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एक हांफती हुई शाम

राजेश जैन

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5451
आईएसबीएन :81-85478-90-2

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हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार राजेश जैन का एक श्रेष्ठ कहानी संग्रह

Ek Hafati Hui Sham

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक हांफती हुई शाम

हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार राजेश जैन ऐसे विरल लेखक हैं, जिन्होंने सभी विधाओं में भरपूर लिखा है, और विरलतम इस मायने में कि वे पेशे से बिजली इंजीनियर हैं। इस अप्रतिम गुण की छाप उनकी कहानियों में स्पष्टतः समायी हुई है और जो गत सदी के साहित्यिक इतिहास में एक अलग आयाम के रूप में उभर कर स्थापित भी हो चुकी है। कहानियों की भाषा में काव्यात्मकता अनायास ही परिलक्षित होती है।

यूँ तो प्रत्येक कहानी में परिवेश की समग्रता के समस्त तत्त्व मौजूद हैं, किंतु पंचतत्त्व की मुखर प्रचुरता की भांति इन्हें पांच आयामों में वर्गीकृत किया जा सकता है। सत्तर और अस्सी के दशक में धर्मयुग, सारिका, हंस, रविवार साक्षात्कार एवं कहानियां आदि स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं चर्चित ये कहानियां अपने समय का सशक्त अनुभूतिजन्य दस्तावेज़ हैं।
पहले तत्व ‘प्रवास’ के अंतर्गत आती हैं : गमले, लेडी लोलीपॉप एवं शीर्षक कहानी एक हांफती हुई शाम। लेखक के साथ उनका इंजीनियर भी उस प्रवासी देशकाल से गुज़रता है एवं पाठकों के लिए समेटता जाता है मार्मिक स्थितियों का अद्भुत मानसिक स्पंदन।

दूसरे तत्व ‘औद्योगिकता’ में उद्योग से जुड़े लौह प्रसंगों के अंदर की मानवीय संवेदना एवं कोमलता को छुया गया है : अंधी रोशनी, खदान, जी साब, मंटोरबाई तथा पाइप में बहती नदियां कहानियों के माध्यम से।
कार्यालयों की लालफीता शाही में आम संवेदनशील व्यक्ति किस विद्रूपता से पिसता है, यह दर्शाती हैं तीसरे तत्त्व : ‘दफ़्तर दाह’ की कहानियां : बुत की आत्मा और अंगूठा छाप।

चौथे आयाम में मध्यवर्गीय पारिवारिक विवशता का ‘शाश्वत पैना अहसास’ देखा जा सकता है : भूमिका, अपहरण, झांकी मुक़दमा नोटिस इस्तेमाल मोक्ष एवं गोल कहानियों के माध्यम से।
‘सामाजिक एवं राजनैतिक धरातल’ के पांचवें तत्त्व को भी लेखक ने व्यंग्यात्मक शैली में लिखी कहानी ‘मनहूस’ द्वारा स्थापित कर दिया है।

गमले


मौसम आतंकवादी हो गया था-सफ़ेद बर्फ़ ख़ौफ़नाक आतंक की भांति चारों ओर जमी हुई थी। यह सातवां दिन था। बर्फ ज्यों की त्यों बेशरमी से जमी हुई थी और कीचड़ होती जा रही थी। पालीवाल साब सोच रहे थे कि गोरों के देश में कीचड़ भी गोरा होता होगा।

बाहर निकलने का उनका ज़रा भी मन नहीं था। एक तो ठंड का आतंक और फिर कीचड़ हो रही बर्फ़ की फिसलन। सड़क पर चलना ख़तरनाक़ था क्योंकि रह रह कर तेज़ रफ़्तार से वहां कोई न कोई कार गुज़रती रहती थी। गतिशील पहियों के कारण सड़क की बर्फ़ पटरियों की तरह साफ़ हो गयी थी, जबकि फुटपाथ पर जमी हुई थी। कहीं कहीं कुछ पदचिह्न अवश्य यों ही फेंक दिये गये, फ़ालतू जूतों की तरह पड़े थे। बर्फ़ से बच कर चलने के मोह में वे कई बार सड़क पर उतर कर चले भी थे लेकिन बारंबार कार का हॉर्न उन्हें बाधा पहुंचा देते थे। उन्हें ग्लानि भी हुई क्योंकि यहां कार के हॉर्न विरले ही बजाते हैं। हॉर्न बजाना अपमानजनक माना जाता है, जिसका तात्पर्य होता है, वाकई सामने बाला कोई बेहद मूर्खतापूर्ण या गंभीर ग़लती कर रहा है, अपने ग़लत या फूहड़ होने की सार्वजनिक घोषणा वे हॉर्न के रूप में कई बार सुन चुके थे।
एनारॉक की टोपी से उन्हें गर्दन घुमाने में तकलीफ़ होती थी, अतः ठंडी हवाओं के प्रहार को झेलने के लिए उन्होंने अपना ऊनी कनपोट पहन लिया था। कनटोप के कारण अनायास ही लोगों का ध्यान उनकी ओर चला जाता था। जहां कुछ युवक-युवतियां कनटोप को नये फ़ैशन के रूप में उत्सुकता से देखते, वहीं कुछ या बच्चे उन्हें आतंकवादी समझने लगते। यह समझने में कि लोग क्या समझ रहे हैं, उन्हें काफ़ी वक़्त लगता था।

दुकानों पर नज़र डाली। अधिकांश बंद थीं। दुकानें भी यहां दफ़्तर में काम करने वाले क्लर्कों जैसी हैं जो पांच बजते ही फ़ाइलें बंद करके घर दौड़ जाते हैं। यद्यपि दुकानें बंद थीं किंतु कांच के पार अंदर का सामान भलीभांति देखा जा सकता था। वे स्वयं ट्रेनिंग क्लास से पांच के बाद आते थे और तब तक दुकानें बंद हो जाती थीं। लेकिन बाज़ार में घूमना फिर भी निरर्थक नहीं था क्योंकि अक्सर बंद दुकानों में कांच के इस पार से चीज़ों का मुआइना करना और उनकी क़ीमतों का जायज़ा लेना उनके लिए न केवल दिलचस्प था, अपितु सुरक्षित भी था। अक्सर वे शोकेस के कांच को घूरते हुए चीज़ों की क़ीमत पढ़ते पौंड तथा पेंस को रुपयों में तब्दील कर हिसाब लगाने की कोशिश करते कि अपने देश की तुलना में वह चीज़ कितनी सस्ती या महंगी है। मन में बजट की उठापटक भी करते, इसे ख़रीदा जाये या नहीं ? दूसरी दूकानों पर देखी गयी उसी चीज़ की क़ीमत की तुलना करते और फिर सोचते कि कभी शनिवार को दिन में आकर चीजें ले जायेंगे। इस तरह मन ही मन वे कई चीज़ों को ख़रीद कर भूल भी गये थे। क्योंकि शनिवार आने तक अनायास उनका विचार बदल जाता।

सड़कों पर शाम बड़ी सुनसान होती थी। दुकानों के बंद शोकेस में टिमटिमाती रोशनी और गुज़रती कारों की हेडलाइट्स का तीखा स्पर्श पालीवाल साब को लगता कि उनके अंदर का परिवेश निकल कर बाहर आ गया है। वैसा ही सुनसान था मन...जो भी था शोकेश में बंद बुझा बुझा या गुज़रती कार की हेडलाइट की तरह क्षणिक चकाचौंध पैदा करने वाला।

लगभग घिसटते हुए वे सड़क के छोर पर आ गये। रेस्तरां अगले मोड़ पर था। दूर से उसका बोर्ड ‘तंदूरी कॉर्नर’ चमक रहा था। बोर्ड पढ़ कर उनकी आंखों में एक परिचित चमक आ गयी। लगा, कोई सूक्ष्म संकेत आंखें मिचमिचा रहा है। इस संकेत को वे कई गुना बड़ा करना चाहते थे संभवतः यह इस वजह से था कि वे जल्द से जल्द अपने देश वापस लौट जाना चाहते थे। महीनों की तारीख़ को उलटा गिनना शुरू कर दिया था। प्रशिक्षण का यह भाग बहुत उबाऊ था। डेढ़ माह तक अजनबी जगह पर उन्हें अकेले रहना था। अभी तक तो बाक़ी साथी थे, इसलिए बक-चक में समय निकल ही जाता था। यहां इतना संपन्नता एवं सौजन्य के बावजूद बेगानापन था। गेस्ट हाउस की मालकिन का व्यवहार औपचारिक बिंदुओं से घिरा हुआ था। शुरू में ही उसने दो चाबियां थमा दीं थीं-एक कमरे की, दूसरी बाहर वाले दरवाजे की। बाहर वाला दरवाज़ा अपने आप लॉक हो जाता था। चाबी होने पर ही उसे बाहर से खोला जा सकता था। कॉलबेल पहली बार आने वाले आगंतुक के लिए थी, अन्यथा वे कभी भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे। मालकिन मिसेज़ पोटन को उनसे कुछ नहीं लेना देना था। सुबह ब्रेकफॉस्ट के लिए तैयार हो कर वे डायनिंग हाल में आते, तब किचन में खटर-पटर कर रही मिसेज़ पोटन से ‘गुडमार्निंग’ का आदान-प्रदान होता,, बस उसके बाद संभवतः वे स्वयं नहीं चाहती थीं कि कोई उन्हें डिस्टर्ब करे। शाम को लौटने पर कमरा जमा हुआ मिलता तो ज़रूर मिसेज़ पोटन का विचार आता जो नियमित उनकी अनुपस्थिति में कमरा साफ़ कर जाती हैं। नियमित व्यावसायिक क़िस्म का सद्भाव था मिसेज़ पोटन के व्यवहार में। एक बात उन्होंने बहुत ही स्पष्ट देखी थी-पांच कमरों के गेस्ट हाउस में जब भी सभी कमरे भरे होते तो मिसेज़ पोटन खिली खिली लगतीं, प्रत्येक कमरे का भराव उन्हें दस पौंड प्रतिदिन जो दिलवाता था। कमरे अगर खाली पड़े होते तो मिसेज़ पोटन की खिलखिलाहट उसी अनुपात में कम हो जाती। अक्सर वे सोच भी जाते-पौंड हो या रुपया, पैसा आखिर पैसा है, उसकी कोई मूल राष्ट्रीयता नहीं होती।

एकबारगी उन्होंने मिसेज़ पोटन को टटोला भी था। गेस्ट हाउस के बाहर फुटपाथ के एक खंभे पर पोस्टर टंगा था-‘एल्डरली पीपल’...मिस्टर एंड मिसेज़ पोटन रिटायर्ड व्यक्ति थी, इसलिए समाज में क़ानूनी तौर पर उनकी पहचान थी। मिसेज़ पोटन ने गर्व से बताया था, ‘‘मैं नेवी में भी थी तथा माउंटबेटन जैसे अफसरों की देखभाल करती थी। यंग पीरियड समुद्र और जहाज़ों पर बीता है। वहीं मिस्टर पोटन से मुलाक़ात हुई जो सबमैरीन डिटेक्टिव थे।’
यद्यपि अब नेवी तथा समुद्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। एकाकीपन का गहरा सागर अभी भी उनके इर्द-गिर्द मंडराता रहता है। फिर गेस्ट हाउस भी समुद्र के किनारे है। बच्चों का साथ छोड़ दिया पर वे ख़ुश थीं कि समुद्र अभी पास है, उनसे जुड़ा हुआ है। वे मानती हैं कि समुद्र की गोद में उनके जीवन का काफ़ी समय बीता है। पोटन के साथ पनडुब्बियों में भी रही हैं वे। उस दिन बताने लगीं, ‘‘सबमैरीन मुझे समुद्र के अंदर, उसके गर्भ में उतना न रहे होंगे, मैं समुद्र की बेटी हूँ।’
सुनकर वे मंत्रमुग्ध हो गये थे। बाहर जब भी समुद्र के किनारे जाते तो उन्हें मिसेज़ पोटन की बातें लहरों पर लिखी हुई नज़र आतीं। कुछ दूरी पर ही अमेरिकी न्यूक्लियर सबमैरीन बेस था। इस बारे में मिसेज़ पोटन ने एक बार काफ़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्ति की थी, ‘बहुत ख़तरनाक है यह न्यूक्लियर सबमैरीन बेस यानी समुद्र के गर्भ में एटामिक फुयेल। उसके वेस्ट घातक है। लगता है समुद्र के गर्भ में कैंसर हो गया है। भयंकर कीटाणु पल रहे हैं वहां। कभी भी न्यूक्लियर वार छिड़ी तो यहां के तटीय समुद्र में गर्भस्थ मिसाइलें दनादन उड़ चलेंगी। तब न जाने हमारे देश स्कॉटलैंड का क्या होगा ?’
‘स्कॉटलैंड ! आपका देश ? वह तो प्रदेश हैं इंग्लैंड का।’ एकाएक वे प्रश्न कर बैठे पर लगा, व्यर्थ ही मूर्खता की। कार्डिफ में थे, अक्सर लोग उनसे पूछते थे, ‘आपको हमारा देश वेल्स कैसा लगता है ?’
अपने कुछ उसी तरह जैसे दिल्ली या मुंबई में कई लोगों का अपने देश से मतलब होता था-अपना गांव।

सोच एकाएक थम गयी। कोने के डिस्को क्लब ने ध्यान खींचा। आज भी बाहर की दीवार से सट कर एक जोड़ा चिपटा हुआ था। छिपकली की तरह वितृष्णा सी हुई कैसा विकार है इस प्यार में। यों सट कर बस कमसमाते रहना जैसे कोई कुंडा अभिशप्त आत्मा की तरह मुक्त न हो पा रही हो, भूत बन गयी हो। इसके विपरीत देशी कबूतरों के चोंच लड़ाते जोड़ों की याद आना उन्हें सुकून देता था। अजीब लगता था उन्हें। वे महसूस करते कि वे भी समुद्र के अंदर तलहटी की दुनिया में हैं जहां विचित्र मछलियां मंडरा रही हैं। कभी इच्छा हुई थी कि अंदर क्लब में जा कर वहां की दुनिया देखेंगे, किंतु जेब और नैतिकता का दबाव उन्हें रोक देता था। बाहर के दृश्य ही अंदर की हवा का अनुमान करा देते थे।

‘तंदूरी कॉर्नर’  निकट आ गया था। मन उत्साहित हो उठा था, जैसे सोच के सुस्त पड़े सांप ने फन उठा दिया हो। उसके बगल वाली जर्नल गुड्स की दुकान भी खुली थी और मिस्टर देसाई मुस्तैदी से काम में जुटे थे। धुंधले कांच के पार उनकी छवि फिर भी दिखायी दे रही थी। रोज़ की आदत के अनुसार पालीवाल साब ने अभिवादन में हाथ उठाया। प्रत्युत्तर में देसाई ने तेज़ी से हाथ हिलाया। हाथ के साथ-साथ देसाई के होंठ भी हिले। शायद वे कुछ कह रहे थे और ऐसा आभास मिल रहा था कि जो कुछ वे कह रहे हैं वह पूरी गर्म जोशी के साथ कह रहे थे किंतु आवाज कांच की दीवारों को भेद कर बाहर आने में असमर्थ थी। आवाज़ की विवशता का अनुमान उन्हें सहज ही हो गया। कई मायनों में वह आवाज़ और उसकी विवशता पालीवाल साब को महत्त्वपूर्ण लगी। उन्हें लगा, देसाई के चेहरे के भाव आवाज़ बनकर कांच के पीछे विवश हैं।

‘चलो, कुछ परचेजिंग कर लें। खाना खाने के बाद रुकने की इच्छा नहीं होती,’ उन्होंने सोचा और देसाई की ओर बढ़ गये। देसाई की दुकान में उन्हें ऐसा लगता था मानो विदेशी समुद्र के गर्भ में छिपा हुआ अपने देश का कोई अंश हाथ लग गया हो। यह सोचकर उन्हें रोमांच हो आया कि वे देसाई की जनरल गुड्स की दुकान का नहीं, अपितु अपने देश का दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर घुस रहे हैं।

जैसे ही उन्होंने दरवाज़ा खोला, देसाई का हाथ अनायास ही हीटर के स्विच पर चला गया।
पालीवाल साब ने हमेशा की तरह सिर से कनटोप उतारते हुए कहा, ‘‘बाहर बहुत ठंड है।’’
‘‘इसीलिए ही तो मैंने पहले से ही हीटिंग बढ़ा दी। मुझे मालूम है, यहां इंडियंस को सर्दी ख़ूब लगती है।’’
‘‘अंदर यहां गर्म है। ऐसा लगता है, अपने देश के मौसम में आ गये। इसका कारण न केवल हीटिंग है, अपितु आप भी हैं, देसाई जी। यहां आता हूं तो हिंदी के शब्दों की गर्मी सुकून पहुंचाती है।’’
‘‘क्या मैं वाकई ठीक हिंदी बोल सकता हूं ?’’
‘‘हां।’’
‘‘सच ! धन्यवाद।’’
‘‘इसमें धन्यवाद की क्या बात है ?’’

‘बात है भाई साब, मैं कभी कभी बहुत डर जाता हूं कि कहीं अपनी भाषा ही न भूल जाऊं। घर में कोशिश करके हम हिंदी ही बोलते हैं पर बच्चों को बाहर की दुनिया में भी रहना पड़ता है। वे उतनी सहूलियत से हिंदी नहीं बोल पाते। उनके लिए अंग्रेजी बोलना बहुत आसान होता है पर मैं होशियार रहता हूं। कार में सिर्फ़ हिंदी गीतों के कैसेट्स रखता हूं। लांग ड्राइव पर जाते हैं तो उन्हें ही सुनते रहते हैं। मैं जहां तक हो सके हिंदी प्रोग्राम सुनता हूं, पर कभी कभी दहशत होती है। इस तरह इंजेक्शंस की तरह कब तक भाषा को उनमें रोपता रहूंगा। संस्कार के कीटाणु तो सांस के साथ अन्दर जाने वाली हवा में होते हैं। और यहां की हवा के कीटाणु हमें पसंद नहीं। आप भी तो जानते हैं सिक्सटीन का इंतज़ार करते हैं अपने ही कन्फ़्यूज़्ड आकाश में।’’

एकाएक पालीवाल साब को बाहर से देखे गये देसाई जी याद आ गये। कांच के अंदर वे मर्तबान में रखी मछली जैसे लगे थे, अपने इर्द-गिर्द एक छोटे से समुद्र को ओढ़े हुए।
‘‘और क्या हाल है ?’’
‘‘बस चल रहा है। आप देश कब जा रहे हैं ?’’
‘‘सत्ताईस को। उलटी गिनती चालू हो गयी है अब तो। लगता है जल्दी वापस जायें।’’
‘‘सिर्फ़ दो महीने में यह हाल ? हम बीस साल से बाहर हैं।’’
‘‘आपका काम-धंधा भी है।’’
‘‘वही मजबूरी है। युगांडा से निकाले गये, यहां आ गये। मैं कभी भारत में अधिक नहीं रहा पर उसे अपना देश मानता हूं। पिताजी वहीं हैं। पहले युगांडा में सर्विस करते थे, बुढ़ापे में वापस चले गये गुजरात। वहीं मरना चाहते हैं। मैं यहां बिजनेस संभाल रहा हूं। युगांडा से बिजनेस समेट कर यहां जमाया, पर लगता है बुढ़ापे के पूर्व ही मुझे यहाँ कई बार मरना पड़ा है। आगे और भी...’’

तभी दुकान का दरवाज़ा खुला। एक अंग्रेजी ग्राहक था। देसाई जी एकदम चौकन्ने हो गये, मानो दफ़्तर का बॉस आ गया हो। पालीवाल साब को यह सब  विचित्र लगा।
‘‘गुड इवनिंग...हाउ आर यू सर ? वेरी कोल्ड। हाउ इज़ बिजनेस एंड फेमिली ?’’
पालीवाल साब अपने को एकाएक व्यर्थ महसूस करने लगे। अपने प्रति देसाई जी की उदासीनता उन्हें दुविधा में डाल रही थी। शिष्टता से विदा लेकर वे बाहर निकल जाना चाहते थे पर देसाई उन्हें इतना भी अवसर नहीं दे रहे थे। वे ग्राहक की ख़ुशामद में पूर्ण तन्मयता से व्यस्त थे। उस वक़्त देसाई जी के लिए वे वहाँ थे ही नहीं। अभी तक शब्दों की गर्मी से कांच के अंदर का हिस्सा अपने देश का अंश लग रहा था। एकाएक वह विषाक्त हो उठा, अजनबी गैस के प्रदूषण से ग्रस्त उनका दम घुटने को हो रहा था।

अंग्रेज़ ग्राहक सामान लेकर गेट की तरफ मुड़ा। देसाई जी उसे छोड़ने के लिए दरवाज़े तक आये। पालीवाल यह अवसर चूकना नहीं चाहते थे। परंतु देसाई जी से विदा लेना चाहते थे। बग़ैर बताये एकाएक बाहर जाना उन्हें अभद्रता लग रहा था। इससे पहले कि वे देसाई के चेतना क्षेत्र में घुस पाते, एक अंग्रेज किशोर  दुकान में सीटी बजाता हुआ घुसा। देसाई पूर्ववत विनम्रता की मूर्ति बन गये। पालीवाल साब की तरफ़ से सरासर विरक्त पालीवाल साब को अटपटा लगा। वे व्यर्थ ही मन में शिष्टता की ग्रंथि पाले हुए हैं, जबकि सामने वाला जानबूझ कर धृष्टता की सीमाओं के उस पार डरा हुआ था। उनकी इच्छा हुई कि वे एक ही झटके में बाहर निकल जायें, जो होगा, देखा जायेगा, किंतु कुछ ऐसा आकर्षण था जो रोके हुए था। आसपास की स्थिति कौतूहलमय प्रतीत हो रही थी। उनकी बातचीत और किशोर के तेवर उन्हें विचित्र लग रहे थे। अनुभव पाने का लालच उनमें पैदा हो गया। देसाई की हालत कुछ ऐसी थी मानो वे किसी रईस शाहज़ादे की चाकरी में तैनात हो दो तीन बार उन्हें ‘पाकी’ शब्द सुनायी पड़ा। किशोर के मुंह से देसाई के लिए यही संबोधन निकल रहा था।
किशोर से निवृत्त हो कर देसाई ने चैन की सांस ली, मानो कोई बड़ा बोझ उतर गया हो।

उतावलेपन से पालीवाल का हाथ पकड़ते हुए देसाई बोले, ‘‘माफ़ करना ब्रदर, यहां ऐसे ही इनकी लल्लो-चप्पो करनी पड़ती है। समझ लो, तलुवे चाटने पड़ते हैं वरना यहां धंधा चलाना मुश्किल हो जाये।’’
‘‘आप पाकी कब से हो गये ?’’
‘‘ये छोकरे हर एशियन को पाकी यानी पाकिस्तानी कहते हैं और उनसे घृणा भी करते हैं। सोचते हैं, एशियंस उनके देश की सारी संपत्ति और उनके हिस्से के ऐशोआराम हड़प रहे हैं जबकि यह नहीं देखते कि हम लोग रात-दिन मेहनत करके धंधा चलाते हैं....उनकी तरह शाम होते ही दुकान बंद करके क्लबों या नाचघरों में नहीं चले जाते। ख़ैर छोड़िए...अपनी बताइए।’’

‘‘बस ठीक है, उल्टी गिनती गिन रहें हैं..वापसी के लिए।’’
‘‘अब तो आपके लौटने का समय आ रहा है, ब्रदर.....एक बार हमारे यहां घर पर आओ खाने के लिए....कब आयेंगे?
‘‘इसकी क्या ज़रूरत है ? यों आऊंगा ज़रूर पर खाना रहने दीजिए,’’ ऊपर से औपचारिकता ओढ़ने का प्रयत्न किया पालीवाल साब ने।
‘‘मेरी बीवी अच्छा देशी खाना बनाती है, जब आप आयेंगे तो इतमीनान से काफ़ी बातें हो सकेंगी...क्यों नहीं इसी संडे को आ जाते..फिर आपको शायद समय न मिले।’’
‘‘ठीक कहते हैं आप। अब मेरा प्रवास आखिरी सांसें गिन रहा है। निमंत्रण के लिए शुक्रिया। मैं ज़रूर आऊँगा।’’
‘‘यह रहा मेरा पता.....’’ एक स्लिप पर देसाई ने अपना पता लिख कर दे दिया-‘एक सौ दस, ब्रांड स्ट्रीट।’


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