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माँ के लिए

सरला अग्रवाल

प्रकाशक : ग्रन्थ विकास प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5443
आईएसबीएन :81-88093-78-5

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व्यक्ति, समाज और राजनीति के अपराधीकरण के नानारूप प्रस्तुत करती कहानियां....

Ma ke liye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. सरला अग्रवाल किसी परिचय की अपेक्षा नहीं रखतीं। हिन्दी साहित्य में, विशेषकर कहानी विधा में उनको विशेष स्थान प्राप्त है।
वह विशेष रूप से मध्यम वर्ग की चितेरी हैं। इसी वर्ग के पात्रों को लेकर ही वह आगे बढ़ती हैं। उनसे उनका सघन परिचय है। विशेष रूप से स्त्री-पुरुषों के संबंधों को उन्होंने चित्रित किया है। उसी के अनुरूप उनकी भाषा है- सरल, सहज, आडम्बरहीन और साथ ही अर्थगर्भित भी। उनके इस संग्रह की कहानियाँ इस बात का प्रमाण हैं। इनमें बड़े सहजभाव से उन्होंने इसी मध्यवर्ग ‘हिन्दू समाज’ का चित्र उकेरा है। हर पग पर नारी ठगी जाती है। उनकी कहानी ‘मेरे अपने’ हो, ‘संयोग से’ हो या फिर ‘छल’ हो, उनको पढ़ते हुए हमें यही अनुभव होता है। एक गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं ये कहानियाँ, इतना कि मन पीड़ा से कराह उठता है।

इस संग्रह में सरला जी ने न केवल परिवार और समाज के अंतर में झाँकने की कोशिश की है बल्कि आज के समाज को राजनीति जिस तरह से प्रभावित कर रही है, उसकी भी झलक प्रस्तुत की है। ये कहानियाँ व्यक्ति, समाज और राजनीति के अपराधीकरण के नानारूप प्रस्तुत करती हैं और हमें सोचने को विवश करती हैं। सचमुच, इन कहानियों में आज के समाज का वास्तविक चित्र ही उभर कर सामने आया है।

विष्णु प्रभाकर
(पद्मभूषण, वरिष्ठ कथाकार और साहित्यकार)

दो शब्द


डॉ. सरला अग्रवाल का नया कहानी संग्रह हमारे सामने है। डॉ. अग्रवाल किसी परिचय की उपेक्षा नहीं रखतीं। हिन्दी-साहित्य में विशेषकर कहानी विधा में उनको विशेष स्थान प्राप्त है।

वह विशेष रूप से मध्य वर्ग की चितेरी हैं। इसी वर्ग में पात्रों को लेकर ही वह आगे बढ़ती हैं। उनसे उनका सघन-परिचय है। विशेष रूप से स्त्री-पुरुषों के संबंधों को उन्होंने चित्रित किया है। उसी के अनुरूप उनकी भाषा है-सरल, सहज, आडम्बरहीन और साथ ही अर्थगर्भित भी। उनके इस संग्रह की कहानियाँ इस बात का प्रमाण हैं। इनमें बड़े सहज भाव से उन्होंने इसी मध्य-वर्ग-हिन्दू समाज का चित्र उकेरा है। हर पग पर नारी ठगी जाती है। उनकी कहानी ‘मेरे अपने’ हो, ‘संयोग से’ हो या फिर ‘छल’ हो, उनको पढ़ते हुए हमें यही अनुभव होता है। एक गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं ये कहानियाँ, इतना कि मन पीड़ा से कराह उठता है।

‘मेरे अपने’ में इस पारिवारिक विडम्बना का बहुत सहज और प्रभावशाली चित्रण हुआ है। कैसे एक नारी अपने परिवार के लिये अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है, लेकिन अन्त में उसके सबसे प्रिय बन्धु ने ही उसे धोखा दिया। बहुत गहरे कुरेदती है यह कहानी मानवीय मूल्यों की गरिमा को लेकर। सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका स्वयं कुछ नहीं बोलती, घटना एक के बाद खुलती-बोलती चली जाती है। और अन्त में यह प्रामाणित होता है कि कैसे अपने लोग भी सहज भाव से ठगना जानते हैं। नायिका कुछ नहीं कहती सिर्फ स्तब्ध रहती है और पाठक भी स्तब्ध रह जाता है।

‘छल’ एक और ऐसी कहानी है जो पूरे समाज की विडम्बना को रेखांकित करती है। यह एक अनाथ लड़की-रिया के जीवन की कहानी है, जो एक अनाथालय से मुक्ति पाकर स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है, और जीती भी है एक नृत्यांगना के रूप में। फिर कैसे उसका परिचय एक आतंकवादी से होता है। आतंकवादी कुछ छिपाता नहीं, सब कुछ बता देता है। उससे उसका ही रहने के लिये नियति कैसा छल करती है। उस आतंकवादी को तलाश करता एक पुलिस अधिकारी रिया के संपर्क में आता है और अंतत: उससे संपर्क बढ़ाते हुए उसे बिल्कुल अपना बना लेता है। रिया को उसका सही परिचय तब ही मिलता है जब वह उसके पहले प्रेमी को आतंकवादी के रूप में पकड़ लेता है, लेकिन तब तक वह गर्भवती हो चुकी है।
इन सब बातों का परिचय पाकर वह इतनी दु:खी होती है कि आत्महत्या करना चाहती है। टॉवर पर पहुँच भी जाती है लेकिन तभी उसके अन्दर की माँ जागृत हो उठती है और वह लौट आती है। और एक बेटी को जन्म देती है।

लेखिका बड़ी कुशलता से बेटी को कहानी में लाती है। अब तक रिया कहानी को याद कर रही थी। कहानी उसके बाद वर्तमान में लौट आती है। रिया एक बच्ची की माँ बन चुकी है। देखिये ये शब्द, देखिये उसका यह अंत- रिया हारे हुए जुआरी-सी नीचे उतर आयी। उसकी दोनों आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। चेहरा और ड्रेस आसुओं से तर थी....वह ईश्वर से चेतना की आत्मा को शान्ति प्रदान करने की प्रार्थना करने लगी।

तभी चेतना ने माँ को जगाया, ‘‘मम्मा उठिये, मैं आपके लिये चाय बना लायी हूँ। सुबह के साढ़े छह बज गये हैं।’’ कहते हुए चेतना ने चाय का कप रिया के हाथ में पकड़ा दिया।
इसी तरह एक और कहानी है- ‘संयोग से।’ चित्रण की दृष्टि से यह कहानी अद्भुत है। लेखिका ने इसके अन्त का चित्रण बिल्कुल नहीं किया बल्कि सब कुछ पाठकों की चेतना पर छोड़ दिया है। इसलिये वह सबसे अधिक प्रभावशाली भी हो गया है।
एक गरीब घर का बच्चा परीक्षा देने के लिये जा रहा है। तब कैसे डाकू उस बस को लूटते हैं। बच्चे के पास कुछ भी नहीं बचा है, तभी उसी बस में सफर करने वाला एक व्यक्ति उसके पास आता है और उसकी कहानी सुनकर उसकी सहायता करता है। परीक्षा-केन्द्र तक ले जाता है और घर लौटने का भी प्रबंध करता है।

संयोग देखिये वही बच्चा एक दिन बहुत बड़ा डॉक्टर बनता है। उसके पड़ोस में एक बहुत साधारण व्यक्ति रहता है। उस साधारण व्यक्ति का बच्चा उस डॉक्टर बच्चे के साथ ही पढ़ता है। लेकिन डॉक्टर की पत्नी नहीं चाहती कि वे एक-दूसरे से मिलें लेकिन वह गरीब घर का बच्चा बड़ा होशियार है। वह डॉक्टर के बेटे की मदद करता है। तभी गरीब बच्चे का पिता गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो जाता है। तब डॉक्टर का बेटा पिता से आग्रह करता है कि वह अपने गरीब बच्चे के पिता को देखने के लिये जायें। उसके बार-बार आग्रह करने पर अन्तत: वे जाते हैं और तब डॉक्टर उस मरीज को दूर से देखते हैं और पहचान लेते हैं कि यह वही व्यक्ति है जिसने उस दिन उसकी मदद की थी। उन्हीं की वजह से आज इतने बड़े डॉक्टर बन गये हैं।

उन्हीं के शब्दों में, ‘‘एक तो शक्ल ज्यों की त्यों है, दूसरे इनकी बायीं कनपटी पर वही एक बड़ा सा मस्सा है जिस पर तब मेरा ध्यान विशेष रूप से गया था। देखते ही मन में आवाज उठी कि ये वहीं हैं जिन्हें तुम ढूँढ रहे हो....यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। आत्मा की आवाज कभी झूठ नहीं होती। जब भइया चेतनावस्था में आयेंगे तो वह मुझे अवश्य पहचान लेंगे, देखना।’’

फिर सभी लोग ऑपरेशन की तैयारियों में व्यस्त हो गये। राजीव और शार्दूल इस दु:ख की घड़ी में इस नवीन संबंध से आशान्वित हो उठते हैं।

डॉ. मोहनलाल ने कहा है, ‘‘आज यदि हम राजीव की बात मानकर जैन साहब को देखने यहाँ नहीं आते तो शायद उनसे हमारी भेंट फिर कभी भी नहीं हो पाती।’’
मैंने केवल तीन कहानियों की चर्चा की है यह बताने के लिये कि लेखिका को कहानी-कला से गहरा लगाव रहा है। उसने नये प्रयोग भी किये हैं। कहानी ‘माँ के लिए’ एक ऐसे मातृभक्त पुत्र की गाथा कहती है जो आज के समय में विरल हैं। आज के समाज में कहानी वृद्धों के लिए आशा की किरण तथा नयी पीढ़ी की दूषित सोच को बदलने की प्रेरणा देती है।

सास-बहू के संबंधों को लेकर कई कहानियाँ इस संग्रह में हैं। एक कहानी है- ‘औगण चित्त न धरो’ इसमें सास बराबर अपनी बड़ी बहू की निन्दा करती रहती है, लेकिन जब बड़ी बहू अलग जाकर रहने लगती है और छोटे बेटे का विवाह हो जाता है तो वह छोटी बहू की आलोचना करने लगती है, लेकिन आश्चर्य यह है कि वह इसके साथ बड़ी बहू की तारीफ भी करती है। उसकी पड़ोसन जब इस बात पर उसका ध्यान दिलाती है तो वह कहती है- ‘‘अरे नहीं, गलत ख्याल है आपका, गौरी के लिये तो कभी ऐसा नहीं कहा....।’’

शान्ता हैरान थीं। उन्हें बार-बार लगने लगा कि शायद वह ही गलत है....उन्हें पुरानी बातें ठीक से याद नहीं हैं.....क्योंकि वह पूरी शाम रोहिणी ने गौरी की प्रशंसा और नई बहू उमा की बुराइयों में व्यतीत की थी।
मनोवैज्ञानिक सत्य तो यह है कि जो व्यक्ति हर समय साथ रहता है उसके अवगुण दिखाई देते हैं....उसके गुणों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। जब कभी उमा उनसे दूर चली जाएगी तो संभवत: रोहिणी को उसके गुण प्रभावित करने लगेंगे, अवगुणों को वह बिसार देगी।

इसके बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता। स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर भी कई कहानियाँ इस संग्रह में आयी हैं और लेखिका ने बड़ी कुशलता से पुरुष के चरित्र को उकेरा है जैसे -‘शक’ कहानी है, जिसमें पति के शक के घेरे में आकर पत्नी को आखिर आत्महत्या ही करनी पड़ती है। बड़ी मार्मिक कथा है यह पुरुष की मनोवृत्ति को अंकित करती हुई।

ऐसी ही एक और कहानी है मर्दों के दिमाग को अंकित करती हुई। यह मनोवैज्ञानिक कहानी है- ‘‘मर्दों का दिमाग। ’’
‘दण्ड’ कहानी एक और प्रमाण है पुरुषों के छल का। पत्नी को जब पता लगता है कि उसका पति और नारी से संबंध रखता है तो वह इस बात के लिए पति से प्रश्न करती है। पति अंतत: क्षमा माँग लेता है लेकिन यह कहने से नहीं चूकता कि ‘‘मैंने तो आज तक उसे कुछ नहीं दिया, वह तो स्वयं ही चली आती है।’’ तब उसकी पत्नी उसे चुनौती देती है। तब पति तिलमिला उठता है, ‘‘जब मैंने अपनी गलती मान ली तब भी तुम बोले जा रही हो।’’ तब श्रद्धा के मन में गहरा द्वन्द उठता है- विद्रोह का।

‘‘वह मन ही मन घुटती रही, सोचती रही कि भारतीय नारी घर तोड़ने में इतना सकुचाती क्यों है ? क्यों ? नहीं, वह अब यह यंत्रणा हर्गिज नहीं सहेगी.....अश्विनी को उसकी बेवफाई और विश्वासघात का दण्ड भुगतना ही चाहिए। भुगतना पड़ेगा।’’

‘विश्वासघात’ कहानी मनुष्य के एक और रूप को पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है। हेमन्त एक साधारण व्यक्ति है। वह अलका के घर बराबर आता-जाता रहता है। उनकी माँ की बराबर सेवा करता है। वह उससे प्रभावित होती है। लेकिन वह यह भी अनुभव करती है कि उसके घर से बहुत सी चीजें चोरी होने लगी हैं। हेमन्त के आत्मीय व्यवहार से वह उस पर एकाएक शक नहीं करती फिर भी सब्र की एक सीमा होती है। और एक दिन वह पूछ ही बैठती है, तो हेमन्त की भुकुटि तन जाती है और हेमन्त एकदम तीव्र हो उठता है, ‘‘आप मुझे चोर समझती हैं।’’ लेकिन अलका उसका सामना करती है, कहती है- ‘‘हाँ भैया, मेरा शक तो तुम पर ही है, तुम्हारी उम्र कुछ ऐसी ही है।’’ और यह कहते हुए बोल उठती है- ‘‘तू अपनी कमीज से पीले रंग का पाँच सौ का नोट निकाल।’’ और यह कहते हुए उसने स्वयं ही आगे बढ़ते हुए नोट निकाल लिया। हेमन्त चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।

अलका उसके पीछे-पीछे बाहर हुई तो देखा वह सड़क पर दौड़ा जा रहा है। वह बदहवास सी अन्दर लौटी और कुर्सी पर गिर पड़ी। उसके मन में यहीं प्रश्न  था यदि हेमन्त मेरा सगा भाई या पुत्र होता तो..... ?

अगले दिन सुबह जब वह कॉलेज जाने के लिए तैयार खड़ी रिक्शा की प्रतीक्षा कर रही थी, तब उसके मोबाइल की घंटी बज उठी...उसने फोन ऑन किया....हेमन्त की आवाज थी.....’’ दीदी, क्षमा कर  दीजिये प्लीज, मैंने आपका विश्वास तोड़ा है....,अब मैं तब ही आपको मुँह दिखाऊँगा जब आपका सामान और रुपये वापस कर दूँगा।’’

लेखिका ने न केवल परिवार और समाज के अन्तर में झाँकने की कोशिश की है बल्कि आज के समाज को राजनीति जिस तरह से प्रभावित कर रही है उसकी भी झलक प्रस्तुत की है। ‘अपराधों की राजनीति’ एक ऐसी ही कहानी है। इस कहानी में निश्चय ही आज की जो स्थिति है उसे समझाने का प्रयास किया गया है। किस सीमा तक मनुष्य निर्मम हो सकता है।
तो इस प्रकार सरला जी की ये कहानियाँ व्यक्ति, समाज और राजनीति के अपराधीकरण के नाना रूप प्रस्तुत करती हैं और हमें सोचने को विवश करती हैं। प्रश्न यहाँ सहमति और असहमति का नहीं है, बल्कि आज के समाज के अन्तर में झाँकने का है। समाज व्यक्ति है और व्यक्ति समाज है। वे ही राजनीति का निमार्ण करते हैं। इसी तथ्य को रेखांकित करती हैं ये कहानियाँ।

भाषा सहज और विषयानुरूप है जैसा कि लेखिका ने स्वयं लिखा है- ‘‘मेरी ये कहानियाँ आज के समय की साक्ष्य है।’’ सचमुच इन कहानियों में आज के समाज का वास्तविक चित्र ही उभरकर सामने आया है।

मुझे विश्वास है कि लेखिका भविष्य में हमें और भी परिपक्व कहानियाँ उपलब्ध करायेंगी क्योंकि सफलता की कोई सीमा नहीं होती।

-विष्णु प्रभाकर
13.12.2006

 

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