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वसुदेव

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5411
आईएसबीएन :81-216-1210-4

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कृष्ण के अवतार पर आधारित उपन्यास...

Vasudev

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नरेन्द्र कोहली के उपन्यास लेखन में अब तीसरा मोड़ ‘वसुदेव’ से आया है, जब किसी उपन्यास में अवतार के मानवीकरण का प्रयत्न त्याग कर कृष्ण को ‘अवतार’ के रूप में ही चित्रित किया गया है। समाज, राजनीति और अध्यात्म-तीनों को बटकर कथा की जो रस्सी बनाई गई है, उसका नाम है ‘वसुदेव’।

‘वसुदेव’ चरम जिजीविषा की कथा है, जो कष्ट देवकी और ‘वसुदेव’ ने सहे, संसार के इतिहास में उसकी कोई तुलना नहीं। स्वयं बन्दियों का जीवन व्यतीत करते हुए। उन्होंने अपने छ:-छ: पुत्रों की हत्या होते हुए देखी।
परिवार, समाज, शासन अथवा राज्य के बाहर कहीं से भी किसी प्रकार की सहायता की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही थी, किन्तु उनकी संघर्ष की ऊर्जा समाप्त नहीं हुई। कंस उनके साहस को पराजित नहीं कर सका। अपने सातवें पुत्र को इतने अद्भुत ढंग से बचा ले गए, जिसे हमारी कथाओं योगमाया की लीला ही माना जा सका। भक्ति के धरातल पर आस्था की यह कथा ही राजनीति के धरातल पर एक अत्यन्त दुष्ट और शक्तिशाली शासक के विरुद्ध स्वतंत्रता के संघर्ष की गाथा है। ‘वसुदेव’ के आरम्भिक संघर्ष के पश्चात् इस युद्ध को स्वयं कृष्ण लड़ते हैं और गोकुल से आरम्भ कर, मथुरा और द्वारका से होते हुए, कुरुक्षेत्र तक वे राक्षसों का वध करते हैं।

इस उपन्यास की कथा ‘वासुदेव’ की नहीं, बल्कि ‘वसुदेव’ की है। व्यक्ति के धरातल पर वह चरित्र की शुद्धता की ओर बढ़ रहे हैं, समाज के धरातल पर सारे प्रहार अपने वक्ष पर झेलकर जागृति का शंख फूंक रहे हैं और राजनीति के धरातल पर एक सच्चे क्षत्रिय के रूप में शस्त्रबद्ध हो सारी दुष्ट शक्तियों से लोहा ले रहे हैं। इसमें उपनिषदों का अद्वैत वेदान्त भी है, भागवत की लीला और भक्ति भी तथा महाभारत की राजनीति भी।
किन्तु नरेन्द्र कोहली कहीं नहीं भूलते कि यह कृति एक उपन्यास है। एक मौलिक सृजनात्मक उपन्यास। इस अद्भुत कथा में दुरूहता अथवा जटिलता नहीं है। यह आज का उपन्यास है। आप इसमें अपनी और अपने ही युग की अत्यन्त सरस कथा पाएंगे।

समर्पण

अगस्त्य के लिए सस्नेह
जिसने मुझे पूछा था कि
हम अकारण ही अपने आर्ष
गन्थों की प्रामाणिकता में
सन्देह क्यों करते हैं ?

वसुदेव


वसुदेव की आँखें फटी की फटी रह गईं।...
विदाई की घड़ी थी। देवकी की भाभियाँ और उनकी बहनें आँखों में अश्रु भरे, उन्हें घेर कर खड़ी थीं। देवक और उनके पुत्र अपने भावों में खोए, निकट ही खड़े थे। कंस देवकी को विदा करने के लिए, उन्हें रथारूढ़ होने में सहायता कर रहा था......अकस्मात् ही उसने न केवल देवकी को छोड़ दिया अपनी भुजाएं उनसे सर्वथा मुक्त कर लीं, वरन् पीछे हटकर उसने अपनी खड्ग, कोश से बाहर निकाल लिया।....खड्ग ? पर किसके लिए ? देवकी पर तो कोई संकट नहीं था।......अरे....लगा, जैसे वह देवकी का ही वध कर डालेगा।....जो कंस विवाह में अत्यन्त उत्साह से सम्मिलित ही नहीं हुआ था, एक प्रकार से सारे विवाह का प्रबन्ध और संचालन कर रहा था, वही कंस अकस्मात् राक्षस हो गया था।
देवकी की समझ में कुछ नहीं आया। स्तम्भित-सी खड़ी थीं। न वे कुछ सोच पा रही थीं; और न ही उनका शरीर ही हिल रहा था।......सारा शरीर सहसा जड़-सा हो गया था।

कंस के खड्ग को देख कर देवकी के भाई-बहन तथा संबंधी छिटक कर दूर चले गए थे। अब वे किसी के घेरे में नहीं थीं। वे और कंस आमने-सामने थे। कंस ने देवकी के केश पकड़ लिये थे।...यह सब-कुछ बहुत आकस्मिक था; किन्तु फिर भी संभले। वे देवकी को किसी सम्भावित आघात से बचाने के लिए, उनकी ढाल बन कर, उनके सम्मुख आ खड़े हुए थे।
‘‘क्या बात है मित्र ?’’ उन्होंने प्रयत्नपूर्वक स्वयं को नम्र बनाए रखा।
लगा, कंस एक भुजा से वसुदेव को परे धकेल कर दूसरे से देवकी पर प्रहार करने वाला है, किन्तु उसने ऐसा कुछ किया नहीं। कुछ कहा भी नहीं। वह भी जैसे किसी कारणवश स्तब्ध रह गया था। उसकी मुद्रा देखकर अगले ही क्षण ने अपना सम्बोधन बदल दिया, ‘‘क्या बात है महाराज !’’
कंस ने वसुदेव के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया। उसने अपने निकट खड़े, अपने मागध तान्त्रिक भविष्यवक्ता की ओर देखा।

भविष्यवक्ता ने जैसे स्वीकृति में अपना सिर हिलाया, ‘‘हां महाराज ! इसी स्त्री का.....’’ और फिर कुछ सोचकर उसने अपना वाक्य संशोधित कर दिया, ‘‘महाराज ! आपकी इसी भगिनी के आठवें गर्भ की सन्तान आपका वध करेगी।’’ वह जैसे स्वयं अपनी ही वीणा से डर गया था, ‘‘उससे आपके प्राणों को संकट है महाराज !’’
कंस का चेहरा भय से पीला पड़ गया था। उसके नेत्रों में भय की छाया थी। उसके मुख से कोई शब्द नहीं फूटा। लगा, वह अपने भय से लड़ रहा था। वह देवकी की ओर इस प्रकार देख रहा था, जैसे वह साक्षात् मृत्यु के दर्शन कर रहा हो.....उसने स्वयं को संभाला। अब वहां भय नहीं, भय की प्रतिक्रिया थी। उसने आक्रामक रूप धारण कर लिया था, ‘‘वध तो वह तब करेगा, जब उसका जन्म होगा। मैं देवकी का ही वध कर देता हूँ। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।’’
वसुदेव सब-कुछ समझ गए थे। परीक्षा का क्षण आ पहुँचा था।

उनकी मस्तिष्क पूरे वेग से दौड़ रहा था।.....विवाह में सम्मिलित ये सैकड़ों स्त्री-पुरुष अपनी खुली आँखों से देख रहे थे कि कंस अपनी निरपराध भगिनी की सार्वजनिक रूप से हत्या करने जा रहा था; किन्तु किसी के मन में उसके प्रतिहार और निराकरण का कोई विचार अंकुरित होता हुआ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कहीं कोई सहायता नहीं थी। किसी के मन में नहीं आया कि उसे हस्तक्षेप करना चाहिए। देवकी के पिता और कंस के चाचा, देवक, भी कुछ पीछे हट गए थे। चारों ओर पूर्ण जड़ता का साम्राज्य था। सबकी आँखों में भय और असहायता का भाव था।....ऐसा मथुरा में ही संभव था कि कोई व्यक्ति एक निरपराध स्त्री का सार्वजनिक रूप से वध कर दे और सैकड़ों नहीं, सहस्रों लोग उसके विरोधी होते हुए भी खड़े देखते रहें। योद्धाओं के खड्ग उनकी कटि से ही बंधे रहेंगे। वे कोश से बाहर नहीं निकलेंगे। वीरों की भुजाओं की मछलियां तड़प कर रह जाएंगी, पर उनकी भुजाएँ नहीं उठेगी। मथुरा में न्याय की ही नहीं, साहस की भी मृत्यु हो चुकी थी।....कदाचित् जन सामान्य के साहस के देहान्त पर ही राक्षसों के अन्याय का जन्म होता है।....

शासन के दंडधर, सैनिक, न्यायमूर्ति, दंडाधिकारी तो कुछ करेंगे ही नहीं, देवकी के पिता और भाई भी अपना हाथ नहीं उठाएंगे। हाथ...वे तो अपनी जिह्ना भी नहीं हिलाएंगे।....तो वसुदेव ही क्यों कुछ नहीं करते। मथुरा के धर्माधिकारी और सामान्य नागरिक के रूप में ही नहीं, पति के रूप में भी उन्हीं का दायित्व था कि वे अपनी पत्नी की रक्षा करते।....उनका हाथ अपने खड्ग की मूठ पर गया भी; किन्तु कुछ सोच कर वे थम गए।....यह ठीक है कि वे स्वयं अच्छे योद्धा थे। उनमें साहस का इतना अभाव भी नहीं था कि अपनी नवविवाहिता को इस प्रकार अपनी आँखों के सम्मुख कंस के खड्ग से कट जाने देते।....उनके चारों ओर वृष्णि वंश के वीर खड़े थे।

यदि वसुदेव साहस करेंगे तो सम्भवत: वे लोग भी उनकी सहायता को आ जाएं।.....पर वसुदेव भूल नहीं सकते कि ये ही लोग थे, जिनके सम्मुख कंस ने महाराज उग्रसेन को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया था। कोई नहीं आया था अपने राजा की सहायता के लिए-न मन्त्री, न सेनापति, न उनके भाई और न उनके जमाता।....और अब तो कंस की स्थिति अत्यन्त द्दढ़ हो चुकी है। कंस राजा है, उसकी अपनी सेना तो है ही, अनेक मगध वाहिनियां उसकी सहायता के लिए मथुरा के स्कन्धावार में सन्नद्ध खड़ी हैं। उसकी अंगरक्षक वाहिनी, निकट ही उपस्थित है। यहां वसुदेव को कुछ सफलता मिल भी गई, तो कंस की एक पुकार पर चेदि से मगध तक के राजा और उनकी सेनाएं मथुरा पर चढ़ दौड़ेगी।...यदि वसुदेव ने आज कंस के विरुद्ध अपना खड्ग उठाया, तो न वे जीवित बचेंगे, न देवकी। इतना ही क्यों- रोहिणी, मदिरा, भद्रा और उनकी अन्य पत्नियां भी नहीं बचेंगी। कंस उनके किसी भी पुत्र को जीवित नहीं छोड़ेगा......और वसुदेव के भाई ? किसी के भी जीवित रहने की आशा नहीं रहेगी।

‘‘पर वसुदेव मात्र एक योद्धा ही नहीं हैं।’’ वसुदेव के एक मन ने कहा, ‘‘वे मन्त्री भी हैं। कंस के मन में न जाने उनका कितना महत्त्व था, किन्तु वे उग्रसेन के प्रिय मन्त्री थे। वे अपनी बुद्धि से भी तो काम ले सकते हैं और राजा को मन्त्रणा दे सकते हैं....’’
‘‘महाराज ! जो अपराध अभी हुआ नहीं, उसके लिए एक आशंकित व्यक्ति के अनुमान मात्र से आप उस निरपराध स्त्री की हत्या करना चाहते हैं, जो आपकी भगिनी है।’’ वसुदेव बोले, ‘‘पहले अपराध होता है, फिर राजा उसके लिए दंड की घोषणा करते हैं।’’

कंस ने घूर कर वसुदेव को देखा : वे कंस का विरोध कर रहे थे। राजा का विरोध ? राजद्रोह ?....कंस का मन हुआ कि पहले वसुदेव का ही शीश उतार ले। कंस को राजद्रोही मन्त्रियों की आवश्यकता नहीं है।....उसका मन अपने शब्दों पर अटक गया।...हां ! वसुदेव उसका मन्त्री भी तो है....वह अपनी पत्नी के प्राणों की भिक्षा नहीं मांग रहा, वह उसको मन्त्रणा दे रहा है।

‘‘मैं एक अपराधी को उसके अपराध के लिए दंडित नहीं कर रहा।’’ कंस बोला, ‘‘मैं तो उनके प्राणों पर, अपने राज्य पर, होने वाले आक्रमण का निराकरण कर रहा हूँ। तुमने युद्धशास्त्र में कहीं यह लिखा हुआ पढ़ा है कि सूचना मिल जाने पर भी राजा शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा करे ? अपने शत्रु को वह उसके स्कन्धावार में ही समाप्त कर सकता हो, तो भी न करे। अपराध के लिए दंड देना न्यायाधिकरण का काम है; और अपनी तथा राज्य की रक्षा करना राजा का काम है। मैं राजा का ही काम कर रहा हूं। हटो मेरे सामने से।’’ कंस का हाथ वसुदेव को हटाने के लिए आगे बढ़ आया।
‘‘धैर्य धारण करें महाराज !’’ वसुदेव ने भयभीत न दिखने का प्रयत्न किया, ‘‘आक्रमण की तैयारी की सूचना पर आप शत्रु का स्कन्धावार ध्वस्त कर दें, कोई आपका विरोध नहीं करेगा; किन्तु किसी तान्त्रिक की यह भविष्यवाणी सुन कर कि भविष्य में दमघोष के वंश में कोई ऐसा जीव जन्म लेगा, जो आप पर आक्रमण करेगा, आप दमघोष का वध कर दें, यह तो राजधर्म न हुआ।’’

वसुदेव ने दमघोष का नाम जानबूझ कर लिया था। उसका कंस पर आपेक्षित प्रभाव हुआ था। वह दमघोष का वध कर देगा, ऐसा कहने से पहले उसे सहस्र बार सोचना पड़ता।
‘‘क्या आप विश्वासपूर्वक बता सकते हैं कि आपके मित्र राजाओं में से किसी का भी पुत्र अथवा पौत्र आपका शत्रु नहीं होगा ?’’ वसुदेव ने पुन: कहा, ‘‘राजनीति में क्या कभी कोई ऐसी संभावना होती है कि मित्र राजाओं के पुत्र भी मित्र ही रहें ? नहीं न !’’
‘‘नहीं।’’

‘‘तो आप किस-किस मित्र राजा का वध कर चुके ?’’
‘‘पर देवकी का आठवां पुत्र मेरा वध करेगा, यह निश्चित सूचना है।’’
वसुदेव समझ नहीं पाए कि कंस का भय प्रबलतर था अथवा क्रोध।
‘‘तो आप उसके आठवें पुत्र के जन्म लेते ही उसका वध कर दीजिएगा।’’
वसुदेव बोले, ‘‘आपको संकट देवकी के आठवें पुत्र से है, देवकी से तो नहीं।’’
देवकी कांप कर रह गई : वसुदेव किस सुविधा से अपने आठवें पुत्र के वध की बात कह रहे हैं।
कंस ने देवकी की ओर देखा; किन्तु बोला वसुदेव से ही, ‘‘मेरा अपना मन अपनी भगिनी के वध का नहीं है। मैंने इसे इसके शैशव से खेलाया है; किन्तु क्या जानता था कि इसी का पुत्र मेरा वध करेगा।’’

‘‘यह भी कहां जानती है कि आपका वध इसके पुत्र के हाथों होगा।’’ वसुदेव ने मुस्कारने का प्रयत्न किया, ‘‘यह तो केवल आपका मागध तान्त्रिक ही जानता है। यह भी कितना जानता है, मुझे मालूम नहीं। क्या इसके गणित अथवा लक्षणों की पहचान में त्रुटि नहीं हो सकती ?’’
‘‘मैं अब इस संशय में नहीं पड़ना चाहता कि कौन कितना जानता है।’’ कंस बोला, ‘‘मैं अपने प्राणों की रक्षा में कोई ढील नहीं छोड़ना चाहता। फिर संख्या के अनुमान में कहीं कोई विवाद अथवा भ्रम भी हो सकता है। यदि तुम वचन दो वसुदेव ! कि तुम देवकी कि प्रत्येक सन्तान को, जन्म लेते ही मुझे सौंप दोगे तो मैं तुम्हारी नवविवाहिता को यह मान कर जीवित छोड़ सकता हूं कि इसके मन में तो मेरे प्रति कोई शत्रु-भाव नहीं है। देवकी को मैं जानता हूँ।.....’’


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