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ऐसी थी बरसात की रात

उमेश माथुर

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5455
आईएसबीएन :81-7463-013-9

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उमेश की कहानियाँ फिल्म और बम्बई के तज्रिबों से भरी हुई हैं

Aisi Thi Barsat Ki Rat a hindi book by Umesh Mathur - ऐसी थी बरसात की रात - उमेश माथुर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कई रोज़ तक एक एक अफसाने के जादू में खोया रहा। ‘ऐसी थी बरसात की रात’ और ‘धुंधली तस्वीरें’ आम पहुँच से हट कर लिखी कहानियाँ हैं जिनमें बहुत खूबी से भाव और भाषा के जौहर खिलते हैं।
राम लाल
(साहित्य आकदमी पुरस्कार प्राप्त)

मैं उमेश माथुर को दाद देता हूँ कि उनके फ़न में एक सादगी है जो दिलचस्पी के तार को टूटने नहीं देती। उन्होंने अपनी कहानियों के प्लॉट काफी हद तक ज़िंन्दगी के सच्चे वाक़्यात से लिए हैं। मैं उनसे मजा़क भी किया करता हूँ कि ये अफसाने आपने कहां लिखे हैं, ये तो कुदरत ने लिखे हैं। आपने तो सिर्फ रिपोर्टें ईमानदारी से लिखी हैं। लेकिन रिपोर्टें ईमानदारी से लिखी हैं इसलिए उनमें असर है।
कमर जलालाबादी

‘ऐसी थी बहसात की रात’ में कुछ अफसानों में मुझे वही रस मिला जो प्रेमचंद की कहानियों में था।
निदा फ़ाज़ली

ऐसी थी बरसात की रात


एक चीज़ होती है, कुड़कभिच्ची। जब मुर्ग़े की टाँग उसमें फँस जाती है तो निकालने की लाख कोशिश करे-उछले, कूदे, फुदके, फड़फड़ाए या अपने टेंटवे से तरह-तरह का कुड़कुड़ाए, टाँग फँस गयी।
वही हालत अफसाना निगार की होती है, जब वह कहानी में फँस जाता है। लेकिन अफसाना निगार की टाँग नहीं फँसती, गुच्ची फँस जाती है-गर्दन ! कहानी में, किरदार में, सिच्युएशन में, लोकेशन में !

फिल्मों की देन तज्रिबा भी है, मुशाहिद (देखना) भी। खास तौर पर अफ़साना निगार के लिए। इन्सान ज़रा-सा हस्सास हो तो फिल्मों के माहौल में हर दिन नया दिन होता है। हर रात नयी रात ! सोसायटी का क्रास सेक्सन इतना कुछ देखने के लिए देता है कि एक ज़िंदगी में कई ज़िंदगियां जीने को मिल जाती हैं।
उमेश की कहानियाँ फिल्म और बम्बई के तज्रिबों से भरी हुई हैं। वो हेलन हो या बट, या कैफी या शास्त्री-उमेश के अफ़सानों से गुज़रते हुए अक्सर लगता है कि आप बम्बई की डबल डैकर के ऊपरले हिस्से पर बैठे सफर कर रहे हैं। जहाँ से नीचे चलते लोगों को यह खयाल नहीं आता कि कोई अफ़साना निगार उनके साथ रहते हुए भी उन्हें सर के ऊपर से देख रहा है।

हाँ, ‘कुड़कभिच्ची’ अफ़साना पढ़ते हुए एक बेचैनी भी होती है। मैं तो सिर्फ फिल्मों के हवाले से ही जानता था उमेश को, यह बदायूँ और बिजनौर के माहौल में कब रहे ? उन कस्बी शहरों के एलेक्शन कब देखे उन्होंने !
‘ऐसी थी बरसात की रात’ निहायत पुरअसर और इफेक्टिव कहानी है। कहानी पढ़ते-पढ़ते बारिश की सीलन महसूस होने लगती है। बम्बई की ज़बान उमेश ने सनद के तौर पर रख दी है। इतनी मौजूँ (मुनासिब) ज़बान एक ही जगह के बहुत से किरदारों के साथ लिखना मुश्किल काम था। लेकिन आख़िर का अलमियः (दुःख) बम्बई की बरसात का नहीं, बम्बई के सूखे रिश्तों का अलमियः है।

मौजूअ (विषय) ज़बान के अलावा, उमेश ने एक और कमाल का काम किया है। फॉर्म और हैरत (रूप) के इलाके में। कहानी तोता मैना की निहायत माडर्न इरिज़ाराआ (अविष्कार) है। ऐसी दास्तानी फार्म में, आज के वक़्त और समाज की कहानी कहना, एक बहुत ही खूबसूरत काम है। उसके लिए उन्हें दाद देता हूँ।
उनकी कोई भी कहानी सतही तौर पर सोची या गढ़ी हुई नहीं लगती। हर कहनी से तजिब्रे का रस टपकता है।

दो शब्द

हमने बचपन में दादी और नानी से जैसे कहानियाँ सुनी थी, वैसी कहानियाँ न अब सुनने में आती हैं, न पढ़ने में। नया अफ़साना जो हमारी ज़बान में रूस, फ्रांस और इंग्लिस्तान में आया, वह पंचतंत्र और अलिफ़लैला की कहानियों से बहुत मुख्तलिफ़ था। इसका सबसे बड़ा फर्क़ तो यही था वो जिनों, परियों की दुनिया से निकलकर इंसानी ज़िंदगी की तर्जुमानी करने लगा।

प्रेमचंदजी और उनके समकालीन लेखकों ने पश्चिमी अफ़साने का हिंदुस्तानीकरण करके अपने पीछे अफसानों का जैसा ज़खी़रा छोड़ा और हमारी ज़बान को मालामाल किया, नया अफ़साना बहुत दिनों तक उसी डगर पर चलता रहा। लेकिन नये पन के रूझान ने बदलते समय का प्रतीक बनाते-बनाते नग्मा बना दिया। मेरे अजीज दोस्त और साथी जनाब उमेश माथुर, जो उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं पर यकसां कुदरत रखने और दोनों जबानों के अफसानवी अदब का बाक़ायदा अध्ययन करते रहते हैं। उनके अफ़साने पढ़ते हुए मुझे बिल्कुल दिमाग़ी वर्जिश नहीं करनी पड़ी। उनके कुछ अफसानों में मुझे वही रस मिला जो प्रेमचंद और उनसे प्रभावित लेखनी में था।

उर्दू-हिंदी ब्लिट्ज जब निकलना शुरू हुआ था, उन दिनों उमेश माथुर उर्दू, हिंदी ‘ब्लिट्ज में उनका भी ज़माना था’ के शीर्षक से फिल्मी कलाकारों से मुलाकात करते और उनकी कहानियाँ लिखा करते थे। मैं उन अखबारी रजाकों को बड़े शौक से पढ़ा करता और अक्सर एडीटर मुनीश सक्सेना से कहा करता था कि देख लेना, उमेश बहुत जल्दी अफ़साने लिखेंगे। आज जब ‘ऐसी थी बरसात की रात’ के नाम से माथुर साहब अपनी कहानियों का संग्रह प्रेस के हवाले कर रहे हैं तो पेशीनगोशी के सच साबित होने की भी खुशी और कहानी संग्रह के प्रकाशन का भी आनंद मिल रहा है।

माथुर साहब ने कुछ फिल्मी कहानियाँ भी लिखी हैं। लेकिन हमारे फिल्म साज़ों ने अब तक फिल्मी कहानियों को इतनी अहमियत नहीं दी कि हमारी फिल्मी कहानी को भी साहित्य में शुमार किया जाता। मुझे बड़ी खुशी होगी कि अगर माथुर साहब अपनी फिल्मी कहानियों को भी कभी छपवाएँ।

कुड़कभिच्ची

एक चीज़ होती है कुकड़भिच्ची। जब मुर्गे की टांग उसमें भिंच जाती है तो निकालने की लाख कोशिश करे-उछले, कूदे, फुदके, पंख फड़फड़ाये या अपने टेंटवे से तरह तरह का कुड़कुड़ाए। टांग भिंच गयी तो भिंच गयी। अंग्रेज़ों का जमाना देखे, कलक्टर महेन्द्रपाल बेदी जब कठिन परस्थिति के संकट में घिर जाते हैं और उनमें से निकलने का कोई मार्ग सुझाई नहीं देता तो अकस्मात् उनके मुंह से निकल पड़ता है-‘कुड़कभिच्ची’।

‘कुड़कभिच्ची’ तकिया कलाम की शुरूआत कब और किन हालात में हुई, इसके बारे में हर सरकारी फाइल चुप्पी साधे है। लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि कलक्टर महेन्द्र बेदी का तबादला बदायूं से बिजनौर हुआ वहां की समस्याओं और वहां के लोगों से वास्ता पड़ा तो दिन में दस-दस बार सिर घूम जाता। आंखों के आगे नाचने लगते पटबीजने। छा जाता अंधेरा ही अंधेरा।

अंधेरे में ठोकरें खाते कलक्टर महेन्द्रपाल बेदी के हाथ लग गयी है एक अति आधुनिक टार्च और वे लाइट के गोल घेरे में जा रहे हैं बिजनौर जनपद में जतिपुरा के एक-एक अद्भुत पात्र को। सबसे पहले जिसके चेहरे पर रोशनी पड़ती है, वे हैं ठाकुर मेहताब सिंह, जो ख़ानदानी ज़मींदार हैं मगर कहते हैं अपने आपको फ्रीडम फाइटर। स्वतंत्रता के बाद ज़मींदारी उन्मूलन हुआ लेकिन ठाकुर मेहताब सिंह की ज़मीन और खेत बने रहे। उसमें बंधुआ मजदूर पहले की भाँति धरती की बुआई, जुताई और कटाई करते रहे।

जतिपुरा की सड़क के मोड़ पर मेहताब सिंह शुगरमिल है जहां आसपास के किसान बाजार के भाव पर नहीं बल्कि उनके लगाए दाम पर अपना गन्ना देकर जाते हैं। एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि किसी ने अधिक लाभ के इरादे से अपने गन्ने की गाड़ी किसी दूसरे के चीनी मिल में पहुंचाए तो पले हुए लठैतों ने ऐसा पाठ पढ़ाया कि तीन पीढियां याद करें। सताये किसानों ने पुलिस में फरियाद करनी चाही तो उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गयी। शायद इसलिए कि ठाकुर मेहताब सिंह केवल शुगर मिल के मालिक ही नहीं बल्कि विधान सभा के सदस्य भी हैं।

कहा जाता है कि विधायक मेहताब सिंह की अपनी पत्नी अन्नपूर्णा देवी से कभी नहीं बनी। इसलिए कि वे आर्य समाजी विचारों की सुशिक्षित महिला थीं, जो अपने बेटे नाहर सिंह को चार वर्ष का छोड़कर मैके चली गयीं और उन्होंने दूसरे बेटे को जन्म दिया, लिखाया-पढ़ाया और बड़ा किया। मृत्यु से पूर्व जब अन्नपूर्णा देवी से पूछा गया कि पति को बुला दें तो उन्होंने ‘नहीं’ में गर्दन हिला दी। लेकिन जब कहा गया बड़े नाहर सिंह को खबर कर दें तो उनके मुखमंडल पर एक दिव्य आभा गयी और उन्होंने ‘हां’ कर दी।

नाहर सिंह ने अपनी मां की चिता में आग दी और तेरहवीं करने के बाद अपने छोटे भाई अर्जुन सिंह को लेकर जतिपुरा आ गया। अर्जुन सिंह ने अपने मामा और मौसा के मुंह से अपने पिता के ठाट-बाट, धन दौलत और ज़मीन-जायदाद के बारे में जो कुछ सुना था, उससे भी कहीं ज्यादा पाया। अर्जुन सिंह ने अपनी खुशमिजा़जी और नेकदिली की वजह से अपने बड़े भाई के हृदय में ऐसा स्थान बनाया, जैसे कि वर्षों से साथ साथ हैं। मगर नाहर सिंह का एक और रूप था जिसे अर्जुन नहीं जानता था। नाहर सिंह हद दर्जे का अय्याश था। सर्किट हाउस को उसने अपनी अय्याशी का अड्डा बना रखा था। जहां नामी नेताओं और खुर्राट अफसरों के साथ गाने-बजाने और ह्विस्की के दौर चलते। शायद इसीलिए कहा जाता है कि आगे आने वाले वक़्त में बेटा अपने विधायक बाप से भी ज़्यादा ऊपर जएगा।

जतिपुरा में जहां नाहर सिंह जैसा स्वार्थी और चालबाज है, वहीं अत्यंत भावुक लोक-नायक ऋतुराज पर इतना भरोसा है कि वह औरतों के जमघट में भी तीज-त्यौहार के गीत गाने बैठ जाता है।
ऋतुराज का कहना है-दुनिया में झगड़े की जड़ तीन हैं, जर, जमीन, और जोरू। उसके पास तीनों में से कोई नहीं इसलिए उनका किसी से झगड़ा नहीं, कोई दुश्मन नहीं। वह गाना सुनाने का किसी से कुछ नहीं लेता और न पैसे को हाथ लगाता है।
मगर जो सम्मानपूर्वक घर बुलाकर भोजन कराता है, उसके यहां चला जाता है और गाने के बोल में दे आता है आशीर्वाद।
इसी गांव में एक नवयुवक है सूरज। जो बचपन में अनाथ हो गया था, मगर शुरू से लिखने-पड़ने का उसे ऐसा चाव रहा कि रास्ते की लालटेन के नीचे पढ़-पढ़कर तो बी.ए. की तैयारी कर रहा है और साथ ही रेलवे स्टेशन से अखबार लाकर घर-घर पहुंचाता है। विधायक मेहताब सिंह की सिफ़ारिश पर बरेली, आगरा और झांसी से प्रकाशित होनेवाले ‘जयहिंद’ दैनिक का वह संवाददाता बना दिया गया है। चूंकि सूरज का संबंध पत्रकारिता से है और अर्जुन की रूचि दिल्ली तथा बम्बई के नवीनतम मासिक और साप्ताहिकों में है इसलिए दोनों की निकटता बढ़ती जाती है। लेकिन शुरू में सूरज भी अर्जुन से खिंचा-खिंचा रहता था और यही समझता कि अर्जुन चूंकि नाहर सिंह का भाई है इसलिए वह भी नाहर सिंह जैसा ही हो होगा।

सूरज साइकल पर स्टेशन से अखबार के बण्डल लेकर आता है तो रास्ते में कुर्मी किसान पुन्ना की नवजौवान बेटी रधिया हर रोज गन्ने के खेत से निकलकर उससे एक ही प्रश्न पूछती है-‘‘क्यों जी, के टाइम हुआ होगा ?’’ सूरज स्वाभाव से उसको सही टाइम बता देता है। लेकिन एक दिन सूरज साइकल से उतरकर उसके करीब गया और कहा- ‘‘क्यों जी, ये जो रोज-रोज तू टाइम पूछती है तो करती क्या है ?’’ उसपर राधिया हंस दी और हंसती रही। सूरज खड़ा-खड़ा देखता रहा।
इसी बीच विधायक मेहताब सिंह ने अपने छोटे बेटे अर्जुन को शुगरमिल का कारोबार सौंप दिया और बड़े बेटे को राजनीतिक अखाड़े में उतारने की तैयारी करने लगे। अर्जुन शुरगमिल का काम-काज संभालने के बाद यह देखकर आश्चर्यचकित होता है कि एक ओर तो सरकार बंधुआ मज़दूरी समाप्त करने का दावा कर रही है और दूसरी ओर एक विधायक के व्यापार में बंधुआ मज़दूरी अपनी पराकाष्ठा पर है। वह यह देखकर भी चौंकता है कि किस तरह लाठी और गुण्डागर्दी के बल पर किसानों से मिल के लिए कौड़ियों के मोल गन्ना छीन लिया जाता है और वे बेचारे चूं तक नहीं कर पाते। वही मसल है जब्बर मारे और रोने न दे।

उधर दैनिक ‘जयहिंद’ के प्रधान संपादक ने सूरज को आगरा बुलाकर डांट लगाई कि हमें अपने अख़बार के लिए जतिपुरा के केवल सांस्कृतिक समाचार ही नहीं बल्कि ऐसे तथ्य भी चाहिए, जो सच्चाई सामने रखकर पाठकों को चौंका देनेवाले भी हों। जैसे कि जतिपुरा के बंधुआ मज़दूरों की दुर्दशा, किसानों के साथ गुण्डागर्दी और हरिजन तथा अनुसूचित जन-जाति के विकास में सरकारी रुपयों के साथ विधायक की धांधली। अब सूरज के सामने यह उलझन थी कि जिस दैनिक में विधायक के कहने पर रिपोर्टिंग का काम मिला है, उसमें उनके ख़िलाफ़ कैसे क़लम उठाये ? लेकिन अंदर की बात यह थी कि काफी दिनों से ‘जयहिंद’ के मालिकान सेक्सरिया ब्रदर्स और विधायक मेहताब सिंह की आपस में ठन गई है और वह एक बार फिर पंडित दीनानाथ को ठाकुर मेहताबसिंह के विरूद्ध खड़ा करना चाहते हैं, जो कई बार चुनाव में उनसे हार चुके थे।
उन्हीं दिनों कुर्मी किसान पुन्ना अपनी बेटी रधिया की शादी के लिए रुपया जमा करने की ठानता है और अपना गन्ना उचित मूल्यों पर बेचने के विचार से रातोंरात गांव से बाहर निकल जाता है। दूसरे शुगरमिल से पुन्ना को भारी रक़म मिलती है। लेकिन जब वह अपनी बैलगाड़ी में लौट रहा होता है तो पेड़ से कूद-कूदकर गुण्डे उस पर टूट पड़ते हैं और सारी रक़म छीनकर, कर देते हैं बुरी तरह जख़्मी। पुलिस में क्या होगा, यह सब जानते हैं। इसलिए कलेजा पकड़कर बैठने के सिवा और कोई चारा नहीं। चूंकि घायल रधिया का बाप हुआ था इसलिए वह रिपोर्टर सूरज के पीछे पड़ जाती है-‘‘कुछ करो जी...कुछ करो...तुम कैसे रिपोर्टर हो ? क्या सिर्फ नाम ही नाम के।’’

रिपोर्टर सूरज हालात का सही खाका खींचकर ‘जयहिंद’ को भेज देता है। छपने के बाद नाहरसिंह पढ़ता है तो बिगड़ उठता है-‘‘स्साला, हमारे टुकड़ों पर पलनेवाला हम पर भौंकता है...’’

विधायक मेहताब सिंह उसे शांत रहने को कहते हैं और दूसरे दिन सूरज को अपने कर्यालय में बुलाकर बोले-‘‘वाह बेटे वाऽऽ...कलम के सिपाही को हमेशा बेधड़क और निडर होना चाहिए...हम तुम्हारी लेखनी पर तुम्हें हार्दिक बधाई देते हैं।’’
लेकिन दूसरे दिन सूरज जब साइकल पर स्टेशन से अख़बार लेकर लौट रहा होता है तो मुंह पर फेंटा बांधे लठैत उस पर टूट पड़ते हैं। इसे संयोग ही कहा जायेगा कि सुबह की सैर करता हुआ अर्जुन उधर से आ निकलता है तो लठैत उसे देखकर भाग जाते हैं। लेकिन हमला करनेवाले थे कौन, यह राज़ बना रहता है। यह घटना सूरज और अर्जुन की निकटता को मित्रता में बदल देती है। दोनों साथ-साथ घूमने-फिरने निकल जाते हैं। और तरह तरह के लोगों से मिलते और दबे-छुपे शब्दों में यह भी सुनते हैं कि उस क्षेत्र में फैले हुए आतंकवाद के पीछे अर्जुन के बड़े भाई का खूंनी पंजा और विधायक-पिता का हाथ राजनीतिक हाथ है। अब अर्जुन के सामने यह सवाल उठता है कि ऐसे हालात में वह क्या करे ? उसे संस्कार मिले थे अपनी मां से और नाना से जिनके आदर्श पुरुष थे स्वामी दयानंद और यहां किसी का कोई आइडियल नहीं। हालांकि हवेली के हर कमरे में लगे हैं महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, डांगे और अम्बेडकर के क़द आदम इंलार्जमेंट।

उन्हीं दिनों अर्जुन को आगरा यूनिवर्सिटी की क्लासमेट रोजी़ मार्टन का एक पत्र मिलता है जिसमें लिखा है-‘तुम्हें तो मालूम है, मेरे डैडी अमेरिकन टेलीविजन के रिपोर्टर हैं। डैडी जतिपुरा के पंडित दीनानाथ से संबंध बनाये रखने क़ लिए उन्हें कई बार ख़त भेज चुके हैं लेकिन एक का भी जवाब नहीं आया। हो सकता है कि ख़त उन तक पहुंचे न ही न हों। इसलिए मैं तो डैडी का एक ख़त तुम्हारे लिफा़फे में रख रही हूं। मेहरबानी करके पहुंचा देना।’ अर्जुन को याद आया है ऐंग्लो इंडियन रोजी़ मार्टन के साथ मिलकर छात्र-छात्राओं की रैगिंग पर उन्होंने काबू पाया था। तभी यह भी जाना था कि अंग्रेज़ों को यहां से गए हुए हालांकि सालों गुजर चुके हैं मगर गोरी चमड़ी का भय बड़ों के खून में से होता हुआ छोटों तक पहुंच चुका है।

अर्जुन अपने बड़े भाई नाहर सिंह से कहता है कि वह पंडित दीनानाथ से मिलवा दे। यह सुनते ही नाहर सिंह पहले तो चौंकता है और फिर अपने पिता के राजनीतिक विरोधी का ऐसा ख़ाका पेश करता है जिससे अर्जुन को पंडित दीनानाथ से नफ़रत हो जाए और वह उनसे मिलने का ख़याल छोड़ दे। लेकिन अर्जुन को तो रो़ज़ी मार्टन का काम अंजाम देना था इसलिए वह रिपोर्टर सूरज की सहायता से उन तक पहुंच जाता है। भेंट और बातों के बाद अर्जुन को पंजित दीनानाथ में ऐसा कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता जो उनसे दूर रहा जाए।

दोनों के मेल-मिलाप की कड़ी बनती है पंडितजी की बेटी सरस्वती। दस-बारह वर्ष की सरस्वती ने जब पहली बार अर्जुन को देखा तो उसे लगा-जिसे मरे हुए भाई गोविंद की फोटो के आगे वह हर साल रोली, चावल और रक्षाबंधन के दिन राखी रख देती है, क्या वह जिन्दा हो गया ?...आंखें गीली होने लगीं। कभी वह गोविन्द की फोटो देखती है, कभी अर्जुन को। दोनों की शक्ल-सूरत में अविश्वसनीय समानता। भाई के लिए बहन की भावात्मक उलझन। अर्जुन की तो कोई बहन थी नहीं। पहली बार बहन-भाई के पवित्र संबंध का अभास होना था कि आप ही पहले दिल भरा, फिर आंखें।

आश्चर्य हुआ। मां की मृत्यु पर जो आंखें अनासक्त और ज्ञानी आंखें बनी रहीं वे कैसे छलछला गयीं। दुखी दीनानाथ भी हुए मगर साथ ही सोचते-सांप के घेरे में तो सपोला पैदा होते हैं, यह हंस कहां से पैदा हो गया। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
नाहर सिंह की जूठन चाटनेवालों ने उसके कानों में यह खबर पहुंचा दी की कल कितने बजे क्या-क्या बातें हुई। कितने बजे उनकी बेटी ने अर्जुन को भैया कहा और कितने बजे भाई-बहन के संबंध स्थापित होने की खुशी में गांववालों का मुंह मीठा कराया गया।

कड़कती सर्दी में पूस की अंधेरी रात। गन्ने के खेत की मड़ैया में सोए कुर्मी पुन्ना को चारपाई समेत उठवा लिया और सुनसान भैरों के टीले पर हाज़िर कर दिया नाहर सिंह के सामने-‘‘क्यों बे, कुर्मी भिखारियों की औलाद पुन्ना, तू कहां का धन्नासेठ हो गया जो मिठाई बांटता फिरता है ?’’

पुन्ना ने कुछ कहना चाहा तो शुरू हो गयी उसकी कुटाई। इरादा था उसके दिल में केवल भय उपजाने का। लेकिन उसपर भरपूर हाथ पड़ा भरपूर फरसे का। खून के छींटे उड़े और अंधेरे में जा पड़े ऋतुराज के पांव पर जो उस समय माता के मन्दिर से देवी की भेंट गाकर लौट रहा था। नाहर सिंह ने यह भी जान लिया कि इस दर्दनाक क़तल का चश्मदीद गवाह ऋतुराज है।

कुर्मी पुन्ना की लाश उसी चारपाई पर, उसी की मड़ैया में, उसी के खेत पर फिंकवा दी गयी। जैसे कि जंगली जानवर भभोड़ गया हो। उसी सुबह पूरे जतिपुरा में यह ख़बर फैल गयी कि जो ऋतुराज गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले बदलती ऋतु और त्यौहार के गीत गाया करता था, उसकी ज़बान किसी ने काट ली है और वह हमेशा को गूंगा हो गया है।

सूरज ने कुर्मी पुन्ना की मौत और ऋतुराज के गूंगा होने की रिपोर्टिंग में शक की सुई घुमाई नाहर सिंह और उसके विधायक पिता पर। साथ ही सरकारी जांच की मांग की। अर्जुन को यह सब बात बुरी लगी-‘‘बिना किसी सबूत के क़लम नहीं उठानी चाहिए।’’

मगर वह तो उठा चुका था और नतीजा हुआ, सारे राज्य में खलबली मच गयी। मंत्री महोदय अपने पूरे ताम-झाम के साथ जतिपुरा आए और करकिट हाउस में प्रतीक्षा करने लगे उन लोगों की जो विधायक के विरूद्ध ज़बान खोलने के इच्छुक हैं। लेकिन जो अपने दिल की बात कह सकते थे, उनकों पहले ही गाय-भैसों के तबेले में भेड़-बकरियों की तरह ठूंस कर अलीगढ़ी ताला लगवा दिया गया था। विधायक मेहताब सिंह ने अपनी हवेली में मंत्री महोदय को प्रीतिभोज दिया और साथ ही उनसे यह वचन भी ले लिया गया कि वे आनेवाले चुनाव के लिए नाहर सिंह की पार्टी का टिकट दिलवा देंगे।

इस घटना की जैसी रिपोर्टिंग ‘‘जयहिंद’ में छपनी थी, वैसी नहीं छपी। कारण कुछ भी हो। लेकिन एक शाम राधिया ने रोते-रोते अर्जुन के पांव पकड़ लिए-‘‘छत्तीस घंटा से भी ऊपर होने को आए, जतिपुरा के बीस-बीस कोस तक ढूंढ़ मचवा ली। स्टेशन पर सूरज के नाम से आए अखबार का ढेर ऊंचा से ऊंचा हुआ जा रहा है सूरज का कहीं पता नहीं।’’
अब तो अर्जुन को यह बात कचोटने लगी कि आखिरी मुलाक़ात में रिपोर्टिंग को लेकर सूरज के साथ उसकी कहा-सुनी हुई थी। वह रधिया को अपनी जीप में बिठाकर सीधा कचहरी पहुंचा और मिला कलक्टर महेन्द्रपाल बेदी से।

कलक्टर महेन्द्र पाल बेदी जतिपुरा में आए दिन के खून-खराबे और आतंकवाद के विषय में पहले बहुत कुछ सुन चुके थे। इसलिए अर्जुन से मिलकर उनके मन में मंडराने लगा एक वाक्य-‘देखो अर्जुन, तुम्हारा मेरे पास आना, अपने बड़े भाई और अपने पिता की काली करतूतों के ख़िलाफ़ क़दम उठाना है।’ लेकिन वो कह नहीं सके और उनके मुंह से फिसल गया-‘‘कुड़कभिच्ची !’’

कलक्टर महेन्द्रपाल बेदी ने रिपोर्टर सूरज का फोटा लखनऊ टी.वी पर ‘गुमशुदा की तलाश’ प्रोग्राम में दिखाने को भेजा और वह दिखाया भी गया हर रोज़ शाम को-लेकिन महीना होने को आया, कोई यह नहीं बता सका कि हमने सूरज को कहां देखा और न सूरज ही लौटकर आया।

अर्जुन पंडित दीनानाथ से मिलता है और उसे यह पता लगता है कि आज़ादी के बाद पंडित दीनानाथ हमेशा ठाकुर मेहताब सिंह के ख़िलाफ़ चुनाव में ख़ड़े होते रहे और वह गुण्डागर्दी, बूथ कैप्चरिंग और वोटों की धांधली की वजह से हारते रहे। पिछली बार वे चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे लेकिन जवान बेटे गोविंद के कहने से खड़े हुए मगर चुनाव से आठ दिन पहले बेटे का ट्रक से ऐक्सीडेंट हुआ और वह मर गया। तब से उन्होंने निश्चय किया कि अब चुनाव में खड़े नहीं होंगे। अपना अधिक समय सरस्वती को लिखाने-पढ़ाने और उसे बेटी से बेटा बनाने में लगायेंगे।

इसी दौरान अंग्रेजी दैनिक ‘उत्तर प्रदेश टाइम्स’ की ओर से रिपोर्टिंग के लिए मिस रोजी़ मार्टन को जतिपुरा भेजा गया। हालांकि वह जानती थी कि ‘जयहिंद’ के रिपोर्टर याने अर्जुन के मित्र सूरज का क्या हश्र हुआ परन्तु वह ऐंग्लो इंडियन बाला किसी से डरती नहीं थी। नाहरसिंह ने जब खेत-खलिहानों, गली-कूचों और कीचड़-गोबर से भरे रास्तों पर आते-जाते गोरी मेम को देखा तो उसे अपने निकट लाने या उसके निकट जाने का दिल हुआ। बाप ने भांप लिया तो बेटे को पास बिठाकर बड़े धीरज से समझाया

कि इन दिनों लोगों की उगलियां उठनेवाला कोई काम नहीं होना चाहिए। वह पार्टी का टिकट दिखाकर अपने सिर का ताज अपने बेटे के सर पर रखना चाहते हैं। पार्टी के टाप मेम्बरों का भी यही कहना है-‘पिता से अधिक विद्वान् पुत्र है।’
विद्वान् तो छोड़िये विद्या के नाम पर नाहरसिंह कोरा लट्ठ था। मगर सम्भवतः गणतंत्र की सुरक्षा के लिए चुनाव के मैदान में सफलता की सीढ़ियां चढते हैं ऐसे ही लट्ठ और लफ़ंगे।

नाहर सिंह को पार्टी का टिकट मिल गया और वह खड़ा हुआ एलेक्शन में। उसे पूर्ण आशा थी कि वह निर्विरोध चुन लिया जाएगा। लेकिन रोज़ी मार्टन ने पूरे क्षेत्र का दौरा करके लोगों के हृदय में दबी चिनगारियों को भड़काया। पंडित दीनानाथ को सुझाव दिया कि वह जनता के कल्याणर्थ नाहर सिंह के विरूद्ध खड़े हो जाएं। रोज़ी मार्टन वर्चस्वान पिता की पुत्री थी और यह भी जानती थी कि लोकल पुलिस और क्षेत्रीय अधिकारियों के होते हुए भी पंडित जी नहीं जीत सकते, इसलिए उसने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर तथा अग्रलेख और सम्पादकीय टिप्पणियां लिखवाकर ऐसी जमीन तैयार कर दी है कि केन्द्र से परेशान पुलिस और स्पेशल चुनाव ऑफिसर जतिपुरा आएं, ताकि चुनाव में किसी तरह की गुण्डागर्दी और वोटों की धांधली न हो सके।

चुनाव की तैयारियां किसी मेले-ठेले और ब्याह-शादी से कम नहीं।
विधायक मेहताब सिंह की हवेली के बाड़े में तम्बुएं, छोलदारियां और कनातें लग गई हैं। भट्टी खुद गई हैं-हलवाई कढ़ाव से तलतल कर निकाल रहे हैं समोसे, कचौरी और इमरती। आने वाले चाय पीना चाहें चाय पिएं, ठंडाई पीना चाहें ठंडाई।

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