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जमाना बदल गया - भाग 2

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :555
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5397
आईएसबीएन :0000

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

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Jamana Badal Gaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

इस उपन्यास के प्रथम भाग की भूमिका में हमने संक्षिप्त रूप में यह बताने का यत्न किया था कि भारत की दासता का कारण एक ओर तो बौद्ध-जैन मीमांसा तथा दूसरी ओर नवीन वेदान्त है। जहाँ बौद्ध-जैन मतावलम्बी भारत के जन-मानस को वेदों से पृथक् करने के लिए यत्नशील रहे, वहाँ नवीन वेदान्तियों ने जन-मानस को वेदों से दूर तो नहीं किया, परन्तु वेदों को जन-मानस से दूर कर दिया। हमारा अभिप्राय यह है कि वेदों के स्थान पर उपनिषद और गीता को लाकर प्रतिष्ठित कर दिया। यह एक विडम्बना-सी प्रतीत होती है कि स्वामी शंकराचार्यजी ने अपने प्रस्थानत्रयी के भाष्य में अनेक स्थलों पर वेद-संहिताओं को कर्मकाण्ड की पुस्तकें कह कर उन्हें केवल अज्ञानियों के लिए स्वर्गारोहण के निमित्त बताया है। परन्तु किसी भी स्थल पर संहिताओं का प्रमाण नहीं दिया। एक ढंग से चारों वेदों को, जिनका नव-संकलन श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी ने किया था, उन्होंने अनादर की वस्तु बना कर केवल उपनिषदों को ही परम ज्ञान की वस्तु सिद्ध करने का ही प्रयास किया है।

इस प्रकार अनजाने में अथवा जानबूझकर श्री शंकराचार्य जी ने वही कुछ किया जो बौद्ध और जैन मतावलम्बियों ने किया। अर्थात् भारत के जन-मानस को वैदिक साहित्य से पृथक् करके रख दिया। इतिहासवेत्ता यह भी जानते हैं कि श्री गौड़पादाचार्य और श्री शंकराचार्यजी के जन्म से पूर्व ही हिन्दू सनातन-धर्म ने इस देश के बौद्धों को निष्कासित कर दिया था। इन महानुभावों ने तो तत्कालीन हिन्दू-धर्म में बौद्ध-धर्म की मूल बात, कि वेदों को छोड़ो, का पुनः समावेश ही किया था और इसी कारण कई विद्वान् इन दोनों को प्रच्छन्न अर्थात् छिपे हुए क्रियाशील बौद्ध ही मानते हैं।

जन-मानस को वेद-वेदांगों और पुराण इतिहास से पृथक करने का परिणाम यह हुआ कि ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार, जो कुछ भी वैदिक-काल से चला आता था, वह सब विलुप्त हो गया। नवीन परम्पराएँ और ज्ञान-विज्ञान तथा आचार-संहिता बन नहीं सकी, कला-साहित्य से वंचित होकर अकिंचन हो गया।

इस प्रकार की अकिंचनता का परिणाम अतिभयंकर हुआ और हिन्दू-मानस दासता की ठोकरें खाता हुआ भी जाग नहीं सका। हमारा यह कहना कि सात-सौ वर्ष के इस्लामी राज्य के बाद भी यदि हिन्दू-मानस पुनः स्वाभिमानयुक्त, बुद्धिशील और परिवर्तित युग के अनुकूल नहीं बन सका तो हिन्दू-धर्म में नवीन-वेदान्त का प्रबल पुट लग जाने के कारण ही ऐसा नहीं हो सका।
श्री अरविन्द ने वेदों पर अपनी पुस्तक में लिखा है कि भारतवर्ष में पूरे दो सहस्र वर्ष में केवल एक व्यक्ति पैदा हुआ है, जो भारत के जन-मानस को वेदों से जोड़ने के लिए यत्नशील हुआ है और वह स्वामी दयानन्द थे। स्वामी दयानन्द के वेदार्थों से भले ही कोई सहमत न हो, परन्तु यह निर्विवाद है कि भारत के जन-मानस को वेद-संहिताओं अर्थात् ऋक्, यजुः, साम, अथर्व से जोड़ने का यत्न स्वामी दयानन्द के अतिरिक्त इतनी सुदीर्घ अवधि में किसी ने नहीं किया।

बौद्ध तथा जैन मतालम्बियों ने तो वेदों को तिरस्कृत माना। नवीन वेदान्तियों ने वेदों के स्थान पर उपनिषदों को लाकर बैठा दिया और वैष्णव मतावलम्बी भी वेद के नाम को तो ग्रहण किए रहे, परन्तु उनको जन-साधारण के लिए दुर्गम्य कह कर पौराणिक साहित्य को ही प्राथमिकता देने का यत्न करते रहे। दो सहस्र वर्ष में महर्षि स्वामी दयानन्द ही एक ऐसे व्यक्ति हुए, जिन्होंने भारतवासियों की दृष्टि वेद-संहिताओं की ओर ले जाने का यत्न किया।
स्वामीजी के इस प्रयास का फल भी हुआ। संस्कृत और अंग्रेज़ी के अनेक विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और वेदों में अनुसंधान और वैदिक-साहित्य का अन्वेषण होने लगा। साथ ही इसको मानव-ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट उपज भी कहा जाने लगा। स्वामी दयानन्द प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने ईसाई पादरियों के भारत के इतिहास, शास्त्र और वेद-ज्ञान को संकलित करने के षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ किया था।

परन्तु देश का दुर्भाग्य अभी छूटा नहीं था। स्वामीजी के इस आह्वान पर जब विद्वानों का ध्यान आकर्षित होने लगा तो स्वामीजी की उत्तराधिकारिणी संस्था आर्य-समाज ने अपनी पूर्ण शक्ति उस शिक्षा के प्रसार में लगा दी जो वेदों को गपोड़े, हीन मानव-मन की बकवास तथा थर्ड रेट कविता की पुस्तक बताती थी। स्वामीजी की, देश के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान तथा अध्यात्म पर अगाध श्रद्धा थी। वे परम देश-भक्त थे और वैदिक संस्कृति के प्रशंसक थे। परन्तु आर्यसमाजी स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा, ‘मनुष्य बन्दर सदृश्य जन्तु की सन्तान है। आदि-मानव किसी सर्वसत्य का प्रतिपादन करने वाला नहीं, प्रत्युत एक जंगली, गुफाओं में रहने वाला प्राणी था।’

जो कुछ स्वामीजी कहते थे, उनके नाम पर पैसा एकत्रित करने वाले, उससे सर्वथा विपरीत करने लगे। एक समय ऐसा भी आया कि जब देश-भक्त स्वामीजी के शिष्य सरकारी स्कूल और कॉलेजों में शिक्षा पाकर एक विदेशी सरकार की जड़ों को भारत में सुदृढ़ करने में लग गए।
आर्य-समाज का प्रभाव सबसे अधिक पंजाब में रहा और पंजाब के प्रायः कांग्रेसी नेता अंग्रेज़ी सरकार के तो विरोधी हुए, परन्तु वहाँ पर इस्लामी राज्य स्थापित करने वाले बन गए। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं कि गुरुकुल कांगड़ी के एक प्रमुख स्नातक पंजाब सरकार के मंत्री बन, पंजाब राज्य में कम्युनिज़्म के प्रचारक और प्रसारक सिद्ध हुए। हिन्दी के स्थान पर वे गुरुमुखी लिपि के समर्थक बन गये। हमारा दृढ़ मत है कि यह सब उस शिक्षा के दोष के कारण हुआ है। आर्य-समाज, जनता के लाखों रुपये स्वामी दयानन्द के नाम पर एकत्रित कर उसका दुरुपयोग करता रहा है।
‘ज़माना बदल गया’ का द्वितीय भाग भारत के उस काल की पृष्ठभूमि पर लिखित उपन्यास है, जब अंग्रेज़ी सरकार अपने पूरे बल से भारत की शिक्षा को वह रंग दे रही थी, जिससे भारत का जन-जन देश, भारतीयता और धर्म का द्रोही हो जाये और देश की सब शक्तियाँ—आर्य-समाज से लेकर महात्मा गांधी तक—सरकार के इस कार्य में स्वेच्छा से तथा सहर्ष सहयोग दे रही थीं।

ज़माना बदल रहा था। परन्तु किस ओर ? यह इसी पुस्तक के तीसरे भाग में पढ़ने को प्राप्त होगा। यह द्वितीय भाग तो प्रथम तथा तृतीय भाग की कड़ी मात्र है।
1857 में, सात सौ वर्ष के मुसलमानी राज्य के बाद भी हिन्दू-मन 1927 के हिन्दू-मन से अधिक नेक, सत्यवादी और देशभक्त था। वह अधिक धर्मपरायण था और हिन्दू संस्कृति का भक्त था। सत्तर वर्ष में हिन्दूपन में भारी हीनता आई है। क्यों ? लेखक इस मत का इस उपन्यास में पढ़ने के लिए उपलब्ध है।
उपन्यास होने से इसके पात्र, इसमें वर्णित स्थान और औपन्यासिक घटनाएँ काल्पनिक हैं। इसमें तत्कालीन कुछ महापुरुषों और नेताओं के विचार लिखे हैं। ये उनके जीवन-चरित्रों से लिये गये हैं और कुछ लेखक के अपने अनुभव के परिणाम हैं। यह सम्भव है कि किसी अन्य या अनुभव और घटनाओं के परिणामों का अनुमान भिन्न हो। इस पर भी यह एक दृष्टिकोण है। इससे किसी के मानापमान का सम्बन्ध नहीं है।

-गुरुदत्त


प्रथम परिच्छेद


‘‘1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को बीते आज पचास वर्ष हो रहे हैं। अतः इस संग्राम की अर्ध-शताब्दी मनाने के लिए आज हम यहाँ एकत्रित हुए हैं। मुझसे पूर्व प्रो. लेखराज ने आपको उस संग्राम का संक्षिप्त विवरण सुनाया है। हम इतिहास के विद्यार्थी उस विवरण से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और उस महायज्ञ में अपने आपको स्वाहा करने वालों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपने मन में संकल्प कर सकते हैं। हमारा यह दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि जिस प्रयास में उस समय सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी, उसको प्राप्त करने के लिए हम निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। स्वराज्य परम-पवित्र अधिकार है, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रत्येक जाति को कटिबद्ध रहना चाहिए। साथ ही हमको अपना प्रयत्न ऐसे ढंग से चलाना चाहिए कि हम उन भूलों की पुनरावृत्ति न कर सकें, जिनके कारण वह प्रयास असफल हुआ था।’’

लाहौर के कूचा मुहयालाँ में एक छोटे-से मकान के छोटे-से कमरे में दस-ग्यारह युवक बैठे गोष्ठी कर रहे थे। उस गोष्ठी में बैठे मास्टर कृपाराम उक्त वक्तव्य दे रहे थे। मास्टर कृपाराम डी.ए.वी. स्कूल में इतिहास पढ़ाते थे और इन उपस्थित युवकों में से प्रायः सब उनके शिष्य ही थे। प्रो. लेखराज, जो 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास सुना चुके थे, मास्टर जी के परम शिष्यों में से एक थे। यह गोष्ठी मास्टर कृपाराम जी के घर पर हो रही थी।
उपस्थित युवक सातवीं, आठवीं और नौवीं और दसवीं श्रेणी के कुछ विद्यार्थी ही थे। 10 मई 1907 का दिन था। मास्टरजी का, आज स्कूल जाते-जाते 10 मई की ओर ध्यान चला गया और वे स्कूल में नियमित पाठ पढ़ाने के स्थान पर 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के विषय में ही बताने का संकल्प कर बैठे। वे आज इसी का इतिहास सुनाते रहे। इतिहास से प्रेरणा पाने वाले किसी विद्यार्थी की भाँति वे भारत की इस पुण्य-तिथि की स्मृति में विद्यार्थियों को बताते-बताते उमंगों से भर जाते थे और झाँसी की रानी तथा तात्या टोपे के शैर्यपूर्ण कृत्यों का उल्लेख करते-करते उनके नेत्र तरल हो जाते थे।

सदानारायण अपने ताया रामरक्खामल्ल से भी इस संग्राम की अनेकों घटनाओं का विवरण सुन चुका था और इसके विषय में अपने मन में एक चित्र बना चुका था। अपनी इतिहास की पुस्तक में लिखे और अपने ताया के मुख से सुने वर्णन में अन्तर देख कर वह मन में संशय अनुभव किया करता था। आज मास्टर को श्रेणी में इस विषय पर विस्तार से कहते सुन, उसके मन में संशय उभर आये थे और वह शंका-समाधान के लिए व्याकुल हो उठा। मास्टरजी का वक्तव्य पूर्ण होने से पूर्व ही, उसने अपना हाथ खड़ा कर, उनका ध्यान आकर्षित कर पूछ लिया—

‘‘मास्टरजी ! आप कहते हैं कि 1857 में जो विद्रोह हुआ वह, स्वतन्त्रता के लिए युद्ध था, परन्तु हमारी पाठ्य-पुस्तक में लिखा है कि यह केवल सैनिक विद्रोह था और विद्रोहियों को पकड़-पकड़ कर कठोर दण्ड दिया गया था। इसमें कौन-सी बात ठीक है और कौन-सी गलत ?’’
मास्टर कृपाराम इस प्रश्न का उत्तर देना चाहता था, परन्तु 1907 के अप्रैल मास में लाहौर में पकड़-धकड़ के बाद यह स्पष्ट आदेश मिल चुका था कि स्कूल में स्कूल की पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ नहीं पढ़ाया जाय। यह स्मरण कर वह गम्भीर हो सदानारायण का मुख देखने लगा। वह यह भली-भाँति जानता था कि सदानारायण श्रेणी का सबसे योग्य विद्यार्थी है, और उसको बातों में टालना न तो सम्भव होगा न ही उचित। इस कारण उसके मन में घर पर एक गोष्ठी बुलाने का विचार आ गया। उसने कह दिया, ‘‘मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुन लो और फिर यदि किसी विषय में शंका हो तो मेरे घर पर आज सायं छः बजे एक गोष्ठी होने वाली है, वहाँ आ जाना, मैं समाधान करने का यत्न करूँगा।

मास्टर कृपाराम ने उसी समय कुछ मुख्य-मुख्य विद्यार्थियों को गोष्ठी में आने का निमन्त्रण भी दे दिया।
ठीक छः बजे ये लोग उपस्थित हुए तो प्रोफेसर लेखराज ने आधा घंटा-भर उस संग्राम के कारणों, उसकी गति-विधियों और उसके परिणामों पर वक्तव्य दिया। मास्टर कृपाराम ने अन्त में विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करते हुए उपरलिखित वक्तव्य दिया।
सदानारायण से नहीं रहा गया। उसने वही प्रश्न जो उसने श्रेणी में पूछा था, यहाँ भी पूछ लिया। अब मास्टर ने इसका उत्तर देते हुए कहा, ‘‘यह संग्राम ही था और देश को स्वतन्त्र करने के लिए था। देश को स्वतन्त्र करना धर्म-कार्य था। इस कारण यह धर्म-युद्ध था।’’
‘‘परन्तु मास्टरजी ! धर्म-युद्ध में तो पराजय नहीं होती। हमारे शास्त्र में लिखा है—

‘न चैव शक्यं संयन्तु यतो धर्मस्ततो जयः।’

‘‘इससे तो स्कूल की पुस्तक में लिखी बात सत्य प्रतीत होती है। यह विद्रोह ही था, धर्म-युद्ध नहीं।’’
मास्टर को कुछ इसी प्रकार की बात की आशंका थी। वह सदानारायण के स्वभाव से परिचित था। इसलिए वह उत्तर के लिए तैयार था। उसने कह दिया, ‘‘सदानारायण ! शास्त्र ठीक कहता है, परन्तु यह भी सत्य ही है कि यह युद्ध भी धर्म-युद्ध ही था। हाँ, इसको चलाने वाले व्यक्ति धर्मात्मा नहीं थे। आततायी के विपरीत युद्ध करना धर्म-युद्ध ही कहलाता है। परन्तु, युद्ध का संचालन करने वाला भी तो धर्मात्मा होना चाहिये ? और इसमें कार्य करने वाले नेता चरित्र से भी धर्मात्मा नहीं थे तथा वे इस कार्य को धर्म समझ कर भी नहीं कर रहे थे।’’
‘‘इसमें कौन नेता लोग थे और उनमें क्या खराबी थी ?’’

‘‘इसमें मुसलमान सम्मिलित थे। वे बहादुरशाह ज़फर को अपना सम्राट समझते थे। इस सम्राट के पूर्वज और मुसलमान सात सौ वर्ष तक भारतवर्ष पर पापमय राज्य कर चुके थे। 1857 में मुसलमान शक्तिहीन हो चुके थे और अपने पूर्व-कर्मों से बदनाम हो चुके थे।
‘‘इस संग्राम में मराठे सरदार सम्मिलित थे। वे भी अपने काल में भारी अत्याचार  और अनाचार कर चुके थे। मराठे सरदार परस्पर एक-दूसरे के शत्रु थे। एक-दूसरे को पराजित करने के लिए पहले मुसलमानों और पीछे से अंग्रेजों से, जो देश के शत्रु थे, सहायता लेते रहे थे।
‘‘भारत का भाग्य बदलने वाला मराठों और मुहम्मदशाह अब्दाली के मध्य पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ था। मराठे केवल इस कारण हारे थे कि वे परस्पर द्वेष रखते थे। आपस की शत्रुता और स्वार्थ के हेतु उन्होंने मराठों की पराजय करा दी थी। जन-जन उनके देश और जाति से प्रेम पर सन्देह करता था।

‘‘पराजय का सबसे बड़ा कारण यह था कि मराठों ने अपने प्रभुत्वकाल में अपने साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी की हिन्दुपद-पाद-शाही का आदर्श भूलकर सिंधिया, होल्कर अथवा पेशवाओं की समृद्धि का आदर्श मन में स्थापित कर लिया था। इन मराठों ने सदा अपने स्वार्थ के लिए मुसलमानी सुल्तानों और निजामों से सुलह की और देश के अन्य भागों की हिन्दू-शक्तियों की अवहेलना की थी।
‘‘1857 का प्रयास तो स्वतन्त्रता का संग्राम ही था। यह धर्म-युद्ध भी था। यह देश को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आततायी राज्य से बचाने के लिए किया गया था।

‘‘अपने उद्देश्य में यह एक सीमा तक सफल भी हुआ था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज्य इस युद्ध के कारण ही समाप्त हुआ था, परन्तु हिन्दुस्तानी राज्य स्थापित नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है कि मराठे बिना मुसलमानों के, युद्ध चलाने में सफल नहीं हुए और मुसलमान स्वतः मृतप्रायः थे और मराठों के आश्रय ही विजय प्राप्त करने की आशा कर रहे थे। यों दोनों एक-दूसरे के घोर शत्रु थे। कहीं ये विजय भी प्राप्त कर लेते तो उस विजय के बाद वे पुनः परस्पर लड़ते और एक-दूसरे को मार-काट कर समाप्त करने का यत्न करते।’’
सदानारायण ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों होता ?’’

‘‘यह इस कारण कि मुसलमान स्वेच्छा से किसी गैर-मुसलमान के राज्य में रहना नहीं चाहता। यह इनके मज़हब में मान्य नहीं। इनके यहाँ देशीय और विदेशीय का विचार नहीं, प्रत्युत दाराउल-हरब और दाराउल-इस्लाम का प्रश्न है।’’
‘‘परन्तु मास्टरजी ! यदि मुसलमानों से मिल कर यह युद्ध न किया जाता तो क्या आप समझते हैं कि अधिक सफलता मिलती ?’’

‘‘सदानाराण ! जो बात बीत गयी, उसमें मीन-मेख निकालने से कुछ अधिक लाभ नहीं। यह यदि होता तो क्या होता और वह होता तो क्या होता ? विचार करने से लाभ नहीं। परन्तु आगे के लिए विचार करने के लिए मुसलमानों के विषय में विचार करने की नितान्त आवश्यकता है।
‘‘मैं समझता हूँ भारत राष्ट्र हिन्दू है। हिन्दू के नाम पर ही जो युद्ध लड़ा जायेगा, वही सफल होगा।

‘‘आज देश में कांग्रेस नाम की एक संस्था है। वह संस्था स्वराज्य-प्राप्ति के लिए यत्न नहीं कर रही। इस पर भी उसमें कुछ लोग ऐसे हैं, जो उस संस्था का लक्ष्य स्वराज्य-प्राप्ति करना चाहते हैं। धीरे-धीरे वे लोग कांग्रेस में बल पकड़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों देश के सामने अंग्रेजों से स्वराज्य-प्राप्ति का प्रश्न प्रमुख बनता जा रहा है, त्यों-त्यों मुसलमान अंग्रेजों से गठजोड़ कर स्वराज्य के विरोधी बनते जाते हैं।

‘‘मुसलमान हिन्दुओं के साथ मिलकर कभी भी न तो स्वराज्य-प्राप्ति के लिए और न ही स्वराज्य-भोग के लिए तैयार होंगे। इसी कारण महर्षि स्वामी दयानन्द ने यह कहा था कि इस देश में सर्वप्रथम एक धर्म होना चाहिए और तदन्तर यहाँ स्वराज्य होना चाहिये।’’
‘‘तो मुसलमानों के साथ मिलकर स्वराज्य-प्राप्ति का यत्न करना ठीक नहीं था ?’’
‘‘नहीं, वह उस समय भी ठीक नहीं था और अब भी ठीक नहीं है।’’

सदानारायण का समाधान हो गया। उसका ताया रामरक्खामल्ल भी यही कहा करता था। इस पर उसने अपनी बाल-बुद्धि से विचार कर एक प्रश्न पूछ लिया, ‘‘क्या यह ठीक नहीं कि पहले अंग्रेजों से मिलकर मुसलमानों को समाप्त कर लिया जाये और फिर अंग्रेजों को देश से निकाला जाये ?’’
‘‘नहीं। एक पाप से छूटने के लिए दूसरे पाप का सहयोग तो कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता। एक ही उपाय है कि धर्म की शक्ति को प्रबल बनाया जाये। तब धर्म एक ओर होगा और पाप दूसरी ओर। और धर्म की विजय होगी और पाप की पराजय।

‘‘मराठे 1857 में यही भूल कर रहे थे। एक आततायी को परास्त करने के लिए वे दूसरे आततायी का सहयोग करने लगे थे। अतः पराजय निश्चित थी।’’
‘‘परन्तु मास्टजी ! अब तो मुसलमान हिन्दुओं का विरोध नहीं करते। हमारे पड़ोस में एक हुसैनबख्स ठेकेदार रहते हैं। उनके लड़के की शादी थी और हमारे पिताजी को उसमें सम्मिलित होने का निमन्त्रण आया था। ठेकेदार साहब ने अपने सब हिन्दू-मित्रों को मिठाई एक हिन्दू दुकानदार से लेकर एक हिन्दू के ही हाथ से भिजवाई थी।’’

‘‘इसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं। तुमको स्मरण है क्या कि ज़िला कचैहरी में तुम्हारे ताया की हत्या करने का यत्न किया गया था। जानते हो, यह क्यों किया गया ?’’
सदानारायण को इस बात की स्मृति थी। इससे उसने कह दिया, ‘‘जी, याद तो है। परन्तु यह क्यों किया गया ? यह हुसैनबख्श भी उनमें सम्मिलित थे, जिन्होंने तायाजी पर आक्रमण किया था।’’

‘‘हाँ, उस व्यवहार में और दूसरे व्यवहार में कोई समानता नहीं है। इस मिठाई बाँटने से ‘तम्बोल’ मिलता है। कल को हुसैनबख्श की लड़की का विवाह होगा तो तुम्हारे पिता उसको भेंट देंगे। इसमें मज़हब का विरोध नहीं हो रहा। न मिठाई बाँटने में न तम्बोल और भेंट लेने में। परन्तु ज्यों ही इन मुसलमानों को पता चलेगा कि अब राज्य हिन्दुओं के हाथ में जा रहा है तो उस राज्य में इनके लिए रहना हराम हो जायेगा। यह उनका मज़हब कहता है।’’
‘‘तो फिर क्या किया जाय ?’’
‘‘केवल एक ही उपाय है। देश में धर्म की शक्ति को प्रबल करना चाहिये। धर्म की विजय कराने के लिए ही युद्ध करना चाहिये। उस युद्ध में ही विजय होगी।


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