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बुद्धि बनाम बहुमत

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5419
आईएसबीएन :0000

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एक विवेचनात्मक कथन...

Buddhi Banam Bahumat a hindi book by Gurudutt - बुद्धि बनाम बहुमत - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

श्री गुरुदत्त जी ने पिछले 60 वर्षों से देश की राजनीति का गम्भीर अध्ययन किया है और लगभग 15 वर्ष तक सक्रिय राजनीति में भाग लिया है। राजनीति के गहन अध्ययन का परिचय हमें उनकी रचनाओं में मिलता है।
आज देश की राजनीति कितनी ओछी हो चुकी है, यह पाठकों को बताने की आवश्यकता नहीं रही। समाचार-पत्र इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और यह भी तथ्य है कि सभी राजनातिक दल इसमें दोषी हैं।

देश का दुभार्ग्य है कि हमारे शासकों ने समाजवाद तथा सेक्यूलरिज़्म ये दो रोग समाज को लगा दिये हैं। लेखक का दृढ़ मत है कि ये दोनों रोग समाजरूपी शरीर को दीन-हीन बनाकर ही छोड़ेंगे। समाज इन दो (समाजवाद तथा सेक्यूलरिज़्म) चक्कों की गाड़ी में सवार हो तीव्रगति से पतन की खड्ड में लुढ़कता जा रहा है।
इन दो वादों ने आज के राजनीतिज्ञों की बुद्धि इतनी भ्रष्ट कर दी है कि वे विचार तक नहीं कर सकते कि वे क्या कह रहे हैं, क्या कर रहे है तथा किस ओर जा रहे हैं।
लेखक ने अपनी इस रचना में इस सबका यूक्ति-यूक्त विश्लेषण प्रस्तुत किया है तथा एक दिशा प्रदान करने का यत्न किया है। आशा है बुद्धिशील पाठक वर्ग इससे लाभान्वित होगा।

भूमिका

एक बार सुप्रसिद्ध नेता लाला लाजपतराय महात्मा गांधी का विरोध करने चल पड़े थे। यह सन् 1921 की बात है। कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन नागपुर में हो रहा था। इस अधिवेशन में गांधीजी न-मिलवर्तन का प्रस्ताव उपस्थित करने वाले थे। कांग्रेस के प्रायः नेता भी लालाजी के साथ गांधीजी के प्रस्ताव का विरोध करना चाहते थे।
परन्तु नागपुर में जनता का उबाल देख, प्रायः नेता अपने विचार से डोल गये। वे अपनी ख्याति को भय में देख गांधीजी का विरोध करने के स्थान पर उनका समर्थन ही करने लगे थे।
यही है दोष वर्तमान डिमोक्रेसी में। नेतागण जो अपनी नेतागीरी की लालसा में लीन होते हैं, जन-प्रवाह में बह जाते हैं।
लाला लाजपतराय भी अपनी विचारित बात को छोड़ गांधीजी का समर्थन करने लगे थे।
पीछे अगणित लोग पकड़े गये और फिर गांधीजी ने अपना आन्दोलन वापस ले लिया। तब जाकर नेताओं की आँखें खुलीं।
परन्तु सत्य तक न पहुँच सकने के कारण नेतागण फिर वही भूल सन् 1931 में कर बैठे।
हम समझते हैं कि सामान्य जनता की वाह-वाह की इच्छा करने वाले सदा ठोकर खाते हैं और जनता की वाह-वाह की इच्छा करने वाले ऐसे नेताओं की भीड़ में, भले लोगों की कोई सुनता नहीं।
बहुमत प्रायः अशुद्ध होता है और वर्तमान संसदीय प्रजातंत्र पद्धति में प्रायः वाह-वाह के भूखे ही आगे आते हैं। वे लाखों व्यय करते हैं, नेता बनते हैं और फिर आने वाले निर्वाचनों में व्यय करने के लिए लाखों एकत्रित करने में लग जाते हैं।
अतः वर्तमान राजनीति की समस्या ही है बहुमत अथवा बुद्धिवाद। किसका अनुकरण करें ?
इसके विषय में ही कुछ विचार देने के लिए यह पुस्तक लिखी है। आशा है पाठकों का कुछ तो लाभ होगा। यही कामना है-‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय

30 जून, 1979
18/28 पंजाबी बाग,
नई दिल्ली-110026

गुरुदत्त

प्रथम खण्ड

1

बुद्धि-1

उपनिषदों में एक कथा कही है। कथा इस प्रकार है-
एक बार इन्द्रियों में विवाद उत्पन्न हो गया। सब कहने लगीं, हम सर्वश्रेष्ठ हैं।
जब वे परस्पर निश्चय नहीं कर सकीं कि कौन सर्वश्रेष्ठ हैं तो वे प्रजापति के समक्ष आकर कहने लगीं कि बताएं कि उनमें से कौन सर्व श्रेष्ठ है ?
प्रजापति ने एक सुझाव दिया। उसने कहा, तुम में प्रत्येक पृथक्-पृथक् कुछ काल के लिए शरीर छोड़कर देखो कि तुम्हारे बिना शरीर कार्य करता है अथवा नहीं। जिसके शरीर छोड़ने से शरीर का कार्य न चल सके, वह सर्वश्रेष्ठ है।
इन्द्रियों ने प्रजापति की सम्मति पर व्यवहार किया। पहले आँख ने शरीर को एक मास के लिए छोड़ा। एक मास के उपरान्त वह लौटी और देखने लगी कि शरीर का कार्य कैसे चलता रहा है।
शरीर का कार्य एक अन्धे व्यक्ति के समान चल रहा था। इसके उपरान्त कर्ण-इन्द्रिय ने शरीर को छोड़ा। उसके बिना बहरे व्यक्ति की भाँति कार्य चलता रहा। इस प्रकार एक-एक कर सब इन्द्रियाँ शरीर का कार्य छोड़कर लौट आयीं और उन्होंने देखा कि उनके बिना भी शरीर का कार्य चलता रहा है, यद्यपि कार्य में दोष और कठिनाई हुई थी।
परन्तु महाप्राण जब शरीर को छोड़ने लगा तो शरीर ठंडा पड़ने लगा और वह मरणासन्न प्रतीत होने लगा। अन्य सब इन्द्रियाँ भी शिथिल होने लगीं। इस प्रकार निश्चय हो गया कि महाप्राण सर्वश्रेष्ठ इन्द्रिय है। महाप्राण शरीर में वह शक्ति है जिससे शरीर के आभ्यन्तरिक यंत्र कार्य करते हैं। उदाहरण के रूप में हृदय, जो रक्त-संचालन का कार्य करता है, वह महाप्राण के आश्रय ही करता है। यह दिन-रात जन्म से मरणपर्यन्त कार्य करता है।
इसी प्रकार भोजन के गले से उतरते ही आगे और आगे धकेलने वाली शक्ति महाप्राण है। इसी के कारण भोजन पेट में पहुँचता है, मल-मूत्र और शरीर के अन्य रस गति करते हैं। मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, महाप्राण अपना कार्य करता रहता है।
यह कहते हैं कि शरीर के मस्तिष्क में बैठा परमात्मा सब कार्य कर रहा है। परमात्मा का कार्य रोका जा सकता है, जब गोली मारकर प्राण की हत्या कर दी जाये। अथवा विष खाकर या कुतुबमीनार से कूद कर, या अन्य किसी प्रकार से इस महाप्राण को शरीर से निकाल दिया जाये।
इसी कथन का वर्णन एक अन्य प्रकार से भी किया जाता है। मनुष्य शरीर में एक शक्ति है जो किसी भी कार्य को करने के अथवा न करने में प्रेरित करती है। उदाहरण के रूप में एक मनुष्य प्रातः उठ भ्रमण के लिए निकलता है। वह कनाट प्लेट में मकान से निकल विचार करने लगता है कि किस ओर जाये ? इण्डिया गेट की ओर घूमने जाये अथवा लक्ष्मीनारायण मन्दिर के पीछे पहाड़ी पर घूमने जाये। वह विचार करने लगता है कि पहाड़ी पर जाएगा तो लौटते हुए मार्केट से घर के लिए साग-भाजी भी ला सकेगा। यदि वह इण्डिया गेट की ओर जायेगा तो उधर से लौटते हुए साग-भाजी नहीं ला सकेगा।
यह विचार शरीर का कौन-सा अंग करता है ? टाँगें जो भ्रमण करने में सबसे अधिक प्रयोग होने वाली हैं, नहीं करतीं। हाथ, आँख, कान इत्यादि भी विचार नहीं करते। जो भी अंग यह काम करता है, उसका नाम बुद्घि है।
सांख्दर्शन में कहा है-


अध्यवसायो बुद्धिः।
तत्कार्य धर्मादि।।-2-13,14

इन सूत्रों का अभिप्राय है कि निश्चय करने का नाम बुद्धि का है और वह निश्चय करती है करणीय तथा अकरणीय में।
एक अन्य उदाहरण लिया जा सकता है। एक मनुष्य हलवाई की दुकान के सामने से गुजरता है। यह दुकान पर लगी भिन्न-भिन्न प्रकार की मिठाईयाँ देखकर इच्छा करता है कि इनको खाना चाहिए। परन्तु वह हलवाई की दुकान की ओर जाने से पूर्व विचार करता है कि मिठाई खरीदने के लिए जेब में मूल्य है अथवा नहीं। वह जेब में हाथ डालकर देखता है अथवा स्मरण करता है कि वह घर से चलते समय अपना पर्स साथ लाया था अथवा नहीं।
जब धन का जेब में होने का पता मिल जाता है, तब वह विचार करता है कि वह अस्वस्थ है और इस अवस्था में मिठाई खाने से हानि हो सकती है। इस कारण वह निश्चय करता है कि आज मिठाई नहीं खायेगा।
यह निश्चय आँखें नहीं करतीं। मुख में रसना-इन्द्रिय भी नहीं करती। इसका निश्चय करने का एक यंत्र मनुष्य में मस्तिष्क में होता है, वह भी यह कहता है। इसे बुद्धि कहते हैं। आँख, नाक, कान, इत्यादि इन्द्रियाँ केवल कार्य करती हैं। शरीर में कार्य करने के यंत्रों को करण कहते हैं। करण तेरह हैं। पाँच कर्मेंन्द्रियाँ, ग्यारहवीं आभ्यन्तरिक इन्द्रिय, बारहवां मन तथा तेरहवीं बुद्धि।
उपनिषद् की कथा में विवाद था शरीर को चालू रखने वाली इन्द्रियों में। उस विवाद में प्रजापति के निर्णय के अनुसार यह निश्चय हुआ था कि महाप्राण जो शरीर के भीतरी अंगों को चलाता है, सर्वश्रेष्ठ है।
यहाँ विवाद शरीर के अपने जीवित रहने का नहीं है वरन् शरीर के कार्य को दिशा देने का है। किस दिशा में कार्य किया जाये, यह कौन निश्चय करता है ?
बताया है कि शरीर में कार्य करने के करण तेरह हैं। इन तेरह में ग्यारह इन्द्रियाँ हैं और बारहवाँ मन तथा तेरहवीं बुद्धि है।
इन्द्रियाँ देखती हैं, सुनती हैं, चखती हैं, सूंघती इत्यादि हैं। मन इनसे प्राप्त ज्ञान को संचय करता है। बुद्धि निश्चय करती है कि अमुक कार्य वर्तमान परिस्थितियों में करना ठीक है अथवा नहीं। अन्तिम आज्ञा देने वाला जीवात्मा है।
यदि इन्द्रियों में दोष हो तो मन और बुद्धि के कार्य में बाधा पड़ जाती है।
उदाहरण के रूप में हमारी आँख पर काला चश्मा चढ़ा हुआ है। हम श्वेत वस्त्र खरीदने जाते हैं।, काले चश्में से श्वेत वस्त्र भी काला दिखाई देता है। इस कारण मन, बुद्धि और जीवात्मा ठीक कार्य तब तक ही कर सकते हैं जब इन्द्रियाँ ठीक-ठीक ज्ञान दें।
इन्द्रियाँ ठीक ज्ञान दें, तब ही तो पूर्व के ज्ञान से तुलना की जा सकती है। यह पूर्व का ज्ञान मन में संचित रहता है। किसी की पत्नी ने कहा, मेरे लिए हरे रंग की मखमल दो गज ले आओ।
वह व्यक्ति विचार करता है ‘हरा’ क्या होता है ? उसका मन कहता है वृक्ष के पत्तों का रंग हरा कहाता है। दूसरा प्रश्न उत्पन्न होता है मखमल क्या होती है ? मन ने बताया मुलायम बूरदार कपड़ा मखमल कहलाता है, जैसा पड़ोसी की लड़की के कुर्तें का है।, ये दोनों बातें पूर्व ज्ञान से मन ने बतायीं। इस ज्ञान के आधार पर जब वह कपड़े वाले की दुकान पर जाता है और मांग करता है कि हरे रंग की मखमल दिखाए तो दुकानदार तीन चार प्रकार की हरी मखमल दिखा देता है। देखने में हरे रंग की है। स्पर्श पर देखनें में एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी बढ़िया प्रतीत होती है। अब ग्राहक के समक्ष प्रश्न उपस्थित होता है कि कौन–सी ले ? वह जेब में दाम देखता है। वैसे भी वह अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिये विचार करता है कि कौन-सी ले जिससे वह प्रसन्न होगी। इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर उसकी बुद्धि देती है।
अतः मनुष्य को कार्य की दिशा बताने वाला एक यंत्र मनुष्य के मस्तिष्क में रहता है, उसका नाम बुद्धि रखा गया है।
यह यंत्र कार्य करता है इन्द्रियों से प्रात्त ज्ञान के आधार पर तथा मन पर अंकित पूर्व के ज्ञान से उस ज्ञान की तुलना कर।
उदाहरण के रूप में एक व्यक्ति बाजार आम खरीदने जा रहा है। एक जानकार व्यक्ति उसे कहता है कि लखनऊ के दशहरी आम लाना। उस व्यक्ति ने पहले कभी दशहरी आम देखा नहीं। इससे वह दुकान पर पहुँच पहिचान नहीं सकता कि दशहरी आम कौन से हैं और कौन से दशहरी नहीं हैं। वह दुकानदार से पूछता है। दुकानदार यदि चाहे तो घटिया आम भी दे सकता है।
इस कारण कार्य की दिशा निश्चय करने में जहाँ इन्द्रियाँ सहायक होती हैं, वहाँ मन भी सहायक होता है। यदि उस व्यक्ति ने पहले दशहरी आम देखा होगा, तो वह उसकी सूरत-शकल, उसकी गंध और स्वाद को जान पूर्व देखे तथा चखे से उसकी तुलना कर समझ सकता है कि कौन से आम दशहरी हैं।
तदन्तर बुद्धि की राय जानकर जीवात्मा निश्चय करता है कि वह खरीदे अथवा न ?
जीवात्मा, मन पर संचित पूर्व ज्ञान से तुलना कर, बुद्घि को सम्मति से आज्ञा देता है कि कपड़ा, मखमल अथवा आम खरीदे अथवा न।
अतएव जब कार्य करने क समय आता है तो ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि द्वारा निश्चित किया गया कार्य कर्मेंन्द्रियों से होने लगता है।
इन तेरह करणों में पाँच कर्मेंन्द्रियाँ तो शरीर के कार्य में आवश्यक होती हुई भी सम्मति नहीं देतीं अथवा कार्य में हाँ अथवा न करने में कुछ अधिकार नहीं रखतीं। शेष रह गयीं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, आभ्यन्तरिक इन्द्रिय और मन। ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान लाती हैं। आभ्यन्तरिक इन्द्रिय तो संयोग-स्थान है। मन ज्ञान का संचय स्थान है।
अतः निर्णय करने वाला यन्त्र बुद्धि ही है और उसके बिना कार्य की दिशा ठीक नहीं बनती।
ज्ञानेन्द्रियों का काम है, घट रही घटनाओं की सूचना लाना मात्र और मन तो एक प्रकार का पूर्ण ज्ञान का संचय स्थान है। इसे अँग्रेजी में ‘रिकार्ड रूम’ कहा जाता है। प्राप्त ज्ञान की पूर्व उपस्थिति ज्ञान से तुलना और उस पर निश्चय कि कौन कार्य ठीक है, जो यन्त्र करता है, वह बुद्धि है। वह अपनी सम्मति जीवात्मा को देती है तब जीवात्मा कार्य करता है।

2


बुद्धि-2

ऊपर हमने यह बताया है कि शरीर का सर्वश्रेष्ठ आधार महाप्राण है। महाप्राण शरीर के आत्म-तत्त्व के आधीन नहीं। मनुष्य जब सो जाता है, शरीर के सब कार्य करने वाले अंग काम बन्द कर आराम करने लगते हैं। जीवात्मा सुषुप्ति अवस्था में क्या करता है, ज्ञात नहीं। इसके लिंग (चिह्न) जिनसे जीवात्मा के अस्तित्व का पता चलता है, वे एक सोये हुए शरीर में दिखाई नहीं देते।
न्यायदर्शन में आत्मा के लिंग इस प्रकार वर्णन किये हैं-

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिग्ड़म्।। -1-1-10

अर्थ-आत्मा के लिंग हैं इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और चेतना। किसी वस्तु का लिंग वह लक्षण है जो किसी अन्य में न पाया जाता हो और जिसमें वह दूसरे से पृथक् पहिचाना जा सके। अर्थात् जिस किसी में भी इच्छा होगी, उसमें आत्म-तत्त्व का होना समझा जायेगा। जिस पदार्थ में प्रतिकूल परिस्थिति का विरोध दिखाई दे, वह आत्म-तत्त्व है। इसी प्रकार अन्य लिंगों के विषय में कहा जा सकता है।
प्राणी के सो जाने पर ये छयों लिंग-इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, प्रयत्न और चेतना नहीं रहते। इसका अभिप्राय यह है कि सोये प्राणी में जीवात्मा सक्रिय नहीं होता।

जीवात्मा उसमें रहता तो है। यह इस प्रकार जाना जा सकता हैं कि मृत शव में और सोये शरीर में अन्तर होता है। दोनों में जीवात्मा के छयों लिंगों का आभाव दिखाई देता है। केवल वे कार्य नहीं होते जो आत्मा के लिंग हैं। और फिर मनुष्य के जागने पर आत्मा के लिंग पुनः कार्य करने लगते हैं।
परन्तु मृत प्राणी में न तो महाप्राण रहता है, न आत्मा के लिंग। दर्शानाचार्य इसका अभिप्राय यह बताते है कि जीवित और जाग्रत प्राणी में दो आत्म-तत्त्व कार्य करते है। एक को जीवात्मा कहते है और दूसरे को परमात्मा कहते हैं।
इस विषय में ब्रह्मसूत्र में कहा है

गुहां प्रविष्टावाकत्मानौ हि तद्दर्शनात्।। -ब्रह्मसूत्र 1-2-11

अर्थ-गुहा (बहुत छोटे से रिक्तस्थान) में दो आत्म तत्त्व के देखे जाने से (यह ऊपर कही बात सिद्ध होती है)।
अभिप्राय यह है कि शरीर के एक छोटे से रिक्त स्थान में दो आत्म तत्त्व देखे जाते हैं, ऊपर कहे लक्षणों से।

इस प्रकार छः लिंगों वाला आत्म-तत्त्व शरीर में रहता है। इन छः लक्षणों से यह सिद्ध होता है कि यह आत्म-तत्त्व शरीर में आज्ञा देने वाला है, परन्तु करणीय और अकरणीय के विषय में बताने वाली तो ज्ञान-इन्द्रियाँ मन तथा बुद्धि हैं। इनमें सहाय से ही ‘हाँ’ अथवा ‘न’ का निर्णय होता है।
उसके विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण है।
दो व्यक्ति हैं। एक को पीलिया का रोग है और दूसरा स्वस्थ है। पीलिया के रोगी को, आँख के गोलक में विकार आ जाने के कारण, सब वस्तुएँ पीली ही दिखाई देती हैं और स्वस्थ मनुष्य को वस्तुओं के स्वाभाविक रंग दिखाई देते हैं। पीलिये का रोगी पीले रंग की वस्तु को श्वेत से पृथक करना चाहे तो नहीं कर सकेगा। वह चुनने के समय पीले और श्वेत में ‘हाँ अथवा न’ नहीं कर सकता। रंग चुनने में आँख ही सहायक होती है और आँख विकृत हो जाये अथवा न रहे तो रंगों में पहिचान नहीं हो सकती। यही बात कर्णादि अन्य ज्ञानेन्द्रियों की है। ये सभी इन्द्रियाँ बुद्धि के ‘हाँ’ अथवा ‘न’ करने में सहायक होती हैं।

इसी प्रकार मन भी किसी कार्य में ‘हाँ’ अथवा ‘न’ करने में सहायक होता है। यह इस प्रकार कि बुद्धि जब भी किसी कार्य के विषय में निर्णय लेने लगती है तो पूर्व वैसी ही वस्तु अथवा कार्य के परिणाम को स्मरण कर ही निर्णय लेती है। मन स्मृति-यंत्र है।

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