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हिन्दुत्व के पंच प्राण

विनायक दामोदर सावरकर

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5427
आईएसबीएन :0000

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हिन्दुत्व के पंच प्राण

Hindutva Ke Panch Pran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वीर सावरकर रचित लेख-हिन्दू राष्ट्र का एवं उक्त हिन्दू राष्ट्र को प्रस्थापित करने की दिशा का साग्र परन्तु संक्षिप्त दर्शन है।
जिस प्रकार मानव के जीवित रहते हेतु पंच प्राणों की आवश्यकता को विवाद्य नही माना जा सकता उसी प्रकार राष्ट्र-जीवन के हेतु प्रतिपादित तत्व भी विगत वर्षों के समय की अग्नि परिक्षा में प्रतप्त होकर, रसरूप होकर शोधित हो जाने के कारण किसी भी प्रकार विवाद्य नहीं माने जा सकते।

प्राक्कथन


हिन्दूराष्ट्रवाद के विभिन्न अंगों एवं पहलुओं का विस्तृत विवेचन करने वाले बृहदाकार ग्रंथों की रचना वीरजी की प्रभावी लेखनी ने कर रखी है। इन ग्रंथों के सृजन के अतिरिक्त निबंधों के रूप में प्रकाशित उनका साहित्य सम्भार भी विशाल है। समय-समय पर हम प्रचलित समस्याओं पर मर्मग्राही लेखों का लेखन वीरजू ने किया है और जागरूक तथा निर्भीक प्रकाशकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें प्रकाशित भी किया है, जिसमें वैचारिक आन्दोलन भी उत्पन्न हुए हैं। उसी लेखन में ये निबन्ध लिखे गये थे, जिन्होंने हिन्दूराष्ट्र के विभिन्न अंगों एवं पहलुओं पर प्रखर प्रकाश डाला है और एक ऐसा आन्दोलन उत्पन्न किया है कि जिसके परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर हिन्दूराष्ट्र का स्वरूप बहुतांश में स्पष्ट हो जाने के कारण हिन्दू-राष्ट्रवाद को एक यथार्थवाद का रूप प्राप्त हुआ और प्राप्त हुए अनुयायी भी अपने ध्येयवाद के प्रति जागरूक एवं स्पष्ट धारणा रखने लगे, वहीं दूसरी ओर विरोधियों ने तथा शत्रुओं ने भी अपने-अपने मोर्चे बाँध लिये। और इस प्रकार राष्ट्रीय-स्वतंत्रता-संग्राम में हिन्दूराष्ट्रवाद एक प्रखर प्रत्याशी की भाँति अपना स्थान पा सका।

वीरजी के अनगिनत निबन्धों के विभिन्न संकलन वर्तमान शताब्दियों के पूर्वार्ध में मराठी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं, यह पुस्तक भी उन्हीं संकलनों में से एक है। हिन्दी-जगत् वीरजी के लेखन से पूर्व से ही परिचित है, उनके साहित्य का हिन्दी में अब पुनर्प्रकाशन हो रहा है, यह स्पष्ट प्रमाण है कि जनता उसके द्वारा हेतुत: दुर्लक्षित द्रष्टा का मूल्य विलम्ब से क्यों न हो-उनके निर्वाण के पश्चात् क्यों न हो, पर समझ गई है। इस प्रकार ये तो केवल पुनरारम्भ मात्र ही माना जा सकता है जो सुचिह्न भर निश्चिन्त है।

प्रस्तुत संकलन-‘‘हिंदुत्व के पंच प्राण’’ अपने शीर्षक को पूर्णत: सार्थक करता है। जिस प्रकार मानव के जीवित रहने हेतु पंच प्राणों की आवश्यकता को विवाद्य नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार राष्ट्र-जीवन के हेतु वीरजी द्वारा इन लेखों में प्रतिपादित तत्त्व भी विगत तीस-पैंतीस वर्षों के समय की अग्नि परीक्षा में प्रतप्त होकर, रस रूप होकर, शोधित हो जाने के कारण किसी भी प्रकार विवाद्य नहीं माने जा सकते। प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित वीरजी के नौ छोटे-बड़े हिन्दूराष्ट्र का एवं उक्त हिन्दूराष्ट्र को प्रस्थापित करने की दिशा का साग्र परन्तु संक्षिप्त दर्शन है। ‘‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’’ रूप में वर्णित इन एकादश लेखों में (अ) प्रथम लेख हिन्दुत्व की अकाट्य व्याख्या को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। यह लेख हिन्दूराष्ट्रद्रष्टा वीरजी द्वारा लिखित हिन्दुत्व नामक राष्ट्रीय दर्शन ग्रन्थ का एक लघु रूप है-सारांश है।

(आ) तृतीया, चतुर्थ, सप्तम्, अष्टम एवं दशम लेखों में प्रबल हिन्दूराष्ट्र के निर्माण हेतु हिन्दूसंगठनरूपी स्वराज्यसाधक साधन की अत्यावश्यकता का, संख्याबल की महत्ता का, न्याय तथा राष्ट्रहित की दृष्टि से अछूतोद्धार का, जन्मजात जातिवाद की समाप्ति का विश्लेषण कर साहसिक प्रतिपादन किया है। (इ) द्वितीय लेख में हिन्दी राष्ट्रभाषा के शुद्धत्व के विचार को प्रस्तुत कर हिन्दुस्थानी-भाषावादी के तर्कों का निराधार तथा राष्ट्रघातक सिद्ध किया है। (ई) षष्ट लेख में हिन्दुओं की, धर्म-भ्रष्टता संबंधी भ्रान्त के धारणा तथा ईसाई एवं इस्लामियों द्वारा उससे उठाये जाने वाले अनुचित लाभ को संक्षेप में बताकर शुद्धि के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। (उ) तथा पंचम, नवम् एवं एकादश लेखों में अहिंसा के अत्यन्त विवादपूर्ण विषय के संबंध में अत्यन्तिक-अहिंसा एवं सापेक्ष-अहिंसा के अर्थें को समझाकर परिस्थितिवशात् शस्त्रप्रयोग की आवश्यकता का महत्त्व प्रतिपादित किया है, वैसे ही प्रतिघात, प्रतिशोध के संबंध में जीवमात्र में होने वाली प्रतिशोध-भावना का विवेचन कर, उसके लिए धर्म का आधार बताकर, स्वार्थ के लिए नहीं तो परमार्थ के लिए ही प्रतिशोध किस प्रकार आवश्यक है इस बात की विवेचना की है।

प्रस्तुत पुस्तक में संकलित अधिकतर लेख 1937 के पूर्व तब ही लिखे गये हैं एवं मराठी साप्ताहिक श्रद्धानन्द तथा मासिक पत्रिका सह्याद्रि आदि में प्रकाशित भी हो चुके हैं जब अन्दमान की भयंकर यातनाओं को सहने के पश्चात् महाराष्ट्र के रत्नागिरि नामक स्थान पर वीरजी को स्थानबद्ध कर रखा गया था। 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) में सम्पन्न अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के 19 वें वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता वीरजी ने की और धार्मिक, सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेष रूप से प्रकट एवं प्रभावी रूप से राजनीति के प्रांगण में उपस्थित कर समय की अति तीव्र माँग को पूर्ण किया उसके लिए बिना हुआ सैद्धान्तिक-आधार ‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’ यही था। इसी प्रकार वीरजी के प्रवेश से हिन्दू महासभा को मानो कायाकल्प ही हुआ। क्योंकि, अपनी प्रखर प्रज्ञा, प्रभावी प्रस्तुतीकरण, प्रबोधक प्रवदन आदि के माध्यम से अपने प्रगल्भ, प्रगमनशील हिन्दूराष्ट्रवाद का एवं उसके निर्माण हेतु प्रभावी हिन्दू संगठन के प्रगहण का; संख्याबल के प्रबलीकरण का.....जातिभेद, आत्यन्तिक अहिंसा आदि के प्रवज्यम का; धर्मभ्रष्ट एवं राष्ट्रभाषा की शुद्धि के प्रवर्तन का; तथा प्रथर्षक के प्रतिहरण हेतु प्रतिघात के-प्रतिशोध के साग्र दर्शन का अमृत-प्रसाद हिन्दू महासभा को वीरजी से सदा ही प्राप्त होता रहा।

वीरजी में जहाँ एक ओर साहित्य-सागर के निर्माण एवं विस्तार की कीमिया थी वहीं दूसरी ओर उस सागर को गागर में भरने की माया भी उन्हें सिद्ध थी इस वास्तविकता का अनुभव इस पुस्तक के पठन से पाठकों को अवश्य ही आयेगा ऐसा हमें विश्वास है। इस विश्वास के साथ ही इस आशा को रखते हुए कि हिन्दूराष्ट्र के उक्त पंच प्राणों का पठन-मनन कर हिन्दूराष्ट्र को वर्धिष्णु एवं विजयिष्णु बनाने का संकल्प यह हिन्दू समाज करेगा, हम प्रस्तुत प्राक्कथन को पूर्ण करते हैं।

-विक्रम सिंह (एम.ए.)

हिन्दुत्व की परिभाषा एवं 

हिन्दू शब्द का सत्प्रयोग तथा अपप्रयोग


आसिंधुसिंधुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै ‘हिन्दू’ रिति स्मृत:।।

‘हिन्दू’ शब्द हिन्दू संगठन का प्रमुख आधार है, अतएव इस ‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ जिस प्रमाण में व्यापक या संकुचित, दृढ़ या ढीला, चिरन्तन या चंचल होगा उसी प्रमाण में उस आधार पर निर्मित हिन्दू-संगठन की यह प्रचंड बनावट भी व्यापक, भरकम तथा स्थायी होने वाली है। हिन्दू महासभा क्या तथा उसने उठाया हुआ हिन्दू संगठन का निश्चित उत्तर नहीं देता तब तक उसका एक पग भी दिशाभ्रम के बिना आगे बढ़ना असम्भव होगा, अनर्थकारी होगा।

एतदर्थ, जिन-जिन लोगों ने हिन्दू संगठन कार्य करने का व्रत लिया है उन सभी के उपयोग हेतु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण ‘हिन्दू’ शब्द के संबंध में वह जानकारी सूत्ररूप में इस लेख में प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है जो हमारे विचार से प्रत्येक हिन्दू को कण्ठस्थ होना अत्यावश्यक है। उक्त प्रस्तुतीकरण के पूर्व ही हम पाठकों से निवेदन करना चाहेंगे कि उन सूत्रमय विधानों का स्पष्टीकरण एवं समर्थन इस संक्षिप्त लेख में करना असम्भव होने से, जिन्हें वह समर्थन एवं स्पष्टीकरण देखने की इच्छा हो वे हमारे ‘हिन्दुत्व’ नामक ग्रंथ में अवश्य देखें। इतना ही नहीं तो हम यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं कि उस मूल ग्रंथ का पठन किये बिना ही इस लेख के विधानों पर उतावलेपन से आक्षेप न करें, क्योंकि उक्त ग्रंथ के पठन से आक्षेपों में से बहुत आक्षेप अनायास ही दूर हो जाएँगे ऐसी हमारी धारणा है।

‘हिन्दू’ शब्द की प्रावीनता

(1)    हिन्दू शब्द की उत्पत्ति न तो मुसलमानों द्वारा हुई है न ही मुसलमानों ने प्राथमिक रूप से वह शब्द हमारे राष्ट्र के लिये संबोधित ही किया है- जिस काल में ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति के संबंध में पर्याप्त गवेषणा ही नहीं हुई थी उस काल की यह दुष्ट दन्तकथा भर है ? ‘हिन्दू’ शब्द की ऐतिहासिकता उत्पत्ति के निम्नलिखित स्पष्टीकरण से यह सिद्ध हो जाएगा।

(2)    हिन्दू, हिन्दुस्थान, हिन्द इन प्राकृत शब्दों का मूल उद्गम ऋग्वेदकालीन सप्तसिन्धु नामक हमारे अपने प्राचीनतम राष्ट्रीय अभिधा में ही है-

हमारे वेदकालीन पूर्वजों ने ऋग्वेद में ‘सप्तसिन्धव:’ इस शब्द को देशवाचक एवं राष्ट्रवाचक अर्थों में ही, स्वत: की राष्ट्रीयता अभिधा के रूप में, स्वत: के हेतु ही प्रयुक्त किया है।

उस प्राचीन काल में हमारे निकटस्थ ईरान, बाबिलोन, प्राचीन अरब आदि राष्ट्र हमें हमारे ‘सप्तसिन्धु’ इसी राष्ट्रीय अभिधा से जानते थे। ‘पारसिकों ने’ ‘पारसियों ने’ ढाई हजार वर्ष पूर्व के उनके धर्मग्रंथों में हमारे राष्ट्र को ‘हप्तहिन्दू’ से ही संबोधित किया है। तत्कालीन प्राचीन ‘बेबोलियन’ ग्रंथों में हमारे देश से निर्यातित झीने तथा सुन्दर वस्त्रों को ‘सिन्धु’ या ‘सिन्धुव’ कहा हुआ है।

 

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