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गौ का गौरव

तेजपाल सिंह धामा

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5400
आईएसबीएन :81-88388-31-9

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गौ की महिमा का वर्णन...

Gau Ka Gaurav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृषि प्रधान देश भारत में आज भी अधिकांश खेती बैलों द्वारा ही की जाती है, इसलिए बैलों को कर्म व कर्त्तव्य का प्रथम गुरु माना जा सकता है। आर्यावर्त सदा से शाकाहारी राष्ट्र रहा है। और सम्पूर्ण शाकाहार खाद्यान्न बैलों के पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता रहा है, इसलिए बैलों को पालक होने के कारण पिता भी कहा गया है। गाय एक तरफ जहाँ इन पुरुषार्थी बैलों को जन्म देती है, दूसरी तरफ वह स्वयं भी दूध व दही द्वारा मानव का पोषण करती है। आयुर्वेद में गाय से प्राप्त पंचगव्य तथा गोरोचन के कोटिश: उपयोग निर्दिष्ट हैं। जन्म देने वाली माता तो कुछ ही महीने बच्चे को दूध पिलाती है, फिर भी कहते हैं, कि मां के दूध का कर्ज कभी अदा नहीं किया जा सकता, लेकिन गाय तो जीवन भर दूध पिलाती है, गोषडंग से स्वास्थ्य प्रदान करती है, इसलिए इसको विश्व की माता कहा गया है।

परोपकारिणी होने के कारण श्रद्धा व भक्ति की यह देवी द्वार की शोभा व घर का गौरव मानी जाती है, तभी तो सन् 1857 ईस्वी में सैनिकों ने गाय की चर्बीयुक्त कारतूस के प्रयोग से मना कर दिया था और यहीं से शुरू हुई आजादी प्राप्त करने की जंग। इसके बाद कूका विद्रोह सहित सारा स्वतंत्रता आंदोलन गाय से प्रेरित रहा है। इस कारण गाय को भारत की आजादी की जननी कहा जाता है। इन्हीं की संतानों के पुरुषार्थ से मनुष्य सदा अर्थ संपन्न होता आया है। आर्थिक उन्नति से ही मनुष्य सुख-सुविधा पाता है और सुख-सुविधा से जीवन यापन करने को ही स्वर्ग कहा गया है। यदि जीवन के बाद के स्वर्ग की कल्पना को भी सत्य माने तो वह भी गाय के बिना संभव नहीं, क्योंकि स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्मग्रंथ चाहे वेद हों या गीता, उनका आदि ज्ञान गाय की छत्र-छाया में ही प्राप्त हुआ है। आर्यों के यहां कोई भी धार्मिक कर्मकांड बिना यज्ञ के किया जाना संभव नहीं और यज्ञ कभी गौघृत और दधि के बिना संपन्न नहीं होते, इसलिए धर्मशास्त्र का पहला अध्याय व स्वर्ग की पहली सीढ़ी गाय ही है।

गोग्रास-दान का अनन्त फल


योऽग्रं भक्तं किंचिदप्राश्य दद्याद् गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी।
शान्तोऽलुब्धो गोसहस्रस्य पुण्यं संवत्सरेणाप्नुयात् सत्यशील:।।
यदेकभक्तमश्नीयाद् दद्यादेकं गवां च यत्।
दर्शवर्षाण्यनन्तानि गोव्रती गोऽनुकम्पक:।।

(महाभारत, अनुशा.73। 30-31)

जो गोसेवा का व्रत लेकर प्रतिदिन भोजन से पहले गौओं को गोग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्य का पालन करता रहता है, वह सत्यशील पुरुष प्रतिवर्ष एक सहस्र गोदान करने के पुण्य का भागी होता है। जो गोसेवा का व्रत लेने वाला पुरुष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का अपना भोजन गौओं को दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गोसेवा में तत्पर रहने वाले पुरुष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं।

आवाहन


आवाहयाम्यहं देवीं गां त्वां गैलोक्यमातरम्।
यस्या: स्मरणमात्रेण र्स्वपापप्रणाशनम्।।
त्वं देवी त्वं जगन्माता त्वमेवासि वसुन्धरा।
गायत्री त्वं च सावित्री गंगा त्वं च सरस्वती।।
आगच्छ देवि कल्याणि शुभां पूजां गृहाण च।
वत्सेन सहितां त्वाहं देवीमावाहयाम्यहम्।।

भावार्थ: जिस गोमाता के मात्र स्मरण करने से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है, ऐसी तीनों लोकों की माता हे गो देवी ! मैं तुम्हारा आवाहन करता हूं। हे देवी तुम संसार की माता हो, तुम्हीं वसुन्धरा, गायत्री, सावित्री (गीता), गंगा और सरस्वती हो। हे कल्याणमयी देवी ! तुम आकर मेरी शुभ पूजा (सेवा) को ग्रहण करो। हे भारत माँ का गौरव बढ़ाने वाली बछड़े सहित देवस्वरूपा तुम्हारा मैं आवाहन करता हूँ।

भूमिका


कृषि प्रधान देश भारत में आज भी अधिकांश खेती बैलों द्वारा ही की जाती है, इसलिए बैलों को कर्म व कर्त्तव्य का प्रथम गुरु माना जा सकता है। आर्यावर्त सदा से शाकाहारी राष्ट्र रहा है। और सम्पूर्ण शाकाहार खाद्यान्न बैलों के पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता रहा है, इसलिए बैलों को पालक होने के कारण पिता भी कहा गया है। गाय एक तरफ जहाँ इन पुरुषार्थी बैलों को जन्म देती है, दूसरी तरफ वह स्वयं भी दूध व दही द्वारा मानव का पोषण करती है। आयुर्वेद में गाय से प्राप्त पंचगव्य तथा गोरोचन के कोटिश: उपयोग निर्दिष्ट हैं। जन्म देने वाली माता तो कुछ ही महीने बच्चे को दूध पिलाती है, फिर भी कहते हैं, कि मां के दूध का कर्ज कभी अदा नहीं किया जा सकता, लेकिन गाय तो जीवन भर दूध पिलाती है, गोषडंग से स्वास्थ्य प्रदान करती है, इसलिए इसको विश्व की माता कहा गया है। परोपकारिणी होने के कारण श्रद्धा व भक्ति की यह देवी द्वार की शोभा व घर का गौरव मानी जाती है, गाय के प्रति हमारा रिश्ता इतना अगाध रहा है कि सन् 1857 ईस्वी में सैनिकों ने गाय की चर्बी से युक्त कारतूस के प्रयोग से मना कर दिया था और यहीं से शुरू हुई आजादी प्राप्त करने की जंग। इसके बाद कूका विद्रोह सहित सारा स्वतंत्रता आंदोलन गाय से प्रेरित रहा है। इस कारण गाय को भारत की आजादी की जननी कहा जाता है। इन्हीं की संतानों के पुरुषार्थ से मनुष्य सदा अर्थ संपन्न होता आया है। आर्थिक उन्नति से ही मनुष्य सुख-सुविधा पाता है और सुख-सुविधा से जीवन यापन करने को ही स्वर्ग कहा गया है। यदि जीवन के बाद के स्वर्ग की कल्पना को भी सत्य माने तो वह भी गाय के बिना संभव नहीं, क्योंकि स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्मग्रंथ चाहे वेद हों या गीता, उनका आदि ज्ञान गाय की छत्र-छाया में ही प्राप्त हुआ है। आर्यों के यहां कोई भी धार्मिक कर्मकांड बिना यज्ञ के किया जाना संभव नहीं और यज्ञ कभी गौघृत और दधि के बिना संपन्न नहीं होते, इसलिए धर्मशास्त्र का पहला अध्याय व स्वर्ग की पहली सीढ़ी गाय ही है।

गौ का गौरव इतना महान होते हुए भी हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं और खेद की बात है कि भारत वर्ष में गोवंश पर आज भी अत्याचार हो रहा है। सरकारी सहायता से पशु-वधशालाएँ चलायी जा रही हैं, जो सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए शर्म की बात है। पता नहीं मेरी इस भारत माता के माथे से गोहत्या का कलंक कब मिटेगा।

-डी.गायत्री आर्य

प्राक्कथन


अच्छी अर्थव्यवस्था हर युग में सरकार, जनता व बुद्धिजीवी वर्ग का सपना रहा है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में जितनी नई-नई बातों का समावेश होता गया, अर्थव्यवस्था उतनी ही बिगड़ती गयी। पर क्यों ? इस क्यों का उत्तर पाने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि अच्छी अर्थव्यवस्था क्या होती है ? अच्छी अर्थव्यवस्था का अर्थ बड़े उद्योग, शेयर बाजार, बैकिंग सुविधाएं या बड़ी परियोजनाएं नहीं। आम आदमी जो विश्व की जनसंख्या का सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा भाग है, के लिए वही अर्थव्यवस्था अच्छी है, जिसमें उसके परिवार का उदरपोषण और सही ढंग से सर्वांगीण विकास हो सके। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था इस विशेषता से बहुत दूर है।

बेरोजगारी और महंगाई बढ़ती जा रही है तथा शिक्षित व अशिक्षित दोनों वर्गों को रोजी-रोटी की तलाश में दौड़-धूप करनी पड़ती है। जब हम इस विषय पर लोगों के विचार जानने का प्रयास करते हैं, तो पता चलता है आम आदमी वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों से खुश नहीं और अक्सर यही कहते सुना जाता है कि पहले का जमाना ही अच्छा था। आखिरकार, पहले के जमाने में ऐसी कौन सी खास बात थी ? सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत देश के अर्थतंत्र में ऐसी कौन सी कमी आ गयी है। इस पशुधन में सबसे महत्वपूर्ण गाय है। पर जिस तरह से अर्थव्यवस्था के इस मेरूदंड गोधन की अनदेखी सैकड़ों सालों में, खासतौर से विदेशी सल्तनतों के आने के बाद, होती आ रही है उसके परिणाम हमारे सामने हैं। घी, दूध की नदियों वाले प्रदेशों में आजकल बच्चे दूध को तरस रहे हैं। जिस देश में बड़ी-बड़ी गोशालाएँ होतीं थी आज वहाँ बड़े-बड़े यांत्रिक गोवध कारखाने हैं। हिन्दू धर्म में गौ को माता का दर्जा दिया गया है। किसी धार्मिक कारण से नहीं, बल्कि आर्थिक कारणों से गाय को यह स्थान दिया गया था।

मैंने श्री तेजपाल सिंह धामा की कई कृतियां इससे पूर्व पढ़ी हैं, जिसमें उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव और व्यवस्थाओं के प्रति जन-जागृति लाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत पुस्तक ‘गौ का गौरव’ इसी दिशा में एक अनूठा प्रयास है। जिस तरह से धामा जी ने इस पुस्तक में गोधन के महत्व को समझाते हुए गोवध के विरुद्ध आवाज उठायी है, यह इस विषय पर लिखी गयी अन्य पुस्तकों से काफी अलग है। अत्यंत सारगर्भित विवेचनापूर्ण और प्रभावकारी ढंग से लिखी गयी यह पुस्तक निश्चय ही भारतीय जनमानस को झिझोड़ने में सफल होगी। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

भवदीय,
सतीश शर्मा,
(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)
दूरभाष-:040-55292370 हैदराबाद

गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशंग्य: पयोमुच:।
सुरभ्य: सौरभेय्यश्च सरित: सागरं यथा।।
गा वै पश्याम्यहं नित्यं गाव: पश्यन्तु मां सदा।
गावोऽस्माकं वयं तासां यतो गावस्तो वयम्।।

(महाभारत, अनु.78। 23-24)

‘जैसे नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं, उसी तरह सोने से मढ़े हुए सीगों वाली दुग्धवती, सुरभि और सौरभेयी गौएँ मेरे निकट आवें। मैं सदा गौओं का दर्शन करूँ और गौएँ मुझ पर कृपा दृष्टि करें। गौएँ मेरी हैं और मैं गौओं का हूँ, जहाँ गौएँ रहें, वहाँ मैं भी रहूँ।’

अपनी बात


ऋषि-मुनियों का यह दिव्य राष्ट्र भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीनकाल से आज तक कृषि का आधार बैल ही हैं और बैलों की जननी गाय है, इसलिये गाय की माता के रूप में पूजा की जाती है।

मेरे दादाजी श्री मेहूँ डूँगर गाय के पक्के भक्त थे, साथ ही हरे कृष्णा हरे गोपाला तो उनकी जबान पर हर वक्त रहता था। दोनों समय गाय को रोटी खिलाने से पूर्व उन्होंने जीवन में कदाचित् ही अन्न ग्रहण किया हो। शतायु के बाद जीवन के अंतिम क्षणों में वे बीमार पड़े। पारिवारिक परम्परा के अनुसार उनके मुँह में चम्मच से गंगा जल डाला जा रहा था, तब उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा गाय माता के दर्शन करने की व्यक्त की। उनके पास गाय लायी गयी। उन्होंने गाय का पवित्र स्पर्श किया और गाय ने उन्हें पुत्रवत् जीभ से चाटा और फिर कुछ ही क्षणों में दादाजी गोलोक सिधार गये।

जैन धर्म के अनुयायी न होते हुए भी अहिंसा व गाय के प्रति जो श्रद्धा मेरे दादा जी में थी ऐसी ही पिताश्री में भी है। आमवात् रोग के कारण पिताजी गृहस्थाश्रम में ही विकलांग हो गये, इसलिये जमीन ताऊ श्री राज सिंह उघाई (बटाई) पर बोते थे, इस कारण घर में अन्न, धन्न व पशुओं के चारे का हमेशा अभाव रहता था। पिताजी प्रतिदिन पशुओं को चराने के लिये जंगल में ले जाते थे। एक बार उन्होंने देखा कि कीचड़ में तीन बछियाँ (गाय की बच्ची) धँसी हुई हैं और कसाई उन्हें बाहर निकालने के लिये डंडों से मार रहा था। गायों की दुर्दशा देखकर मेरे पिताजी की आँखों में पानी आ गया, उन्होंने कसाइयों से पूछा-‘गऊ माताओं को क्यों परेशान कर रहे हो ?’

एक कसाई ने उत्तर दिया-‘इनको रुपये देकर खरीद कर लाये हैं, अब बूचड़खाने में काटने के लिये ले जा रहे हैं।’
पिताजी को उन बेबस गौ माताओं पर दया आ गयी और वह कसाइय़ों से खरीदकर उन्हें घर ले आये। कुछ दिनों बाद तीनों बछियाँ जवान होकर अत्यंत दुधारू गाय बन गयी। हमें भी भरपेट दूध मिलने लगा। मैं पिताजी की गौ भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुआ।

मैं जब कक्षा तीन का छात्र था तो शिक्षा अधिकारी विद्यालय का निरीक्षण करने आये। शिक्षा अधिकारी के सम्मान में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया, कार्यक्रम में बच्चों ने फिल्मी व लोकगीत प्रस्तुत किये, जबकि मैंने वीरेन्द्रवीर आर्योपदेशक का एक भजन ‘ओ३म् जय गऊमाता, तेरा दर्शन सुखदाता....गाया।

फिल्मी गानों और लोकगीतों पर तो बच्चों ने खूब तालियाँ बजाई, लेकिन पता नहीं क्यों मेरी कविता सुनकर किसी ने तालियाँ नहीं बजाई। मैं अपना मान-अपमान तो नहीं जानता, लेकिन तालियाँ न बजाने पर मैंने गोमाता की आरती का अपमान समझा और तुरंत निर्णय लिया कि अब सबको खड़ा कर दूँगा। मैंने तभी ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गीत गाना शुरू कर दिया। फिर क्या था राष्ट्रगीत के सम्मान में डिप्टी (शिक्षा अधिकारी) अध्यापक एवं सभी छात्र सावधान मुद्रा में खड़े हो गये। राष्ट्रगान की प्रस्तुति के कारण मुझे बाद में विद्यालय से निकाल दिया गया और अत्यंत निर्धन होते हुए भी मेरे पिताजी ने मेरा दाखिला एक प्राइवेट स्कूल में करा दिया।

हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद मैं महान् गौ भक्त श्री शिवकुमार ‘बाबू जी’ के सम्पर्क में आया, वे उन दिनों खेकड़ा (बागपत) में गोशाला की पौने दो सौ बीघा जमीन, जिस पर सरकारी व गैर सरकारी लोगों ने अवैध रूप से कब्जा कर लिया था, उसे कब्जा मुक्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे थे। वृद्धावस्था के कारण वे पत्रादि ठीक प्रकार से नहीं लिख सकते थे, इसलिये उनका यह कार्य कुछ वर्षों के लिये मैंने संभाला। श्री शिवकुमार जी के गोशाला भूमि मुक्ति आंदोलन से मेरे ताऊजी श्री राजसिंह भी जुड़े रहे।

मैंने बाद में गोशाला उन्नति व बूचड़खानों को तोड़ने के कई कार्यक्रमों से जुड़ने की चेष्टा भी की। जब स्वामी आनन्द बोध सरस्वती (पूर्व सांसद) ने हैदराबाद में अलकबीर बूचड़खाने को बंद कराने के लिये आंदोलन का आह्वान किया तो मैंने तुरन्त ही स्वामी जी से प्रथम सत्याग्रही होने की प्रार्थना की, जिसे स्वामी जी ने बड़े उत्साह के साथ स्वीकार किया। मेरी भावनाओं का उन्होंने जो सत्कार किया, उन्हीं के शब्दों में दे रहा हूँ:

श्री तेजपाल जी आर्य
सप्रेम नमस्ते।
पत्रांक 849
22 अगस्त, 1994
आपका पत्र प्राप्त हुआ।
अलकबीर बूचड़खाने को बन्द कराने और गोहत्याबंदी आन्दोलन के सत्याग्रही होने के लिये आपने जिस उत्साह के साथ भाग लेने का संकल्प किया है, उसे जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। सूचनार्थ है कि जब भी आन्दोलन प्रारम्भ होगा, आपको सूचित किया जायेगा।
शुभकामनाओं सहित !

भवदीय,
हस्ताक्षर
(स्वामी आनन्द बोध सरस्वती)
पूर्व सांसद

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि अनेकों महापुरुषों, संत-महात्माओं के प्रयासों के बाद भी भारत माता के माथे से गोहत्या का कलंक आज तक नहीं मिट सका और विश्व जीवन का आधार गोवंश करुणा भरी आवाज से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के माध्यम से अपनी दुर्दशा का बखान इस प्रकार कर रही है—

दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रही,
हम पशु तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही ?
हमने तुम्हें माँ की तरह, है दूध पीने को दिया,
देकर कसाई को हमें, तुमने हमारा वध किया ।।

क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं बलहीन हैं,
मारो कि पालो, कुछ करो तुम हम सदैव आधीन हैं।
प्रभु के यहाँ भी कदाचित् आज हम असहाय हैं,
इससे अधिक अब क्या कहें, हा ! हम तुम्हारी गाय हैं ।।

जारी रहा क्रम यदि यहाँ...यों ही हमारे नाश का,
तो अस्त समझो सूर्य भारत-भाग्य के आकाश का।
जो तनिक हरियाली रही, वह भी न रह पायेगी,
यह स्वर्ण-भारत-भूमि बस, मरघट मही बन जायेगी ।।

कितने शर्म की बात है कि स्वतंत्र भारत में मांस के लिए गोवंश को निर्दयता से काटा जाता है, जबकि वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि भूकंप आने का प्रमुख कारण बूचड़खानों में पशुओं की निर्दयता से हत्या करना है। इतिहास भी गवाह है कि जहाँ पर अधिक बूचड़खाने होते हैं, वहीं भूकंप का भी कहर बरसता है। आज आर्य जाति गाय की करुण पुकार को मूकदर्शक बने सुन रही है, जबकि हम सभी जानते हैं कि गाय हैं तो हम भी हैं। अन्यथा जिस दिन इस संसार में गाय नहीं रहेंगी हम भी नहीं रहेंगे। यह कटु सत्य है। अत: हमें अपने आपको बचाना है, तो गाय को पहले बचाना होगा।
1-10-118/13 शेषाद्रिनगर,
पालमूर (आं.प्र.)-509002
दूरभाष (08542) 246311
E-mail:tsdhama@yahoo.co.in

धियो यो न: प्रचोदयात् !
गौ सेवक
-तेजपाल सिंह धामा
गोपाष्टमी, 2060 विक्रमी

अध्याय-१
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में गाय की भूमिका


भारतीय संस्कृति में गाय का महत्व, गायत्री गंगा और गीता से भी बढ़कर है, क्योंकि गायत्री की साधना में कठिन तपस्या अपेक्षित हैं, गंगा के सेवन के लिये भी कुछ त्याग करना ही पड़ता है और गीता को जितनी बार पढ़ोगे उसमें हर बार कुछ न कुछ नया मिलता है, जिसका रहस्य समझना कठिन है, लेकिन गौ का लाभ तो घर बैठे ही मिल जाता है। वेदों का कथन है कि यदि किसी को इस माया राज्य में सब प्रकार का वैभव प्राप्त करना है तो गौ माता की प्रमुख रूप से सेवा करें। यहाँ प्रश्न पैदा होता है कि गौ की महिमा का शास्त्रों में जो वर्णन है, क्या उसे सत्य माना जा सकता है ?

इस प्रश्न का समाधान है कि शास्त्र कभी झूठ नहीं बोलते। निश्चय ही गाय से सब प्रकार के वैभव प्राप्त होते हैं। जो एक गाय न्यून से न्यून दो सेर दूध देती हैं और दूसरी बीस सेर तो प्रत्येक गाय के ग्यारह सेर दूध होने में कोई शंका नहीं। इस हिसाब से एक मास में सवा आठ मन दूध होता है। एक गाय कम से कम छह महीने और दूसरी गाय अधिक से अधिक 18 महीने तक दूध देती है, तो दोनों का मध्य भाग प्रत्येक गाय का दूध देने में बारह महीने होते हैं। इस हिसाब से 12 महीनों का दूध 99 मन होता है। इतने दूध को औटकर प्रति सेर में एक छटाँक चावल और डेढ़ छटाँक चीनी डालकर खीर बनाकर खाये तो प्रत्येक पुरुष के लिये दो सेर दूध की खीर पुष्कल होती है, क्योंकि यह भी एक मध्य भाग की गिनती होती है। अर्थात् कोई भी 2 सेर दूध की खीर से अधिक खाये और कोई न्यून। इस हिसाब से एक प्रसूता गाय के दूध से एक हजार 980 मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। गाय न्यून से न्यून आठ और अधिक से अधिक 18 बार ब्याती है, इसका मध्य भाग 13 बार आया तो 25740 मनुष्य एक गाय के जन्म भर के दूध मात्र के एक बार तृप्त हो सकते हैं। इस गाय की छ: पीढ़ी में छ: बछिया और सात बछड़े हुए इनमें से एक की मृत्यु रोगादि से होना संभव है तो भी बारह रहे। उन छह बछियों के दूध मात्र से उक्त प्रकार एक लाख चौवन हजार 440 मनुष्यों का पालन हो सकता है। अब रहे छ: बैल, उनमें से एक जोड़ी दोनों साख में 200 मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं। इस प्रकार तीन जोड़ी बैलों की 600 मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं और उनके कार्य का मध्य भाग आठ वर्ष है। इस हिसाब से 4800 मन अन्न उत्पन्न करने की शक्ति एक जन्म में तीनों की है। इतने (4800 मन) अन्न से प्रत्येक मनुष्य को 3 पाव अन्न भोजन मिले तो 2,56,000 मनुष्यों का एक बार का भोजन होता है। दूध और अन्न को मिलाकर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। अब छ: गाय की पीढ़ी-दर-पीढ़ियों का हिसाब लगाकर देखा जाये तो असंख्य मनुष्यों का पालन हो सकता है और इसके माँस से अनुमान है कि केवल 80 माँसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं।




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