं कि धर्म का स्वरूप समझना चाहते हो तो भारतीय शास्त्रों को देखो, तो क्या गलत कहता हूँ ? शास्त्र कहता है

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवाव धार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।

पूर्ण धर्म का स्वरूप सुनो। और उसका पालन करो। जो कुछ तुम्हें अपने लिए हितकर प्रतीत नहीं होता, उसका व्यवहार दूसरों पर न करो।
भूमण्डल में अन्य कहां इतना विषद्, इतना व्यापक, ऐसा अजर तथा अमर विचार दिखाई देता है। यह सन्देह रहित है कि पूर्ण सौर-जगत् में पृथिवी विशेष विभूति युक्त ग्रह है। यह भी निश्चय है कि पृथिवी पर भारत और भारतीयता में विशेषता है।

परन्तु यह सौ वर्ष के इतिहास का चलचित्र तो भटक रहे भारत का चित्र है। इसको मोड़ मिलना चाहिए। मिलेगा। इसी में इसका कल्याण है। भूमण्डल का भी कल्याण इसी में निहित है।
‘कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’
बात यह है कि यह हस्ती सत्य पर आधारित है।
वैसे तो यह उपन्यास है। इसके मुख्य पात्र काल्पनिक हैं। कुछ ऐतिहासिक पात्रों का भी इसमें समावेश है। यत्न किया गया है कि उनकी बातें अधिक से अधिक सत्य लिखी जायें। इसपर भी किसी के अपमान का कोई प्रयोजन नहीं है।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद


14 अगस्त 1947 की प्रातः, आठ बजे के लगभग कराची के गवर्नमेन्ट हाउस में मिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना बैडरूम में अपने बिस्तर पर बैठे ‘बैड टी’ ले रहे थे। बैरा चाय लेकर आया था और सामने खड़ा था। नियमानुसार तो चाय देकर उसे चला जाना चाहिए था, परन्तु आज वह गया नहीं, खड़ा रहा।
जिन्ना ने चाय का घूँट ले, अपनी सुस्ती दूर करते हुए, प्रश्न भरी दृष्टि से बैरे की ओर देखा। बैरा इस दृष्टि का अभिप्राय समझ बोला, ‘साहब ! मुबारिकबाद देने के लिए खड़ा हूँ।’’

‘‘किस बात की मुबारिकबाद दे रहे हो, जॉन !’’
बैरा क्रिश्चियन था और जिन्ना साहब के पास वह पिछले बीस वर्षों से काम कर रहा था। वह बम्बई 1928 में नौकर हुआ था। उसकी अपनी बीवी थी। वह भी उसके साथ जिन्ना साहब के बँगले ‘मालाबार हिल’ पर रहती थी। अब दो महीने से वे कराची में आ कर रहने लगे थे और तीन दिन हुए वे जिन्ना साहब की बहिन मिस फातिमा के साथ गवर्नमेन्ट हाउस में आ गये थे।

पिछले दो दिन से जिन्ना साहब भी इस मकान में ठहरे हुए थे। 13 अगस्त को भूतपूर्व वाइसराय-हिन्द लार्ड माउन्टबेटन भी इसी मकान में आये हुए थे और वह पाकिस्तान का चार्ज जिन्ना साहब को दे गये थे। दोनों महापुरुष पिछली रात कई घण्टे तक बन्द कमरे में बैठे भावी नीति के विषय में विचार करते रहे थे। इनकी बातों में केवल एक व्यक्ति और सम्मिलित थे। वह थे बैरिस्टर लियाकत अली खाँ। लार्ड माउन्टवेटन साहब तो रात को ही अपने निजी हवाई जहाज में सवार हो दिल्ली चले गये थे। उनके जाने के उपरान्त दोनों पाकिस्तानी नेता आधा घण्टा-भर बात-चीत करते रहे। दोनों अपने-अपने सोने के कमरे में रात के दो बजे के लगभग गये थे। इसी कारण जिन्ना साहब आज आठ बज जाने पर भी अभी सुस्ती का अनुभव कर रहे थे।

जॉन फ्रांसिस अपने साहब का प्रश्न सुनकर मुस्करा दिया। उसने मुबारिकबाद का कारण बताने के स्थान पर कहा, ‘‘साहब, अन्ना भी इस मुबारिकबाद देने में शामिल हैं।’’ अन्ना जॉन की पत्नी का नाम था।
‘‘शायद तुम लोग मेरे गवर्नर हो जाने की मुबारिकबाद दे रहे हो।’’
‘‘हुजूर ! हमारी नजरों में तो आप गवर्नर से बहुत ज्यादा पहिले ही थे। हम तो आज़ाद पाकिस्तान के आज पहिले दिन की मुबारिकबाद दे रहे हैं। यह आपने एक मौजिजा* करके दिखा दिया है।’’
‘‘क्या मोजिज़ा हुआ है इसमें ?’’ जिन्ना ने संतुष्ट हो चाय लेनी आरम्भ कर दी।’’

जॉन मुँह लगा नौकर था। उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘एक भी जॉन की कुरबानी के बिना आपने एक नया मुल्क पाकिस्तान बना दिया है।’’
‘‘और यह मैंने किया है ?’’
‘‘इसमें भी कोई शक कर सकता है, साहब !’’
‘‘नहीं जॉन ! न तो यह मेरे किये हुआ है, न ही यह उन हजारों मुसलमानों के ज़िबह हो जाने की वजह से हुआ है जो दिल्ली, पटियाला, फरीदकोट, अमृतसर वगैरा  में इन काफिरों ने किये हैं।’’
‘‘तो यह खुदा के करने से मानें। और खुदा ने आपकी...।’’
खुदा का नाम सुन जिन्ना ने प्याला पलंग के समीप चौकी पर रख कर कह दिया, ‘‘ओह, नो। वह खुदा नहीं हो सकता। वह जरूर शैतान था। जानते हो वह कौन था ?’’

जॉन कुछ न समझता हुआ मुख देखता रहा। जिन्ना साहब उसकी परेशानी देख हँस पड़े और हँस कर बोले—‘‘क्यों परेशान किसलिए हो जॉन ! मैंने तुम्हारे खुदा को शैतान नहीं कहा और न ही यह पाकिस्तान उसने बनाया है।
‘‘साथ ही यह समझ लो कि मैं उसका पैगम्बर नहीं हूँ, जिसने यह पाकिस्तान बनाया है। मैं तो उसके सामने बिका हुआ गुलाम हूँ।’’
जॉन अभी भी कुछ नहीं समझा। वह अपने मालिक के इस कहने पर तो संतुष्ट हुआ था कि उसने खुदा को शैतान नहीं कहा, परन्तु वह समझा नहीं कि किसने यह पाकिस्तान बनाया है जिसको उसका विद्वान मालिक शैतान कहता है ! जिन्ना ने बिस्तर से निकलते हुए कहा, ‘‘सुन लो। आइन्दा मुझको इस काम का मूजद* मत कहना। यह पाकिस्तान एक इनकलाब पसन्द जला-वतन मौलवी अबीदुल्ला के दिमाग़ की इख्तराह* है। उस नीम पागल ने इसका बीज डाला था। इसको मदद मिली है, हमारे मुल्क के एक निहायत काबिल शायर सर इकबाल से; मगर इसको पैदा किया है हिन्दुस्तान की अंग्रेजी सरकार ने, जिसने इकबाल साहब को सर का खिताब दिया था। इसके पैदा होने के वक्त ऐटली साहब ने दाई का काम किया और लार्ड माउन्टबेटन ने डॉक्टर बन इसको पैदा होते ही मरने से बचा लिया है।’’

‘‘तो हुजूर, शैतान कौन है इनमें ?’’
‘‘हिन्दुस्तान की अंग्रेजी सरकार। मेरा मतलब है यहाँ कि ‘ब्यूरोक्रेटिक* सरकार। वह शैतान थी। उसने अबीदुल्ला के ख्वाब को अपने हमल में रखा, पाला-पोसा और वक्त आने पर इसको इस दुनिया में पैदा किया। पैदा होने के वक्त यह नौकरशाही मर रही थी। ऐटली साहब इसकी देखभाल कर रहे थे। ऐसा मालूम होता था कि उनकी देख-भाल के बावजूद बच्चा पैदा होने से पहले ही मर जाता। इसलिए ऐटली साहब ने ‘डॉक्टर’ माउन्टबेटन की खिदमात हासिल कर उसे यहाँ भेज दिया।’’
‘‘और मालिक ! आप इस तश्वीर में कहाँ हैं ?

‘‘मुझको उस शैतान औरत, हिन्दुस्तान की अंग्रेजी सरकार ने बेदाम का गुलाम बना लिया था। मुझको यह काम दिया गया है कि इसके बड़े हो जाने तक मैं इसकी परवरिश करूँ। डॉक्टर तो यहाँ बहुत देर तक नहीं रह सकता। उसके बाद मुझको इसकी देखभाल करनी होगी।’’
‘‘मगर हुजूर ! इसको मारने वाला कौन है ? गाँधी, जवाहर ने तो इसकी हिफाज़त का वायदा किया है। उन्होंने इसकी हिफाज़त के लिए बहुत कुछ किया भी है और कर रहे हैं।’’

‘‘ये गाँधी और जवाहर भला क्या कर सकते हैं ? मगर तुम नहीं जानते हो और मैं जानता हूँ कि हिन्दुस्तान गाँधी, जवाहर से पहिले भी था और उनके बिना भी रहने वाला है। वह है हिन्दू-इण्डिया।
‘‘हिन्दू-हिन्दुस्तान। इसके हाथ से पाकिस्तान पैदा होने से पहिले ही ज़िबह किया जाने वाला था और इसी से इसको आइन्दा में डर है।
‘‘देखो जॉन ! अगर पाकिस्तान का बनाना एक दो साल तक रुक जाता तो आसार कुछ ऐसे थे कि गाँधी-जवाहर से लीडरी छिन जाती। हिन्दुस्तान में सावरकर और मुखर्जी नेता बन जाते और तब यहाँ सिविलवार हो जाती। अंग्रेजी नौकरशाही तो जहाज में सवार हो बम्बई से रवाना हो जाती और मराठे, सिख, राजपूत, जाट सब मिलकर पाकिस्तान को दफना देते।
‘‘यह तो ऐटली साहब ने, पाकिस्तान की अम्मी की नाजुक हालत देख डॉक्टर माउन्टबेटन को यहाँ भेजा और उसने कोशिश कर वक्त से पहिले ही ‘डिलिवरी करा दी है और अब इस सतमाहे बच्चे को रूई में लपेट कर रखने तथा नर्सिंग करने के लिए मुझको तैनात कर दिया है।’’

जॉन था तो ईसाई, परन्तु वह अपने और अपने मज़हब को मुसलमानों के हाथों में अधिक सुरक्षित समझता था और हिन्दुओं से वह भी घृणा करता था।
जॉन फ्रांसिस सागर तट पर रहने वाले माहीगीरों में से था। वह मुसलमान था मगर एक ईसाई लड़की के मोह-जाल में फंस ईसाई हो गया था। उस समय उसका नाम जॉन मुहम्मद से जॉन फ्रांसिस रखा गया। फ्रांसिस एक ईसाई महात्मा का नाम है। जॉन की पत्नी अन्ना एक ईसाई बने हिन्दू की लड़की थी। यह अभी बच्ची ही थी कि इसका बाप हिन्दुओं की घृणा और उत्पीड़न से व्याकुल हो ईसाई बन गया था। अन्ना उस समय छोटी-सी बच्ची थी। उस समय की अवस्था का एक धुँधला सा ज्ञान अन्ना को था और वह ज्ञान सुखद नहीं था। अन्ना के पिता के ईसाई हो जाने के उपरान्त उसको परिवार की सुख-सुविधा का ज्ञान भी था। इससे वह संतुष्ट थी।

जब जॉन मुहम्मद का अन्ना से परिचय हुआ और वह उससे विवाह की अभिलाषा करने लगा तो अन्ना ने कह दिया, ‘‘ईसाई हो जाओ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘सुख मिलेगा’’ अन्ना का कहना था।
सुख का चित्र खींचा गया तो जॉन मुहम्मद जॉन फ्रांसिस हो गया। अन्ना ने उसको अपने पिता के द्वारा एक पारसी सेठ के पास नौकर करा दिया वहाँ से वह मुहम्मद अली जिन्ना की नौकरी में चला गया। उस समय जिन्ना साहब बम्बई में वकालत करते थे, परन्तु राजनीतिक दृष्टि से वे एक कटी पतंग के समान थे।
सन् 1912 से लेकर 1921 तक ये कांग्रेस के एक ख्याति प्राप्त नेता बने रहे थे। कांग्रेसियों के प्रोत्साहन पर ही आपने मुसलिम लीग में कार्य आरम्भ किया और उसके नेता बन गये। कांग्रेस का इसमें एक उद्देश्य था। हिन्दुओं में कांग्रेस की प्रतिष्ठा कम हो रही थी। हिन्दुओं के मस्तिष्क में श्री बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बाबू विपिनचन्द्र पाल का प्रभाव बढ़ रहा था। हिन्दू क्रान्तिकारी साधारण हिन्दू जनता का देवता बन रहा था। कांग्रेस के नेता अपनी शिक्षा तथा व्यवसाय के कारण तिलक आदि के साथ नहीं जा सकते थे और क्रान्तिकारियों का तो नाम सुनकर ही उनको पसीना छूटने लगता था।

इस कारण कांग्रेस की प्रतिष्ठा जन-साधारण की दृष्टि से गिर रही थी। इस प्रतिष्ठा को ऊंचा करने के लिए कांग्रेस के प्रायः सब तत्कालीन नेता विचार करने लगे। इस निमित्त मुसलमानों को कांग्रेस में खींच लाने का यत्न किया गया। सर आगा खाँ और कुछ अंग्रेजी सरकार-भक्तों ने अंग्रेजी सरकार की फूट डालने की नीति को सफल करने के लिये मुस्लिम लीग स्थापित की थी। इसकी स्थापना 1907 में हुई थी। पढ़े-लिखे मुसलमान और अलीगढ़ कालेज के ग्रेजुएट इस मुस्लिम लीग में नेता थे। जिन्ना साहब को लीग में सम्मिलित होने के लिए भेजा गया। अब जिन्ना साहब लीग के नेता बन गये तो मुसलमानों को कांग्रेस में अधिक संख्या में लाने के लिए विचार होने लगा। उसके लिये एक उप-समिति बनायी गयी। उस समिति में श्री जवाहरलाल नेहरू के पिता श्री मोती लाल नेहरू कर्ता-धर्ता बन गये। इस कमेटी ने मुसलमानों का प्रथक् प्रतिनिधित्व किया। अंग्रेजी सरकार स्वयं यह प्रतिनिधित्व पहिले ही प्रस्तावित कर चुकी थी। यह देश में फूट डलवाने का बीजारोपण था। तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने इसे स्वीकार कर दुहरा लाभ उठाने का यत्न किया। एक तो मुसलमानों को प्रसन्न किया और दूसरे सरकार की नीति का समर्थन कर सरकार को प्रसन्न कर लिया।

इसी समय एक अन्य घटना घटी। 1914 में प्रथम जर्मन युद्ध आरम्भ हो गया। इस युद्ध में जर्मनी की ओर टर्की हो गया। अतः टर्की पर अंग्रेजों को आक्रमण करना पड़ा और हिन्दुस्तान के मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे। इसके साथ मुसलमान हिन्दुओं के साथ मिल जाने में अपना कल्याण मानने लगे। कांग्रेसी नेता तो सरकार भक्त थे और उन्होंने सरकार का पक्ष प्रबल करने के लिए मुसलमानों को रियायत देना स्वीकार कर ली, जो सरकार दे रही थी। परन्तु युद्ध की नयी परिस्थिति के कारण सरकार का पक्ष दुर्बल ही हुआ।

उस समय तक तिलक जी छूट आये थे और कांग्रेसियों में तिलकपंथियों का बल बढ़ रहा था। साथ ही सरकार-भक्तों (नरम-पंथियों) का बल कम हो रहा था। तिलक-पंथी मुसलमानों के अंग्रेजों के प्रति विरोध से स्वराज्य के पक्ष को प्रबल करने लगे। साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रबल हो रहा था।

विवश सरकार को मोन्टेग्यु चैल्म्ज़-फोर्ड सुधार देने पड़े। मिस्टर जिन्ना ने मुसलमानों को हिन्दुओं के समीप लाने में यत्न किया था। और इसे समीप लाने का मूल्य भी लिया था। इस पर भी उसने मुसलमानों को अपनी लीग को कांग्रेस में विलीन करने की राय नहीं दी। मुसलिम लीग अपने वार्षिक उत्सव कांग्रेस के साथ-साथ परन्तु पृथक मनाती रही। जिन्ना और उसके विचार के मुसलमान तिलक आदि हिन्दुओं से डरते थे।

1919 की कांग्रेस के उपरान्त कांग्रेस का चित्र भी बदला। कांग्रेस में गांधी, मोतीलाल तथा सी. आर, दास का प्रभाव बढ़ गया। तिलक आदि दूसरे दर्जे पर हो गये। इससे जिन्ना इत्यादि प्रसन्न थे, परन्तु मुसलिम लीग मुहम्मद अली इत्यादि का प्रभाव बढ़ने लगा था। साथ ही सरकार का सक्रिय विरोध आरम्भ हुआ तो जिन्ना साहब कांग्रेस और लीग दोनों से पृथक हो गये।

1926 तक कांग्रेस पूर्णतः महात्मा गांधी और मोतीलाल जी के हाथ में चली गयी थी। वहाँ जिन्ना के विचार वालों के लिये कोई स्थान नहीं था। मुस्लिम लीग अपने पृथक उत्सव करने लगी थी। दोनों संस्थाओं में ताल-मेल नहीं रहा था। इस समय जिन्ना साहब फिर मुसलिम लीग में जा पहुँचे और खान बहादुर और नवाबज़ादे इसमें सम्मिलित होने लगे।
* चमत्कार
* जन्मदाता
* उपज
* नौकरशाही

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