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प्रतिशोध

विनायक दामोदर सावरकर

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5420
आईएसबीएन :0000

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मराठी नाटक उत्तर-क्रिया का हिन्दी अनुदित संस्करण...

PratiShodh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिशोध ! प्रतिशोध आक्रमणदग्ध राष्ट्र का जीवनबिन्दु है। प्रतिशोध राष्ट्र की अमरता की संजीवनी है। प्रतिशोध पौरुष का लक्ष्ण है। प्रतिशोध से भय खाने वाला राष्ट्र टिक नहीं सकता। थोथे, कल्पनारम्य सिद्धान्तों के भ्रमजाल में पड़कर प्रतिशोध से घृणा करने वाला राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता। प्रतिशोध की भावना से रहित होने वाला राष्ट्र पौरुषहीन होता है। इतिहास साक्षी है। गत एक हजार वर्षों के पश्चात इस्लामी एवं ईसाई राष्ट्र भारत पर आक्रमण करते आये हैं। उन आक्रमणों के समय-समय पर यथाशक्ति प्रत्युत्तर भी दिया गया है। तथापि, वास्तविकता यह है कि, हम आक्रमित रहे हैं और हैं भी। निश्चित ही राष्ट्र के लिए यह लज्जा की बात है।

प्राक्कथन

प्रतिशोध ! प्रतिशोध आक्रमणदग्ध राष्ट्र का जीवन बिन्दु हैं। प्रतिशोध राष्ट्र की अमरता की संजीवनी है। प्रतिशोध पौरुष का लक्ष्ण है। प्रतिशोध से भय खाने वाला राष्ट्र टिक नहीं सकता। थोथे, कल्पनारम्य सिद्धान्तों के भ्रमजाल में पड़कर प्रतिशोध से घृणा करने वाला राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता। प्रतिशोध की भावना से रहित होने वाला राष्ट्र पौरुषहीन होता है। इतिहास साक्षी है। गत एक हजार वर्षों के पश्चात इस्लामी एवं ईसाई राष्ट्र भारत पर आक्रमण करते आये हैं। उन आक्रमणों के समय-समय पर यथाशक्ति प्रत्युत्तर भी दिया गया है। तथापि, वास्तविकता यह है कि, हम आक्रमित रहे हैं और हैं भी। निश्चित ही राष्ट्र के लिए यह लज्जा की बात है। परन्तु उसके साथ यह भी उतना ही सत्य है कि हम मरे नहीं हैं। संसार के इतिहास पटल से ही नहीं तो भूपटल से हमें नामशेष करने के आक्रान्ताओं के प्रबल प्रयास विफल रहे हैं।

 और इसका श्रेय उन अगणित वीरों को है, जिन का साहस पराजय के उपरान्त भी परास्त नहीं हुआ और जिन्होंने पराजय की पीड़ा को अपने हृदय में पाल कर प्रतिशोध की अग्नि का प्रसवन किया, प्रसरण किया। यदि समय समय पर इन वीरों का अवतरण न होता तो निश्चय ही भारत, इतिहास के पृष्ठों पर उर्वरित रहता। हिन्दू सम्राट चन्द्रगुप्त से लेकर क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर तक के ही नहीं अपितु उसके पूर्ववर्ती एवं परवर्ती अनेक सम्राटों ने, सेनानियों ने, सैनिकों ने, क्रान्तिकारियों ने, देशभक्तों ने प्रतिशोध की अग्नि को एक पल भी बुझने नहीं दिया और उसी के परिणामस्वरूप पराजित भारत अवसर आते ही अपनी शक्ति को पुनः संजोकर, विलम्ब से क्यों न हो, पर शत्रु पर टूट पड़ता था और अपने गत पराजय का प्रतिशोध लेने में न चूकता था।
इस प्रकार पराजय का प्रत्येक इतिहास प्रतिशोध को जन्म देता था और फिर प्रतिशोध से विजय का नूतन इतिहास निर्मित होता था।


प्रतिशोध एक दर्शन है


‘प्रतिशोध’ इतिहास के ऐसे ही एक प्रसंग पर आधारित नाटक है। और उसके प्रतिभावान लेखक हैं वीर सावरकर। वे सावरकर जो प्रतिशोध को केवल एक मानसिक अवस्था में ही नहीं मानते उसे एक साक्षात् दर्शन मानते हैं और अपने इन विचारों को उन्होंने ‘शस्त्र और शास्त्र’ नामक नाटक के अन्त में बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रतिशोध के हेतु ही उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की, ठीक शत्रु के शिविर बरतानिया में प्रत्याक्रमण किया और इसी के फलस्वरूप दूर अन्दमान में दो जीवन के बन्दीवास की अकल्पित स्थिति का अनुभव लेने प्रविष्ट हुए।

और तदुपरान्त रतनागिरी की स्थानबद्धता में माँ-भारती की सेवा में लेखनी से करबद्ध रहे। रत्नागिरी की श्रृंखलाओं से इस रत्नाकर को आंग्ल-शासन ने जब आबद्ध किया, तब उस विपरीत स्थिति से लाभ उठाकर इसने अनेकानेक साहित्य-रत्न इस राष्ट्र को दिये। उसी प्रवसन में 1933 की जुलाई में ‘प्रतिशोध’ का प्रणयन हुआ और महाराष्ट्र की प्रसिद्ध ‘भारत भूषण नाटक मण्डली’ ने इस नाटक को बड़े सज-धज के साथ एक सफलता के रंगमञ्च पर प्रस्तुत किया।


कथानक के विषय में



प्रतिशोध की भावना से पागल एक पगली के हो हल्ले में ही नाटक प्रारम्भ होता है। प्रसाद के प्रांगण में खड़े प्रजाहितदक्ष पेशवा माधवराव पगली की व्यथा से आन्दोलित हो उठते हैं। उनके हृदय में भी ठीक वही व्यथा होती है—पानीपत की पराजय की। वे पानीपत के प्रतिशोध का निश्चय प्रकट कर पगली को आश्वस्त करते हैं। उधर मरहटों की प्रतिशोध की प्रतिज्ञा का समाचार पाकर पानी पत विजेता अहमदशाह अब्दाली चिन्तित हो उठता है और कोई अन्य मार्ग उपयुक्त न समझ कर केवल धौंस-डपट से मरहटों को उनके निश्चय से डिगाने की सोच वह अपने वकील को पेशवा के दरबार में भेजता है। पर माधवराव पेशवा के दृढ़ निश्चय से उसकी युक्ति व्यर्थ सिद्ध होती है। इस प्रसंग में अब्दाली के वकील के साथ हुई चर्चा का निमित्त लेकर लेखक ने महादजी सिंधिया के मुख से युद्ध एवं लड़ाई का अन्तर स्पष्ट कर इतिहास लेखकों द्वारा दोहराई जाने वाली महान भूल को दर्शाया है।

प्रतिशोध से लालायित मरहटों का सेनासागर अब हरहरमहादेव की रण गर्जना के साथ ही इस्लामी शासकों के द्वारा शासित उत्तर-भारत की ओर प्रस्थान करता है, बुन्देलखण्ड के विद्रोहियों का और फिर जाटों का दमन कर, वह दिल्ली दोआब की ओर बढ़ता है। उधर इलाहाबाद में अंग्रेज वकील मुगल बादशाह शाहआलम को मरहटों के विरुद्ध भड़काते हैं। पर पेशवा के एक प्रमुख सरदार यशवन्तराव उसे पूर्णतः विफल कर देते हैं और बादशाह मरहटों से मैत्री की याचना करते हैं। हिन्दू सेना अब पत्थर-गढ़ को अपना लक्ष्य बनाती है। इसी पत्थरगढ़ में वीर यशवन्तराव की प्रथम पत्नी सुनीति किलेदार सादुल्लाखान द्वारा बलपूर्वक अपहृत कर रखी होती है। उसका ज्वलन्त राष्ट्र प्रेम उसे चैन से बैठने नहीं देता, अतः मरहटों के उत्तर आक्रमण का समाचार पा कर वह गुप्त रूप से उनसे सम्बन्ध स्थापित करती है।

परिणामस्वरूप, सेनापति यशवन्तराव, उनकी प्रथम पत्नी सुनीति (सरदार) तथा द्वितीय पत्नी (रुषिकुमार) इनमें एक षड्यन्त्र रचा जाता है, जिसके कार्यान्वयन में पगली सुनीति एवं सुशीला की माँ का भी पूर्ण सहयोग होता है। षड्यन्त्र की योजना के अनुसार पत्थरगढ़ के बारूदखाने में विस्फोट किया जाता है, उसकी अग्निशिखाओं में विजयोन्माद से मस्त हुई राष्ट्रभक्त पगली स्वयं को समर्पित कर देती है। घमासान युद्ध होता है, रोहिले भाग खड़े होते हैं। पत्थरगढ़ पर हिन्दुओं का अधिकार हो जाता है, वीरांगना सुनीति लड़ते लड़ते घायल हो जाती है। हिन्दु-सरसेनापति अन्त्यवस्थ सुनीति को राष्ट्रीय सम्मान देते हैं उधर पूना के शनिवारबाड़े में पेशवा माधवराव कर्तव्यपूर्ति के आनन्द में वीरों को बधाइयां देते हैं। और इस प्रकार 1761 में पानीपत की पराजय के प्रतिशोध का कर्तव्यकर्म एक दशाद्रि में पूर्ण कर 1771 में उत्तर हिन्दुस्थान की स्लामी राजसत्ता को नामशेष किया जाता है।

‘प्रतिशोध’ का मूल कथानक मरहटों का उत्तर विजय पर आधारित है, परन्तु उसके साथ ही विदेश से वापस आये वीरवर यशवन्तराव के माध्यम से लेखक ने सिन्धुबन्दी एवं रोटी बन्दी जैसी भ्रामक कल्पनाओं को निर्मूल सिद्ध किया है, साथ ही सादुल्लाखान द्वारा बलपूर्वक अपहृत प्रथम पत्नी सुनीति का सम्मान स्वीकार करने का आदेश प्रस्तुत कर, शुद्धि-आंदोलन का महत्व भी प्रतिपादित किया है। वैसे ही कोंडण्णा और घोंडण्णा के रूप में समाज में होने वाली स्वार्थी, भीरु तथा नीच तत्वों को चित्रित कर, उनके पापों का कठोर प्रायश्चित भी दर्शाया है।

‘प्रतिशोध’ के संकल्प से प्रारम्भ होने वाला यह नाटक प्रतिपल प्रतिशोध की महत्ता का दर्शन कराता हुआ प्रतिशोध की संकल्पपूर्ति करते हुए समाप्त होता है, परन्तु पाठकों एवं दर्शकों के लिए प्रतिशोध का यह उपदेशादेश सदा के लिए छोड़ जाता है, जो हिन्दूराष्ट्र के अमरता की संजीवनी है।

पात्र-परिचय


पुरुष-पात्र


माधवराव                 छत्रपति के पेशवा
बिनीवाले                      मरहटा सरदार
महादजी सिंधिया           मरहटा सरदार
तुकोजीराव होलकर           मरहटा सरदार
फडनवीस                  पेशवा के अर्थमन्त्री
यशवंतराव                  मरहटा सरदार
शास्त्री जी                  राजोपाध्याय
कोंडण्णा                  शनिवारबाड़े के ज्योतिषी
घोंडण्णा                  शनिवारबाड़े का पुजारी फिर
                              चढ़ाई के प्रमुख रसोइया
नवलसिंह                  जाट राजा
रूसी कुमार                  पुरुष वेश में सुशीला
सरदार                    पुरुष वेश में सुनीति
शाहआलम                  दिल्ली का बादशाह
नजीबखान                  रोहिला सरदार
हाफिजरहमत                 रोहिला सरदार
सादुल्लाखान              रोहिला सरदार
फौलादखान                  रोहिला सरदार
अहमदखान बंगश             पठान सरदार
अंग्रेज वकील              अंग्रेज सरकार का वकील
तथा
पहरेदार, चोबदार, जमादार, हिन्दू तथा मुसलमान सैनिक, जाट, डोंडी पीटनेवाले मुसलमान आदि।


स्त्री-पात्र



सुनीति                 रावराजा यशवंतराव की प्रथम पत्नी
                          फिर सादुल्लाखान की बलात् बनायी                      
                         पत्नी-सोनपती।
सुशीला               रावराजा यशवंतराव की द्वितीय पत्नी
पागलस्त्री               सुनीति  और सुशीला की मां
नन्दिनी                 सुशीला की दासी
बीबी अम्मा            रोहिला सरदार ज़ाबेदख़ान की पत्नी
अम्मा                      सोनपती की दासी


एक अंक

पहला दृश्य


(स्थान माधवराव पेशवा ‘प्रथम’ बाड़े के आंगन में खड़े हैं। इतने में ही बाहर कोलाहल सुनाई देता है।)
माधवराव—पहरेदार, द्वार के बाहर यह कोलाहल किस बात का हो रहा है ?
पहरेदार—कुछ विशेष बात नहीं, सरकार ! एक पागल स्त्री पिछले चार-पांच दिनों से आती है और भिक्षा देने पर भी नहीं लेती हुई अन्दर आने के लिए हठ करती है। आते-जाते बालक उसको चिढ़ाते हुए हंसते-किलकते रहते हैं। बस इतनी सी बात है सरकार !

माधवराव—तो क्या भिक्षा देने पर भी न लेती हुई वह बाड़े में ही घुसना चाहती है ? आखिर वह कहना क्या चाहती है ?
पहरेदार—सरकार वह तो पागल है ! बड़बड़ाती रहती है—पूंछती है ‘‘इस शनिवारबाड़े का स्वामी कौन है, मैं उसे चाहती हूं ? ईश्वर ने स्वप्न में आकर मुझसे कहा है कि उसकी एक बार जरा अच्छी सी सुना ?’’ ऐसा कहते हुए हंसती है, रोती है और चीखती भी है। वह कहां से आयी है, कहां जाने वाली है, किसकी कौन है, इसका ज्ञान स्वयं भी उसको है या नहीं भगवान जाने ! पर रूप-रंग, बोल-चाल से लगता है कि वह कोई कुलीन स्त्री है।
माधवराव—उसे यहां बुलाओ। हमारी भी इच्छा है कि उसका वह पागलपन देखें।
(पहरेदार पागल स्त्री को लाता है।)

माधवराव—क्यों, आप क्या चाहती हैं ?
पगली स्त्री—(जोर से ठहाका मारकर) तू ! अरे मैं तुझे ही चाहती हूं ? जैसा मुझे स्वप्न में दिखा था वैसा ही—ठीक वैसा ही ! शनिवारबाड़े का स्वामी तू ही है ना ? पर तेरा नाम क्या है ?
पहरेदार—हा ! मर्यादा छोड़कर तू-तुकार की तो—
माधवराव—(बात काटकर) नहीं ! धमकाओं नहीं, उसे हमारा नाम बताओ। जब तक हम न रोकें, तब तक वह जो कुछ पूछे उसे बताते जाओ।
पहरेदार—बाई ! श्रीमंत माधवराव पेशवा प्रधान मन्त्री जो हैं वे आप ही हैं ?
पागल स्त्री—पेशवा ? माधवराव ? अच्छा इनके पिताजी का नाम ?
पहरेदार—श्रीमंत बालाजी पंत अर्थात् नानासाहब पेशवा
पागल स्त्री—उनके पिता जी का ?
पहरेदार—बाजीराव बल्लाल पेशवा।
पागलस्त्री —उनके पिताजी का ?

पहरेदार—बालाजी विश्वनाथपंत भट्ट। ये ही आगे चलकर पेशवा हुए।
पागल स्त्री—(प्रसन्नता से ताली पीटती हुई) भट्ट !! तो मूलतः तू भट्ट ही है ! बस, मेरा काम हो गया। अजी भट्ट जी, मुझे इस समय पेशवा-बीसवा से कोई काम न होकर तेरे जैसा एक भट्ट ही चाहिए—पुरोहित चाहिए ! क्योंकि मुझे एक उत्तरक्रिया करनी है; हां, उत्तरक्रिया। उसके लिए मुझे भट्ट चाहिए था भट्ट।
माधवराव—किसकी उत्तरक्रिया करनी है आपको ? जरा शान्त हो जाइए।

पागल स्त्री— तुझे क्या बताऊँ किस-किस की उत्तरक्रिया करनी है ! अरे शनिवारबाड़े का जो स्वामी है, उसी भट्ट को बुला और हमारी उत्तरक्रिया कर; अन्तरिक्ष में तड़पने वाली हमारी अतृप्त आत्माओं को सद्गति मिलेगी : पानीपत में काम आने वाली ऐसी सहस्रों अतृप्त आत्माएं मेरे स्वप्न में आकर चिल्लाती रहती है। वे देख मेरे पतिदेव; वह देख मेरा तनय; देख, जूझते हुए रण में हत हुए; वह देख मेरी पुत्री; ओ मां घायल किया—रक्तरंजित किया ना उसे उन राक्षसों ने उस मेरे पति की, पुत्र की, पुत्री की (पहरेदार की ओर अंगुलिनिर्देश कर) तेरे बाप की, तेरे काका की, (माधवराव की ओर अंगुलिनिर्देश कर) और तेरे काका की।

माधवराव—(चौंककर) क्या ? हमारे काका की ? भाऊसाहब की ? उत्तरक्रिया ?
पागर स्त्री—हां, उसी तेरे काका की और तेरे बाप की और तेरे भाई की विश्वासराव की। इतने में ही क्या चौंकते हो ऐसे ? और सुन, हाय राम ! मेरे पांव में यह पुनः क्या चुभा ? कांच, कांच। जिस मार्ग पर पग रखूं, उसी मार्ग पर फूटी चूड़ियों के ढेर। घर-घर में चूड़ियां फूटी हैं। उनके टुकड़े चुभ-चुभ कर रंक्तरंजित हो गया है न मेरा हृदय ! अरे भट्ट, मुझे उन फूटी हुई लाखों चूड़ियों की उत्तरक्रिया करनी है ? उन लाखों जीवों के नाम एक ही नाम मैं बताऊं तुझे ? उन लाखों का एक नाम-पानीपत। मुझे पानीपत की उत्तरक्रिया करनी है। और उस पानीपत की उत्तर क्रिया का भट्ट है तू ?

माधवराव—बाई, तुम कौन हो ? कहां की रहने वाली हो ? पागल हो या समझदार हो, यह कुछ समझ में नहीं आता। पर यदि तुम वास्तव में पागल हो तो तुम्हारा  यह पागलपन हमारे इस पेशबाई के समस्त बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता से भी अधिक बुद्धिमत्ता का है, इसमें कोई सन्देह नहीं। कम से कम जिस राज्य डुबाने वाले पागल ने हमारे दादा साहब और सखाराम बापू को आजकल पछाड़ा है, उस पागलपन की अपेक्षा यदि यह पानीपत की उत्तरक्रिया का तेरा पागलपन उन्हें पछाड़े, तो कितना अच्छा होगा ! पर आज उन्होंने पूना में ही पानीपत मचा रखा है। बाई, जब से पानीपत हुआ है, उस दिवस से मुझे भी तेरे इसी पागलपान ने पछाड़ा हुआ है। पर क्या करूँ ? इन विद्वानों के पागलपन की बेड़ियाँ मेरे पांवों में जकड़ी हुई होने से मैं आज तक पंगु होकर पड़ा रहा। पर अब वे बेड़ियाँ मैंने तोड़ दी है। अब मैं सब कुछ देख लूँगा, तुम निश्चिंत रहो। वह पानीपत की उत्तरक्रिया मैं करता हूँ—तुम जाओ और अपने सम्बन्धियों की उत्तरक्रिया व्यवस्थित रूप से करो, जाओ। तुम्हें जो भी सामग्री आवश्यक हो, कुश से लेकर सभी कुछ, तुम्हें हमारे भण्डारी देंगे।

पागल स्त्री—कुश ? पगले, मुझे कुश नहीं सेना चाहिए ? एक अकेली व्यक्ति की उत्तरक्रिया के लिए कुश से काम चल सकता है, पर किसी पानीपत की उत्तरक्रिया के लिए सेनाएँ लगती हैं सेनाएं—कुश नहीं। हः हः हः, हमारे भट्टजी को तो अभी उत्तरक्रिया का अर्थ ही समझ में नहीं आया। अरे पहरेदार ! दिल्ली और पानीपत पूना की किस दिशा में हैं।
पहरेदार—उत्तर में ?

पागल स्त्री—हां हां। तो फिर उस उत्तर दिशा को जीतने की जो क्रिया है, वह उत्तरक्रिया है। और राक्षसों के हाथों से उत्तर जीतने में जो भी पानीपत के रण में जूझे, जो भी रण में काम आए, उनका अपूर्ण रहा हुआ वह कार्य, वह क्रिया पूर्ण करना ही पानीपत की उत्तरक्रिया करना है। अब आया या नहीं समझ में ?
माधवराव—बाई, आप स्वयं थीं क्या उस पानी पत के युद्ध में ?

पागल-स्त्री—यह मुझसे क्या पूछता है। यह मेरे केश तुझे दिखाई नहीं देते ? (चीखकर) पिशाच ! पिशाच ! अरे ये राक्षस मेरे और मेरी पुत्री के केश पकड़कर हमें गोल गोल घुमाते हुए घसीटने लगे न ! ये रक्तिम दाग़, यह टीस, ये टूटे हुए-रौंदे हुए, खुरदरे बिखरे हुए केश। इन्हें पूछ मैं कहां थी ? उत्तरक्रिया के लिए तू भट्ट तो मिला। पर ठहर, पहले उत्तरक्रिया की सामग्री जुटनी चाहिए ना ? बजाओ। पहले रणदुंदुभि बजाओ। गूँजने दो, पहले रणसिंघा गूँजने दो ! कुचलो, पहले उन पिशाचों को कुचलो ! यह नसीब, यह सादुल्ला, यह हाफिज, यह बंगष—पहले उनकी एक एक हड्डियां मुझे दो।

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