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श्रंगार - प्रेम >> जहर

जहर

कुलवंत कोहली

प्रकाशक : साक्षी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5449
आईएसबीएन :818626518X

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एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Jahar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

‘ज़हर’ उपन्यास समर्पित है, संसार के हरेक उस व्यक्ति विशेष के नाम जो मुहब्बत की ऊँचाइयों को हासिल करने के बावजूद किन्हीं कारणों से उसे प्राप्त करने में असफल रहा। हम नतमस्तक हैं उन क्षणों की याद में जब प्रथम मिलन के समय रोशनी...रोशनी और रोशनी एवं वातावरण में खुशबू...खुशबू और खुशबू छा जाती है।
कुलवंत कोहली

दो शब्द

मुहब्बत...मुहब्बत और मुहब्बत, जिसे धरती पर जन्म लेने वाले हरेक मनुष्य ने तहेदिल से चाहा है। ‘‘कित्ते जोबन प्रीत बिन सुक गए कुम्हलाए !’’

श्री ग्रंथ साहिब

‘‘अनगिनत यौवन ऐसे हैं जो प्रेम के बिना कुम्हला गए। दुनिया में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं जो पल-पल इसे न चाहता हो। मुहब्बत...मुहब्बत और मुहब्बत, यह उस दार्शनिक की पुकार है जिसने मृत्यु के समय रोशनी...रोशनी और रोशनी चाही थी।’’
‘ज़हर’ उपन्यास सदियों से प्यासे हरेक उस इन्सान की कहानी है जिसके होठ कभी प्यार के पवित्र प्याले तक नहीं पहुँच सके। जिसके लिए सुंदरता और जवानी शारीरिक भूख में बदल गई। अंत में जिसने ज़हर के प्याले को ही मुँह लगाकर अपनी प्यास बुझा ली। ‘ज़हर’ के प्रभाव से हरेक सुंदर विचार झुलसता गया। प्रेम-कहानी वादियों की खामोशी में गुम हो गयी। इसके बाद उसकी जिन्दगी का सबसे मनहूस दिन भी आ गया, जब पहली बार उसने अनुभव किया-‘‘सामने खजूर के पेड़ के पीछे से निकलता हुआ चाँद किसी बूढ़ी औरत के चरखे की तरह खामोश हो-जैसे उसके चेहरे पर किसी बदचलन औरत की तरह छोटी-छोटी फुन्सियाँ निकल आई हों।’’

‘ज़हर’ के हरेक मुख्य पात्र (मानिक, शिशिर और ज़फर’ की आत्मा प्रेम की पवित्रता के लिए तरसती रही।
इन तीनों बेज़ुबान जवानियों की तरह हर रोज पता नहीं कितनी जवानियाँ समाज के बंधनों में जकड़कर नष्ट हो रही हैं। कांटों से घिरी मेढ़ के अंदर पलने वाली कुँवारी सुंदरता की दबी सिसकियों की आवाज इस उपन्यास के लेखक ने बहुत निकट से सुनी है। मानिक, शिशिर और ज़फ़र, मुहब्बत...मुहब्बत...और मुहब्बत की पवित्र यादों की रोशनी में जीवन के हरेक अँधेरे का मुकाबिला कर रहे हैं। इन तीन पात्री की असफल प्रेम-कहानी हरेक रंग में कलम डुबोकर लिखी गई है। अब प्रेम की इच्छा शारीरिक भूख की शक्ल में परिवर्तित हो गयी है। अब जैसे प्रेम की सुंदर मूर्ति औरत के शरीर की गर्मी पाने के लिए ये आत्माएँ भटक रही हैं। अब ज़िन्दा रहने के लिए औरत के गोश्त की गर्मी इनकी प्रथम माँग बन गई है।
दूसरों के प्रेम-पत्र चुराकर पढ़ने में आज मानिक और शिशिर की आत्मा को क्यों कर शान्ति मिलती है ? उन्हें क्यों लगता है जैसे इन पत्रों में केवड़े के फूल की तरह भटकते पवित्र प्रेम की भीनी-भीनी सुगंध से उनके अन्दर का खौलता हुआ ज़हर शान्त होने का असर रखता है ?

मानिक क्योंकर बस में बैठी किसी लड़की के करीब बैठकर उसके शरीर में धँस जाना चाहता है ? ज़फ़र क्योंकर आज छोटा नागपुर की पवित्र धरती में ज़हर उगल रहा है ? जहाँ अब भी प्यार आज़ाद है-जहाँ कोई किसी के प्रेम-पत्र नहीं चुराता-कोई किसी के प्रेम-पत्र नहीं पढ़ता।

शान्ति के लिए आज भी मनुष्य उसी तरह युद्ध-स्तर पर कार्यनिष्ठ है जैसा कि वह आज से पाँच हज़ार साल पहले हरमुमकिन कोशिश करता रहा था। आज अमन अपनी पुरानी मंजिलों से अलविदा लेकर हस्पताल की चारदीवारी के अंदर आ गया है। और यह राज़ अभी तक किसी को मालूम नहीं !! शान्ति की खोज में हस्पताल के बाहर रहने वाला मानिक सारी उम्र अशान्त रहा परंतु हस्पताल की चारदीवारी के अंदर प्रवेश करते ही उसे सदियों से खोई शान्ति फिर उपलब्ध हो गयी। हस्पताल के बाहर तो युद्ध है। अशान्ति है-शोषण है। अगर हस्पताल की चारदीवारी सारी दुनिया को अपने आप में समेटने की क्षमता रखती तो संसार में सम्पूर्ण शान्ति होती। शिशिर अब भी प्रेम-पत्रों के सहारे शान्ति हासिल करना चाहता है। ज़फ़र ने प्रेम खरीदना शुरू कर दिया है।

‘ज़हर’ उपन्यास का ताना-बाना मनोवैज्ञानिक आधारशिला पर आधारित है। यह प्राकृतिक दृश्यों की रौनक के साथ-साथ एक मार्मिक एवं दिलकश उपन्यास है। संगमरमर से तराशी हुई एक अति सुंदर तस्वीर की तरह लेखक ने कलात्मक ढंग से अपनी बात कही है। हम सुदृढ़ विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इस उपन्यास के आम जनता के समक्ष आने पर हिन्दी उपन्यास जगत् के धारा-प्रवाह में एक नए रास्ते की बुनियाद पड़ेगी। हमें गर्व है कि ‘ज़हर’ उपन्यास के विषय में स्वर्गीय राजिन्दर सिंह बेटी (उर्दू साहित्य के प्रथम श्रेणी के कथाकार) ने अपने अवलोचन में लिखा है-

‘ज़हर’ उपन्यास ने मुहब्बत का अपनापन और शान्ति का सबक दिया है ताकि यह संसार न केवल रहने के लिए एक बेहतर स्थान साबित हो बल्कि एक स्वर्ग बन जाए-क्योंकि मानवीय जीवन को आकाश से पृथ्वी पर उतारा गया है।

प्रकाशक

मेरी नज़र में

सदियों से विभिन्न लेखकों ने मुहब्त के विषय में अपनी लेखनी की आजमाइश की है और अपने-अपने अनुभवों एवं प्रयोगों की रोशनी में कभी खुलकर और कभी किसी कला की आड़ लेकर इस सुंदरता की देवी के बंद लिबास की तहें खोलने की कोशिश की है। क्या मुहब्बत केवल एक रोशनी है जो किसी के हाथ में नहीं आती और जिसे पा लेने के प्रयत्न में मानवीय हाथ हमेशा के लिए काँपते रह जाते हैं। या यह सच्चाई एक ऐसी सच्चाई है जिसकी दुनिया बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करती आई है ! और जो किसी के, अपने इष्ट को मनाने के लिए नम्रतापूर्वक प्रार्थनाएँ करते हुए। नतमस्तक बैठे रहने के समान है ! आशिक के दिल में हज़ार दिलों की तड़पन को देखकर, रोशनी भी मानवीय शक्ल में सामने चली आना चाहती है ?
एक बात निश्चित है-
‘‘कित्ते जोबन प्रीत बिन सुक गए कुम्हलाए !’’

ग्रंथ साहिब

अनगिनत यौवन ऐसे हैं जो प्रेम के बिना कुम्हला गए। दुनिया में कोई ऐसा मनुष्य नहीं जो पल-पल इसे न चाहता हो। मुहब्बत-मुहब्बत और मुहब्बत, यह उस दार्शनिक की पुकार है जिसने मृत्यु के समय रोशनी...रोशनी और रोशनी चाही थी !
दुनिया में शान्ति और युद्ध के बीच जितने भी कारण हैं वह मुहब्बत के होने या न होने की वजह से हैं।
मुहब्बत की प्राप्ति क्या इस बात पर निर्भर है कि प्रतिद्वन्द्वी आपकी लिशकारेदार निगाहों के तले तिलमिलाए या आपकी धड़कती-फड़कती मुस्कुराहट का जवाब परदों से घिरी एक लज्जाभरी मुस्कान से दे या वह आपकी ओर ध्यान दे या न दे, यह एक ऐसी चीज़ है जिसका अस्तित्व मोहब्बत करनेवाले के अस्तित्व पर ही निर्भर है !
अगर ऐसा है तो फिर-
‘‘इश्क पहले माशूक के दिल में पैदा होता है !’’
क्या मतलब ?

फ़िलहाल इस दार्शनिक बहस को छोड़िए। यह बात मान ली गयी है कि मुहब्बत है तो सब कुछ है वर्ना कुछ भी नहीं।
प्रायः किसी चीज को स्पष्ट रूप को मनवाने के लिए स्पष्टता की बजाय उस चीज के विपक्ष में, उसकी पेचीदगियों की दलीलें पेश करनी पड़ती हैं। प्रस्तुत उपन्यास के लेखक ने अपने उपन्यास ‘ज़हर’ में इसी तकनीक से काम लिया है। मानिक, शिशिर और ज़फ़र उपन्यास के ऐसे पात्र हैं जिन्हें जिन्दगी में कभी मुहब्बत न मिली और इसीलिए उनके शरीर और मस्तिष्क की शक्लें खराब होकर रह गयीं। कोई दीवाना होकर रह गया और कोई लावारिस और उनकी वाणी और उनके दिल की सुलगती आहें यही पुकारती रहीं-‘‘हमें प्यार नहीं मिला ! हमें मुहब्बत नहीं मिली !!’’
इस तरह-‘‘मेरे मरने को भी वह मेरे मरने की तमन्ना समझा।’’

मानिक और शिशिर दूसरों के प्रेम-पत्र पढ़कर मृगतृष्णा जैसी ज़िन्दगी गुज़ारने की कोशिश करते हैं और सहारों के सहारे जीते हैं। जैसे गोर्की की कहानी ‘her-lover’ में महबूबा किसी फ़र्जी आशिक से अपने नाम खत लिखवाकर एक लड़के को पढ़ने के लिए दिया करती थी और फिर उसी से जवाब लिखकर अपने नाम डाक में डाल दिया करती थी। इस कहानी को पढ़कर पाठक अचानक समझता है कि आशिक ही उसका माशूक बन गया। लेकिन बीच में वह लड़का कौन था, जिसे इस अजीबोगरीब खेल का पात्र बनाया गया ?

ज़फ़र का दिल मुहब्बत से भरा हुआ है। लेकिन उसकी मुहब्बत की, उमड़ती हुई बाढ़ के सामने इस किस्म के बाँध बना दिए गए हैं, जैसे नीदरलैंड में समुद्र के किनारे नज़र आते हैं। जिनकी वजह से देश के गाँव और कस्बे और शहर बचे हुए हैं। ज़रा अंदाज़ कीजिए अगर इस समुद्र को प्रकट होने का मौका दिया जाए तो इस देश के लोगों की क्या हालत होगी ? लेकिन मुहब्बत की इस बाढ़ को रोका जाए तो फिर वही होता है जो ज़फ़र के साथ हुआ। वह एक सामाजिक लावारिस और सामाजिक खतरा बनकर छोटानागपुर के पवित्र वातावरण को ज़हरीला कर देता है। उसमें ज़हर भर देता है। वेश्याओं के यहाँ जाकर मुहब्बत या मुहब्बत के कलपुर्जों को सरे बाज़ार खरीदता है और अपनी ओर से एक मोटर बनाकर ज़िन्दगी की गलियों और बाज़ारों में इधर-उधर घूमते फर्राटे भरता लोगों के लिए उनकी जान के लिए खतरा बन गया है ! मुहब्बत न पा सकने का ज़हर मानवीय शरीर की रगों में विभिन्न तरीकों से दाखिल होना शुरू हो जाता है।

लड़की, जिसे महबूबा होना चाहिए था, अपने आशिक को न पा सकने की सूरत में नागिन की शक्ल धारण कर लेती है। वह नारी जिसके मुँह से मधुर शब्द निकलते हों-और जो प्रायः मधुर बोलने वाली हो-वह अचानक चुपचाप कुछ भी न बोल पाए। लेकिन क्या जीवन में किसी चीज की कमी जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने में रुकावट बनती है ? अगर ऐसा होता तो आज से पाँच-सात हज़ार साल पहले शान्ति के लिए हर मुमकिन प्रयत्न करने वाला मनुष्य मानिक की इकाई में हस्पताल के अन्दर वह शान्ति न पा लेता तो उसे हस्पताल के बाहर न मिल सकी। और जिसे उसके साथी शिशिर और ज़फ़र न पा सके।

‘ज़हर’ उपन्यास के विभिन्न पात्र इकाइयों की शक्ल में एक, मनोवैज्ञानिक तरीके से, मानवीय समाज के इस दौर, और आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुहब्बत न पाने की वजह से उपन्यास के हरेक पात्र का जीवन ज़हरीला रूप धारण कर लेता है। इसे बताने और साबित करने के बाद अब शायद इस बात की ज़रूरत नहीं रह जाती, कि ‘ज़हर’ उपन्यास ने ‘मुहब्बत का अपनापन’ और ‘शान्ति’ का सबक दिया है ताकि यह संसार न केवल रहने के लिए एक बेहतर-स्थान साबित हो बल्कि एक स्वर्ग बन जाए। क्योंकि मानवीय जीवन को आकाश से पृथ्वी पर उतारा गया है।
उपन्यास की शैली के विषय में यह कहना बेहतर होगा कि इसकी पूरी कहानी को वर्णनात्मक शैली में निभाने के मोड़-तोड़ पर प्राथमिकता दी गयी है और उपन्यास लिखने के दौर को एक अन्तरराष्ट्रीय दौर के अन्दाज़ में देखा गया है। जिसमें ताने-बाने की भागदौड़ को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता और न ही हालात और घटनाओं को अनावश्यक तरीके से नाटकीय रंग देने का प्रयत्न किया जाता है। पात्रों के जीवन को पूरे रंगों से सजाया गया है और जीवन की सत्यता को बड़ी ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास में खासतौर पर इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि इसमें भावुकता का अंश शामिल न हो ! यह गुण पूरे भारत के प्रथम और प्रचलित एवं प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं की खास पहचान है। मेरे ख्याल में ‘ज़हर’ उपन्यास के लेखक ने तकनीकी मसलों को आज़माने की कोशिश की है और नतीजा बहुत उत्साहवर्धक साबित हुआ है।

राजिन्दर सिंह बेदी

एक समय गुज़र चुका है-जबकि मैं घर से रोजी के लिए निकला था और आज पहाड़ी इलाके में रहते हुए जब कभी वीरान वादियों में राहभूले किसी पहाड़ी पक्षी का जुदाई का गीत सुनता हूँ-नीचे खड्ड के सबसे ठंडे चश्मे से पानी का घड़ा भरकर सुरमई पत्थरों के सीने पर अपने पाँव के निशान बनाती किसी अलहड़ लड़की को देखता हूँ। (पत्थरों ने जैसे अपनी श्वासें रोककर प्यार की इस अंतिम भेंट को इतने ज़ोर से सीने से लगाया हो कि उनकी पसलियाँ टूट गई हों और जीवन की सबसे बड़ी तमन्ना पूरी होने पर उन्होंने स्वयं ही अपना जीवन हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर लिया हो)-या फिर कंकरीली ज़मीन पर बिछी चील की सूखी-सूखी पत्तियों को मजबूरन पेड़ से अलग होना पड़ा हो और जो जुदा होने से पहले कई बार अपने प्रेमी से गले मिली हों-और अंत में हाथ हिला-हिलाकर अंतिम विदाई देते हुए यह कहती ज़मीन पर आ गिरी हों-
‘अच्छा, तुम्हारे दिल में नहीं तो चरनों में ही सही !’ इन सारी बातों को देखकर मेरे दिल में कुछ घुटन-सी उत्पन्न होने लगती है और परदेस में अपने शहर की-अपने दोस्तों की, और बहुत-सी दूसरी यादें ताज़ा होने लगती हैं। ऐसे मौके पर प्रायः मैं वे पुरानी चिट्ठियाँ निकालकर एक बार पढ़ लिया करता हूँ जो कि समय-समय पर मेरे दोस्तों ने मुझे लिखी थीं। इनमें कुछ चिट्ठियाँ मैंने सबसे अलग रखी हुई हैं। यह मेरी नहीं हैं। इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन फिर भी ये मेरे पास हैं और मैं अक्सर इन्हें पढ़ा करता हूँ। एक बार नहीं, कई बार इन्हें पढ़ चुका हूँ। शायद कई बार फिर पढ़ूँगा। लगता है जैसे प्रेमिका से प्रथम मिलन की शाम की तरह ये सदैव नई रहेंगी-केवड़े की बंद छली की तरह बार-बार खोलने पर इनसे हमेशा नई खुशबू-नई महक मिलती रहेगी।

इसके साथ-साथ यह भी सच था कि इन चिट्टियों को जब-जब मैंने पढ़ा, मुझे यही महसूस हुआ कि जैसे कोई पहाड़ी लड़की पहाड़ के नोकीले रास्तों पर चलकर-पत्थरों से उलझती हुई-बर्फ़ की चट्टान पार करती हुई अपने चाहने वाले की बस्ती के नज़दीक पहुँचकर नदी के किनारे पाँव से खून के दाग साफ़ कर रही हो और किसी बेरहम राहगीर ने हथौडे़-मार-मार कर नदी का पुल तोड़ दिया हो और पहाड़ी लड़की नदी के पार बैठी सामने की बस्ती को देखकर अपनी मज़बूरी पर सिसक-सिसक कर रो रही हो ! जैसे सड़क के करीब झुक आई किसी पेड़ की शाखा किसी कार से टकरा कर जमीन पर आ गिरी हो-जैसे चेरी के बाग़ में उड़ती तितली को किसी ने फ़ौजी बूटों से मार-मार कर मसल दिया हो...!!

यह उस समय की बात है, जब मैं अपने शहर से आया था और मेरे कई बार इन चिट्ठियों के माँगने पर भी मेरे दोस्त मानिक ने जब मुझे नहीं दीं (क्योंकि पहले से उसके पास थीं) तो फिर मैंने इस सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं चलाई। आखिरी दिन जब वह मुझे विदाई देने बस-स्टैंड पर आया तो न जाने क्या सोचकर वह ये चिट्ठियाँ भी अपनी जेब में डाल लाया था और बस के चलते ही उसने कहा था-‘‘ये चिट्ठियाँ मैं तुम्हारे लिए ले आया हूँ। मेरे पास तो बेकार पड़ी रहेंगी और तुम शायद इन्हें बार-बार पढ़कर कोई खूबसूरत कहानी लिख लो।...अवश्य ही ये तुम्हारे किसी उपयोग में आ जाएँगी...!’’
तब से ये चिट्ठियाँ मेरे पास हैं और मैं जब कभी बहुत उदास हो जाता हूँ, जीवन से उकता जाता हूँ, या फिर जब उस जीवन की तस्वीर मेरे सामने आ झलकती है जब मैं बहुत नज़दीक होकर किसी की श्वासों की महक सूँघी थी, बहुत-सी नासमझी की बातें की थीं तो मैं किसी पहाड़ी चट्टान के नीचे रखकर इन सारी यादों का दम घोंट देने की कोशिश करता हूँ। इस पर भी जब इधर-उधर से फ़िसलकर कुछ यादें आ उभरती हैं तो मैं इन चिट्ठियों को पढ़ लिया करता हूँ।

मानिक से मेरी पुरानी दोस्ती थी। शायद उस समय हम एक-दूसरे के अधिक निकट आ गए थे, जब मैं प्रेम में नाकामयाब होने के बाद दिन तो क्या, रातों को भी उसके यहाँ पड़ा रहता। और वह प्रायः लुंगी पहने मेरे पास बैठा अपने मुहल्ले की बदचलन औरतों का ज़िक्र किया करता। इनमें कविता नाम की किसी बंगाली लड़की का बार-बार ज़िक्र आता, जिसे वह बेहद चाहता था।

पुरुलिया रोड के सामने से होकर एक लम्बी-सी गली चली गयी है। इस गली में अधिकतर गुजराती और बंगाली रहते हैं। गिनती के पंजाबियों के घर भी हैं। यहाँ पर एक अच्छे से होटल की दूसरी स्टोरी पर मानिक रहता था। उसका कमरा गली की ओर खुलता था। और वह प्रायः गली की ओर कुर्सी निकालकर कॉलेज के वक्त कॉलेज जाती लड़कियों को देखा करता।
इन कुछ लम्हों में मानिक अपने अगल-बगल की दुनिया से नाता तोड़कर इर्दगिर्द की हरेक बेढंगी चीज़ से, दिल के अंदर लाखों की तरह पतली हुई गंदी-सड़ी और बोझीली सोचों से रिश्ता तोड़कर अपना सारा ध्यान गली की ओर केन्द्रित कर देता। उसने कई बार महसूस किया कि शायद कभी न खत्म होने वाले शहर की इस साफ़-सुथरी गली का महत्त्व शायद स्वर्ग की गलियों से किसी भी सूरत में कम नहीं ! मौत के बाद यदि उसे स्वर्ग जाने का निमंत्रण मिला तो वह उसे टालकर इस गली के किसी साफ़-सुथरे थड़े पर बैठकर जवान धड़कनों के खुशबूदार वातावरण में, कुँवारी ज़िन्दगी की मजबूरियों पर कविताएँ लिखा करेगा।



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