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धर्म तथा समाजवाद

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :363
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5428
आईएसबीएन :0000

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मानसिक दासता पर आधारित उपन्यास...

Darma Tatha Samajvad Gurudatt

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

मानसिक दासता का यह लक्षण है कि व्यक्ति अपने स्वामी के गुणगान करने लगता है। शारीरिक दासता और मानसिक दासता में अन्तर होता है। शरीर से दास व्यक्ति मालिक की आज्ञा का पालन तो करता है, परन्तु वह उसको श्रेष्ठ नहीं समझता।
यह अवस्था प्राय: हिन्दुओं की मुसलमानी राज्य में रही। हिन्दू मुसलमान नवाबों और बादशाहों की नौकरी करते थे, परन्तु वे उनको कभी भी अपने से श्रेष्ठ नहीं मानते थे। उनके शरीर तो दास थे, परन्तु मन स्वतंत्र थे और बुद्धि से अपने ज्ञान-विज्ञान को अपने आकाक्षों के ज्ञान-विज्ञान से श्रेष्ठ मानते थे।

यह स्थिति, अंग्रेजों के डेढ़ सौ वर्ष के राज्य से सर्वथा बदल गई। जहाँ इस्लामी राज्य के सात सौ वर्ष में हिन्दू शारीरिक दासता में रहते हुए भी मानसिक दृष्टि से स्वतन्त्र रहे थे, वहाँ डेढ़ दो सौ वर्ष के अँग्रेजी राज्य में हिन्दुओं ने धीरे-धीरे शारीरिक स्वतन्त्रता तो प्राप्त कर ली, परन्तु शारीरिक दासता ( Political Dominance)  को सन् 1947 में पार कर भारतवासी शरीर में (Politically)  स्वतंत्र तो हो गए परन्तु इन्हीं दो सौ वर्षों में हम स्वाभिमानी और अपने धर्म एवं ज्ञान-विज्ञान में निष्ठा रखने वाले न रहकर अपने भाषा भाव, वेश-भूषा में योरोप के दास बन गये।
यह चमत्कार जो मुसलमान सात सौ वर्षों में नहीं कर सके, वह अंग्रेजी ने दो सौ वर्षों में कैसे कर दिखाया ? इसका रहस्य, सरकारी शिक्षा पद्धति में और सरकारी भाषा के रूप में अंग्रेजी भाषा के व्यापक प्रचार में छुपा है।

अवस्था यह हो गई है कि इस देश में मानसिक दृष्टि से स्वतंत्र लोग तो विरले ही मिलेंगे और मानसिक दासों की भरमार हो गई है। मुख्य रूप में मानसिक दास दो प्रकार के हैं। एक वे जो बरमला कहते हैं कि उनके पूर्वज अज्ञ, असभ्य और रूढ़ियों में फँसे हुए थे; अब योरोप के ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से भारत उन्नति के पथ पर चल पड़ा है। वे अंग्रेजी भाषा के ज्ञान-विज्ञान की खिड़की मानते है और कहते हैं कि इस खिड़की से आ रहे ज्ञान के प्रकाश से देश जगमगा रहा है।
दूसरे प्रकार के दास वे हैं, जो किन्ही कारणों से सभी अपने पुराने बुजुर्गों का नाम लेते हैं, परन्तु प्रत्येक योरोप से आई नई वस्तु और विचार को अपने देश की प्राचीन परम्पराओं में पहले ही उपस्थित बताते हैं। दोनों ही दास-प्रवृत्ति वाले कहे जाएंगे।

मानसिक दृष्टि से स्वतंत्र लोग जिनकी संख्या देश में बहुत कम रह गई है और जिनकी संख्या अंग्रेजी काल की शिक्षा पद्धति के चालू रहने से और भी कम हो रही है, वे हैं जो न तो किसी पुरानी बात को आँखें मूँदकर स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, न ही किसी वर्तमान युगीन बात को बिना विचार किये स्वीकार करने की इच्छा रखते है। ये लोग स्वतंत्र मन और निष्पक्ष बुद्धि से प्राचीन का अध्ययन करते हैं और नवीन से उसकी तुलना करते हैं। ये मन से स्वतंत्र हैं।
वर्तमान पुस्तक ‘धर्म तथा समाजवाद’ को हम इन्हीं स्वतंत्र लोगों की दृष्टि से लिख रहे हैं। हमने दोनों पक्षों को सम्मुख रखा है और उससे अपने निष्कर्ष निकाले हैं।

इस पुस्तक की आवश्यकता इस कारण अनुभव हुई है कि देश की काँग्रेसी सरकार, समाजवाद को बलपूर्वक चला रही है। यह सरकार काँग्रेस के राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति में किये गए प्रयत्न से प्राप्त मान-प्रतिष्ठा के बल पर एवं पुलिस सेना व शिक्षा के बल से समाजवाद जैसी थोथी पद्धति को लोगों के गले उतार रही है।

इससे भी बढ़कर दु:खदायी स्थिति यह है कि हिन्दू विचारधारा पर आधारित राजनीतिक दल काँग्रेस द्वारा प्रचारित समाजवाद से लाभ उठाने के लिए, यह घोषित करने का यत्न कर रहे हैं कि भारतीय विचारधारा में भी समाजवाद विद्यमान है। इन दलों में हिन्दू महासभा अपने क्षीण हो रहे प्रभाव को बचाने के लिए हिन्दू समाजवाद के विचार का प्रसार कर रही है और भारतीय जनसंघ अपनी मन्द गति से बढ़ रहे प्रभाव को गति देने के लिए समाजवाद के मुख्य-मुख्य विचारों को स्वीकार कर रहा है। यह समाजवाद नाम को तो स्वीकार नहीं करता, परन्तु राज्य द्वारा भूमि, सम्पत्ति एवं आय पर सीमा बांधी जानी स्वीकार करता है। यह दल आर्थिक प्रजातंत्र को राज्य द्वारा लाने की घोषणा करता है। यह दल व्यक्ति को समाज की उपज मान, समाज के अधिकार द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व को निशेष करने में विश्वास प्रकट करता है। यह दल मजदूर और कर्मचारी का हड़ताल करना एक जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। इत्यादि।
हम इन दोनों के प्रयासों को, भले ही वे सामयिक उपयोगिता के लिए स्वीकार किये गए हों, देश राष्ट्र एवं भारतीयता के लिए शुभ प्रभाव वाले नहीं मानते।

इस कारण इस पुस्तक के लिखने की आवश्यकता अनुभव हुई है। पुस्तक में हमने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि समाज में धर्मवाद का प्रचार होना चाहिए। धर्मवाद वास्तव में धर्म (कानून) के अन्तर्गत व्यवहार को कहते हैं। हमने धर्म और धर्मवाद की व्याख्या पुस्तक में की है। साथ ही बताया है कि इसका आधार आस्तिकवाद है।
आस्तिकवाद केवल ईश्वर को मानना ही नहीं है, वरंच इस जगत के पूर्ण रहस्य (त्रैतवाद) को समझना है। भोग (प्रकृति) भोक्ता (जीवात्मा) और नियंता (देव) के परस्पर सम्बन्ध को जाने बिना मनुष्य की कल्पना असम्भव है। मनुष्य को जाने बिना मनुष्य-समाज की बात करना मिथ्या और अनर्गल है।

जो लोग यह नहीं जानते कि मनुष्य क्या है, वे मानव समाज की बात कैसे कर सकते हैं ? मनुष्य को एक मिट्टी का ढेला मानने वाले मनुष्य समाज को एक वस्तुओं का संग्रहालय ही बना देंगे। मनुष्य समाज की यह कल्पना भारतीय नहीं।
मनुष्य की आत्मा अपने सांसारिक बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र होना चाहती है। जो समाज जीवात्मा के इस स्वाभाविक प्रयास में बाधा डालने वाला होगा, वह समाज नहीं होगा, प्रत्युत एक बंदीगृह बन जायेगा। मनुष्य पर बंधन केवल धर्म का है। हमने धर्म की व्याख्या पुस्तक में संक्षेप में कर दी है। साथ ही समाजवाद के विषय में स्पष्ट शब्दों में प्रमाण सहित व्याख्या की है। दोनों वादों में किसी प्रकार का ताल-मेल दिखाई नहीं देता।
नि:संदेह, हमारे विचार में, धर्मवाद और समाजवाद एक नहीं, ये परस्पर विरोधी पद्धतियाँ हैं। धर्मवाद कल्याण का सूचक है। कारण यह कि यह मनुष्य को अधिक से अधिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। समाजवाद समाज के नाम पर व्यक्ति को बंधनों में जकड़ने वाला है।

यह कहा जाता है कि भूमण्डल में अकिंचनों की संख्या अधिक है। अत: उनका राज्य बहु-संख्या को सुख-सुविधा देने वाला होगा। यह मिथ्या कथन है। समाजवाद व्यक्ति के लिये, चाहे वह अकिंचन हों, चाहे सम्पन्न, बन्धनों का सूचक है। यह समाजवादी देशों की वर्तमान स्थिति से स्पष्ट है। वहां खाने, पहनने, रहने विचार करने, व्यवहार करने, विचार व्यक्त करने, अभिप्राय यह कि प्रत्येक मानव क्रिया-कलापों पर समाज अर्थात् राज्य द्वारा नियम-उपनियम बनाकर नियंत्रण रखा गया है। किसी भी व्यक्ति को स्वतंत्रता से आगे बढ़ने की स्वीकृति नहीं।
यह मिथ्या सिद्धान्त है कि सबको साथ लेकर बढ़ो। सत्य यह है कि बिना किसी को हानि पहुंचाए स्वेच्छा से बढ़ने का नाम स्वतंत्रता है। यह धर्मवाद में ही सम्भव है।

दोनों वाद पूर्णतया वर्णन नहीं किये जा सकते। पुस्तक में स्थान की सीमा थी, इस पर भी दोनों का चित्र यथासम्भव स्पष्ट दिया गया है।
हमें आशा है कि इसमें पाठक वर्ग की ज्ञान में वृद्धि होगी और भारतीय समाज में क्षीण हो रहे स्वतन्त्र वर्ग में वृद्धि होगी।

 

-गुरुदत्त

 

प्रथम अध्याय
मनुष्य

 

 

जब हम समाजवाद पर विचार करते हैं तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि किनका समाज ? नि:सन्देह हम मनुष्य समाज पर विचार कर रहे हैं। अत: इस विचार का प्रारम्भिक बिन्दु मनुष्य है।
मनुष्य क्या है ? वह कैसे इस सृष्टि पर उत्पन्न हुआ और उसका क्रिया-कलाप क्या है ? वह किस कारण-वश कार्य करता है; कार्य करने के लिए उसने कौन-कौन से साधन एकत्रित कर लिए हैं और क्या कर रहा है ? मनुष्य पर विचार करते ही ये सब ओर अनेकों अन्य प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं।

यह दर्शन शास्त्र का एक महान् प्रश्न है कि मनुष्य क्या है, इसमें क्या-क्या तत्त्व मिले हैं और फिर इसका प्रादुर्भाव इस पृथ्वी पर कैसे और क्यों हुआ है ? सब देशों के दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर विचार किया है। अनेक विचार प्रस्तुत किये गए हैं और फिर उन विचारों की पुष्टि में अनेक युक्तियाँ करने का यत्न किया गया है।
भारत के प्राचीन वाङ्मय में भी जगत् और उसमें प्राणी-सृष्टि के प्रश्न पर प्रकाश डालने का यत्न किया गया है। अर्वाचीन भारतीय दार्शनिक तो प्राय: योरोप के दार्शनिक की परिपाटी का अनुसरण ही करते हैं। अत: अर्वाचीन विचार का ज्ञान तो योरोपीय दार्शनिकों के अध्ययन से ही ज्ञात हो जाएगा। हम प्राचीन भारतीय विचार और अर्वाचीन योरोपीय विचार, दोनों दृष्टियों से मनुष्य प्राणी की मीमांसा प्रस्तुत करेंगे।

जगत् में सब पदार्थों को, सर्वप्रथम दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। जड़ पदार्थ और जीव पदार्थ। जड़ और जीव में भेद स्पष्ट दिखाई देता है। जड़ पदार्थ चेतना रहित होते हैं। जीव पदार्थ चेतना युक्त होते हैं। चेतना के लक्षण किये गए हैं। न्याय दर्शन में चेतना के लक्षण लिखे हैं-सुख-दु:ख, इच्छा-द्वेष, ज्ञान और प्रयत्न।
न्याय दर्शन में चेतना और आत्मा का अपरिहार्य सम्बन्ध माना है। इस कारण ये लक्षण आत्मा के भी माने गये हैं। लिखा है-

 

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।1
वैशेषिक दर्शन में भी लिखा है-
प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकारा:
सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।।2

 

इच्छा (पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा) द्वेष (दु:खादि की अनिच्छा अर्थात् उनसे बैर), प्रयत्न (सुख प्राप्ति और दु:ख निवारण के लिये यत्न करना), सुख और दु:ख (का अनुभव), ज्ञान अर्थात् दोनों में भेद जानना और विवेक, ये आत्मा के लक्षण हैं। वैशेषिक दर्शन में इनके गुणों के अतिरिक्त प्राण, अपान, आँखें खोलना बन्द करना, अर्थात् इन्द्रियों से कार्य लेना, मन अर्थात् संस्कारों का संचय इत्यादि और अधिक लिखे हैं।

ये सब गुण उनमें पाए जाते हैं जिन पदार्थों में जीव रहता है अर्थात् जिनको जीवित (Living) पदार्थ कहते हैं।
वर्तमान विज्ञान में भी जड़ पदार्थ तथा जीवधारियों में पृथकता का वर्णन किया गया है। प्राणी शास्त्र (Biology) में प्राणी (Living Object) उनको माना है जो (1) भोजन ग्रहण कर उसे अपने शरीर का अंग बना लेते है; (2) अपने समान सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं; तथा (3) अपनी सुरक्षा में यत्नशील रहते हैं।
भारतीय दर्शन शास्त्र में और अर्वाचीन विज्ञान में जीवित पदार्थ
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1. न्याय दर्शन 1-1-10; 2. वैशेषिक दर्शन 3-24

के लक्षणों में परस्पर अन्तर है। यहाँ हम दोनों द्वारा बताये लक्षणों में गुण-दोष न बताकर यही प्रकट करना चाहते हैं कि प्राचीन अथवा अर्वाचीन ज्ञान-विज्ञान जगत् के पदार्थों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं। एक श्रेणी है जड़ पदार्थों की और दूसरी श्रेणी है जीवित पदार्थों की। जीवित पदार्थों के लक्षण ऊपर दोनों पद्धतियों के अनुसार लिख दिये हैं।

यह देखा गया है कि जीवित पदार्थ ही अर्थात् एक प्राणी (Living body) ही प्राणी का निर्माण कर सकता है। जड़ पदार्थ से प्राणी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आधुनिक वैज्ञानिक जीवन के इस रहस्य को समझने का यत्न कर रहे हैं। इस रहस्य को समझकर वे जड़-पदार्थ से जीवधारी उत्पन्न करने का यत्न करना चाहते हैं। अभी तक वे इस रहस्य को जान नहीं सके और जड़ चेतन की उत्पत्ति बिना जीवधारी की सहायता के नहीं कर सके।

वैज्ञानिक यह कर सकेंगे अथवा नहीं ? कहना कठिन है। कुछ भी हो भारतीय मत यह है कि जब शरीर का निर्माण वैसा किया जा सकेगा, जैसा एक जीवधारी रज और वीर्य के संयोग से कर सकता है, तब आत्मा उस शरीर में आकर निवास ग्रहण कर लेगा। आत्मा के वैसे शरीर में निवास करने पर ही जीव अर्थात् प्राणी की सृष्टि पूर्ण होगी। आधुनिक वैज्ञानिक एक प्राणी का निर्माण जड़ पदार्थ से नहीं कर सका। कारण यह है कि उस बीज का निर्माण करने में अभी तक वह अशक्त सिद्ध हुआ है, जैसा बीज प्राणी अपने जीवित शरीर से निर्माण करने की शक्ति रखता है।

भारतीय मतानुसार बीज का निर्माण आत्मा और परमात्मा की संयुक्त शक्ति के बिना नहीं हो सकता और ईश्वरीय विधान से इस पृथ्वी पर प्राणी की उत्पत्ति के लिए बीज का निर्माण रज और वीर्य के संयोग की प्रक्रिया से ही सम्भव है।
वर्तमान युग के वैज्ञानिक बीज (Germ-cell) का निर्माण अपनी विधि से करना चाहते हैं। भारतीय मत है कि यदि वे ऐसा कर भी सकें तो भी उसमें आत्मा के निवास के बिना वह बीज प्राणी नहीं बच सकेगा। दूसरे शब्दों में उसमें वे लक्षण उत्पन्न नहीं होगे जो न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में जीवधारी के वर्णन किये हैं अथवा जो आज का वैज्ञानिक अपने प्राणी-शास्त्र में जीवित पदार्थ (living body) का वैज्ञानिक के लक्षण बताता है।

कुछ लोग समझते हैं कि आत्मा तथा परमात्मा हो अथवा न हो, प्राणी का निर्माण प्रयोगशाला में सम्भव है और ये ऐसा करने में लीन है। इस विश्वास से वे नित्य नये परीक्षण कर रहे हैं।
जैसा कि हम लिख चुके हैं हमारा केवल इतना बताने से प्रयोजन है कि प्राणी (living object) जड़ पदार्थ से भिन्न है और जड़ पदार्थ प्राणी में बदला नहीं जा सकता। दोनों भिन्न-भिन्न श्रेणी के पदार्थ है।

प्राणियों में भी अनेक श्रेणियाँ हैं। उन सब में वे गुण पाये जाते हैं जिनका उल्लेख न्याय वैशेषिक अथवा आज का प्राणी शास्त्र (Biology) करता है। इस पर भी एक श्रेणी दूसरी श्रेणी से भिन्न है। मुख्य रूप में दो श्रेणियाँ हैं। स्थावर तथा जंगम। स्थावर वे हैं, जो एक स्थान पर स्थिर रहते हैं। इनको वनस्पति जगत् (Vegetable Kingdom) कहते हैं। जंगम उनको कहते हैं जो एक स्थान पर स्थिर नहीं। वरन चलते-फिरते रहते हैं। इनको जन्तु (Animal Kingdom) कहते हैं।
मनुष्य प्राणी अर्थात् जीवित पदार्थ है। अत: यह जन्तु  (Animal) है।

जन्तुओं में भी अनेक प्रकार हैं। इनको जातियाँ कहते हैं। यूँ तो वनस्पतियों में भी जातियाँ हैं। जातियों का सम्बन्ध योनि अर्थात् उनके उदगम स्थान से है। एक प्रकार की योनि में उसी प्रकार की योनि रखने वाले जन्तु उत्पन्न होते हैं। बन्दर की योनि से बन्दर और रीछ की योनि से रीछ ही उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार मनुष्य की योनि से मनुष्य ही उत्पन्न होता है।
आज के वैज्ञानिक न केवल यह कहते हैं कि जड़ से चेतन पदार्थ बने हैं वरन उनका तो कहना है कि चेतन पदार्थ भी आरम्भ में एक ही प्रकार के थे और धीरे-धीरे उनमें भेद होते-होते आज जन्तुओं में अनेक जातियां दिखाई देने लगी हैं। मनुष्य भी आदि जन्तु (Amoeba) की ही सन्तान है।

आज के वैज्ञानिकों का यह कहना कि जड़ से ही चेतन निर्माण हुआ है, अभी कल्पना क्षेत्र की बात ही है। जड़वादी दार्शनिकों ने बहुत लम्बी-लम्बी कल्पना की उड़ाने लगाई हैं, परन्तु ये अभी कल्पना की उड़ान मात्र ही हैं।
इसी प्रकार भारतीय अद्वैतवादियों का यह मत कि जगत् का आदि पदार्थ एक परमात्मा ही है, भी एक वाद (Theory) मात्र है। यह अभी एक असिद्ध विचार है। जैसे जड़वादियों का यह कथन कि आदि पदार्थ केवल जड़ (matter) ही है, एक विचार मात्र ही है। ये दोनों वाद प्रमाण एवं युक्ति से सिद्ध नहीं किये जा सके। सत्य क्या है, कहना कठिन है, परन्तु युक्ति यह मानती है कि प्रकृति और आत्मतत्व दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं और जहां दोनों में संयोग हुआ है, वहाँ जीवन (life) के लक्षण जैसे वैशेषिक तथा न्याय-दर्शन में वर्णन किये हैं, प्रकट हो जाते हैं।
भारतीय वाङ्मय में दो प्रकार के आत्म तत्व माने है। वेद में लिखा है-

 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिं षस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।।1

 

श्वेताश्वतर-उपनिषद् में भी लिखा है-

 

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तुभोग्यार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्।।2

 

ऋग्वेद में आत्मा, परमात्मा को प्रकृति रूपी वृक्ष पर बैठे हुए बताया है। आत्मा उस वृक्ष (प्रकृति) के फल खाता (भोगता) है और परमात्मा केवल साक्षी मात्र है।
उपनिषद् में बताया है कि ईश्वर सर्वज्ञ है जीव अज्ञ है। ईश्वर सर्व समर्थ है और जीव असमर्थ है। ये दोनों अजन्मा अर्थात् अनादि हैं।
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1. ऋ.1-164-20; 2. श्वे.1-9;
 




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